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________________ प्रथावषि अप्रकाशित दुर्लभ प्रन्य- सम्महमिणचरित किए जाने की सूचना देकर, कवि ने अन्तिम एक कड़वक चिन्ताएँ छोड़, हे भव्य तू निरन्तर काव्य-रचना किया में महावीर के बाद के होने वाले श्रतधाराचार्यों की काल- कर। दुर्जनों से मत डर, क्योंकि, भय समस्त बुद्धि का गणना का विवरण दिया है। अपहरण कर लेता है।" अन्तिम दसवी सन्धि के ६४ कडवकों में से प्रथम रइघू ने अपना समस्त जीवन-वृत एक स्थान पर नही २४ कड़वको में कवि ने अन्तिम श्रुतकेवली आचार्य लिखा, यह दुर्भाग्य का विषय है। हाँ, उसने अपनी अनेक भद्रबाहु का जीवन-चरित्र प्रस्तुत किया है और इसी प्रसग ग्रन्थ-प्रशस्तियो मे अपने विषय मे कुछ न कुछ सूचनाएं में कवि ने आचार्य गोवर्धन, पाटलिपुत्र नरेश राजानन्द, अवश्य दी हैं और उनका सग्रह करने से कवि के जीवनमहामन्त्री शकटाल प्रत्यन्तवासी राजा पुरु, ब्राह्मण-चाणक्य, वत की एक रूपरेखा तैयार हो जाती है, फिर भी उसकी चन्द्रगुप्त मौर्य (प्रथम) विन्दुसार, अशोक, मकुल (कुणाल), जन्मतिथि एव जन्म स्थान की जानकारी के संकेत नही सम्प्रति चन्द्रगुप्त के सक्षिप्त परिचयों के साथ पाटलिपुत्र मिल सके हैं । इस विषय पर हमने अन्यत्र चर्चा की है।' के द्वादशवर्षीय भीषण दुष्काल का वर्णन किया है। इस अन्तर्बाह्य साक्ष्यों के आधार पर रइघू का समय वि० सं० प्रसग मे कवि ने राजा चन्द्रगुप्त द्वारा जैन दीक्षा-ग्रहण १४४० से १५३० के मध्य स्थिर होता है। तथा आचार्य भद्रबाहु के साथ उनके १२००० साधुओ के साथ दक्षिण भारत की ओर प्रस्थान तथा वहाँ चन्द्रगुप्त रइघू-साहित्य में सम्मइजिणचरिउ का क्रम-निर्धारण मूनि की कान्तार-चर्या आदि का बड़ा ही मार्मिक वर्णन कवि रइप की अद्यावधि २६ र वनाएं ज्ञात हो सकी किया है। इसी क्रम में आचार्य विशाखनन्दी को चोल देश है, जो सस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश एवं प्राचीन हिन्दी मे यात्रा, तथा वहाँ से पाटलिपुत्र में उनकी वापिसी, पाटलिपुत्र लिखित हैन मेरचन, लिखित है। इनमे से २२ रचनाएँ उपलब्ध हो चुकी हैं,बाकी से स्थलिभद्र धम्मिल्ल तथा स्थूलाचार्य से भेट आदि का की ७ रचनाएं अनुपलब्ध है,' कवि की यह विशेषता है कि वर्णन और विशाखनन्दी क शिष्यों द्वारा श्रुताङ्ग-लेखन एवं उसने अपनी अधिकाश कृतियों में स्वरचित अपनी पूर्ववर्ती श्रुतपञ्चमी पर्व के आरम्भ किए जाने का वर्णन है। इसके रचनाओ के उल्लेख कर दिए है। "सम्मइजिणचरिउ" में बाद पाटलिपुत्र के कल्कि राजापो की दुष्टता का वर्णन भी उसने लिखा है कि इस रचना के पूर्व वह पासणाहचरिउ, मेहेमर सेणावइचरिउ, तिसट्टिमहापुराणपुरिस गुणालकारु, इस वर्णन के बाद के कड़वको मे गोपाचल एव हिसार सिरिवालचरिउ, पउमचरिउ सुदसगचरिउ एवं धण्णकुमार नगर वर्णन तोमरवशी राजा डूंगरसिंह का वर्णन भट्टारक चरिउ का प्रणयन कर चुका है। इस दृष्टि से कवि की परम्पग एवं आश्रयदाता का विस्तृत परिचय दिया रचनाओं में प्रस्तुत रचना का क्रम आठवां सिद्ध होता हैं। गया है। प्रन्थकार-परिचय गुरु स्मरण एवं भट्टारकाय परम्परा जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, "सम्मइजिणचरिउ" प्रस्तुत रचना में कवि ने काष्ठासघ, माथुरगच्छ महाकवि रघु द्वारा प्रणीत है। कवि ने ग्रन्थ-प्रशस्ति मे पुष्करगण शाखा के भट्टारक यश कीनि को अपने प्रेरक अपना परिचय देते हुए अपने पितामह का नाम सघपति गुरु के रूप मे स्मरण किया है।" यश:कानिन उसे किसी देवराय तथा पिता का नाम हरिसिंह बतलाया है।' अग्र- काव्य की रचना के लिए प्रेरित किया था। सयोग से पुरुष की संघपति उपाधि से विदित होता है कि कवि के यश.कोति का परमभक्त ब्रह्म खेल्हा अपनी माता पूर्वज लब्धप्रतिष्ठ सार्थवाह एवं लक्ष्मीपति रहे होगे, किन्तु (आजाही) कीस्मृति को स्थायी बनाना चाहता था अतः रहघ ने कवि बनकर अपनी कुल परम्परा बदल दी । कवि यश.कीति से एक कोई नवीन प्रन्थ लिखने की प्रार्थना ने स्वयं लिखा है कि उसे श्रुतदेवी ने स्वप्न देकर कहा - करता है। इस कार्य के लिए यशःकोति उसे कवि रइधू "मैं तुम पर भत्यन्त प्रसन्न हूँ। अपने मन की समस्त का नाम सुझाते हैं । खेल्हा के बारम्बार निवेदन करने पर
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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