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जैन बिबलियोग्रफी
डा. ज्योति प्रसाद जैन
आधुनिक युग में विशेषज्ञता पर बल दिया जाने लगा है प्रकाशनों में जैन-धर्म-संस्कृति-साहित्य-कला-पुरातत्त्वएवं शोध खोज को विश्वविद्यालयी स्तर पर पी०एच०डी०, इतिहास तथा जिन धर्म के अनुयायियो के विषय में डी. लिट० आदि उपाधियों के लिए सुव्यवस्थित रूप से एव अनगिनत उल्लेख प्राप्त है। वर्तमान शती के आरम्भ से सुयोग्य निर्देशन में तैयार किए जाने वाले शोध प्रबन्धों ने तो ऐसे प्रकाशनों एवं सदों में द्रुतवेग से प्रगति हुई है। प्रभूत विस्तार एवं व्यापकता प्रदान कर दी है । इस कार्य के परिणामस्वरूप प्राच्यविद्या के अन्तर्गत भारतीय विद्या के लिए पुरातन प्रकाशित व अप्रकाशित साहित्य, आलेखों, एक अति महत्त्वपूर्ण अंग एवं विभाग के रूप में जनविद्या शिलालेखों आदि का निरीक्षण, परीक्षण, अध्ययन तो (जनालाजी) का स्वतन्त्र अस्तित्व सुनिश्चित हुआ, और आवश्यक है ही, किन्तु ऐसी अपेक्षित सामग्री सर्वत्र अथवा जैन संदर्भ ग्रन्थों या कोषों की आवश्यकता भी अधिकाधिक सहज सुलभ नही होती। शोधार्थी को उसकी जानकारी
साधाथा का उसकी जानकारी अनुभव की जाने लगी, जिसकी पूर्ति के लिए अनेक विद्वान भी बहधा नहीं हो पाती। ऐसी स्थिति में विभिन्न प्रकार एवं सस्थाए सलग्न हुई। के संदर्भ ग्रन्थ बड़े सहायक होते है। शास्त्र भडारो की
जहां तक पाश्चात्य भाषाओ के जैन सदर्भ कोश का ग्रन्थ-सूचियाँ, प्रकाशित साहित्य की सदर्भ सूचियाँ
प्रश्न है, सर्वप्रथम फ्रान्सीसी प्राच्यविद डा० ए० गिरनाट (विबलियो प्रेफी), विश्वकोश, व्यक्तिकोश, भौगोलिक या
ने १९०६-६ ई० मे अपने तीन निबन्ध जैन बिबलियो ग्रेफी स्थलकोश, शिलालेख संग्रह, विषय विशेष सम्बन्धी कोश,
एवं एपीग्रेफी पर प्रकाशित कराए। तदनन्तर दिल्ली पारिभाषिक शब्दाथ कोश, विशेषार्थक कोश, विविध ।
निवासी रायबहादुर पारसदास ने 'जैन बिबलियोग्रफी न० अनुक्रमणिकाएं आदि ऐसे सदर्भ ग्रन्थों का गत लगभग एक
१ प्रकाशित की, और १९४५ ई० मे स्व० बा० छोटेलाल सौ वर्षों में पर्याप्त संख्या में निर्माणहआ है, और हो रहा हो भी निलियोग्रफी' का प्रथम सस्करण
प्रकाशित किया, जिसमें गिरनाट आदि द्वारा प्रदत्त पूर्ववर्ती गत लगभग २०० वर्षों में देशी-विदेशी प्राच्यविदो संदर्भ-मुचनों का समावेश करते हए, १९२५ ई० पर्यन्त के एव भारतीय विद्या विशारदों का ध्यान जैन साहित्य एवं प्रकाशनों में प्राप्त सदों को सम्मिलित किया गया था। संस्कृति की ओर उत्तरोत्तर अधिकाधिक आकृष्ट होता तद्त्तरकालीन सन्दर्भो के सकलन भी वह करते-कराते रहे, आया है। जैन शास्त्र भडारों मे संरक्षित हस्तलिखित और १९६६ ई० मे उन्होने १९६० ई० पर्यन्त के प्रायः ग्रन्थो का बहुभाग भी मुद्रित प्रकाशित हो गया है। अनेक सास्त सन्दों का सकलन कार्य पूरा कर लिया था। महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के तो समीक्षात्मक विस्तृत प्रस्तावनाओ दर्भाग्य से उसी वर्ष उनका स्वर्गवास हो जाने से ग्रन्थ का सहित सुसंपादित स्तरीय संस्करण भी प्रकाशित हो चुके प्रकाशन स्थगित मा हो गया। अन्ततः उनके परमस्नेही हैं। भारतीय भाषाओं में उन पर अलग से समीक्षात्मक स्व० साह शान्ति प्रसाद जी के आर्थिक सहयोग एव प्रेरणा एष तुलनात्मक अध्ययन, गवेषणाए, विवेचनाए भी हुई है। से वीर सेवा मंदिर दिल्ली ने १९८२ ई० मे इसे दो जिल्दों इनके अतिरिक्त अग्रेजी, जर्मन, फ्रांसीसी, इतावली, रूसी में विभाजित, लगभग दो हजार पृष्ठो के विशाल जैन आदि विभिन्न पाश्चात्य भाषाओं में भी प्रकाशित शोध सदर्भ कोश का समुचित प्रकाशन कर दिया। बड़ा आकार, निबन्धो, लेखों, सर्वेक्षणों, रिपोटो, पुस्तकों आदि विविध उत्तम कागज, स्वच्छ मुद्रण एवं पुष्ट जिल्द वाली बा०