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वर्ष ४०,
कि० २
अनेकान्त
२ सर्वार्थसिद्धि - (१) मूलाचार गा० १ १६ की वृत्ति मे जो विभिन्न इन्द्रियो के स्वरूप आदि को स्पष्ट किया गया है उसमें अधिकांश सन्दर्भ थोड़े से परिवर्तन के साथ प्रायः सर्वार्थसिद्धि (सूत्र २, १७-२० ) से जसा का तैसा ले लिया गया है । यथा
कर्मणा निर्वर्त्यते इति निवृत्तिः । सा च द्विविधा बाह्याभ्यन्तरा चेति । उत्सेधाङ्गुल्य संख्येयभागप्र मितानां शुद्धानामात्मप्रदेशानां प्रतिनियतचक्षुः श्रोत्र- प्राण- रसन- स्पर्श नेन्द्रिय संस्यानेनावस्थितानां वृत्तिराभ्यन्तरा निवृत्तिः । तेष्वात्मप्रदेशेषु इन्द्रियव्यपदेशभाग् यः प्रतिनियत संस्थान नामकर्मोदयापादितावस्थाविशेषः पुद्गल - प्रचयः बाह्य निर्वृत्ति | ...एवं श्रोत्रेन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय- रसनेन्द्रियस्पर्शनेन्द्रियाणां वक्तव्यं बाह्याभ्यन्तरमेवेन द्वैविध्यम् । मूला० वृत्ति १-१६.
सा
निर्वर्त्यते निष्पद्यते इति निर्वृत्तिः । केन निर्वत्यंते ? कर्मणा । सा द्विविधा बाह्याभ्यन्तरभेदात् । उत्सेधांगुलासख्येयभाग प्रमितानां शुद्धानामात्मप्रदेशानां प्रतिनियतचक्षुरादीन्द्रिय संस्थानेनावस्थितानां वृत्तिराभ्यन्तरा निर्वृतिः । तेष्वात्मप्रदेशेष्विन्द्रियव्यपदेशभाक्षु यः प्रतिनियत संस्थानो नामकर्मोदयापादितावस्थाविशेषः पुद्गलप्रचयः सा बाह्या निवृत्तिः । एवं शेषेष्विन्द्रियेषु ज्ञेयम् । स० सि०
२-१७.
मूलाचार वृत्ति में यहा जो बुद्धिपुरःसरपरिवर्तन किया गया है व जिससे कुछ अभिप्राय का भेद नही हुआ है उसे दोनो मे रेखांकित कर दिया गया है।
इसी प्रकार लब्धि और उपयोग भावेन्द्रियों के स्वरूप आदि को सर्वार्थसिद्ध २ १८ और स्पर्शनादि इन्द्रियों के स्वरूप को स० सि० २ १६ से मिलाया जा सकता है ।
(२) मूलाचार गा० ८-१४ की वृत्ति मे जो पाच परिवर्तनों का निरूपण किया गया है वह सब सन्दर्भ शब्दशः सर्वार्थसिद्धि २- १० से लिया गया है। यहां एक यह विशेषता रही है कि सर्वार्थसिद्धि मे पाच परिवर्तनों का नामनिर्देश किया गया है, पर यहां (मूल गाथा में ) चा परिवर्तनों का नामनिर्देश किया गया है तथा वृत्ति
मे 'भवपरिवर्तन' के विषय में यह कह दिया है-भवपरि
वर्तनं चात्रेव दृष्टव्यमन्यत्र पंचविधस्योपदेशात् । 'अन्यत्र ' के कहने से कदाचित् द्वादशानुप्रेक्षा ( कुन्दकुन्द) और सर्वासिद्धि का अभिप्राय सकता है, किन्तु उनके नाम का उल्लेख स्पष्टतया नहीं किया जा सका है। दूसरी एक विशेषता यह मी रही है कि स० सि० में जो उपर्युक्त प्रसंग में 'उक्तं च' कह कर क्रम से "सब्वे वि पुग्गला खलु" आदि पाच गाथाओ को उद्धृत किया है उन्हें यहां उद्धृत नही किया गया है । वे गाथायें यथा क्रम से आ० कुन्दकुन्द विरचित द्वादशानुप्रेक्षा मे २५ - २६ गाथांकों मे उपलब्ध होती है । अन्यत्र कही से उद्धरण देना यह वृत्तिकार वसुनन्दी को अभिप्रेत नहीं रहा ।
(३) मूलाचार में जो "सुहुमे जोगविसेसेण" इत्यादि गाथा (१२-२०४) उपलब्ध होती है उसकी वृत्ति मे गाथागत पदों की सार्थकता स्पष्ट की गई है। उधर तत्त्वार्थसूत्र में जो "नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्" इत्यादि सूत्र ( ८-२४) उपलब्ध होता है वह सम्भवत: मूलाचार की इसी गाथा पर आधारित है। इस सूत्र की व्याख्या करते हुए सर्वार्थसिद्धि मे सभी सूत्रगत पदों की सफलता को स्पष्ट किया गया । इन दोनो मे उपयुक्त सन्दर्भ शब्द व अर्थ से बहुत कुछ अभिन्न है । यथा
सूक्ष्मादिग्रहणं कर्मयोग्यपुद्गलस्वभावानुवर्तनार्थ ग्रहणयोग्याः पुद्गलाः सूक्ष्मा न स्थूला इति । एक क्षेत्रावगाहवचनं क्षेत्रान्तरनिवृत्त्यर्थम् । स्थिता इति वचन क्रियान्तरनिवृत्त्यर्थं स्थिता न गच्छन्त इति । सर्वात्मदेशेविति वचनमाधारनिर्देशार्थं नैकप्रदेशादिषु कर्मप्रदेशा वर्तन्ते । क्व तर्हि ? ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् सर्वेष्वात्मप्रदेशेषु व्याप्य स्थिता इति । इत्यादि । स० सि० ८-२४.
सूक्ष्मग्रहण ग्रहणयोग्य पुद्गलस्वभावानुवर्णनार्थं [वर्तनाथं] वर्ण (?) ग्रहणयोग्या पुद्गला सूक्ष्मा न स्थूला: । एकक्षेत्रागा हवचनं क्षेत्रान्तर निवृत्यर्थम् । X X x किशन्तरनिवृत्त्यर्थं स्थिता न गच्छन्तः । ( एकैक प्रदेशे इत्यत्र वीप्सानिर्देशेन सर्वात्मप्रदेश संग्रह. कृतस्तेन एकप्रदेशादिषु न ) कर्मप्रदेशाः प्रवर्तन्ते । क्व तर्हि ? ऊध्वंमधः स्थितास्तिर्यक् च सर्वेस्वात्मप्रदेशेषु व्याप्य स्थिता इति । इत्यादि । मूला० वृत्ति १२-२०४. प्रस्तुत किये जा सकते हैं-जैसे मूलाचार वृत्ति