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२२, ब ४०, कि.१
अनेकान्त
तु विशुद्धिसंक्लेशरूपोपरागवशात् शुभाशुभत्वेनोपात्त लोयग्गठिदा णिच्चा सिद्धा ते एरिसा होति ॥' विष्यः'-टीका (श्री अमृतचन्द) ६३-६४
-निय० सा० ७२ वास्तव में ज्ञान-दर्शन ये लक्षण चेतना के हैं, उपयोग के ४. 'णवि इदियकरणजुदा अवगहादीहिं गाहिया भत्थे । नहीं हैं। उपयोग तो विकारीभाव है और विकारी (संसारी) व य इंदियसोक्खा अणिदियाणंदणाणसुहा ॥ चेतना में ज्ञान-दर्शन के अवलम्बन से उत्पन्न होने से (कारण ५. 'शुद्धात्मोपलम्भलक्षणः सिवपर्याय:।' में कार्य का उपचार करके) उपयोग को दो प्रकार का कह
प्र० सा०/ता० १० १०/१२/६ दिया है (देखें-उपयोग क्या)
१. सिद्धआत्मा आठ प्रकार के कर्मों से रहित, शान्त' उपयोग के उक्त लक्षणो के सिवाय ये लक्षण भी देखिए
पए कर्मकालिमा रहित, नित्य, अष्टगुणयुक्त, कृतकृत्य श्रय कीजिए कि क्या सिद्धो में उपयोग है जो उन्ह और लोकापवासी हैं। 'जीव' श्रेणी मे बिठाया जा सके ?
२. जो अष्ट कर्मक्षय होने से शुद्ध है, अगरीर हैं, अनंत१. 'स्व स्थलब्ध्यनुसारेण विषयेषु यः प्रात्मनः । सुख और ज्ञान में स्थित है, परम प्रभुत्व को प्राप्त है वे व्यापार उपयोगाल्यं भवेदमावेन्द्रिय च तत् ॥' सिद्ध है और निश्चय से वे ही सिद्ध हैं।
-लोकप्रकाशे० ३ ३. जिन्होंने अष्टकर्मबंधों को नष्ट कर दिया है, जो २. 'उपजोगो रणाम कोहादिकसाहि सह जीवस्स परम आठ गुणो से समन्वित हैं, नित्य है और लोकाग्र मे संपयोगो।' जयधवला, (देखे करायपाहड, कलकत्ता स्थित हैं, वे मिद्ध ऐसे होते हैं। पृष्ठ ५७६)
४. वे सिद्ध इन्द्रियो के व्यापार से युक्त नहीं है अपनी (क्षयोपश) लब्धि के अनुसार विषयो मे आत्मा और अवग्रहादिक क्षयोपशम ज्ञान के द्वारा पदार्थो को का व्यापार उपयोग है और वह भावेन्द्रिय है।
ग्रहण नही करते हैं। उनके इन्द्रिय सुख भी नहीं है, क्योकि क्रोधादि कषायों के साथ जीव के सम्प्रयोग होने को उनका अनन्त ज्ञान और अनतसुख अनीन्द्रिय है। उपयोग कहते है। मोह की सत्ता में ही उपयोग होता है ५. सिद्ध-पर्याय शुद्धआत्मोपलब्धि लक्षणवाली है। और वह सिद्धों मे नही है।
ऊपर दिए गए सभी लक्षण, जो सिद्धों के हैं, उनमें इसी भांति अब हम सिद्धों के लक्षण देखें और उनसे
देखा जाय कि कौनमे ऐसे लक्षण हैं जो संसारी (जीव नामजीव की तुलना करें कि कहीं ऐसा तो नही कि जो लक्षण
धारी) अशुद्ध आत्माओं में प्रक्ट है जिनसे उनकी सिद्धो से सिद्धो के है, वे जीवो में खरे उतरते हो, जिससे जीवों और
एकरूपता सिद्ध हो सके ? हमारी दृष्टि से तो उक्त लक्षणों सिद्धो को एक श्रेणी का मान लिया जाय ? फलत:- यहाँ
के प्रकाश मे एकरूपता के स्थान पर जीवों और सिद्धों सिदों के स्वरूप पर विचार करते है।
दोनों में सर्वथा-सर्वथा वैषम्य ही है। जीवों में आठो कर्म सिद्ध स्वरूप :
विद्यमान हैं, उनमे आठों गुणो की प्रकटता नही है, वे शान्त आचार्यों ने सिद्धो के सबंध में कहा है
नहीं हैं, कर्मकालिमा रहित नहीं हैं, उनकी जीवत्व पर्याय १. 'अविह कम्म वियता सीदीभूदा णिरजणा णिच्चा।। नित्य नही है, कृतकृत्य नहीं हैं और लोकान में अशरीर अट्टगुणा किदकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धाः ।।' रूप में विराजमान भी नही हैं। इसके विपरीत-जीव मे
-जी० कां० ६८/५० सं० १/३ १४ गुणस्थान, चार गति, पांच इन्द्रिय, काय, योग, वेद, २. गट्ठट्ठकम्मसुद्धा असरीराणंतसोक्खणागट्ठा। कषाय, लेश्या, भव्यत्व, संजित्व, और आहार है-वे सिद्धो परमपहुत्तंपत्ता जे ते सिद्धा हु खलु मुक्का ।।' में नहीं है। छह पर्याप्तियों में से सिद्धों में एक भी पर्याप्ति
-नयच० वृ० १०७ नही है, प्राण नही है, चार संज्ञाएं नहीं हैं। ऐसे में जब सिद्धों 1. 'णठ्ठठ्ठकम्मबंधा अट्टमहागुणसमपिणया परमा। के लक्षण जीव में नही और जीवों के लक्षण हो में ही