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________________ २४, वर्ष ४० कि० १ भूत रूप चैतन्य लक्षण में अभेद होता दोनो को एक माना गया होता (जैसा कि प्रचलित है- ज्ञानदर्शन ही उपयोग है तो आचार्य भावेन्द्रिय के लक्षण में लब्धि (ज्ञान) और उपयोग इन दो शब्दों को पृथक्-पृथक् नहीं देते और ना ही उपयोग के लक्षण मे लब्धि को उपयोग (परिणाम) का निमित्त कारण ही बताते । स्मरण रहे कि निमित्त सदा स्व से भिन्न होता है । दूसरी बात चेतना का अनात्मभूत लक्षण -- उपयोग क्षयोपशमादिजन्य होने से मात्र संसारियो (जीवों) में ही होता है। नित्य और शुद्ध चेतन आत्मा में नहीं होता । बनेकाल ऐसा भी प्रतिभासित होता है कि आत्मा के उक्त अशुद्ध और शुद्ध जैसे दो प्रकारोके परिचय कराने हेतु श्लोक वातिककार ने भी विधान किया है। वे लिखते है - निश्चय ही चैतन्यमात्र उपयोग नही होता, जिसे जीव का लक्षण माना जाय अपितु उसके साथ कर्म के अयो: शमादिजन्य चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोग होते है। यानी जीव मे चैतन्य (आत्मा का व्यापकगुण) और व्याप्य जैसे चैतन्यानुविधायी परिणाम दोनो होते है तथा प्रधान ( शुद्ध आत्मा जिसे हम सिद्ध नाम से कह रहे है) में केवल चैतन्य होता है; चैतन्यानुविधायी परिणाम नहीं होते। इस प्रकार जीव और सिद्ध दोनो में त्रमश:- हेतुद्वय होने और न होने जैसे भिन्न-भिन्न दो विकल्प है। उक्त सदमे मे मालूम होता है कि मोक्षमार्ग प्रसग में 'जीव' नाम का जो सकेत है, वह मात्र चेतन ( आत्मा ) की अशुद्ध दशा को लक्ष्यकर जीवअर्थात् ससारी को क्रमबद्ध तत्वों के परिज्ञानार्थ है और क्रमवद्ध मोक्षमार्ग दिग्दर्शन मात्र में है, क्योंकि अशुद्ध को ही शुद्धि की ओर जाना होता है-शुद्ध तो स्वय वर्तमान में शुद्ध है ही, उसे सबोधन की क्या आवश्यकता ? -- 'अत्र हिन चैतन्यमात्रमुपयोगो यतस्तदेव जीवस्य लक्षण स्वात् कि हि ? चैतन्यानुविधायी परिणामः स चोपलब्धुरात्मनो न पुनः प्रधानादेः चैतन्यानुविधावित्या ऽभावप्रसंगात् । - न चासावहेतुको वाह्याभ्यन्तरस्य च नोयोपासनुपात्तविकल्पस्य सन्निधाने सति भावात् ।' - श्लोक वा० २ / ८ उपयोग के बारह भेद : शास्त्रों में उपयोग के जो बारह भेद कहे गए हैं वे कर्मों की अपेक्षा में, वतन के अनात्मभूत लक्षण को दृष्टि में रखकर किए गए हैं। क्योंकि उपयोग क्षयोपशम जन्य अवस्था में ही संभव है और सिद्धों में उसकी संभावना नहीं सिद्धों में जो केवलदर्शन और केवलज्ञान का व्यपदेश है, वह असहाय दर्शन ज्ञान के भाव में है- उपयोग के भाव में नहीं । अन्त भगवन्तों में भी जीवत्व के कारण, उपयोगरूप में व्यपदेश उपचार मात्र है । वास्तव में तो शुद्ध चैतन्य अभेद है, उसमें जो मतिज्ञान आदि जैसे भेद दर्शाए गए है वे कमपेक्षित दशा के सन्दर्भ में ही है और उनके निमित्तान्तरोत्पन्न विभिन्न नामकरण भी परस्पर में एक दूसरे में भेद दर्शाने की दृष्टि से ही किए गए हैं पृथव बताने को किए गए हैं---वे सब भेद परापेक्षित ही है। सिद्धों के स्वाश्रित होने से वे असहाय अन शुद्ध ज्ञान दर्शन के धनी है उनमें ज्ञान दर्शन तो है पर, क्षयोपशम जन्य जंसा उपयोग नही है । और उपयोग न होने से वे जीव श्रेणी मे भी नही है । फलत:'सिद्धा ण जीवा' कथन उचित है। - इतना ही नहीं। राजपातिककार ने तो जीव के लक्षण उपयोग को इन्द्रिय का फल तक कह दिया है इन्द्रियल मुपयोगः । - २ / १८/३ और कारण धर्म में कार्य की अनुवृत्ति मान ली है। ऐसे मे जब उपयोग इन्द्रियजन्य फल है तब वह फल अतीन्द्रिय अशरीरी सिद्धों में कहाँ से कैसे पहुच गया? जो उन्हें उपयोग लक्षणवाले जीवों में बिठाया जाने लगा । यदि 'इन्द्र' शब्द के आत्मवाची रूप से यथाकथचित् इन्द्रिय शब्द भी माना जाय, तो जहां चेतन का स्वरूप स्वाभाविक और कल्पनातीत है वहां फल मानने की कल्पना कोरी कल्पना खर-विषाणवत् ही होगी । धवलाकार तो पहिले ही कह चुके हैं कि क्षयोपशमजन्य उपयोग इन्द्रियजन्य है, वह सिद्धों में नहीं है।' देखें पहला० १०१.३३, फलतः सिद्धा ण जीवा' यह आचार्य का वाक्य सर्वथा युक्ति-सगत है और ठीक है। ---
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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