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वर्ष ४० किरण २
ग्रोम् म्
अनेका
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर - निर्वाण सवत् २५१३, वि० सं० २०४४
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"चिर- लग्न"
आज क्यों मम प्राण बाजे, सुधियों में सम्यक्त्व साजे । वीतरागी बन के साजूं, आज मैं शृंगार अपना ॥ निर्वेद की मेंहदी रचाऊँ, संवेग की बिंदिया सजाऊँ ।
नमन में परमात्म से चिर लग्न का लेकर के सपना || ज्ञान का काजल लगाऊँ, निर्मोह का टीका सजाऊँ ।
समदर्शिता की चूनरी से घूंघटा निकालूं आज अपना ॥ नव तत्त्व के सिन्दूर से मैं, आज अपनी माँग भर लूं ।
स्वयं को करने का कर लूँ आज में साकार सपना ॥ संवर का मंडप तान कर लूँ निर्जरा के साथ फेरे ।
ब्रह्मचर्य के साथ खेलें सखि आज के दिन मै कंगना ॥ उत्तम क्षमा तप आदि के आभूषणों को धार के ।
आकिंचन्य की डोली में चढ़कर कर चलूं प्रस्थान अपना ॥ भक्ति रस में डूब कर पर से विदा के गीत गाऊँ ।
निज भाव के साहचर्य का देखूं सखि दिन रात सपना ॥ अष्ट सखियों से विदा लूं, चार बहनों को भुला दूँ ।
शुभ कर्म का संसार तज कर शुद्धत्व को जानू मैं अपना ॥ राग के उपहार तज दूं, मिध्यात्व को मुडकर न देखूं ।
सिद्धत्व को पाने का ही दिन रात देखूं एक सपना ॥ विरति का आसन बिछा कर ध्यान की मैं लो जलाऊँ ।
रत्नत्रय के दीपकों से जगमगा लं मन मैं अपना ॥
अप्रैल-जून
१६८७
-डा० कु० सविता जैन, 7/35 दरियागंज, दिल्ली