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सिद्धा रण जीवा - धवला
तब ऐसा ही मानना चाहिए कि मान्य धवलाकार का मत सर्वथा ठीक और ग्राह्य है- 'सिद्धा ण जीवाः ।' औपशमिकादि भाव: ( जीव के भाव ) :
जीवों के औपशमिकादि पांच भाव कहे है। उनमें से धवलाकार के मन्तब्यानुसार 'जीवत्व' आयुर्माचित होने से औधिक भाव है, यह सिद्धों मे नही और ओपशमिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक भाव भी उनमे नही है । शेष बचे नव- केवल-लब्धि रूप क्षायिकभाव । सो नव लब्धियो में से क्षायिकदान (दिव्यध्वनि रूप में) क्षायिक लाभ (आहार लिए बिना ही दिव्य अनत पुद्गलों के आदान रूप मे) क्षायिक भोग (पुष्पादिवृष्टि रूप में) और क्षायिक उपभोग (अष्ट प्रातिहार्य रूप में अरहंतो मे है और केवल ज्ञान, केवलदर्शन व सम्यक्त्व तथा वीर्य भी कर्मों की क्षय अपेक्षा में सशरीरी अरहन्तो के वलियो तक ही सीमित है । सिद्धो के तो सम्ययस्य अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अगुरुलघुत्व, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व अव्यावाघत्व और अनतवीर्यादि सभी गुण सर्वया ही पर-निरपेक्ष, स्वाभाविक और अनंत है, उनमें किसी भी पर-भाव की अपेक्षा नही है । आचार्य श्री उमास्वामी और अन्य टीकाकारों ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि अन्यत्र केवल सम्यक्त्व ज्ञानदर्शन सिद्धत्वेभ्यः' सूत्र ' में 'केवल' शब्द अन्य भावो के परिहार के लिए है (किसी गुण के विशेषण बनने के लिए नही) 1 सूत्र का अर्थ है कि अपवर्ग मे सम्यवश्व, ज्ञान, दर्शन और सिद्धत्व क सिवाय ( इनके सहचारी भावो को छोड़कर) अन्य भाव नहीं होते। तथाहि - 'अन्यत्रशब्दो वर्जनार्थः ' तन्निमित्तः सिद्धत्वेभ्य इतिविभक्ति निर्देशः -- २१० वा० १०/४/९ । फलत :-- - जीव बौर सिद्धो मे एकत्व स्थापित करना सभव नही । अत: - ' सिद्धा ण जीवा' कथन ठीक है । चेतन आत्मा का गुण (चेतनत्व) :
आगमो मे उपयोग लक्षण के सिवाय एक लक्षण और
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मिलता है और धवलाकार ने उसका भी सकेत किया है और वह है चेतन का गुण --चेतना । ( मालुम होता है आजाद ने चेतना को चेतन का गुण माना है और जीव का गुण गुण जीवत्व ही माना है जिसे वे औदयिक मान रहे है) यहाँ चेतना से ज्ञानदर्शन अपेक्षित है प्रतीत होता है कि उक्त लक्षण आत्मा के आत्मभूत लक्षण को दृष्टि मे रखकर किया गया है और धवला के 'चेदणगुणमवलम्ध्रविदमिदि' की पुष्टि करना है । तथा पूर्वोक्त 'उभयनिमित्तवशादुत्पद्यमानश्च तम्यानुविधायी परिणामः उपयोग लक्षण आत्मा के अनात्मभूत लक्षण को दृष्टि मे रखकर किया गया है। इनमे अनात्मभूतलक्षण का लक्ष्य कर्मजन्य जीवत्वपर्याय है, जो कर्मजन्य होने से छूट भी जाती है जबकि चेतना र विकासी आरमभूत लक्षण आत्मा की शुद्ध अशुद्ध दोनो पर्यायो में रहता है । मालूम होता है उपयोग के अनात्मभूत लक्षण को लक्ष्य कर ही आचार्य ने कहा है - 'संसारिणः प्राधान्येनोपयोगिनो मुक्तेषु तदभावात् '
ससारी प्रधानता से उपयोग वाले है, मुक्तों में उसका अभाव होने से ।
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उपयोग-दार्थोऽपि संसारिषु मुनयः परिणामातरसक्रमात् । मुक्तेषु तवभावात् गौररा कल्प्यते ।'राजवा० २/१०/४-५- उपयोग पदार्थ भी संसारियो मे मुख्य है, परिणामो से अन्य परिणामो मे संक्रमण करने से मुक्त हुओ मे अन्य परिणाम सक्रमण का अभाव होने से उपयोग गौण कल्पित किया जाता है। स्मरण रहे कि अनात्मभूतलक्षण में परिणामान्तरत्व है और वह ससारियो ( जीवो) तक सीमित है जब कि सिद्धो मे अनन्तदर्शन- ज्ञान युगपत् होने से परिणामापने का अभाव है। वहाँ अनारमभूत उपयोग का कोई प्रश्न ही नहीं। अन्यथा यदि उपयोग के उक्त अनात्मभूत लक्षण और आत्म
फ 'अनंत प्राणिगणानुग्रहकर सकलदानान्तरायसक्षयादभयदानम् ।'
कृत्स्नस्य भोगान्तरायस्य तिरोभादाविर्भूतो पंचवर्णसुरभि कुसुमवृष्टि-विविधदिव्यगन्ध-चरण निक्षेपस्थानसप्तपद्मपक्ति-सुगन्धित धूप सुखशीतमारुतादयः ......”
निरवशेषयोपभोगत रायकर्मणः प्रयात्.. सिंहासनवालव्यजनाशोक पादपश्य प्रभामंडल गम्भीरस्निग्धस्वरपरिणाम देवदुंदुभिप्रभृतयः । श्रादि- राजवा० | २/४/२५,