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________________ समन्तभा स्वामी का प्रापुर पंथ कतृत्व और विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न आचार्य समन्तभद्र के लिए व्यदिध्यपस्त्वं विष-दाहमोहितं यथा मायुर्वेद शास्त्र में निष्णात होना कोई कठिन बात नही थी। भिषग्मन्त्रगुणः स्वविग्रहम् ॥ अतः उन्होंने लोकहित की भावना से प्रेरित होकर अपने -स्वयम्भू स्तोत्र, श्लोक ४७ आयुर्वेदीय ज्ञान के आधार पर जैन सिद्धान्तानुसारी अर्थात् जिस प्रकार वंद्य विष-दाह से मूच्छित लोकोपयोगी किसी आयुर्वेद ग्रंथ का प्रणयन किया हो- स्वशरीर को विषापहार मंत्र के गुणों से (उसकी अमोष यह असम्भव प्रतीत नही होता। शक्ति के प्रभाव से) निविष एवं मूळ रहित कर देता है इस पद्य का अध्यपन करने से स्पष्ट ही प्रतीत होता उसी प्रकार (हे शीतल जिन !) अपने सांसारिक सुखों की है कि इस पद्य में श्री समन्तभद्र स्वामी ने अपने जिन अभिलाषा रूप अग्नि के दाह से (चतुर्गति सम्बन्धी दुःख विशेषणों का उल्लेख किया है वह आत्म पलाधावश नही सन्ताप से) मूच्छित हुए (हेयोपादेय विवेक से शून्य हुए) किया, अपितु किसी राज दरबार में राजा के सम्मुख अपने मन (आत्मा) को ज्ञानरूपी अमृतजल के सिंचन से मात्म परिचय प्रस्तुत करते हए किया है। उस काल में मुछारहित शान्त किया है। किसी राजा के सम्मुख आत्म परिचय मे अपने मुख से इस ये दोनो ही उद्धरण इस बात का सकेत करते हैं कि प्रकार के विशेषण प्रयुक्त करना साधारण बात नही थी। श्री समन्तभद्र स्वामी वैद्योचित गुणों और वैद्य द्वारा क्योंकि उन्हें उसकी सार्थकता भी सिद्ध करनी होती थी। विहित की जाने वाली क्रिया-चिकित्सा विधि के पूर्ण श्री स्वामी समतभद्राचार्य के असाधारण व्यक्तित्व ज्ञाता थे। इसीलिए उन्होने श्री शम्भव जिन और श्री शीतल सदर्भ में यह पद्य निश्चय ही महत्वपूर्ण है। क्योकि इससे जिन को वैद्य-भिषग की उपमा देकर वैद्य का महत्व बढ़ाया उनकी अन्यान्य विशेषताओं के साथ-साथ उनका भिषगत्व है। वैद्यक विद्या का ज्ञान होने के कारण ही सम्भवतः (आयुर्वेदज्ञता) भी प्रमाणित होता है। इसके अतिरिक्त उन्हें वैद्य और जिनेन्द्र देव के कतिपय कार्यों में समानता कुछ ऐसे प्रमाण और मिलते है जिनसे प्रतीत होता है कि की प्रतीति हुई है। इस कथन का मेरा आशय मात्र इतना वे वैद्यक विद्या के पूर्ण ज्ञाता थे। उन्होने अपने स्तोत्र ग्रथों ही है कि श्री समन्तभद्र स्वामी अन्य विषयों की भांति ही में भगवान का जो स्तुतिगान किया है उसमे उन्होने आयुर्वेद के ज्ञान से भी अन्वित थे। साथ ही यह तो भगवान को वंद्य की भांति सांसारिक तृष्णा-रोगो का सुविदित है कि जब वे भस्मक महाव्याधि से पीड़ित हुए नाशक बतलाया है। श्री सभव जिन का स्तवन करते हुए तो स्वय ही उसके उपचार मे तत्पर हुए और कुछ काल वे कहते हैं पश्चात् उस पर पूर्ण विजय प्राप्त कर ली। अत: उनका त्वं शम्मवः सम्भवत्तर्ष रोग. सन्तप्यमानस्य जनस्य लोके । भिषग होना सार्थक है जो उनकी आयुर्वेदशता की पुष्टि आसीरिहाकस्मिक एव वेद्यो वंद्यो यथा नाथ रुजां प्रशान्त्यै ॥ करता है। -स्वयंभू स्तोत्र, श्लोक ११ आयर्वेद प्रथ कर्तत्वअर्थात् हे शम्भव जिन ! सांसारिक तृष्णा रोगो से स्वामी समन्तभद्र की वर्तमान में कोई भी आयुर्वेद पीड़ित जन के लिए आप इस लोक में उसी भांति कृति उपलब्ध नहीं है। अत: कुछ विद्वान उनका आयुर्वेद आकस्मिक वैद्यदए हैं जिस प्रकार अनाथ (धन आदि से कर्तृत्व संदिग्ध मानते हैं। वर्तमान में स्वामी समन्तभद्र विहीन असहाय जन) के रोगोपशमन के लिए कोई चतुर की पांच कृतियां उपलब्ध है-देवागम (आप्त मीमांसा), वैद्य होता है। स्वयम्भू स्तोत्र, युक्त्यनुशासन, जिन शतक (स्तुति विचा) इसी प्रकार भगवान शीतलनाथ की स्तुति करते और रत्नकरण्ड श्रावकाचार। इनके अतिरिक्त 'जीवसिद्धि' हुए उन्हें भिषगोपम निरूपित किया है। यथा नामक उनकी एक कृति का उल्लेख तो मिलता है किन्तु सुखाभिलाषा नलवाहमूच्छितं मनो वह अभी तक कही से उपलब्ध नहीं हुई है। ऊपर उनकी निजं ज्ञानमयाऽमृताम्बुभिः। जिनकृतियों का उल्लेख किया गया है उनमे से किसी भी कृति
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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