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१२, वर्ष ४०, कि०३
अनेकान्त
केवल शान हुआ । दीर्घकाल तक राज्य श्री का भोग कर, का प्रतीक है।' भरत को पराजित करके भी वे उनके सिर के सफेद बाल को देखकर उन्हें वैराग्य हुआ पुत्र को अनीति भरे आचरण के प्रति तत्काल क्षमा भाव धारण राज्य देकर उन्होने दीक्षा ले ली और कठिन तपस्या कर कर लेते है, यह उनकी अनुपम क्षमाशीलता का मोक्ष पद पाया।
. उदाहरण है। बाहुबलि
चक्रवर्ती नरेश अपने समय का सर्वशक्तिमान और महापुराण मे बाहुबलि का उल्लेख एक स्वातन्त्र्य प्रेमी सर्वाधिक संप्रभुता सम्पन्न महापुरुष होता है। जीवन के और उनका शरीर अतिशय सुन्दर था। उन्हें अपनी जनता किसी भी क्षेत्र में पराजय की पीड़ा से उसका कभी परिचय से बहुत प्यार था, भले ही उनका राज्य भरत की अपेक्षा
नही होता किन्तु बाहुबली के चरित्र की यह विशेषता है छोटा हो। भरत द्वारा दूत भेजकर अधीनता स्वीकार करने
कि उनके हाथो उन्ही के अग्रज को तीन बार पराजित के प्रस्ताव को वे नहीं मानते और युद्ध करने के लिए
होना पड़ा । व्यक्ति मे सायं का बल और अदम्य साहस हो तैयार हो जाते है। वह सत्ता के लिए नही अपने अधिकारो
तो उसका कोई कुछ नहीं बिगाड सकता यहाँ तक कि देवी के लिए लड़ते है। वह कहते हैं कि यह भाई-भाई के प्रेम
__ शक्तियाँ भी नही। देवों से सरक्षित सम्राट भरत का चक्र का प्रश्न नही अधिकारो के संघर्षका है। वे अद्भुत देहयष्टि बाहबलि का कुछ नही बिगाड़ सका। के स्वामी थे। इसलिए वह तीनों-युद्धों में भरत को पराजित कर देते हैं। भरत द्वारा क्रोधित होकर चक्र चलाये जाने
उनके चरित्र की एक महनीय विशेषता यह है कि पर बाहुबलि को वैराग्य हो जाता है। वह महाबली पूत्र उन्होने जीत कर भी हार मान ली लेकिन वे भाई से नहीं को राज्य देकर दीक्षा ले लेते हैं और कठोर तप करते हैं। हारे वे हारे अपने अन्तस्तल से । जीत के बाद विचारो का
द्वन्द चला, कैसा यह ससार है, कैसी घणित इसकी समग्र जैन साहित्य मे बहुबलि की तपस्या का जैसा प्रवत्तियां हैं.....यही सोचते रहे वे क्षण भर और वैराग्य वर्णन मिलता है वेसा अन्य किसी तपस्वी की तपस्या का की संसार-असारता की भावना विजयी हुई सत्ता की नहीं। वे पाषाण प्रतिमा की तरह स्थिर, नग्न, मोन, भावना हार चुकी थी। उन्होने कठोर तप किय। यही एकाकी ही ध्यानस्थ खड़े रहे। दिन और रात सप्ताह और कारण है कि आज वे तीर्थङ्कर न होते हुए भी तीर्थङ्करी मास बीत गये पर एक बार भी उनका ध्यान नहीं टूटा। की तरह पूजे जाते हैं। अनीति पर नीति की, असद पर उनके चमणो में सों ने वामियों को बना लिया था। दो सद की, दुष्प्रवृत्तियो पर सुप्रवृत्तियो की विजय के वे माधवी लताए भी उनकी देह के सहारे चढती चली गयी। प्रतीक हैं। यही कारण है कि आज भी बाहुबलि की मूर्ति के हाथ और पैरो पर लिपटी हुई बेलों के चिह्न बने होते हैं।
इस प्रकार इन तीनो महापुरुषो ने अपने-अपने चरित्र
से मानव जाति के समुन्नयन में महद् योगदान दिया है। इतना होने पर भी उन्हे केवल ज्ञान की प्राप्ति नहीं संसार की किसी भी सस्कृति में ऐसे महापुरुष नही हैं, हई। अन्त मे भरत द्वारा नमस्कार करते ही उन्हें केवल जिनकी विचारधारा और चिन्तन का मानव जीवन पर ज्ञान हो जाता है और वे ऋषभदेव से पहले ही मुक्तिबधू. स्थायी प्रभाव पड़ा है, पर ये तीनों ऐसे ही हैं। उनके पति बन जाते है।
उपदेश जितना कल उपादेय और आदर्शमय थे उतने ही बाहुबलि के चरित्र की अपनी विशेषताये है। 'क्षमा आज हैं, और 'यावच्चन्द्रदिवाकरी रहेंगे। वीरस्य भूषणम्' की वह साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं । पिता प्रदत्त छोटे से राज्य की स्वतन्त्रता के लिए वह बड़े भाई की
-१३०, बड़ा बाजार, चुनौती को सहर्ष स्वीकार करते हैं, यह उनके अजेय पौरुष
खतोली २५१२०१ (उ.प्र.)