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________________ १२,४०० २ गया है और बाज दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी, व तेरापंथी सभी अपने को भगवान महावीर की परम्परा का घोषित कर बैठे हैं । वंसे ही आचार्यों की परम्परा भी विविध रूपों को धारण किए जा रही है। आचार्य शान्तिसागर जी ने अपना आचार्यत्व अपने द्वारा अनुरूपतपस्वी, निर्भय, निर्दोष आचारपालक मुनि श्री वीरसागर जी को सौपा और उसका समर्थन सघ के समस्त साधुगण ने किया श्री वीरसागर के बाद उनके आचार्यपट्ट पर क्रमशः श्री शिवसागर जी और श्री घागर जी विराजमान हुए लोग कहते है धर्ममागर हुए — लोग कहते है कि श्री आचार्य शान्तिसागर जी न अपना पट्टाचार्यत्व श्री पायसागर जी को नहीं दिया अपितु उन्होंने कुम्यगिरि मे अपनी सल्लेखना के अवसर पर अपना आचार्य पद वहाँ उपस्थित विशाल जन समुदाय के बीच श्री बीर सागर महाराज को प्रदान करने की घोषणा की और आचार्य श्री द्वारा प्रदत्त पीछी कमण्डलु श्री वीरसागर को जयपुर में एक विशाल आयोजन मे विशाल चातुविध संघ के समक्ष विधिपूर्वक अर्पित किए गए। यह एक पक्ष है । दूसरा पक्ष है शान्तिसागर से मुनिरूप मे दीक्षित मुनि श्री पायसागर जी थे और उनसे दीक्षित मुनि श्री जयकीर्ति थे और उनके शिष्य आचार्य श्री देशभूषण जी थे— जो श्री पायमागर जी की परम्परा के पट्टाचार्य थे । उक्त दोनों परम्पराओ में आचार्य शान्ति सागर जी की पट्टाचार्य परम्परा कौन-सी मानी जाय ? प्रा० धर्मसागर जी वाली या आचार्य देशभूषण जी वाली? हालाकि धावकों के लिए दोनो ही पूज्य है पर पूज्य होते हुए भी भ्रम-निवारणार्थ वस्तुस्थिति तो समझनी ही होगी और यह भी समझना - सोचना होगा कि क्या अन्य पूर्वाचार्यों की परम्पराएँ भी कभी ऐसी विवादास्पद स्थितियों में हो निश्चित हुई होगी। जरा सोचिए । ३. देखते-देखते धांधला ? एक कथा है-एक दिन वज्रदन्तचक्रवर्ती अपनी सभा मे विराजमान थे। एक माली ने उन्हें एक सुन्दर मुकलित बगेकान्स कमल लाकर भेंट किया । उसमें एक मरे हुए भोरे को देखकर महाराज विचारने लगे देखो, एक नासिका इन्द्रिय के वशीभूत होने से इस भ्रमर की जान चली गई तो फिर मैं तो रात्रि दिवस पचेन्द्रिय के भोगोपभोग में लीन हो रहा हूं, कभी तृप्ति हो नहीं होती। यदि मैं इनको स्त्रय नही छोड़ दूंगा, तो एक दिन मेरा भी यही हाल होगा । ऐसा विचार कर ससार से उदास हो वे अपने पुत्र अमिततेज को राज्य देने लगे, परन्तु उसने कहा-पिता जी, जिस कारण श्राप इस राज्य को छोड़ते हैं, मैं भी इसे छोड़कर आपके साथ क्यों न चलूं ? वज्रदन्त के बहुत समझाने पर भी राज्य को जूठन समान जानकर उसने स्वीकार नहीं किया । अन्य पुत्रो को कहा तब वे भी अमिततेज के ही अनुयायी निकले। जो उत्तर अमिततेज से मिला या यही सब से मिला निदान अमिततेज के पुत्र पुण्डरीक को राज्य देकर यशोधर तथंकर के चरणो के निकट महाराज वज्रदन्त ने दीक्षा धारण की।' हमने पू० आचार्य देशभूषण जी के आचार्य पट्ट ग्राहकत्व के लिए प्रचारित ( दो मुनियों के प्रति ) विभिन्न दो प्रकार की सूचनाएँ प्रकाशित देखी और दोनो सकल (समस्त ) दि० जैन समाज के नाम से प्रसारित देखी। समझ में नही आया कि सकल (एक) ने दो-रूप कैसे धारण कर लिए? सकल शब्द एकत्व का सूचक हैद्वित्व का नहीं । ऐसे सकल के नेतापन का दावेदार कौन ? जो भेदवाद पर अंकुश न लगा सका हो ? स्पष्ट तो यहो होता है कि समाज पर किसी का अकुश नही सकल के भी कई भेद और कई नायक जैसे मालुम देते है नश्यन्ति बहुनायकाः ।' - हमारी दृष्टि से तो सच्च दिवम्बर मुनि ऐसे विवादों मे सदा तटस्य और उदासीन ही रहते है वे अमिततेज आदि धाताओ की भाति और उससे भी कहीं अधिक विरक्ति का भाव दर्शाते है। यदि कहीं कोई विसंगति होती है तो भ्रमोत्पादक नेताओ की प्रेरणा से ही होती है - सच्चे साधु की ओर से नहीं स्मरण रहे साधुपद, । - ज्ञाता साधु की मर्यादाएँ, साधुकी क्रियाएँ बहुत उच्च है वे साधु के अध्यक्षस्व की ही अपेक्षा रखती है। फलत उनके -
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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