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रेल की जैन प्रतिमा
D डा० प्रदीप शालिग्राम मेश्राम
महाराष्ट्र राज्य के अकोला जिले में अकोला से लगभग सात सर्पफणों का छत्र भी सम्मिलित है। पादपीठ का २० मि. मी. दूर चौहाटा के पास "रेन" नामक एक छोटा-सा कस्बा है। यहाँ उगलियो पर गिनने लायक पार्श्वनाथ के सिर पर भगवान बट के जणीष की दिगंबर जैन परिवार बसे है। अधिकांश परिबारो मे भांति तीन धुंघराले केशों की लटें मात्र है। शेष भाग केश पीतल की बनी अधुनिक मूर्तियां पूजा मे है। लेकिन रहिन या मुण्डित है जिस पर सर्पकण अवशिष्ट है। कान श्री शंकरराव फलंबरकार के घर एक सफेद संगमरमर की कधं पर लटक रहे हैं आंखें अधखली हैं तथा भौहें लंबी पनी पार्श्वनाथ की मति बरबस ही ध्यान खीव लेती हैं। हैं ओठ किंचित मोटे हैं तथा नासाग्र सीधा है ग्रीवा तथा यह मति उनके मदिर प्रकोष्ट मे है तथा रोज पूजी जाती पेट का हिस्सा समतल है किन्तु सीना थोड़ा बाहर निकला है। शोधकर्ता किसी व्यक्तिगत कार्य से रेल गया था तब प्रतीत होता है जिसके मध्य मे श्रीवत्स चिह्न अकित है। यह मति देखने का अवसर मिला। लेखक फुलबरकारजी स्तनों के धुंडियों की जगह बारीक छिद्र मात्र दृष्टिगोचर का जिन्होने कुछ मिनट मूर्ति का अध्ययन करने होते है । नाभी को अर्धचंद्रकार रूप मे प्रदर्शित किया गया का अवसर दिया।
है। इसके नीचे तीन चौकोर पद्मकों का अंकन है। सभवत: सफेद संगमरमर की बनी २३वे तीर्थकर अधोवस्त्र को बांधने के लिए मेखला के रूप मे इसे उपयुक्त पार्श्वनाथ की पपासन मुद्रा में बैठी यह अत्यत आकर्षक किया गया हो। लेकिन प्रतिमा में वस्त्र के कही भी लक्षण प्रतिमा है। यह" लबे तथा एक इच मोटे पादपीठ पर नही है। इसके सामने ही बायें हाथ पर दाहिना हाथ रखा बनी है। पादपीठ सहित मूर्ति की ऊचाई बारह इच याने है जिनकी चारों उंगलियां स्पष्ट दिखाई देती है जो अगुष्ठ एक फीट है। इसमे पाश्वनाथ के सिर पर दो इच ऊँचे में जुड़ी हुई है। (पृ० ७ का शाष)
मूर्ति को धोते समय जल सग्रहन की सुविधा हो शुभोपयोग श्रमण गृहस्थ अथवा मुनिधर्म की चर्या से युक्त इसलिए कमर के चारों ओर खांच नुमा परिघा बनाई गई श्रावक और मुनियो का निरपेक्ष हो दयाभाव से उपकार है। जिससे पानी मूर्ति के पीछे न बहे इतना ही नही करे । शुभोपयोगी मुनि किसी अन्य मुनि को रोग से, भूख नाभी के नीचे जो स्थान बना है उसमें पानी बाहर निकलने से, प्यास से अथवा श्रम-थकावट आदि से पाकात, देख के लिए एक छिद्र बनाया गया है जो सहजता से दृष्टिगोचर अपनी शक्ति के अनुसार स्वीकृत करें अर्थात् वयावृत्य नही होता। द्वारा उसका खेद दूर करे । ग्लान (बीमार) गुरु बाल पाश्वनाथ के सिर पर सात सपंफण का छत्र प्रदशित अथवा वृद्ध साधुओ की वैयावृत्य के निमित्त शुभ भावों किया गया है जिसमें वह ध्यानमुद्रा में विराजमान है। सहित लौकिक जनों के साथ वार्तालाप भी निन्दित प्रत्येक फन पर दोनों ओर दो-दो वर्तुलाकार आँखें उत्कीर्ण नही है।
की गई है। सिर पर धरे सातो सर्प फन पीछे में भी सिर मुनियों और धावकों का शुमोपयोग-शुभराग रूप पर सात खांचाओं से अकित है जो गर्दन तक पहुंच कर प्रवृत्ति मुनियो के अल्प रूप मे और गृहस्थो क उत्कट रूप एक मे विलीन हो जाते हैं। इतना ही नही रीढ़ की हड़ी मे होती है। गृहस्थ इसी शुम प्रवृत्ति से उत्कृष्ट सुख के साथ इसे एकाकार कर कमर के नीचे तक पहुंचाया प्राप्त करते हैं।
(शेष पृ० १६ पर)