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३२ वर्ष ४० कि.४
दिया हो ! जिसका उपर्युक्त (उद्धृत) सही शब्दार्थ धवला और इसमें गुण-ग्राहकता का उपदेश है-गुण ग्रहण ही के मूल से उद्धृत किया गया हो। खैर, जो भी हो-हमें सबसे बड़ी पूजा है, सच्ची पूजा भी यही है और अनेक आचार्य के प्रति अपूर्व श्रद्धा है, इमलिए पिपासा शान्त ईश्वरवाद का मूल भी यही है । बड़ी खुशी की बात है कि करने के लिए हमने धीरे-धीरे कई दिनों तक धवला के
आज आचार्य कुन्दकुन्द द्वि-सहस्राब्दी मनाने का उपक्रम पन्मों को पलटा । पर, वहुन खोजने पर भी जब उक्त मूम- जोरों पर है। लोग कुन्दकुन्द के नाम पर स्तूप खड़े कराने, अंश न मिल सका और हम निराश रहे, तब हमने शोध- उनके नाम पर संस्थाएँ खडी कराने और उनकी रचनाओं संस्थान के अधिकारी को पत्र लिखा कि वे हमें दिशा-निर्देश
को अपनी बुद्धि अनुसार (मनमाने ढंग से भी) अनेक दें कि उक्त अंश के मूल को धवला की किस पुस्तक के किस
भाषाओं में रूपान्तरित करने-कराने में सक्षम हों, उनमें पेज पर देखा जाय ? लेकिन आज तक कोई जवाब न मिला।
वैसी बुद्धि और वैसा द्रव्य भी हो, यह सब तो शक्य है। ____ अब विद्वानों से प्रार्थना है कि यदि उन्होने धवला के
पर, ऐसे कितने लोग हैं जो उन जैसे मार्ग का सही रूप में उक्त अंश के मूल को किसी पुस्तक में देखा हो तो हमे मार्ग
अनुसरण कर सकें, वैसे ज्ञान और वैसे आचार-विचार में दर्शन दें। अन्यथा, उक्त प्रसग मे हमे लिखना पड़ेगा कि
अपने को ढाल सकें ? इसका अनुमान लगाना शक्य नहीं। ऐसी विसंगति क्यों? क्या ऐसे शोध-संस्थान हमे सही दिशा
और आज जैसी स्थिति और मनोवृत्ति में तो यह सर्वथा दे सकेंगे ? जरा सोचिए !
हो शक्य नही। ३. साथ दें और अनुमोदन करें:
हमारा अनुभव है कि आज लोगों में व्यक्ति पूजा की ___ आज गुणग्राहकता का स्थान व्यक्तिपूजा ले बैठी- होड़ है । कई लोग महापुरुषों की व्यक्तिगत पूजा के बहाने जिसका परिणाम आचार-विचार का ह्रास सन्मुख है । लोग अपने व्यक्तित्व को पुजाने में लगे हैं। क्योंकि उत्सवों, महावीर और कुन्दकुन्दादि को प्रमुखला देकर उनके व्यक्ति- शताब्दी और सहस्राब्दियों के बहाने अपने व्यक्तित्व को गत गान में लगे हैं और उनका मुख्य केन्द्र उन्ही के चमकाना सहज है-किन्तु गुणों का ग्रहण करना सहज व्यक्तित्व को महान बताने मात्र में लग बैठा है। महावीर नहीं। काश, कुन्दकुन्द द्वि-सहस्राब्दि में यह हो सके कि ऐसे थे, कुन्दकुन्दादि ऐसे थे इसे सब देख रहे हैं । पर, हम लोग अपने को कुन्दकुन्दवत् सहस्रांश रूप में भी ढाल सके, कसे हैं, इसे विरले ही देखते होगे । पूर्वजों के नाम पर उनके उपदिष्ट धर्म के आचरण का सही मायनों में प्रण कहीं भवन बन रहे हैं, कही संस्था खड़ी हो रही है- ले सक-धर्म मार्ग में आगे बढ़ सके-तो हम स्वागत के पुदगल के पिण्ड जैसी। लोग इस हेतु बे-हिसाब लाखों-लाख लिए तैयार हैं। अन्यथा, हम अब तक के ऐसे कई उपक्रमों संचय कर रहे हैं और बे-हिसाब खर्च भी कर रहे है। कोई को तो बाजीगर के तमाशे की भांति ही मानते रहे है। कहे तो, कहीं-कहीं यह भी सुनने को मिल जाय-कि आप बाजीगर तमाशा दिखाता है, तब लोग खुश होते हैं, प्रशंसा क्यों बोलते हैं, आपका क्या खर्च हो रहा है? तब भी करते है। पर, क्षणभर में बाजीगर के झोली उठाकर जाने आश्चर्य नहीं। समाज की पूरी आर्थिक, मानसिक मौर के बाद लोग खाली पल्ला चल देते हैं, स्टेज के बांस, काधिक शक्तियां इसी मे लगी है। हर साल महावीर आदि बल्ली और शामियाना उनके मालिक उठा ले जाते हैं, अनेक महापुरुषों की जयन्तियां मनाई जाती हैं। आए दिन माइक वाला पैसे झाड़ चलता बनता है। सभी को जाना अनेक उत्सव और समारोह होते हैं। लोग फिर भी आगे था सो चले गए, रह गया तो बस, मात्र धर्म मार्ग का बढ़ने की बजाय पीछे चले जा रहे हैं-उनके धार्मिक सस्कार सनापन । पुष्ट होने के बजाय लुप्त होते जा रहे है ऐसी आवाजें सुनने में लोगों ने आज तक कितनी जयन्तियां मनाई, इसकी आती हैं और प्रबन-जन इस पर चिंतित भी दिखाई देते हैं। गिन्ती नही। पचीससौवां निर्वाण उत्सव भी मनाया गया
स्मरण रहे जैनधर्म व्यक्ति पूजक नहीं, गुण-पूजक है। था; तब कितनों ने बत-नियम लिए और कितनों ने अपने