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________________ जरा सोचिए ! १. कितनी दूर कितनी पास ? ये पद ग्रहण नहीं किए। फिर ये पद स्व-हेतु मंगलोत्तम शरणभूत भी नही है । कहा भी हैचौबीसों तीर्थंकरों के चरित्र पढ़ने वाले स्वाध्यायी इन प्रश्नो के सहज उत्तर खोजें कि कौन-कौन से तीर्थकर "चत्तारि मंगल । अरहंता मंगलं, सिद्धा मंगल, साह ऐसे हैं जिन्होंने साधु-पद अंगीकार कर केवलज्ञानी हाने की मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मगल । चत्तारिलोगुत्तमा, अवस्था के पूर्वक्षणपर्यन्त साधु-पद मात्र का निर्वाह किया अरहंता लोगुत्तमा सिद्धालोगुत्तमा, साहू-लोगुत्तमा, और आचार्य-उपाध्याय पद नही लिया? और कौन से ऐसे के वलिपण्णत्तो धम्मोलोगुनमा। चत्तारि सरणं पवज्जामि । अरहते सरण पवज्जामि, सिद्धे सरण पवज्जामि, साहसरणं हैं जिन्होंने बीच के काल में आचार्य और उपाध्याय पद स्वीकार किए ? यह भी देखे कि किन तीर्थंकरों ने किन्हें- पर्व पवज्जामि, केवलिपण्णत्त धम्म सरणं पवज्जामि।"किन्हें स्वयं दीक्षित कर उन्हें स्व-शिष्य घोषित किया? उक्त प्रसग में आचार्य और उपाध्याय पदों को हमारी दृष्टि से तो सभी तीर्थकर न तो आचार्य उपाध्याय छोड़ दिया गया है। क्योकि परमार्थ दृष्टि से आचार्य और जैसे पदों से जुडे और ना ही उन्होने स्वयं के लिए चेला- उपाध्याय दोनों ही पद-स्व के लिए न तो मंगलरूप हैं, घेली बनाए । जिसने भी दीक्षा ली उनके चरणों की सामी- ना ही उत्तम हैं और ना ही ये परमार्थ में शरणभूत हैं। पूर्वक स्वयं ही ली। ऐसा क्यों? आचार्य पद तो मजबूरी में गुरुआज्ञापालनार्थ और संघ हम समझते हैं-पंच परमेष्ठियों मे सिद्ध परमेष्ठी सचालनार्थ लेना पड़ता है, कोई खुशी का त्यौहार नहीं है, जो लोग इममे लाखो-लाखों का द्रव्य व्यय कर लोक सर्वोत्कृष्ट, अात्मा के शुद्ध रूप हैं और अहंन्त दूसरे नम्बर पर है। तथा आचार्य-उपाध्याय और साधु इन तीनो पदों दिखावा करें और जय-जयकार करें। ये पद तो साधु की स्वसाधना में शिथिलता लाने और पर की देखभाल करने में-मोक्षमार्ग की दृष्टि से-साधु सर्वोच्च और उत्तम जैसी उलझनों में फंसाने वाला है। इस पद पर बैठने हैं। प्रश्न होता है यदि उपर्युक्त क्रम सही है तो णमोकार वाला कांटों का ताज जैसा पहिनता है-उत्तरदायित्व मंत्र में जो क्रम है वह क्यों ? वहाँ अर्हन्तों को प्रथम और निर्वाह के प्रति उसकी जिम्मेदारी बढ जाती है। वास्तव साधुओं को अन्त में क्यों रखा गया ? में तो 'शेषाः-वहिवाभावाः, सर्वे संयोगलक्षणाः' और तत्त्व-दृष्टि से देखा जाय तो हम व्यवहारी हैं और 'अहमेव मयोपास्यः' ही तथ्य है। उक्त स्थिति में कौन सा व्यवहार में हमारा उपकार अहंन्तों से होता है तथा पद मोक्षमार्ग से दर और कौन-सा पद मोक्षमार्ग के निकट आचार्य व उपाध्याय साधु-पद मे दृढ़ता के लिए मार्ग दर्शक है तथा कौन-सा पद छोड़ना और किसकी ओर दौड़ना होते हैं, इस दृष्टि से ऐसा क्रम रख दिया गया है। इष्ट है और आज क्या हो रहा है ? जरा सोचिए ! अन्यथा यदि आचार्य पद-मोक्षमार्ग में, श्रेष्ठ होता तो किसी आचार्य को सल्लेखना करने के लिए भी अपने मलेखना करने के लिए भी अपने २. कौन-सी परम्परा सही? प्राचार्य पद का त्याग करना न पड़ता । यह निश्चय है कि आज परम्परा शब्द भी परम्परित (गलत या सही) 'पर' के उत्तरदायित्व के निर्वाह का त्याग किए बिना स्व रूप धारण करता जा रहा है और इस शब का संबंध की माधना नहीं हो सकती। फलत: स्व. साधना मे आचार्य वास्तविकता से न रहकर कोरी परम्परा (Direct या पद त्यागना अनिवार्य है-निश्चय ही आचार्य पद मुक्ति- Indirect) से रहने लगा है। जैसे तीर्थकर महावीर की बाधक है। यही कारण है कि तीर्थंकरों ने मुक्ति से दूरस्थ परम्परा का वास्तविक रूप हमारी दृष्टि से मोझल हो
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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