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गतांक से आगे :
मूलाचार व उसकी आचार वृत्ति
आगे लाचार गाय २०२ मे निर्दिष्ट ज्ञानावरणादि आठ मूल प्रकृतियों की जयम्य स्थिति को विशद करते हुए वृत्ति में जो उनके साथ उत्तर प्रकृतियों को भी जघन्य स्थिति का निरूपण किया गया है वह पखण्डागम के इन सूत्रों का छायानुवाद है
पचण्ड णाणावरणीयाण चदुण्ह दसणावरणीयाण लोभसजलणस्म पत्रमतराइयाण जहण्णओ द्विदिबंधो अतोमुहुत्त । ष० ख० सूत्र १, ६-७, ३ (५० ६, पृ० १५२ )
यथा
पचज्ञानावरणचतुर्दर्शनावरण- लोभयज्वलन यचातरामाणा जघन्या स्थितिरन्तर्मुहूर्ता (मूला वृत्ति गा० १२-२०२ ) ।
श्रागे के इस प्रसग का मिलान क्रम के बिना इन ६० ख० के सूत्रों से कर लीजिए -६, ४१, १०, २१,६, १२, १५, २४, २७, ३१, ३५, ३८ व पुनः २४ ।
विशेषता :
दोनो ग्रन्थगत इस प्रसग मे अभिप्रायभेव के बिना शब्दभेद कुछ हुआ है जो इस प्रकार है
(१) सूत्र १५ मे जहाँ प० ख० पे 'बारह कषाय' ऐसा सामान्य से कहा गया है वहा इस वृत्ति मे विशेष रूप मे उन वार काय का नाम अनन्तानुबन्धी आदि के रूप में किया गया है । (ज्ञा० पी० सं० २, पृ० २८० ) ।
(२) सूत्र २४ मे ष० ख० में जहाँ स्त्रीवेद आदि के रूप मे पृथक पृथक आठ नोकवायो का नामनिर्देश किया गया है वहां इस वृत्ति मे 'आठ नोकषाय' के रूप मे सामान्य से कर दिया गया है ।
(३) सूत्र ३५ के समान इस वृत्ति मे वैकियिक अंगो
[ पं० बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री
पांग के साथ 'वैऋियिक शरीर' का भी उल्लेख किया जाना चाहिए था जो नहीं हुआ है। यह अशुद्धि लिपिकार या प्रूफ संशोधन के प्रभाववश हुई है। बम्बई संस्करण में यहां नरकगति के आगे 'देवगति छूटा है, उसे शा० पी० संस्करण मे ले लिया गया है ।
(४) आहार शरीर, आहार शरीरांगोगंग और तीर्थकर प्रकृतियों को जघन्य स्थिति का निर्देश करते हुए वृत्ति में 'कोटी कोट्योऽन्तःकोटीकोटी' के स्थान मे मात्र 'अन्तः कोटीकोटी' ही होना चाहिए था 'कोटीकोयों का ग्रहण अशुद्ध हे पहा बम्बई] संस्करण में 'आहारशरीर छूटा था, उसे ज्ञा० पी० संस्करण में 'आहार' इतने मात्र से ग्रहण कर लिया गया है ।
(५) ० ० सूत्र में जहां स्त्रीवेद आदि माठ लोकवायों के पृथक पृथक नामनिर्देशपूर्वक उनके साथ तिर्यंचगति व मनुष्यगति आदि अन्य कुछ प्रकृतियों को भी ग्रहण किया गया है वहा इस वृत्ति में वृत्तिकार द्वारा आगे 'शेषारणां सागरोपमस्य द्वौ सप्तभागौ' इत्यादि कहकर उन अन्य प्रकृतियों की सूचना ही की गई है, स्पष्ट उल्लेख उनका नहीं किया गया है ।
(६) एक उल्लेखनीय अशुद्धि यहां वृत्ति में यह हुई है कि 'मिथ्यात्वस्य सागरोपमस्य सप्तदश भागाः कहा गया है जो निश्चित ही अशुद्ध है । 'सप्तदशभागा' के स्थान मे सप्त सप्तभागाः' ही होना चाहिए या (ज्ञा० पी० स०२, पृ० ३७९-८० ) जिसका अभिप्राय एक । सागरोपम ७/७) होता है ।
वह ष० खं० के 'मिच्छतस्स जहण्णगोट्ठिदिबंधो सागरोवमस्स सत्त सत्तभागा पनिदोवमस्स असवेज्जदिभागेण ऊनिया इस सूत्र (१०, १२, ५०६, पृ० १०९) से सुस्पष्ट है।