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________________ विनयावनत-विनय इस अंक में धवला के सिद्धा ण जीवा' के पोषण में हमारा लेख है। प्रस्तुत विषय में अब हम और क्या लिखें ? फिलहाल जितना आवश्यक समझा लिख दिया। अब तो धवलानुकूल किसी निष्कर्ष पर पहुंचने-पहुंचाने के लिए इसे विद्वानों को स्वयं ही आगे बढ़ाना-बढ़वाना है। विषय पेचीदा तो है होइसमें दो राय नहीं। हाँ, हम यह संकेत और दे दें कि हम कई मनोषियों की इस बात से भी सहमत नही कि--'सिद्धों मे जोवत्व उपचार से है ।' क्योकि आचार्य को उपचार में सत्यपने का अभाव इष्ट है ओर हम सिद्धों में असत्यपने का आरोप करना इष्ट नहीं समझते । आचार्य ने स्पष्ट ही कह दिया है-'उवयारस्स सच्चत्ताभावादो।' हमें तो ऐसा प्रतीत होता है कि लोग संस्कार-वश आगम के बहुत से कथनों को अपनी सही या गलत धारणाओं की ओर मोड़ते रहे हैं। सिद्धों के स्वाभाविक शुद्ध चेतनत्व जैसे भाव की उपेक्षा कर, उसे जोवत्व जैसे औदयिक भाव की मान्यता में बदल लेना और जीव के पारिणामिक भाव का अर्थ न समझना, या उसे चेतन का भाव मान लेना गलत धारणाओं का ही परिणाम है। वास्तव में तो धवला की मान्यता में चेतनत्व और जोवत्व दोनों में संज्ञा और गुणों की अपेक्षा से भेद है-चेतनसंज्ञा ओर गुण दोनों व्यापक हैं जो संसारी और सिद्ध सभी आत्माओं में हैं और जीवत्व संज्ञा और गुण दोनों व्याप्य हैं जो मात्र संसारियों में हैं। कृपया विचारिए और पत्राचार द्वारा संशोधन के लिए निर्देश दीजिए कि क्या, जीवत्व और सिद्धत्व ये दोनो चेतन की पृथक्-पृथक् अशुद्ध और शुद्ध दो स्वतन्त्र पर्याएं नहीं ? हमारे उक्त लेख के बाद भो जिन्हें धवला के 'सिद्धा ण जीवा' और 'जीवभावो औदइओ' जैसे कथनों मे विरोध दिखे या शंकाएँ हों वे उनके समाधान का बोझा हम पर न डाल, जैन-आगमो में गोता लगाएँ, बुद्धि का व्यायाम करें, उन्हें स्वयं ही समाधान मिलेगा--उनकी विरोध-भावना विलय होगी--हम उन्हें तुष्ट करने या किन्ही प्रश्नों के उत्तर देने का भार लेने को तैयार नही। यतःकथन आचार्यों के है। हमें तो ग्रन्थ राज और आचार्यों के वाक्य प्रमाण है और इसीलिए उनको समन्वयपूर्वक समझने की कोशिश कर रहे है । यदि किन्ही को आगम के उक्त कथन पर श्रद्धा न नहो और वे सिद्ध को जीव-सज्ञक सिद्ध करने के भाव बनाएँ तो हम क्या कर ? हम तो आचार्य मन्तव्य के पोषण में श्रद्धापूर्वक जैसा लिख सके लिख दिया। अँचे तो मानें, हमारा आग्रह नहीं। वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज नई दिल्ली --२ विनीत : पचन्द्र शास्त्री संपादक-अनेकान्त
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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