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२०, वर्ष ४०, कि० ३
मनेकान्त
अर्थात् शय्या, स्थान, आसन, उपधि, प्रतिलेखन, वृत्य करता है, वह तो शुभोपयोगी श्रमण का भी आचरण आहार, औषधि वाचन, उठाना-बैठाना आदि क्रियाओं में नहीं है, वह तो गृहस्थ का धर्म है। वैयावृत्त्य करना चाहिए।
उपाश्रय में भिक्षा लाकर भोजन न करने के संकेत : अन्यत्र समाचार अधिकार में 'अच्छे वेज्जावच्च' आदि मूलाचार में समाचाराधिकार तथा समयसाराधिकार १७४वीं गाथा की टीका में आचार्य वसुनन्दि ने वैयावृत्ति
__ में दो बार एक गाथा प्राप्त होती हैका अर्थ शारीरिक प्रवृत्ति और बाहारादि से उपकार णो कप्पदि विरदाणं विरदीणवासयम्हि चिट्ठडे । करना लिखा है-'वेज्जावच्चं-वैयावत्यं कायिकव्यापारा- तत्थ णिसेज्जउवट्टणसज्झायाहारभिक्ख वोसरणे ।। हारादिनिरुपग्रहणम् ।'
__ अर्थात् साधुओं का आयिकाओं के उपाश्रय में ठहरना समाचाराधिकार में ही अन्यत्र भी कहा गया है
युक्त नहीं है। वहाँ बैठना, लेटना, स्वाध्याय, आहार; सुहदुक्खे उवयारो वसही आहारभेसजादीहिं
भिक्षा, व्युत्सर्ग आदि उचित नहीं है। तुम्हं अहंति वयणं सुहदुक्खुषसंपया णेया ।। ४।२१
चौथे अध्याय में इसकी टीका मे आहार और भिक्षा
का भेद करते हुए कहा गया है कि आयिकाओं को बनाया अर्थात् सुख और दुःख में वसति, आहार और भैषज
हुआ भोजन आहार तथा श्रावकों की दी हुई भिक्षा है । आदि द्वारा उपकार करना तथा मैं आपका हूं, इस प्रकार
आर्याओं के समाचार में उन्हें रोदन, स्नापन, भोजन-पचन के वचन सुखदुःख में उपसंपत् हैं ।
आदि ट्विध आरभ तथा साधुओं के पादप्रक्षालन आदि यह विचारधारा आचार्य कुन्कुन्द की विचारधारा के न करने के लिए कहा गया हैविपरीत है। प्रवचनसार में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा रोदणण्हावणभोयणपयणं सुत्त च छविहारंभे
विरदाणं पादमक्खणधोवणगेय च ण य कुज्जा ॥ १६८ जदि कुणदि कायखेदं वेज्जावच्चत्थमुज्जदो समणो। आयिकाओं का समाचार : ण हवदि हवदि अगारी धम्मो सो सावयाणं से ॥२५० आयिकाओ के लिए भी वही यथाख्यात समाचार
अर्थात यदि वैयावत्य करने में उद्यम श्रमण काय को बताया गया है, जो मुनियो के लिए है। वे मुनि ओर खेद पहुचाकर वैयावृत्य करता है, तो वह श्रमण नही है। आयिका को एक श्रेणी में रखते हैं, उनके व्रतो को उपचार काय को क्लेश पहुंचाकर वैयावृत्य करना श्रावकों का से महाव्रत नही मानते । आगे स्पष्ट कहा हैधर्म है।
एव विधाणचरियं चरति जे साधवो य अज्जाओ।
ते जगपुञ्ज कित्ति सुह च लण सिज्झति ॥ ४१७१ उनके मत से श्रमण दो प्रकार के होते है--शुद्धोपयोगी
अर्थात् इस प्रकार आचरण करने वाले साधु व आर्या तथा शुभापयागा। अरहतादि का भाक्त, प्रवचन म जाम- दोनों जगत्पूज्य होकर कीर्ति व सुख प्राप्त करके सस युक्तो के प्रति वात्सल्य, वंदन, नमस्कार, अभ्युत्थान, (गुरुओं होते है। के आदर के लिए खड़े होना) अनुगमन आदि मे प्रवृत्ति
स्त्रीमुक्ति का स्पष्ट उल्लेख दिगम्बर परम्परा बिलकुल शूभोपयोगी के लिए निन्दनीय नहीं है। शुभोपयोगी प्रतिकल है, फिर भी इसे मूलसंघ के प्राचार्य की कृति माधु दर्शन-ज्ञान का उपदेश करते है, शिष्यो का
मानना दुराग्रह ही कहा जाएगा। संग्रह एवं पोषण करते हैं तथा जिनेन्द्रपूजा का उपदेश तीर्थडरों के धर्म में अन्तर का उल्लेख : देना है। यह चर्या सरागी साधु की है। जो चातुर्वर्ण
मूलाचार में कहा गया है किश्रमणसघ का कायविराधना से रहित होकर उपकार करता बावीसं तित्थथरा सामाइयसयम उवदिसंति । है, तो उसका यह आचरण भी राग की प्रधानता से छेदोवढावणियं पुण भयवं उसहो य वीरोय॥ शुभोपयोग है। परन्तु जो काय की विराधना करके वैया. अर्थात बाईस तीर्थंकरों ने सामायिक संयम का उपदेश