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१०वी शताब्दी के जैन कामों में बौदर्शन की समीक्षा
कवियों ने समीक्षा करते हुए कहा है कि-"केवलचित्त- मणमात्र तक उस वस्तु कारण का अस्तित्व रहता है। संतानज्ञानधारा ही आत्मा है" ऐसा मानना उचित नही और अगले क्षण उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। है। क्योकि सन्तानी (सन्तानवान) द्रव्य के बिना कोई भी जैसे :-एक बीज किन्ही दो कार्यों का कारण नहीं बन सन्तान-गुण पांय-सम्भव नहीं है। गुण द्रव्य को आश्रय सकता अतः एक बीज (कारण) से एक पौधा (कार्य) ही बनाकर उसी में रहते हैं । अतः ज्ञान की धारा तो गुण है, उत्पन्न होता है। चूकि पौधा परिवर्तनशील (क्रमिक इसलिए गुणी आत्मा के बिना गुण-ज्ञानधारा की सत्ता कैसे विकासशील) होता है, इसलिए पौधे के विकास का कारण रह सकती है। इसी प्रकार यदि क्षणिकवाद के सिद्धान्त के (बीज) भी परिवर्तनशील होता है। अतः यह कहा जा कारण आत्मा की नित्य सत्ता स्वीकार न करते हुए, उसे सकता है कि प्रथम क्षण जिस बीज का अस्तित्व था, दूसरे, क्षण-क्षण में परिवर्तनशील माना जाये तो छ: मास तक की ही क्षण उस बीज की सत्ता समाप्त हो गई। इसलिए एक व्याधि (रोग) की वेदना (दुःख) कौन सहन करता है? बीज से (कारण है) एक ही पौधा (कार्य) उत्पन्न वौद्ध धर्म में आत्मा को पच-स्कन्ध (रूप वेदना, सजा, होता है। संस्कार और विज्ञान) का समुच्चय मात्र (सघात समूह) माना गया है। किन्तु ये स्कध भी क्षणमात्र ही स्थायी रहते मह पुराण" मे पूर्व पक्ष उठाते हुए कहा गया है कि हैं, तब उन्हें उक्त सिद्धान्तानुसार कैसे बांधा जा यदि जिस क्षण मे जीव उत्पन्न होता है, वह क्षण विनश्वर सकता है।
है। और जीव के जो संस्कार दिखाई देते हैं, वे क्षरणवर्ती
___स्कन्ध हैं। इसलिए न तो आत्मा की ही नित्य सत्ता है "शरीर पर्यन्त ही आत्मा की सत्ता है" बौद्ध दर्शन के इस मत की समीक्षा कवियो ने कस्तुरी एव चम्पक पप और न पूर्वकृत कमो की ही। की गंध के उद्धरण देकर की है। कहा है कि-जिस
उक्त अंश के निराकरण मे महाकवि पुष्पदन्त ने महाप्रकार कस्तूरी के समाप्त हो जाने पर भी उसकी गध बनी
पुराण मे मंत्री स्वयबुद्ध द्वारा उक्त कथन की समीक्षा रहती है, उसी प्रकार शरीर के नष्ट हो जाने पर भी करते हुए लिखा है कि यदि जगत को क्षणभगुर माना आत्मा का अस्तित्व रहता है। अथवा जिस प्रकार चम्पक जाये तो किसी व्यक्ति द्वारा रखी वस्तु उसी व्यक्ति को पुष्प को तेल में डालने से मात्र गध नष्ट नही होती, उसी प्राप्त न होकर अन्य व्यक्ति को प्राप्त होनी चाहिए । प्रकार आत्मा का और शरीर का पृथक अस्तित्व है।" अथवा द्रव्य को क्षणस्थायी मानने से वासना का (जिसके
द्वारा पूर्व मे रखी हुई वस्तु का स्मरण होता है) भी मणिकवाद :-क्षणिकवाद के नियमानुसार जगत की
अस्तित्व नही रह जाता है।" यदि क्षण-क्षण में नये अन्य समस्त वस्तुओं का अस्तित्व क्षणमात्र ही रहता है : किसी
जीव उत्पन्न होते रहते है, तो प्रश्न उठता है कि जीव घर भी वस्तु की शाश्वत व नित्य सत्ता नहीं होती।
से बाहर जाता है, वही घर कैसे लौटता है ? अतः जो प्रत्येक वस्तु का क्षणमात्र ही अस्तित्व रहता है और अगले
वस्तु एक रखी उसे दूसरा नही जान सकता।" जीव की ही (दूसरे ही) क्षण वह बहुत नष्ट हो जाती है । जो नित्य
क्षणिक सत्ता मानने वाले बौद्ध दर्शन के इस सिद्धान्त की अथवा स्थायी प्रतीत होता है, वह भी अनित्य है। वस्तु की
(क्षणिकवाद की) समीक्षा करते हुए वीरनन्दि कहते हैं नित्य-प्रतीति मात्र भ्रम है।
कि यदि जीव की क्षणिक सत्ता मानी गई है तो जो जीव क्षणिकवाद के समर्थन में बौद्ध दार्शनिक अर्थ किया- एक क्षण में अच्छे-बुरे कर्म करेगा वह दूसरे ही क्षण नष्ट कारित्व का तर्क प्रस्तुत करते हैं। जिसका अर्थ है-किसी हो जायेगा। फलत: जो जीव दूसरे क्षण मे उत्पन्न होगा कार्य को उत्पन्न करने की शक्ति । इस सिद्धांतानुसार जिस वही पूर्वकृत कर्मों का फल भोगेगा। इस दृष्टि से क्षणिक भरण बस्तु (कारण) से कार्य उत्पन्न होता है, उसी क्षणमात्र जीव को कृत व आकृताभ्यागम् दोष लगेगा। जिससे बौद्ध तक उस वस्तु (कारण) से कार्य उत्पन्न होता है, उसी दर्शन का क्षणिक वाद खण्डित हो जाता है।" एक ओर