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________________ बर्ष ४०, कि०३ ममेकन्त बल्तको क्षणिक मानना, और दूसरी ओर-"जो मैं के माध्यम से माध्यमिक सम्प्रदाय की स्थापना की। इन्होंने बाल्यावस्था में था, वही में युवावस्था में हूँ" इस प्रकार अपनी माध्यमिककारिका मे शन्यवाद की विस्तृत व्याख्या शकत्व मानने से भी क्षणिकवाद खण्डित हा जाता है।" की है। आर्य देव (दूसरी शताब्दी) बुद्धरालित ( वी शता.), चन्द्रकीति (६वीं शता०) शान्तिदेव (७वीं शता०) बौद्ध दर्शन की मान्यता है कि बासना के नष्ट होने तथा शान्ति रक्षित (८वी शता०) आदि प्रमुख शून्यवादी पर ज्ञान प्रकट होता है। इसलिए उनकी यह उक्ति आचार्य हैं, जिन्होंने माध्यमिककारिका की व्याख्याओं के क्षणिकवाद के सिद्धान्त को भंग कर देती है। साथ-साथ अन्य कई महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन प्रतीत्य समुत्पाद की समीक्षा :-(कारण-कार्य किया है। बाद): माध्वाचार्य ने अपने सर्वदर्शनसंग्रह में शून्यवाद की बौखदर्शन में चार आर्यसत्यो के विवेचन के साथ व्याख्या करते हुए कहा है कि-"तत्व (दर्शन का मूल साथ द्वादशनिदान की भी चर्चा की गई । अर्थात् दुःखा क पदार्थ) शून्य ही है, जो इन चार कोटियों से नितांत मुक्त १२ कारणों को स्पष्ट किया गया है। जिसे प्रतीत्य- है-(१) सत् (२) असत् (३) उभयात्मक (४) अनुभ कारण-कार्यवाद) कहा जाता है । इस सिद्धान्ता- यात्मक ।" अर्थात शून्य उसे कहते हैं, जो सत भी न हो, नुसार बुद्ध यह प्रदशित करना चाहते थे कि दुख के न असत् हो, न सदसत् हो और न सदसत् से भिन्न ही हो। कारण को जानकर ही उसका विनाश लिया जा सकता है। अत. शून्य एक अनिर्वचनीय तत्व है, जिसका केवल ज्ञान क्योंकि कार्य (दुःस) की उत्पत्ति एवं विनाश, कारण हो (अवधि-अज्ञान) पर ही निर्भर है। हीनयान आचार्य तथा ब्राह्मण और विद्वानों ने भी संसार में प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति का कोई न कोई बौद्ध दर्शन के इस शून्य का अर्थ सकल सत्ता का निषेध या कारण अवश्य है। "अस्मिन सति इद भवति" अर्थात अभाव ही किया है।" अर्थात शून्यवाद को ज्ञाता, ज्ञेय "इसके होने से यह होगा" इस प्रकार का भाव ही प्रतीत्य- और ज्ञान इन तीनों का ही अभाव मानने वाले मत के रूप समुत्पाद है। श्चेखत्स्की" के मत मे हीनयान शाखाएँ में प्रस्तुत किया है। प्रतीत्यसमुत्पाद का अर्थ इस प्रकार मानती है- 'प्रति प्रति १०वी शताब्दी के आचार्यों ने भी बौद्धदर्शन सिद्धात इत्यनाम विनाशिनां समुत्पादः" अर्थात् प्रत्येक धर्म या की आलोचनात्मक व्याख्या प्रस्तुत की है। आचार्य अमित स्त का उत्पाद उसके विनाश से बधा है । अत. क्ष णक गति" ने कहा है कि "सर्वशून्यता की कल्पना करने पर वाद के सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक वस्तु क्षणिक है । अतः जगत में कुछ भी वास्तविक नही प्रतीत होता। यह जो अाणिक वस्तओं का अविच्छिन्न प्रवाह ही प्रतीत्य- दृष्टिगोचर होता है, वह अविद्या के कारण सत् प्रतीत होता समुत्पाद है। है।" कवि ने इस सिद्धान्त की आलोचना इस प्रकार की प्रस्तत सिद्धान्त की समीक्षा करते हुए महाकवि कि-"जो वस्तुत: स्वप्न में देखी गई वस्तुओं के समान पER ने कहा है कि---यदि क्षण विनाशी पदार्थों मे भ्रान्ति से परिपूर्ण है।" ऐसा स्वीकार करने पर जहाँ कारण-कार्यरूप धाराप्रवाह माना जाये, जैसे-गाय उसके उपदेष्टा बुद्ध का ही अस्तित्व नहीं रह सकता, वहाँ (कारण) से दूध (कार्य) एवं दीपक (कारण) से अजन बन्ध और मोक्ष आदि तत्वों की सत्ता/व्यवस्था कैसे हो (कार्य) की प्राप्ति माना जाये, तो प्रनिक्षण गो और दीपक सकती है ? अर्थात नही हो सकती। पुष्पदन्त कहते हैं(कारण) के विनष्ट हो जाने पर दूध एवं अंजन (कार्य) यदि शून्यवादी जगत में शून्य का ही विधान करते हैं तो की प्राप्ति कैसे हो सकती है। बौद्धों के इस इन्द्रियों के दमन, वस्त्रों को धारण करना, शून्यबाद :-- शून्यवाद की भावना को जन्म देने का श्रेय व्रत पालन, रात्रि से पूर्व भोजन करना और सिर मुंडन से दूसरी शताब्दी के आचार्य नागार्जुन को है । जिन्होंने शून्यवाद क्या प्रयोजन ।"
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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