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________________ मूलाचार व उसकी प्राचार वृत्ति उपशमविधि के अन्त में 'उदयोदोरणात्कर्षणोपकर्षण" समुहेण परमहेण य मोहाउविवज्जिया सेसा ॥४-४४६ स्थानमपि समन्नाम्नेष मोहनीयोपशमन विधिः इति' यह पच्चइ णो मणुयाऊ णिरयाउमुहेण समयणि ट्ठि । अधिक जुड़ गया है जो अशुद्ध या विचारणीय है (अनुवाद तह चरियमोहणीय दंसणमोहेण सजुत्त ॥४-४५० भी विचारणीय है)। यहा यह स्मरणीय है कि 'पचसग्रह' यह एक गाथावत यहां धवला मे क्षपणविधि के प्रसग मे मतभेद से सम्बद्ध ग्रन्थ है, पर प्रस्तुत वृत्ति गद्य रूप सस्कृत में रची गई है, एक लंबा शका-समाधान हुआ है (पृ० २१७-२२)। यह इसलिये वृत्ति मे उपर्युक्त गाथाओ को उसी रूप में आत्मशका-समाधान मूलाचार वृत्ति (पृ० ३२३) मे भी उपलब्ध सात् करना सम्भव नहीं था। हा, 'उक्त च आदि के रूप होता है, जिसे धवलागत निष्कर्ष को लेकर प्रायः उन्ही में वृत्तिकार उनके द्वारा अपने उक्त अभिप्राय की पुष्टि कर शब्दों के द्वारा २-३ पक्तियों में समाप्त कर दिया गया है। सकत थे, पर वैसी उनकी पद्धति नही रही। इस प्रसंग में मलागार मे 'षोडश कर्माणि द्वादश या (?) (7) इसौ वृत्ति मे आगे उन्होने कर्मप्रकृतियो मे सर्वऐसा जो कहा गया है विचारणीय है। घातिरूप:। और देशघातिरूपता को भी स्पष्ट किया है। उपर्युक्त प्रसंगों के अतिरिक्त धवलागत अनेक प्रसगों इस प्रसग में सर्वप्रथम यह वाक्य उपलब्ध होता हैको इस वृत्ति के अन्तर्गत किया गया है, जिन्हें प्रस्तुत केवल ज्ञानावरण- केवलदर्शनावरण'-निद्रनिद्रा-प्रचला. करना इस लेख मे सम्भव नही है। वह एक स्वतत्र निबन्ध प्रचला-स्त्यान-गद्धि-प्रचला-निद्राः चतुः सज्वलनवा का विषय है। यदि स्वास्थ्य ने साथ दिया तो उसे फिर द्वादशकषायाः । मिथ्यात्वादीनां (2) विंशति प्रकृतीनामनुकभी प्रस्तुत किया जायगा। भाग सर्वघाती। ५पंचसंग्रह-(१) मूलाचार गाथा १२-२०३ मे यहा मिथ्यात्व' के आगे जो षष्ठी बहुवचन के साथ अनुभागबन्ध के स्वरूप का निर्देश किया गया है। इसकी 'आदि शब्द प्रयुक्त हुआ है, उससे वृत्तिकार का क्या अभिव्याख्या करते हुए वृत्तिकार ने उस अनुभाग को स्वमुख प्राय रहा है, यह ज्ञात नहीं होता। पाठ भी कदाचित् अशुद्ध और प्रमुख के भेद से दो प्रकार का कहा है। उस प्रमग हो सकता है। सरूया उनकी बीस(२०) निर्दिष्ट की गई है। मे उन्होने यह स्पष्ट किया है कि सब मुल प्रकृतियों के हो सकता है वे 'आदि' से कदाचित् 'सम्पग्मिध्यात्व' की रसविशेष का अनुभव (विपाक) बमुख से ही होता है --- सूचना कर रहे है, पर वैसा होने पर बीस के स्थान मे उनमैं परस्पर सक्रमण नहीं होता। किन्तु उनको उत्तर इक्कीम सख्या हो जाती है। प्रकृतियो का विपाक स्वमुख से भी होता है व परमुख मे पचसग्रह में इस प्रसग में यह एक गाथा उपलब्ध से भी होता है। विशेष इतना है कि वार आयु प्रकृतियो होती हैमें परस्पर सक्रमण नहीं होता, अर्थात् एक कोई आयु दूसरी केवलणाणावरणं दमणछक्कं च मोहबारसयं । आयु के रूप में परिणत होकर विपाक को प्राप्त नही ता सब्बघा इसण्णा मिस्स मिच्छत्तमेयवीसदियं ॥४.४८३ होती। इसी प्रकार दर्शन मोह और चारियमोह में भी यहा स्पष्ट तया 'मिस्स' के साथ 'एयवीसदिय' का परस्पर सक्रमण नही होता । निर्देश किया गया है। यह संख्याविषयक भेद बन्ध व इस स्पष्टोकरण का आधार कदाचित् पचसग्रह (दि०) उदीरणा की अपेक्षा हो सकता है। कारण यह कि 'सम्यकी ये गाथायें हो सकती है ग्मिध्यात्व' अबन्धनीय प्रकृति है, अत: उसका बन्ध तो नहीं पच्चंति मूलपयडी णूण समुहेण सव्य जीवाणं । होता, किन्तु उदय-उदीरणा उसकी सम्भव है।' १. यहां मा० ग्र० सस्करण में 'केवल ज्ञानावरण केवल २. मिथ्यात्वं विंशति-धे सम्यग्मिध्यात्वसंयुता। दर्शनावरण'-नही रहे है, पर ज्ञा० पी० संस्करण उदये ता पुनर्दक्षरेकविशतिरीरिता । (पृ० ३८१) में उन्हें ग्रहण कर लिया गया है। पचमंग्रह की संस्कृत टीका में उद्धृत । पृ० २७५
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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