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________________ १४, वर्ष ४०, कि० २ मेनेकान्त (३) आगे वत्ति में सर्वघाती और देशघाती का प्रसंग हाल में मूलाचार का जो संस्करण भा० ज्ञानपीठ से इस प्रकार प्राप्त होता है प्रकाशित हुआ है उसमे वे सभी अशुद्धिया और विचारणीय मतिज्ञान-श्रुतज्ञानावधिज्ञान-मन.पर्ययज्ञानावरण-पंचा- स्थल प्रायः उसी रूप मे तद्वस्थ हैं, जिस प्रकार कि मा० न्तराय-संज्वल नक्रोध-मानामाया - लोभ- नवनोकषाणामुत्क- ग्रन्थमाला से प्रकाशित पूर्व सस्करण मे रहे हैं। इसका ष्टानुभागबन्ध: सर्वघाती व जघन्यो देशघाती । हिन्दी अनुवाद सुयोग्य विदुषी प्रायिका ज्ञानमती जी ने उसका जो इम प्रकार से अनुवाद किया गया है वह अपने कृत निर्णय (आद्य उपोद्घात पृ० 26) के अनुसार मूल का अनुसरण नही करता शब्दश: टीकानुवाद के साथ किया है। इस महत्त्वपूर्ण मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, अनुवादादि कार्य में आर्यिका माता जी की योग्यता एव मनःपर्ययज्ञानावरण, पाच अन्तराय, सज्वलन क्रोध-मान- परिधम सराहनीय है। इसका आधार कदाचित् 'आ. माया-लोभ और नो नोकषाय, चक्षदर्शनावरण, प्रचक्ष- शा० जिनवाणी जीणोद्धार सस्था, फलटण' से प्रकाशित वर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और सम्यक्त्व प्रकृति ; इन उसका पूर्व सस्करण हो सकता है। इस सब परिस्थिति क छन्वीस का उत्कृष्ट अनुभाग सर्वघाती है और जघन्य रहते हुए भी इस अनुवाद में पाठो की अशुद्धियो और अनुभाग देशघाती है। प्राचीन प्रतियो से मिलान के योग्य अनेक दुरूह स्थलो के मूल में चक्षुदर्शनाबरण आदि चार प्रकृतियों का और कारण कुछ विसगति भी हुई है। इसके लिये मै यहा लखछन्वीस सख्या का उल्लेख नही किया गया है। विस्तार के भय से यु.छ थोड़ी ही विसगतियो को उदाहरणो उपयुक्त अनुवाद सम्भवतः कर्मकाण्ड गाथा ४० के द्वारा स्पष्ट कर देना चाहता है । यथाअनुसार किया गया है। पर वहा उक्त छव्वीस प्रकृतियो १ गाथा ३४ मे 'स्थितिभोजन मूलगुण के प्रसग मे को देशघाती ही कहा गया है, उनके उत्कृष्ट अनुभाग को 'मिथस्तस्य...' इत्यादि पाठ वृत्ति (पृ० ४४) में मुद्रित है। सर्वघाती और जघन्य अनुभाग को देशघाती नही कहा गया वह निश्चित ही अशुद्ध है। उसके स्थान में स्थितस्य...' पाठ शुद्ध होना चाहिये । अनुवाद में 'मुनि खड़े होकर पंचसंग्रह की भी यह गाथा दृष्टव्य है पाहार ग्रहण करते है' यह उसका अभिप्राय सगत ही रहा णाणावरण चउक्क दसतिगमतराइगे पच। है, पर मूल मे 'मिथस्तस्य' यही अशुद्ध पाठ तद्वस्थ रहा ता होंति देसघाई सम्म सजलण णोकसाया य॥४.४८४ है, जिसकी सगति अनुवाद के साथ नही रही। प्रकृत में बत्तिकारने सम्भवतः उपर्युक्त प्रसग के स्पष्टीकरण मे मिथः तस्य' उस पाठ की किसी भी प्रकार से सगति नही धवलाका अनुमरण किया है। बैठ सकती। (४) इससे आगे जो यहां वृत्ति मे साता-असाता आदि २ आगे गाथा ३५ की वृत्ति मे (पृ० ४५) 'अन्यअघाति प्रकृतियों, पुण्य-पाप सज्ञाओ और चतु स्थानिक थार्थत्वात् भिषक्रियावदिति' ऐसा पाठ मुद्रित है। यहां आदि अनुभागविशेष का विचार किया गया है वह पच 'अन्यथार्थत्वात्' के स्थान मे 'अन्यार्थत्वात्' ऐसा शुद्ध पाठ सग्रह की ४,४८५-८७ गाथाओं से बहुत कुछ समान है : सम्भव है। तदनुसार अनुवाद में " वैद्य की शल्य क्रिया अनुवाद के समान ये दुःख से विपरीत अन्यथा अर्थवालेही है। इसके जैसा कि उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो चुका है, अभी स्थान मे 'उपर्युक्त महाव्रतादि के अनुष्ठान विषयक उपदेश १. यह धवलाका अनुसरण है-वहां पु० १५ पृ० १७०. ७१ में अनुभाग उदीरणा के प्रसग मे इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट अनुभाग से सम्बन्धित सर्वघातित्व और देशघातित्व का पृथक-पृथक् विचार किया गया है। वहां अचक्ष दर्शनावरण के उत्कृष्ट व अनुभाग को देशघाती तथा चक्ष दर्शनावरण और अवधिदर्शनावरण के उत्कृष्ट को सर्वघाती और अनुत्कृष्ट को सर्वघाती व देशघाती कहा गया है।
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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