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जैन परम्परा में भगवान राम एवं राम-कथा का महत्व
डा. ज्योति प्रसाद जैन, लखनऊ
इक्ष्वाकु की सन्तति में उत्पन्न सूर्यवंशी रघुकुल-तिलक आदि मध्य एशियाई भाषाओं में भी रामकथा के अनुवाद दाशरथी अयोध्यापति मर्यादा पुरुषोत्तम महाराज रामचद्र आदि हो गए । आधुनिक युग में तो कामिल बुल्के प्रति का पुण्य चरित्र अखिल भारतीय जनता में चिरकाल से कई पाश्चात्य विद्वानो ने भारतवर्ष में रह कर तथा कई अत्यन्त लोकप्रिय एवं व्यापक प्रभाव वाला रहता आया अन्यो ने विभिन्न यूरोपीय देशों में रामकथा या रामहै। ब्राह्मणीय पौराणिक अनुश्रुतियों के अनुसार उनका साहित्य की प्रभूत गवेषणा की है। जन्म त्रेता-युग में हुआ था, और दशावतारी परिकल्पना अबश्य ही रामभक्ति और रामकथा का व्यापक मे उन्हें भगवान विष्णु का सातवां अवतार मान्य किया प्रचार-प्रसार ब्राह्मणीय परम्परा के वैष्णव हिन्दुओ मे, गया है । अनुमानतः ईसा पूर्व द्वितीय शती के लगभग और सो भी मध्यकाल मे ही, विशेष हुआ । किन्तु इसका रचित संस्कृत भाषा के प्राद्य महाकाव्य वाल्मीकीय रामा- यह अर्थ नहीं है कि राम कथा का पुण्य चरित्र उन्ही की यण मे रामकथा सर्वप्रथम व्यवस्थित रूप में प्रकाश में बपोती रहा या उन्ही तक सीमित रहा । भारतीय संस्कृति आई तदनन्तर अन्य अनेक छोटी-बड़ी तद्विषयक रचनाएँ सुदूर इतिहासातीत काल से द्विविध सहोदरा धाराओ में उदय मे प्राती गयीं। किन्तु ईश्व गवतार के रूप मे भग- प्रवाहित होती आई है, जिनमे से एक तो आहत, व्रात्य वान राम की भक्ति-पूजा-उपासना का प्रचार मध्यकाल मे श्रमण या निर्ग्रन्थ कहलायी और जिनका प्रतिनिधित्व ही हुआ। ब्राह्मण परम्परा में शिवोपासना तो ईसा पूर्व जैन परम्परा करती है। ईसा पूर्व छठी शती मे उक्त ही प्रारम्भ हो चुकी थी, विष्णु की उपासना गुप्तकाल मे श्रमण धारा में से कई अन्य शाखाये भी फूट निकली थी, भागवत धर्म के उदय के साथ प्रारम्भ हुई। वैसे १२वी यथा बौद्ध, आनीविक आदि । अन्य शाखाएँ तो कालातर ई० के प्रारम्भ में बैष्णव सम्प्रदाय के सर्वोपरि पुरस्कर्ता में समाप्त हो गयी। किन्तु तीर्थंकर वर्धमान महावीर रामानुजाचार्य द्वारा ही वैष्णव धर्म का सुव्यवस्थित प्रचार (ई० पू० ५६६-५२७) के कनिष्ठ समकालीन तथागत प्रसार प्रारम्भ हुआ। उन्ही की शिष्य परम्परा मे उत्पन्न गौतम बुद्ध द्वारा प्रवर्तित बौद्ध धर्म निहासिक दृष्टि से रामानन्द स्वामी ने वैष्णव सम्प्रदाय की राम-भक्ति शाखा अधिक महत्त्वपूर्ण रहा, उसका व्यापक प्रनार भी हुआ, का प्रचार-प्रसार किया, जिससे भगवान राम की सगुण और लंका, बर्मा, इडोनेशिया, स्याम, तिब्बत, चीन, भक्ति को प्रभूत उत्कर्ष प्राप्त हुआ और १६वी पाती ई० जापान आदि विदेशो मे अभी तक भी है । यद्यपि स्वय के अन्त के लगभग इसी रामानन्दी सम्प्रदाय के अनुयायी महादेश भारतवर्ष से वह मध्यकाल के प्रारम्भ के लगभग गोस्वामी तुलसीदास द्वारा हिन्दी की अवधी बोली मे प्रायः तिरोहित हो गया था, तथापि उसके प्राचीन धार्मिक रचित रामचरित मानस ने तो भगवान राम की सगुण साहित्यक की जातक-कथामाला में दशरथ जातक नामक पूजा-उपासना की सुदढ़ एवं व्यापक नीव जमा दी। प्रायः रामकथा का बौद्ध रूप उपलब्ध है। वह अति सक्षिप्त भो उसी युग मे हिन्दी तथा बंगला, गुजराती मराठी आदि है, और ब्राह्मण तथा जैन रामकथाओ से अनेक अशो मे अन्य जन जन भाषाओं में भी अनेक रामकथायें लिखी भिन्न भी हैं। उसके अतिरिक्त समग्र बौद्ध साहित्य मे गयी। राम-साहित्य का वैपुल्य एव वैविध्य उतरोत्तर शायद ही कोई अन्य रचना रामकथा विषयक है । वृद्धिंगत होता गया। रामकथा की लोकप्रियता इसी तथ्य जैन परम्परा की बात इमसे सर्वथा भिन्न है। जैन से प्रकट है कि भारतीय संस्कृति से प्रभावित बृहत्तर अनुश्रुतियो के अनुसार भारत-क्षेत्र के आर्य खण्ड के मध्यभारत के अग लंका, जावा, सुमात्रा, स्याम, बर्मा, चम्पा देश में मानवी सभ्यता एवं कर्म युग के आद्य पुरस्कर्ता काम्बुल आदि पूर्वीय देशों एवंद्वीपों में भी रामकथा के प्रथम तीर्थकर आदिपुरुष ऋषभदेव थे। ब्राह्मणीय परम्परा अपने-अपने संस्करण प्रचलित हो गए, और फारसी, तुर्की की २४ अवतारों की परिकल्पना में भी इन नाभेय ऋषभ