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पाचार-विचारों में शुद्धि की? ये सोचने की बात है ? और कारण था-यह हम देखही पके हैं। जैनधर्म के भट्टारकों यह भी सोचने की बात है कि कुन्दकुन्द द्विसहस्राब्दि के के ह्रास का कारण भी यही है। अवसर पर कितने अपने निज का प्रात्मोद्धार करेंगे? यदि
इस प्रसंग में कहीं-कहीं अब स्थिति इतनी बिगड़ गई ऐसा हो सके तो अत्युत्तम । हम सबके साथ हैं और हमारा है कि सुधार सहज-साध्य नहीं। कुछ धर्मात्मा, विद्वानों, अनुमोदन भी।
त्यागियों व श्रावकों व श्राविकाओं को संगठित होकर ५.दि. मनिका प्रभाव धर्म को ले डूबेगा: शिथिलाचारों की छानबीन कर, सब प्रकार के प्रयत्न कर___ सच्चे देव-शास्त्र-गुरु ये तीनों जैनधर्म के रूप है। बिना भेद-भाव के, शिथिलाचारियों के शिपिलाचारको और, इस पंचम काल में यह धर्म केवलियों के बाद, परिमार्जन कर उनका धर्म में स्थितिकरण करना होगा। शास्त्र और गुरुओं के कारण अनुभव और आचरण रूप में अतः धर्म प्रेमी जन दिगम्बरत्व के शुद्ध-स्वरूप को समान आता रहा है। अब तक धर्मात्मा जैन-विद्वानों और त्यागियों दिगम्बर धर्म की रक्षा में सन्नद हों-ऐसी हमारी प्रार्थना ने इस धर्म की ज्योति को प्रज्वलित रखा है और श्रावकों है। सुधार मार्ग में पक्ष या भय को स्थान नहीं। सच पूछे की रुचि और आचरण को इस ओर कराने का श्रेय भी तो पक्ष और भय ने ही मूल-दिगम्बरत्व और उसके स्वरूप इन्हीं को है।
पर कुठाराघात किया है। वरना, मन्दिरों और धर्मशालाओं यह सर्वविदित है कि वर्तमान में शास्त्रों के मूल-रूप के होते, गृहस्थों के बीच-उनकी सुख-सुविधा युक्त कोठियों के पठन-पाठन में हास है और मूल के ज्ञाता विद्वान धीरे- को मुनि व त्यागी अपना आवास क्यो बनाते? शीतोष्ण समाप्त होते जा रहे है तथा कतिपय दिगम्बर त्यागी परीषह सहने के स्थान पर शीत-निवारक हीटर और गुरुओं में ज्ञान की क्षीणता और आचार के प्रति शिथिलता। उष्णताहारी कूलर-एयरकण्डीशनर का उपयोग क्यों देखी और सनी जा रही है-अनेक दिगम्बर व्रतधारी भी करते अथवा क्यों ही दंश-मशकारीषहहारी-मच्छरदानी स्वच्छन्द आचार-विचार बनाने और तदनुरूप प्रचार करने वकछुआ छाप तक का उपयोग करते ? जो बराबर देखने सलीन। इसको जानते-देखते हुए भी वर्तमान अनेक में आ रहा है। क्या मुनिधर्म यही है ? क्या, जैन और विद्वान और श्रावक उनकी इन प्रवृत्तियों का पोषण करते जैनेतर साधु मे वस्त्र-निर्वस्त्र होने मात्र काही अन्तर है. देखे जाते है । ऐसा क्यों?
या और कुछ भी ? जरा सोचिए ! हम ऐसा समझे हैं कि अपनी-अपनी आवश्यक्तानुसार समाज में स्थितिपालक और सुधारवादी जैसे दो धड़े निदान और श्रावक दोनों अपने-अपने अभावों की पूर्ति मे हैं। हमारी श्रद्धा उन स्थितिपालकों में है जो प्राचीन और लगे हैं-कोई धनाभाव को निरस्त करने और यथेष्ट की धार्मिक चार परम्परामो को कायम रखने के पक्षपाती प्राप्ति मे और कोई यश-प्रतिष्ठा की पूर्ति में। धर्म और हों। फलत: हम मुनियों को निर्दोष २८ मूलगुणों के पालकधर्म के स्रोत व धर्म के मूर्तरूप-गुरुओं के स्वरूप की रक्षा रूप-प्राचीन स्थिति में देखना चाहते हैं उन्हें शास्त्रका किसी को ध्यान नहीं । पर
विहित आचार से तनिक भी विचलित नही होना चाहिए। मिश्चय समझिए कि यदि दिगम्बर गुरु के प्राचार- ऐसे में यदि आचार-विचलित मुनियों को पूर्वाचार में लाने विचार में बदलाव पाता है तो दिगम्बर-धर्म की खैर जैसी सुधार सम्बन्धी हमारी बात मात्र से कोई हमें नहीं-उसका लोप अवश्यम्भावी है।" बौद्धधर्म के भारत सुधारवादी समझ बैठे तो हम क्या करें? क्या, इन मायनों से पलायन और उस धर्म में शिथिलता आने के मूल कारणों मे हम स्थितिपालक नही ? जरा-सोचिए ! में भी उनके साध्वाचार में शिथिलता आना ही मुख्य
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