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जरा-सोचिए
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हैं। ठीक समय पर प्रतिकार कर स्थिर करना जरूरी है। सही) ऐसा वातावरण बन चुका है जो दिन पर दिन लाकुंदकंद आचार्य का मूलाचार और शिवकोटी आचार्य का इलाज होता जा रहा है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो भगवती आराधना ग्रन्थ उल्लंघन (कर) अपने प्रतिष्ठा को भंवर में पड़ी धर्म की नैया एक दिन अवश्य डब जायगीबढ़ाना चाह रहे हैं।"
इसमें सन्देह नहीं। इसी विषय की चिता एकाधिक कई विद्वानों में व्याप्त हमने देखा है कि कई जानकार किन्हीं के दोषों के है, उनके भी पत्र हैं । इस प्रसंग में एक चोटी के विद्वान के प्रति आपस मे कानाफूसी करते हुए भी खुलकर कहने की लेख को हम अभी पढ़े हैं उसके कुछ अंश इस प्रकार है- हिम्मत नहीं कर पाते । 'हमसे तो अच्छे हैं' सम्प्रदाय वाले
ठण्ड से बचने के लिए हीटर चाहिए, गर्मी सिर फोड़न तक को तैयार है। पराधीन या मुंह-देखी के ताप से बचने के लिए पंखा चाहिए, एक स्थान से दूसरे करने वाली कोई पत्रिकाएँ असलियत छापेगी क्यों? इस स्थान तक उनके परिग्रह को ढोने के लिए मोटरगाडी प्रकार जब सभी अोर से सुधार-मार्ग अवरुद्ध हो; तब क्यों चाहिए, ड्राइवर चाहिए । समाज इस सबका प्रबन्ध उनके न खुले ताण्डव को बल मिलेगा-जमा कि मिल रहा बिना लिखे-पढ़े ही करती है।"
है ? जरा सोचिए ! हम मुनि-निन्दा के भय से अन्य सगीन जैसे पत्रो को जानबूझकर नहीं छाप रहे । हो, यदि धर्म-मार्ग मे ऐसी
मार्ग दर्शन दें: भयावह स्थिति है तो अवश्य ही विचारणीय और प्रतीकार
हमने एक शोध-सस्थान की परिचय-पत्रिका मे पढ़ा हैके योग्य है। नेता यदि धार्मिक नेता है तो उन्हें और सभी "मनुष्य का हृदय एक अष्टदलाकार सुन्दर पुष्प के समाज को भी ऐसे सुधारों के लिए ठोस कदम उठाना समान है । भाषा उसका विकास है और भाव-लिपि उसकी चाहिए।
गध है। द्रव्यलिपि कामधेनु कल्पवृक्ष है। शब्द नौका है, हम यह निवेदन और कर दें कि हम जो कुछ उद्धरण अर्थ तटभूमि है। अतः अनादि सिद्धान्त के रूप में प्रसिद दे रहे हैं, सब उपगृहन और स्थितिकरण की भावना से एव सम्पूर्ण आगमों को निर्मात्री, भगवान आदिनाथ के धर्मवद्धि के लिए ही दे रहे हैं। कोई हमारे प्रति ऐसे भ्रम मुख से उत्पन्न वर्णमातृका का ध्यान करना चाहिए। में न पड़े या ऐसा ना ही समझे या कहे कि-मुनिपंथ में अर्थात् बारहखड़ी सीख कर शास्त्रों का अध्ययन करना से किमी की ओर से हमारा कोई बिगाड़ हुआ होगा या चाहिए।-धवला" हमारे किसी लाभ की प्राप्ति में किसी ने कोई बाधा दी प्राचीन शास्त्रीय मौलिकताओं, पुरातत्त्व. इतिहास होगी। हम तो सभी मुनियों के भक्त है और हमारी श्रद्धा आदि की खोजों के लिए स्थापित किसी शोध-संस्थान द्वारा मे विधि-विधान द्वारा दीक्षित शुद्ध-चारित्र पालक सभी खोजा हुआ; धवला से उद्धत उक्त अंश हमें बड़ा हदयमुनि, साधु है । फलतः हमें मुनियों के आचार के ह्रास या ग्राही लगा। इससे ऐसा मालूम होता है कि उन दिनों भी मुनियों में छीना-झपटी जैसी बातें सुनना नही रुचता। प्राचीन रचनाओ में आज जैसे भाषा-बहाव की जमावट अतः कुछ लिख देते हैं। अब तो श्रावकों व मुनियों को करने में कई आचार्य सिद्ध-प्रज्ञ रहे हैं । और ऐसा सम्भव स्वयं ही सोचना चाहिए कि पानी कहां मर रहा है ? और भी है। क्योंकि उन दिनों कई आचार्य घोर तपस्वी होते थे किसे कहां सफाई करना है। हमें आशा है कि जिस ओर और उनमें कोई-कोई अपने तप के प्रभाव से भविष्य-ज्ञाता पानी मर रहा होगा उसी पक्ष की ओर से बहाव उबलेगा। तक बन जाते थे-ऐसी जन-श्रुति है । अतः यह भी संभव तथ्य क्या है ? जरा सोचिए !
है कि धवलाकार भी उसी श्रेणी में रहे हों और तब उनके और यह भी सोचिए कि यदि वास्तव में इस मार्ग में भावों और लेखनी में आधुनिक (वर्तमान में प्रचलित) बिगाड़ है तो सुधार के साधन क्या हैं ? क्योकि आज शैली, भाषा-भाव की पुट आ गई हो और उन्होंने उस समाज में धर्म-ह्रास के प्रति (प्रकारान्तर से अनजान में ही भंगिमा को तत्कालीन प्राकृत या संस्कृत भाषा में गूंथ