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जैन परम्परा में भगवान राम एवं राम- हवा का महत्व
देव को भगवान विष्णु का सातवां अवतार मान्य किया गया है। ऋषभदेव का एक नाम इक्ष्वाकु भी था, जिसके कारण उनकी सन्तति इक्ष्वाकु अशी कहलाई । उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती सर्वप्रथम सार्वभौम सम्राट हुए। और उन्ही के नाम से यह महादेश भारतवर्ष कहलाया । भरत के ज्येष्ठ पुत्र एवं उत्तराधिकारी धर्ककीति थे जिनसे यह कुल परम्परा आगे सूर्यवंशी भी कहलाने लगी। इसी वंश परम्परा में सगर, भगीरथ, रघु, दशरथ आदि अनेक प्रतापी नरेश हुए, जिन सबकी राजधानी भगवान ऋषभ एवं भरत चक्री की जन्म एवं लीला भूमि महानगरी अयोध्या (अपर नाम साकेत, विनीता, कोसलपुरी आदि) रहती रही। बीसवे तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ के तीर्थ मे उत्पन्न अयोध्यापति महाराज दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र महाराज रामचन्द्र हुए। समस्त रामायणो या रामकथाश्री के प्रधान नायक यह श्री रामचन्द्र ही हैं । जैन परम्परा में उनका अपना 'पद्म' विशेषकर उनके मुनिजीवन एवं तपश्चरण काल में विशेष प्रसिद्ध रहा, अतएव जैन रामकथायें बहुधारित या पद्मपुराण नाम से प्रसिद्ध हुई। राम की गणना जैन परम्परा में सर्वोपरि महत्व के सठशलाकापुरुषो में की गई है। वह 'बलभद्र' पदवारी चरमशरीरी-तद्भव मोक्षगामी महापुरुष थे जीवन की सध्या में उन्होंने ससार-देह-भोगों से विरक्त होकर, राज्य पाट पुत्रो को सौपकर सर्वदा निस्सग होकर वन की राह ली और निर्ग्रन्य मुनि के रूप में तपस्या की। फलस्वरूप केवलज्ञान प्राप्त करके वह अर्हन्त परमात्मा हो गए, और अन्त में मोन या निर्वाण लाभ करके सिद्ध परमात्म बन गए। उनकी धर्म जनकसुता वैदेही सीता की गणना जैन परम्परा की सपरि सोलह महा सतियो में की जाती है। भगवान राम से सम्बद्ध भरत, - लक्ष्मण शत्रुघ्न, लव, कुश, हनुमान, सुग्रीव, बालि, रावण आदि अन्य अनेक व्यक्ति भी जैनो के पुराण प्रसिद्ध महत्व के रहे हैं। अत: जैन परम्परा में रामकथा की अपनी एक स्वतन्त्र धारा स्वयं राम के युग से प्रवाह रहती आयी ।
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जिस प्रकार ब्राह्मण पम्परा में रामकथा का मूलाधार मुख्यतया वाल्मीकीय रामायण है और बौद्ध परम्परा में दशरथ - जातक, जैन पम्परा में उसका मूल स्रोत ऋषभादि
महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकरों की वाणी पर आधारित तथा परम्परया प्रवाहित श्रुतागम था । अन्ततः अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर के प्रधान गणधर इन्द्रभूति ने, ई० पू० छठी शती के मध्य के लगभग, उक्त श्रुतागम को अन्तिम रूप से ग्रंथित एवं वर्गीकृत किया और उसे द्वादशांग का रूप दिया। इन अंगों में से बारहवें - श्रुत दृष्टि प्रवादांग का तृतीय विभाग प्रथमानुयोग अपरनाम धर्म कयानुयोग था, जिसमें बेसठ शलाकापुरुषों तथा अन्य अनेक पुराणप्रसिद्ध पुरुषों एवं महिलाओं के चरित्र वर्णित थे, और अन्य अनेक पुराणंतिहासिक अनुभूतियां निवड थीं । ये वर्णन अपेक्षाकृत सक्षिप्त एव अल्पकाय थे | अंतिम श्रुत केवल आचार्य भद्रबाहु प्रथम ( ई० पू० ३९४-३६५ ) पर्यन्त प्रथमानुयोग का यह ज्ञान अक्षुण्ण रहा, किन्तु तदनन्तर उसमे शनै शनैः ह्रास होने लगा, और उसका सारभाग : गाथा निबद्ध नामावलियो' एवं 'कथासूत्रो' के रूप में ही प्रवाहित होता रहा। इन्ही दोनों स्रोतों के तथा परम्परा मे प्राप्त तत्सम्बन्धी अन्य मौखिक अनुश्रुतियों के आधार पर कालान्तर में जैन पुराणों, चरित्रग्रन्थों एवं तदाधारित अन्य कृतियों की प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, कन्नड़, तमिल, हिन्दी, गुजराती मराठी आदि विभिन्न भाषाओं तथा विभिन्न शैलियों में सुविज्ञ आचायों, कुशल कवियों एवं साहित्यकारों द्वारा रचना हुई। परिणाम स्वरूप अपने वैपुल्य एवं वैविध्य की दृष्टि से जैन रामकथा साहित्य को भारतीय रामकथा राम कथा साहित्य मे स्पृहणीय स्थान प्राप्त हुआ ।
यह ध्यातव्य है कि जैन परम्परा में रामकथा की दो स्पष्ट धारायें प्राप्त होती है। प्रधान पात्रों के नामादि, प्रमुख घटनाओं, स्थून क्रमादि के विषय में विशेष अन्तर न होते हुये भी दोनो मे परस्पर अनेक अन्तर भी है, जो उक्त धाराओं के प्रतिनिधि ग्रंथों के अवलोकन तथा तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हैं। प्रकाशित ग्रंथो के सम्पादकों तथा कई आधुनिक शोधार्थियों ने अपने शोध प्रबंधों में उन पर उचित प्रकाश भी डाला है । प्रथम धारा का प्रतिनिधित्व विमलार्य का प्राकृत पउम चरिय (महावीर निर्वाण स० ५३० सन् १६०) करता है, जो वाल्मीकीय रामायण के प्रकाशन प्रचार के संभवतया एक(शेष पृ० ४ पर)