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________________ १६, वर्ष ४०, कि० २ भनेकान्त ७ आगे गाथा २०३ को वत्ति पृ० १६६) में प्रसंग- प्रकार होना चाहिए-धर्म आदि द्रव्यों के भी स्कन्ध व प्राप्त एक शका-समाधान में 'यावतंषामधिगताना यत् स्कन्धदेश आदि भेद होते हैं, इसके निरूपणार्थ भी यहां प्रधानं तत् सम्यक्त्वमित्युक्तम्' ऐमा पाठ मुद्रित है । इसमें 'स्कन्ध' आदि को पुनः ग्रहण किया गया है। इसके लिए निश्चित ही प्राचीन हस्तलिखित प्रतियो मे 'प्रधान' के षट् खण्डागम-बन्धन अनुयोगद्वार के अन्तर्गत ये सूत्र देखे स्थान मे 'श्रद्धानं' पाठ उपलब्ध होना चाहिए। तदनुसार जा सकते हैउसका यह अभिप्राय होना चाहिए कि समीचीननया जाने जो सो अणादियविस्ससाबंधो सो तिविहो-धम्मगये इन गाथोक्त जीवाजीवादि पदार्थों का जो श्रद्धान है त्थिया अधम्मत्थिया आगासत्थिया चेदि ॥३०॥ धम्मत्थि. वह सम्यक्त्व है, ऐसा कहा गया है। इसकी मगति आग या धम्मत्थियदेसा धम्मत्थियपदेसा अधम्मत्यिया अधम्म. उस शका के ममाधान में जो 'नेप दोष , श्रद्धान रूपेय- त्थियदेसा अधम्मत्थियपदेसा आगासत्थिया आगासत्थियमधिगतिरन्यथा परमार्थाधिगतेरभावात्' यह जो कहा गया देसा आगासन्थियपदेसा एदासिं तिण्ण पि अस्थि आणमण्णो. है. उससे भी बैठ जाती है। इस परिस्थिति में अनुवाद में गणपदेनबधो होदि ॥३१।। (पु०१४ पृ० २६)। जो " . . . . 'सत्यार्थरूप से जाने गये इनमे मे जो प्रधान १० गाथा २४४ की वृत्ति में (पृ. २०४) यह पाठ है वह सम्पक्त्व है ऐसा सम्यक्त्व है ऐमा कहना तो युक्त उपलब्ध होता है-अथवाऽयमभिसम्बन्धः कर्तव्यो मिथ्याहो भी सकता है ?" यह स्पष्ट किया गया है वह किसी दृष्ट्याद्युपशान्तानामेतद् व्याख्यान वेदितव्यम् । भी प्रकार (से संगत नही हो मकना पृ० १७०)। इसका अनुवाद इस प्रकार है-अथवा ऐसा सम्बन्ध ८ गाथा २:२ को वत्ति पृ० १६६) में जो 'ते करना कि मिथ्यादृष्टि से लेकर सूक्ष्मसाम्पराय नामक पुनररूपिणोऽजीवाः' ऐमा पाठ मुद्रत है वह सगत नही देशवें गुणस्थान पर्यन्त यह (बन्ध का) व्याख्यान समझना हैं, उसे अवग्रह चिह्न (5) से रहित 'ते पुनररूपिणो जीवा.' चाहिए । इस प्रकार मूल मे जहां 'मिथ्यादृष्ट्याधुपशान्ताऐसा होना चाहिए । तदनुमार उसका यह अभिप्राय होण नामेतत् ऐसा कहा गया है वहा अनुवाद मे 'मिथ्यादृष्टि कि पूर्व में जिन जीवों की प्ररूपणा की जा चुकी है (गा. से लेकर सूक्ष्मसाम्पराय नामक दशवें गुणस्थान पर्यन्त' २०४-२६) उन अरूपी जीवो के साथ प्रस्तुत गाथा ऐसा अर्थ किया गया है। इस प्रकार मूल में और अनु(३३२) में निर्दिष्ट धर्म, अधर्म और आकाश तथा काल बाद मे एकरूपता नहीं रही है। भी ये अरूपी द्रव्य है। ११ इसी प्रकार यही पर आगे वृत्ति मे 'अपरिणत' इस प्रकार से गाथा का अर्थ और उतने अश का वृत्ति का अर्थ 'अयोगी और सिद्ध अथवा सयोगी और अयोगी' का भी अर्थ (बे पुन. अरूपी अजीव द्रव्य हैं) असगत ऐमा तथा 'उच्छिन्न' का अर्थ 'क्षीणकषाय' ऐसा किया गया है । किन्तु अनवाद में उसके स्पष्टीकरण में 'अपरियह यहां विशेष ध्यातव्य है कि वृत्ति कार 'तच्छन्द, णत' अर्थात उपशान्तमोह और 'उच्छिन्न' अर्थात क्षीणपूर्व प्रकान्त-(प्रकरणगत-)परामर्शी' है, यह कह कर गाथा मोह प्रादि' इतना मात्र कहा गया है। यह स्पष्टीकरण मे प्रयक्त 'ते' पद के ही अभिप्राय को स्पष्ट कर रहे है। भी मल से सम्बद्ध नहीं रहा। है यही पर आगे इसी वृत्ति मे जो 'धर्मादीना च वैसे तो यह मुद्रित वृत्तिगत पाठ ही कुछ अस्त-व्यस्त स्कन्धादिभेदप्रतिपादनाथं च पुनर्ग्रहणम्' यह कहा गया है हुआ सा दिखता है। उसका अनुवाद जो 'धर्म आदि का प्रतिपादन करके पुदगल के स्कन्ध आदि के भेद बतलाने के लिए यहा उनका अनुवाद का अभाव : पुन: ग्रहण कर लिया गया है' यह स्पष्टीकरण किया गया सम्भवतः व्याकरण आदि की ओर विशेष लक्ष्य न है वह संगत नहीं है । इसके स्थान में उसका अनुवाद इस रहने से कहीं-कही अनुवाद को छोड़ भी दिया गया है या
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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