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ऋषभ, मरत और बाहुबलि का पारित्रिक विश्लेषण
कर डाला है, जो स्वयं एक भाषा से दूसरी भाषा में अनु- अभी हाल ही तीर्थंकर ऋषभदेव ने संस्कृति का निर्माण वाद करते चलते हैं। तीर्थकर ऋषभदेव ने सात तत्त्वों, करते हए जनता को रहना सिखाया था, दूसरी ओर उन्हीं छह द्रव्यो, नवपदार्थों का सुन्दर उपदेश दिया। अन्त मे के पुत्र उसे नष्ट करने पर तुले हुए थे कैसी विडम्बना है। दिगम्बर परम्परानुसार माघ कृष्ण चतुर्दशी और श्वेताम्बर ज्योतिषियों से चक्र के नगर में प्रविष्ट न होने का परम्परानुसार त्रयोदशी को सूर्योदय के समय अनेक मुनियों
सूयादय क समय अनेक मुनियो कारण जानकर उन्होने चतुर दूत बाहुबलि के पास भेजा, के साथ कैलाश पर्वत पर निर्वाण को प्राप्त हुए। पर बाहुबलि ने भरत की अधीनता स्वीकार न कर युद्ध
तीर्थंकर ऋषभदेव का वर्ण काञ्चन, चिह्न वषम, यक्ष करना उचित समझा। भरत और बाहुबलि के युद्ध का गोमुख, यक्षिणी चक्रेश्वरी," गर्भावक्रान्ति: श्वेत वषम सुन्दर चित्रण महापुराण" मे हुआ है। रूप" देह ५०० शरासन, आयु ८४ लक्ष्य पूर्व थी।" उनके इस प्रकार भरत के चरित्र को हम किसी सत्ता लोलुप ८४ गणघरों मे वृषभसेन प्रमुख थे। पूर्वधरों की संख्या पुरुष का चरित्र कह सकते हैं, जो राज्य के लिए अपने ४७५०, अवधिज्ञानियो की १०००, केवलियों की २०००० भाई को भी क्षमा न कर सका। पर वस्तुतः देखा जाये मनःपर्यज्ञानियों की १२६५०, अनुत्तरवादियों को १२६५०, तो यह प्रश्न अकेले भरत का नहीं था, यह प्रश्न राजधर्म आयिकाओं की ३०००००, श्रावको की ३५०००० तथा का था। युद्ध करना उनकी विवशता थी। कर्तव्य था। श्राविकाओं की संख्या ५ लाख थी।
इस सन्दर्भ में श्री विष्णु प्रभाकर ने 'सत्ता के आर-पार' मे
लिखा हैचक्रवर्ती भरत
"नारीमूर्ति-मब यह आपके चाहने न चाहने का भारतीय इतिहास में भरत नाम के दो प्रतापशाली प्रश्न नही है, राजधर्म का प्रश्न है....''आपने छह खण्ड राजाओ का उल्लेख मिलता है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के राजाओं को क्यों अपने चरणों में झुकाया। के पुत्र भरत और द्वितीय महाराज दुष्यन्त के पुत्र भरत। भरत (तड़पकर) सब याद है हमें, पर भाई का भाई पुराणों में दोनों का ही उल्लेख हुआ है। बहुत पहिले से युद्ध....."नारीमूर्ति-राजधर्म बहुत गहन हैं। वहाँ इतिहासविदो की यह मान्यता थी कि दुष्यन्त-शकुन्तला सांसारिक दृष्टि से उचित-अनुचित का, नाते-रिश्ता का, के पुत्र भरत के नाम पर ही इस देश का नाम भारतवर्ष कोई अर्थ नहीं है, अर्थ है केवल अपना कर्तव्य-पालन करने पड़ा। किन्तु ज्यों-ज्यों प्राचीन साहित्य का प्रकाशन होता का और अपना कर्तव्य है, टुकड़ों में बटी धरती को एक रहा, इतिहास अपने अवगुण्ठन खोलता रहा, यह मान्यता करना........" टटती रही और आज लगभग सभी इतिहासविद् यह इसी सन्दर्भ में स्वयं लेखक की एक कविता तीर्थङ्कर स्वीकार करते हैं कि तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र भरत के (इन्दौर) फरवरी १९८१ में दृष्टव्य है। नाम पर ही इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।
युद्ध होने से पूर्व ही दोनो पक्षों के मन्त्रियों ने विचार महापुराण के अनुसार भरत इस अवसपिणी के प्रथम कर प्रस्ताव रखा कि आप दोनों चरमशरीरी हैं, आप का चक्रवर्ती थे। ऋषभदेव जब भरत की राज्याभिषिक्त कर कुछ न बिगड़ेगा, व्यर्थ सेना का रक्तपात क्यों हो? अत: बन चले गये, तब भरत दिग्विजय के लिए निकले उन्होंने आप जल, दृष्टि और बाहयुद्ध करके हारजीत का निर्णय अत्यन्त बलशाली मागध देव को पराजित किया ।" अन्य कर लें। सभी युद्धों में भरत पराजित और बाहुबलि भी अत्यन्त शक्ति सम्पन्न राजाओं को जीता। समस्त विजयी हुए। पराजय के दारुण दुःख से अभिभूत भरत ने उत्तर भारत पर विजय पाई।" किन्तु अयोध्या आकर बाहुबलि पर चक्र चला दिया, पर वह उनकी प्रदक्षिणा कर चक्र नगरी में प्रविष्ट न हुआ। यहाँ तक उनके चरित्र का लोट आया। संक्षिप्त विवरण प्राप्त होता है किन्तु इसके आगे का चरित्र बाहुबलि की दीक्षा और उसके बाद केवल ज्ञान न जैन पुराणों का सबसे लोकप्रिय भाग रहे हैं। एक तरफ होने पर भरत ने उनकी पूजा की और समझाया तब उन्हें