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________________ चिन्तन के लिए: सिद्धा ण जीवा-धवला ले० पपचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली विमर्श : विधामतो भवति तत्तस्येति वदन्ति तद्विव इति न्यायात् । ज्ञात होता है कि धवलाकार की दृष्टि मे 'जीव' और तत्तो जीवभावो औदइओत्ति सिदं। तच्चत्ये जं जीवभावस्स 'चेतन' दोनों मे भेद है। वे जीवत्व भाव को औदयिक होने परिणामियत्तं परविदं तं पाणधारणतं पडुच्च ण परुविवं, से संसारावस्था तक सीमित मानते है और औदयिक होने किंतु चेदणगुणमबलविय तत्थ परूवणा कवा । तेण तं पिण से ही कर्म-रहित अवस्था मोक्ष मे उसका प्रवेश नही मानते विरुइ।'-धव. पु. १४/५/६/१६/१३ इसीलिए उन्होंने जीवत्व का परिहार कर 'सिद्धा ण जीवा' कहा है और तत्वार्थ सूत्र की प्ररूपणा को चेतन के गुण 'आयु आदि प्राणों का धारण करना जीवन है। वह के अवलम्बन से स्वीकार किया गया माना है-'चेवरण- अयोगी के अन्तिम समय से आगे नही पाया जाता, क्योंकि गुरगमवलम्बियपरुविवं।' इससे यह भी सष्ट होता है कि सिखों के प्राणो के कारणभूत आठों कर्मों का अभाव है। जीव व सिद्ध दोनो चेतन की दो पर्याय है--- अशुद्ध-पर्याय इसलिए सिद्ध जीव नहीं है, अधिक से अधिक वे जीवित. 'जीव' है और शुद्ध पर्याय 'सिद्ध है। हमने इसी बात को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। पाठको के अवलोकनार्थ पूर्व कह जा सकते है। 'धवला' का अंश भी दे रहे है। शका-सिद्धों के भी जीवत्व क्यों नहीं स्वीकार किया हमने अपने लेख में 'धवला के कथन की पुष्टि का जाता है? दृष्टिकोण रखा है और अन्य मान्यताओ का विरोध न करने का भी ध्यान रखा है। हम विषय समझने और अन्य और समाधान-नहीं, उपचार में सत्यता का अभाव मान्यताओं से सामंजस्य बिठाने के लिए अन्य मान्यताओं के होने से। विषय में भी लिखने का विचार रखते हैं। ताकि विषय सिद्धों मे प्राणों का अभाव अन्यथा बन नहीं सकता, स्पष्ट हो। हम आशा करें कि हमारे लेख को किसी इससे मालूम होता है कि जीवत्व पारिणामिक नहीं है। मान्यता-विरोध में न लिया जाएगा। किन्तु वह कर्म के विपाक से उत्पन्न होता है, क्योंकि, 'जो उद्धरण: जिसके सद्भाव और असद्भाव का अविनाभावी होता है वह 'आउ आदिपाणाण धाणं जीवण । तं च अजोगि- उसका है, ऐसा कार्य-कारण भाव के ज्ञाता कहते हैं ऐसा चरिमसमयादो उवरि त्थि, सिद्धेसु पाणणिबधणटुकम्मा- न्याय है। इसलिए जीवत्वभाव औदयिक है, यह सिद्ध होता भावादो। तम्हा सिद्धा ण जीवा जीविदपुव्वा इदि। है। तत्त्वार्थ सूत्र में जीवत्व को जो पारिणामिक कहा है सिद्धाणं पि जीवत्तं किण्ण इच्छिज्जते ? ण उवयारस्स वह प्राणों को धारण करने की अपेक्षा से नहीं कहा है, समचत्ताभावादो। सिद्धेसु पाणाभावण्णहाणुववत्तीदो जीवत्त किन्तु चेतन के गुण की अपेक्षा से वहां वैसा कथन किया श पारिणामियं, किंतु कम्मविवागज, यद्यस्य भावाभावानु. है, इसलिए वह कथन भी विरोध को प्राप्त नहीं
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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