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भावनांजलि
सम्यक् श्रद्धापूर्वक दी गई अंजलि श्रद्धांजलि होती है और वह होती है गुणों में मान्यों - पूज्यों को, कुछ विशिष्ट आत्माओं को। हम नहीं जानते कि आज के श्रद्धांजलि-समर्पण समारोह किस माप में होते हैं और किनको और कैसे होते हैं ? क्या आज श्रद्धांजलि समर्पण एक सरल, सर्वसाधारण तरीका नहीं बन चुका है ? जो हर क्षेत्र में हर साधारण व्यक्ति द्वारा हर साधारण से साधारण के लिए भी अपनाया जा रहा है-खानापूर्ति के सिवाय इसका अन्य महत्त्व नहीं ।
हम सोचते हैं - परम दिगम्बर श्रमण गुरुजन साधारण हस्तियों से बहुत ऊँचे और उत्कृष्ट हैंमोक्षमार्ग के पथिक हैं। उनकी गति - जिनके लिए उन्होंने दीक्षा ली होती है, रत्नत्रय की पूर्णता के बिना नहीं, उन्हें मोक्ष प्राप्त करना ही चाहिए और मोक्ष का सीधा सा उपाय है रत्नत्रय की पूर्णता यानी 'सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।'
सम्यक् श्रद्धा मोक्षमार्ग की प्रथम सीढ़ी है और हमारी समझ से श्रमण उस पर श्रमणत्व धारण काल से ही आरूढ़ हो बैठे होते हैं । यतः - बिना श्रद्धा के ली गई दीक्षा को दीक्षा ही कैसे कहा जाता है ? ऐसे में श्रमण को कोरी श्रद्धांजलि भेंट कर उनके प्रति श्रद्धा मात्र की भावना प्रकट कर, हम श्रमण को प्रथम सीढ़ी पर ही रहने की भावना भाएँ या श्रमण के ज्ञान चारित्र की पूर्णता की भावना भी भाएँ ? हमारी समझ से तो श्रमण के प्रति रत्नत्रय भावनांजलि समर्पण की भावना ही अधिक उपयुक्त और कार्यकारी है, वही मोक्षमार्ग में प्रशस्त है ।
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गत दिनों दो पूज्य श्रमणाचार्यों की समाधि हुई । एक थे- आचार्य श्री शान्तिसागर पट्ट के परम्परित पट्टाचार्य पूज्य श्रीधर्मसागरजी महाराज - सरल, शान्त, निर्भीक सिंहवृत्ति आचार्य । और दूसरे - आज के नेतृत्व प्रमुख, विश्वधर्म प्रचारक, एलाचार्य ( अब आचार्य रत्न) श्री विद्यानन्द महाराज के परम गुरु और अनेक ग्रन्थों के व्याख्याता, धर्मप्रभावक आचार्य श्री देशभूषण महाराज कोथली । दोनों ही वर्तमान युगीन प्रचलित श्रमण परम्परा के बेजोड़ रत्न थे- दोनों ने स्व शक्त्यनुसार दि० परम्पराओं को जीवित रखा । फलतः
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समस्त सम्पादक मंडल 'अनेकान्त' और वीर सेवा मंदिर के अधिकारी, सदस्यगण आचार्य-द्वय को रत्नत्रय भावनांजलि समर्पण करते हुए दिवंगत आत्माओं में नतमस्तक हैं। आचार्यद्वय रत्नत्रय की पूर्णता को प्राप्त करें ऐसी हमारी भावना है ।
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- सम्पादक
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