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क्या मूलाचार यापनीय ग्रन्थ है
0 डा० कुसुम पटोरिया मूलाचार दिगम्बर परम्परा में मान्य मुनि-आचार का स्त्रीमुक्तिविचारप्रकरण में इसका उल्लेख श्वेताम्बर प्रतिपादक ग्रन्थ है। घवलाकार आचार्य वीरसेन, ने इसका सिद्धान्तके रूप मे ही किया है।' आचारांग के नाम से उल्लेख किया है। मूलाचार के ये दश श्रमणकल्प है आचेलक्य, उद्दिष्टत्याग, शय्याटीकाकार वसुनन्दि मुनि ने अपनी वृत्ति में इसे बट्टकेर/ धरपिंडत्याग, राजपिण्डत्याग, कृतिकर्म, व्रत, पुरुषज्येष्ठता. बटकेरि प्रणीत बताया है, परन्तु मूलाचार की कुछ हस्त- पतिकण मास और पर्यषण । इनमें से शय्याधरपिण्ड लिखित प्रतियो मे इसे कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत कहा गया है,
तथा राजपिण्ड त्याग का उल्लेख दिगम्बर परम्परा में कहीं जिससे बट्टकेरि और कुन्दकुन्द को एक मानकर कुछ
प्राप्त नहीं होता। शय्याघर का अर्थ है वसतिका बनवाने विद्वानों ने इसे आचार्य कुन्दकुन्दप्रणीत माना था।' प्रारम्भ
सुधरवाने या देने वाला। इस शय्याधर के पिण्ड का त्याग मे पण्डित परमानद शास्त्री ने इसे सग्रह ग्रंथ माना था,'
मुनि के लिए आवश्यक कल्प (नियम) है। परन्तु पं० पर बाद में इसे मौलिक ग्रन्थ स्वीकार किया है।'
सदासुख जी भगवती-आराधना पर अपनी वनिका में यद्यपि यह सत्य है कि मूलाचार और आचार्य कुन्द
इसका अर्थ 'स्त्री-पुरुषो के क्रीडा का स्थान' करते हैं, इसका कुन्द की रचनाओं में अनेक गाथाएं समान है, उदाहरण
कारण दिगम्बर परम्परा में दशस्थिति कल्प का उल्लेख के लिए मूलाचार का द्वादशानुप्रेक्षाधिकार तथा आचार्य
नहीं है। कंदकंद की द्वादशानुप्रेक्षा को देखा जा सकता है, परन्तु
ये दोनो उल्लेख प्राचार्य कुन्दकुन्द की विचारधारा के ध्यान से देखने पर प्रतीत होता है कि यह प्रन्थ अनेक
प्रतिकूल हैं, क्योकि उन्होने बोधपाहर (गाथा ४८) मे स्पष्ट स्थलो पर आचार्य कुन्दकुन्द की विचारधारा से मेल नही
रूप से कहा हैखाता।
उत्तममज्झमगेहे दारिदे ईसरे णिरावेक्खा । वस्तुत: यह ग्रन्थ आचार्य कुन्दकुन्द की परम्परा का
सव्वत्थ गिहिदपिंडा पवज्जा एरिसा भणिया ॥ है। यद्यपि पं० नाथुराम जी प्रेमी ने 'वट्टकेरि का मूलाचार' निबन्ध में इस पर सप्रमाण ऊहापोह किया है, परन्तु फिर अर्थात् उत्तम और मध्यम घरो में दरिद्र अथवा भी विद्वान् मूलाचार नाम ही इसे मूलसघ का ग्रन्थ मानते ऐश्वर्यशाली के घर सर्वत्र समान भाव से अन्न ग्रहण करना हैं। पं० परमानद जी शास्त्री ने 'वट्टकेराचार्य और मूला- चाहिए । इस स्थिति में पण्डित कैलाशचन्द्र जी शास्त्री का चार' निबन्ध में यही प्रतिपादित किया है।
यह कथन 'कि दस कल्प तो दिगम्बर परम्परा के प्रतिकूल अत: क्या मूलाचार यापनीय ग्रन्थ है, इस पर पुनः नहीं , किन्तु अनुकूल ही है, उचित नहीं है। विमर्श आवश्यक है।
आहार और औषधि से मुनि द्वारा मुनि को शस्थितिकल्प:
वैयावृत्ति: मूलाचार मे मुनियों के दशस्थिति कल की प्रतिपादक मुनि द्वारा मुनि के वैयावत्य का वर्णन करते हुए कहा गाथा निबद्ध है। यह गाथा भगवती आराधना (४२१), गया हैजीतकल्पभाष्य (गा० १९७२) तथा अनेक श्वेताम्बर अन्यो सेज्जागासणिसेज्जा उवधी पडिलेहणा उवग्गिदे । में मिलती है। भाचार्य प्रभाचन्द्र ने प्रमेयकमलमार्तण्ड के बाहारोसहवायविकिचणुव्वत्तणदीसु ॥ (गापा ३९१)