SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जरा-सोचिए ! १. धर्मलाभ और धर्मवद्धि : प्रति भावना भाएं-'सद्धर्मबुद्धिर्भवतु।' और यह इसलिए स्वामी समन्तभद्राचार्य की 'बोजाऽभावे तरोरिव' कि ऐसे मुनियों में अभी धर्म के ठीक बीज होने की संभावना है और वे बीज, वृक्षरूप में बढ़ सकते हैं। अन्यथाबीज के अभाव में वृक्ष की भांति । इस उक्ति को प्रस्तुत करते हुए एक सज्जन ने विचार दिए कि : अब तो कतिपय मुनियों में शिथिलाचार पनपने की सभी जानते हैं कि वृक्ष की उन्नति तभी होती है जब बात कतिपय कट्टर मुनिभक्त भी करने लगे हैं। उन्होंने मूल में बीज हो । पर, अब ऐसा मालूम देता है कि वर्त- कहा-हमारे पास कई ऐसे पत्र सुरक्षित हैं (उन्होंने हमें मान आविष्कारों के युग मे स्वामी समन्तभद्र के वाक्यों कई मनीषियों के तत्कालीन कई पत्र भी दिखाए) जिनमें को झुठलाने के प्रयत्न भी जारी हैं। बाज लोग धर्मरूपी मुनियों के शिथिलाचार सम्बन्धी अनेकों उल्लेख हैं। बीज के अभाव या मुरझाने मे भी 'धर्मवृद्धि' के स्वप्न वे बोले-आप इन्हें छापेगे? संजोने मे लगे हैं; पहिले उनमे आचाररूप धर्म स्थापित हमने कहा-यह तो मुनि-निन्दा है और मुनि-निन्दा तो करें। उदाहरण के लिए हमारे यहां मुनियो द्वारा एक के हम सख्त खिलाफ है। हम बरसो मुनि-चरणों में रहे वाक्य बोला जाता है-'धर्म बुद्धिरस्तु'-तुम्हारे धर्म में हैं, हम ऐसा करने को तैयार नहीं। बुद्धि हो। यह वाक्य मुनिवर उस जैन के प्रति बोलते हैं, बे बोले-आपको पत्रो के प्रकाशन में क्या आपत्ति जो उन्हें नमोऽस्तु अथवा बन्दन करता है। बड़ी अच्छी है ? पत्र तो दूसरो के है । बात है-आशीर्वाद और वह भी धर्मवद्धि का । पर, आज हमने कहा-कुछ भी हो, छापने में धर्म की हँसाई के युग रे जब हिंसा, झूठ, चोरी, परिग्रह रूपी पापो मे तो है ही। यदि पत्र छापने से सुधार की गारण्टी हो तो बढ़वारी सुनी जा रही है तब धर्म के बीज कितनो में हमे छापने में कोई आपत्ति नही। पर, छापने से सुधार सुरक्षित होगे ? शास्त्रो में पापों के एक देश त्यागी को ब्रती हो ही जायगा यह विश्वास कैसे हो? श्रावक कहा गया है और अष्ट मूलगुण धारण जैन मात्र खैर, बहुत चर्चा चली और हमने उनसे कुछ पत्रो की को अनिवार्य है। ऐसे में कितने जैन ऐसे है जिनके मात्र फोटो-स्टेट कापियां ले ली और कह दिया देख लेंगे। पत्र रात्रि भोजन का त्याग हो और बिना छना पानी न पीने वास्तव मे कट्टर धर्मश्रद्धालु मनीषियों के ही है। एक पत्र का नियम हो? कितनो मे धर्म के बीज ठीक है जिन्हें तो एक लेख के प्रति एक मुनिराज के उद्गारों का है। 'धर्मवद्धि' जैसा आशीर्वाद दिया जाय? वे बोले-हम तो लिखा हैसोचते है कि पापवृद्धि के इस युग मे धामिक नियम पालकों "आपने जैन समाज एवं साधुओं में जो शिथिलाचार के सिवाय, जिनके बीज मुरझा रहे हो-उन्हे 'धर्मवृद्धि' फैल रहा है इसको अंतरंग से प्रकट किया है। देखिए, जसा आशीर्वाद न दिया जाकर यदि धर्मलाभ' या 'पाप- नाराज तो होना ही नहीं किन्तु इसका दृढ़ता से प्रतिकार हानिर्भवतु' कहा जाय तो उपयुक्त जंचता है। वे आगे करना होगा। आपने पत्र में असली बातों को लिखा है। बोले-एक बात और है जो श्रावकोचित होगी। वह यह पैसा, प्रतिष्ठा और सत्ता में सभी पागल होने जा रहे हैं, कि-आज के वातावरण के देखते-सुनते हुए जब कतिपय निज धर्म को छोड़कर। इससे धर्म, समाज और साधु (क्वचित्) मुनियो में शिथिलता के प्रति लोगों में चिता परम्परा में समीचीनता नहीं रह रही है। एक नाम के व्याप्त है। तब धावकों का कर्तव्य है कि वे ऐसे मुनियों के पीछे धर्म और मागम-आर्ष-परम्परा का नाश कर रहे
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy