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दो शास्त्रीय प्रसंग
o आचार्यकल्प १०८ श्री श्रुतसागर जी महाराज १. "दंसण भट्टा भट्टा..."
ऊपर की श्रेणी वालों के लिए विषम्भ है यानी जो दंसण भट्टा भट्टा सणभट्टस्स णत्यि णिव्वाण । प्रतिक्रमण रूप चारित्र से भ्रष्ट हैं, "वे बुद्धिपूर्वक बाहरी सिज्झति चरियभट्टा दसणभट्टा ण सिज्झति ॥3॥ पंच महाव्रत के पालन से भ्रष्ट हैं, वे तो ध्यानमग्न हैं,
-दर्शनपाड : कुन्दकुन्दाचार्य आत्मलीन हैं। नीचे की अवस्था में यानी जो बुद्धिपूर्वक गाथार्थ-सम्यग्दर्शन से जो भ्रष्ट हैं यानी आज तक पच महाव्रतादि का पालन करते हैं उनके लिए प्रतिक्रमण जिन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति नही हई, उसको निर्वाण की
अमृतकुम्भ है- इस सन्दर्भ में समाधितत्र की गाथायें प्राप्ति नही हो सकती। (कारण जिसे एक बार भी सम्यक्त्व
(८३-८४) ध्यान देने योग्य हैहो गया तो वह भ्रष्ट होकर भी अधिक से अधिक अर्द्ध
अपुण्यमव्रतः पुण्यं व्रतर्मोक्षस्तयोर्व्ययः । पुदगल परावर्तन के बाद निर्वाण को अवश्य प्राप्त होगा।)
अखतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ॥३॥ जो चारित्र से भ्रष्ट है, वह निर्वाण को प्राप्त होता है अव्रतानि परित्यज्य व्रतेष परिनिष्ठितः । (सिज्झति) परन्तु दर्शन से भ्रष्ट जीव निर्वाण को प्राप्त त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य परमं पदमात्मनः ॥२४॥ नही होता।
अर्थ-हिंसादि पाँच अवतो के अनुष्ठान से पाप का उपर्युक्त गाथा का टीकाकारो ने ऐसा अर्थ किया है बन्ध होता है और अहिंसादिक पांच व्रतो के पालन से कि जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है यानी जिनका सम्यग्दर्शन पुण्य का बन्ध होता है । पुण्य और पाप दोनों कर्मों का जो (होकर) नष्ट हो गया है उन्हे कभी मोक्ष की प्राप्ति नही विनाश है, वही मोक्ष है अतः मोक्ष के इच्छुक भव्य पुरुष हो सकती तथा जो चारित्र से भ्रष्ट है और जिनका को अब्रतो की तरह व्रतो को भी छोड़ना चाहिए ॥३॥ सम्यग्दर्शन बना हुआ है, वे तो चारित्र धारण कर मोक्ष हिंसादिक पांच अव्रतों को छोड़ करके अहिंसादिक की प्राप्ति कर सकते है।
वों मे निष्ठावान रहे अर्थात् उनका दृढ़ता से पालन करे, यहाँ विचारणीय बात यह है कि जैसे चारित्र से भ्रष्ट फिर आत्मा के रागद्वेषादि रहित परम वीतराग पदको हा प्राणी फिर चारित्र धारण कर निर्वाण प्राप्त कर प्राप्त करके उन व्रतों को भी छोड देवे। सकता है वैसे ही एक द्रव्यलिंगी मुनि भी सम्यक्त्व को सपक श्रेणी आरूढ साधु अपूर्वकरणादि गुणस्थानों में प्राप्त करके निर्वाण को प्राप्त कर सकता है। पर गाथा व्रतों का पालन बुद्धिपूर्वक न करते हुए भी (उनके अभाव का अभिप्राय ऐसा नहीं लगता । गाथा तो 'चारित्रधारण' में भी) निर्वाण को प्राप्त कर सकता है। यानी भेद का सकेत ही नहीं करती अपितु घोषित करती है कि रत्नत्रय रूप चारित्र का पालन न करते हुए चारित्रघ्रष्ट 'सिज्झति चरियभट्टा'। यही बात गम्भीरतपूर्वक विचार साधु "सिजमंति'। करने योग्य है। (क्योंकि यदि चारित्रभ्रष्ट चारित्र धारण पंचास्तिकाय गाथा ३७ में मोक्ष जीवों का अस्तित्व करे तो दर्शन प्रष्ट भी तो सम्यक्त्व धारण कर सकता है सिद्ध करने के लिए अमनचन्द स्वामी की टीका में पाठ और मोक्ष जा सकता है।) तो फिर इस "सिझति भाव दिए गये हैं-शाश्वत-नाश्वासत ; भाव्य-अभाव्य, परियभट्टा' पद के प्रयोग में क्या रहस्य है ?
शून्य-प्रशून्य, मान-अज्ञान । अर्थात् मुक्त जीव भब्य भी है श्री समयसार जी में कथन आता है कि प्रतिक्रणम और अभव्य भी, मादि ।