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णमो आयरियाणं
श्री पप्रचन्द्र शास्त्री
आचार्य और साधु दोनों पदों में अन्तर है। आचार्य करना मात्र है और स्व-अनुशासन व साधना से उतना अनुशास्ता हैं और साधु साधक । तत्व दृष्टि से यहां अनु- प्रयोजन नहीं जितना प्रयोजन दि. साधु को होना चाहिए। शास्ता का भाव पर से भिन्न अपनी आत्मा पर शासन हो सकता है कि आज के कुछ आचार्यों में भी ऐसी सूझ करने वाला है और वह इसलिए कि शुद्ध दिगम्ब रत्व में घर कर बैठी हो और वे पर कब शासक बनाने या प्रचार स्व-स्व में ही है, वहां पर के विकल्प या पराए पर शासन और समाजिक सुधार को प्रमुख कर साधक पद को गौण करमे को स्थान ही नहीं है। इसमें साधना भी है और कर बैठे हों तब भी आश्चर्य नहीं। अस्तु, यदि व्यवहार अनुमास्तापन भी । एतावता आचार्य (साधु और अचार्य) मनि-मार्ग चलाने के लिए ऐसा माना भी गया है और अब दोनों श्रेणियों में हैं और ' णमो आयरियाण" पाठ भी इसी भी माना जाए तोदृष्टि में है। पर, बाज हम परिग्रह के मोह मे अतीत के
सभी जानते हैं कि दिगम्बर वेष धारण करना बड़ा उक्त तथ्य को नकार कर मात्र व्यवहार की ओर इतने
प्रादर्श और कठिन कार्य है । तीर्थकर आदि महापुरुषों को मुके है कि जो सघ सर्वथा स्व से भिन्न है-परिग्रह रूप
वज्र्य, पहिले किसी को दीक्षा देने की परम्पराएँ ऐसी रही है, अपरिग्रही गहाव्रती साधु के लिए सर्वथा परिग्रह है,
हैं कि जो किसी लम्बे काल १०-१५ वर्षों तक मुनि संघ उस परिग्रह पर शासन करने वाले को आचार्य मान बैठे।
में रह कर क्रमशः ब्रह्मचारी, क्षुल्लक, ऐलक जैसे पदों का हैं-स्व-अनु-शासक और माधक जैसे तथ्यों को तिरस्कृत
पूर्ण अभ्यास कर चुका हो, और परिपक्व प्रायु हो, वही कर बैठे हैं। अन्यथा, लोगों की उक्त मान्यता का विरोध
मुनि-पद में दीक्षित होने का श्रेय प्राप्त कर सकता था। तो इसी से हो जाता है कि जब हम उन्हें दिगम्बर अपरि
ऐसे में उसके पद से च्युत होने की कदाचित् सम्भावना ग्रही, महाव्रती मान बैठे तब उनमे संघ-परिग्रह जैसा
कम होती थी। पर आज तो लम्बी अवधि के ऋमिक परिग्रह भी क्यों? क्या मात्र धन-धान्णाद ही परिग्रह है
अभ्यास के बिना ही युवक-युवतियों में दीक्षा देने और या साधु-संस्था की संभाल का विकल्प परिग्रह नही है ?
लेने जैसी प्रवृत्ति भी अधिक दृष्टिगोचर हो रही है। हम यदि ऐसा है तब तो परिग्रह के अन्तरग चौदह भेद भी
समझते हैं कि कहीं ऐसी प्रवृत्ति सम्राट् भरत के ग्यारहवें परिग्रह.नहीं कहलाए जाने चाहिए।
स्वप्न फल को सत्य रूप में चरितार्थ करने के लिए ही स्थिति कुछ ऐसी बन रही है कि जैसे हम परिग्रही तो नहीं अपनाई जा रही? यदि हमारा कथन ठीक है तो अपने को परिग्रह का स्वामी माने हुए हैं वैसी ही धारणा विद्यमान ऐसे वय-वृद्ध आचार्य और मुनि-गण (जो मंतर. मूलतः व्यवहार आचार्य पद मे भी कर बैठे हैं । फलस्वरूप जंतर, टोना-टोटका आदि करते-कराते हैं) के प्रति चचित हमने केवल इतना मान लिया है कि आचार्य का कार्य अपवाद भी-स्वप्न फल को सत्य करने हेतु-सही होने संघ रूपी परिग्रह पर अनुशासन करना, उसकी संभाल चाहिए क्योंकि स्वप्न फल* के अनुसार इस काल में वृद्ध
ऊंचे स्वर से शब्द करते हुए तरुण बल का विहार देखने से लोग तरुण अवस्था में ही मुनि-पद में ठहर सकेंगे, अन्य अवस्था में नहीं।"
--"पार्श्व ज्योति" दिनांक १५-२-८७