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समन्तभद्र स्वामी का आयुर्वेद ग्रन्थ कर्तृत्व होता है । 'केसरि' शब्द यहां संख्या विशेष की ओर इंगित किया था। क्योंकि जैन धर्म मे व्यवहार में अत्यन्त सूक्ष्मता करता है। जैन धर्म मे २४ तीर्थकर होते है। प्रत्येक पर्वक अहिंसा को प्रधानला दी गई है। घमाचरणरत तीर्थकर का एक चिह्न होता है जिसे लाछन कहते है । जैसे व्रतधारी मुनियो ने आयुर्वेद के सन्दर्भ मे इस बात पर ऋषभ देव का लांछन बैल है 'अजितनाथ का लांछन ...है विशेष ध्यान दिया कि औषध निर्माण के कार्य में भी किसी इत्यादि । चौबीसबे तीर्थंकर का चिह्न सिंह (कसरि) प्राणि को कष्ट या उसका घात नहीं होना चाहिये। इस है। अत: यहा फलितार्थ यह हुआ कि सूत (पारद) केसरि पर इतनी सूक्ष्मता से ध्यान दिया गया कि एकेन्द्रिय जीवो अर्थात् २४ भाग प्रमाण लिया जाय। इसी प्रकार 'गधक का भी सहार नही होना चाहिये। इस अहिंसा दृष्टिकोण म.' अर्थात् गन्धक 'मग' प्रमाण में लिया जाय। मग चिह्न को ध्या। मे रखते हुए पुष्पायर्वेद का निर्माण किया गया सोलहवें तीर्थक र शान्तिनाथ भगवान का है। प्रत. गन्धक था। उस पुष्पायुर्वेद में प्रथकार ने अठारह हजार जाति के का प्रमाण १६ भाग लेने का निर्देश है। समन्तभद्र स्वामी कुसुम (पराग) रहित पुष्पो से ही रसायन औषधियो की के सम्पूर्ण अथ मे सर्वत्र इसी प्रकार के साकेतिक व निमणि विधि और प्रयोग को उल्लिखित किया है। इस पारिभाषिक शब्दो का प्रयोग हुआ है जो प्रथ की मौलिक पुष्पार्वेद प्रय मे ईसा पूर्व तृतीय शताब्दी की कर्नाटक विशेषता है।'
लिपि उपलब्ध होती है जो अत्यन्त कठिनता पूर्वक पढ़ी ___ स्वामी समन्तभद्र के उक्त ग्रंथ का अध्ययन करने से ।
जाती है। यह एक चिन्तनीय विषय है कि जिस प्रथ मे ज्ञात होता है कि उसे पहले भी जैनेन्द्र मत सम्मत वैद्यक
औषध निर्माण एवं प्रयोग के लिए अठारह हजार जाति
आषध निमाण एवं प्रयाग ग्रन्थो का निर्माण उनके पूर्ववर्ती मुनियो ने किया था। के केवल पुषो का उपयोग उल्लिखित हो, वह भी ई०-सन् क्योकि उन्होंने परिपक्व शैली मे रचित अपने प्रथम द्वितीय-तथीय शताब्दी मे ; ता उस प्रथ का कितना महत्व पूर्वाचार्यों की परम्परागतता को 'रसेन्द्र जैनागमसत्रबद्ध नहीं होगा ? अत: ऐसे महत्वपूर्ण, उपयोगी और ऐतिहासिक इत्यादि शब्दो द्वारा उल्लिखित किया है। इसके अतिरिक्त ग्रंथ की छानबीन, पारिसस्कार एव प्रकाशन के लिए 'सिद्धान्त रसायनकल्प' म श्री समन्तभद्राचार्य ने स्वय समाज के विद्वज्जनो, शोध संस्थानो तथा श्रेष्ठ वर्ग को उल्लेख किया है-श्रीमद्भवल्लातकाद्रौ बसति जिनमुनि,
समुचिन ध्यान देना चाहिये। सूतवादे रसाब्ज" इत्यादि । यह कथन इस तथ्य की पुष्टि
यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि न केवल आयुर्वेद जगत्
मे अपितु वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में भी पुष्पो की इतनी करता है कि आचार्य समन्तभद्र से पर्व भी वैद्यक ग्रथो की
जातियों पर प्रकाश डालने वाला कोई भी ग्रय किसी अन्य रचना करने वाल जनमुनि हुए है जो सभवतः ईसा पूर्व
ग्रंथकार द्वारा अभी तक नही रचा गया है। अतः पुष्पायुर्वेद द्वितीय-तृतीय शताब्दी म रहे होगे और वे कारवाल जिला
जैसे विषय पर ग्रय रचना का श्रेय मात्र जैनाचार्यों को ही होन्ना पर तालुका के गेरसण के पास हाडल्लि मे रहते थे। हाडिल्ल में इन्द्रागार और चन्द्रगिरि नाम के दो पर्वत
है। यद्यपि वैदिक दृष्टि से रचत आयुर्वेद के ग्रथो मे है। वहा पर वे तपश्चर्या करते थे। श्री वर्धमान पार्श्वनाथ
चरक-मुथुन आदि महनीय पथकारो ने औषध योगो मे
वानम्पनिक द्रव्यो को प्रधानता दी है, जिसका अनुसरण शास्त्री के अनुसार अभी भी इन दोनो पर्वतोपर पुरातत्वीय
परवर्ती आचार्यों ने भी किया है। किन्तु साथ मे मासादि अवशेष विद्यमान है।
भक्ष्य द्रव्यों का औषधि के रूप मे उल्लख किया जाने से पुष्पायुर्वेद
उसमे अहिंसा तत्व की प्रतिष्ठा नही हो सकी। इसके श्री वर्धमान पाश्र्वनाथ शास्त्री के अनुसार श्री समन्तभद्र विपरीत नाचायो ने अहिंसा धर्म के पालन का लक्ष्य स्वामी ने किसी पुष्पायुर्वेद नामक ग्रथ का भी निर्माण रखते हुए पुष्पायुर्वेद जैसे ग्रयो की रचना कर जो १. उपर्युक्त
महाड शब्द का अर्थ सगीत है और हल्लि शब्द का २. भट्टारकीय प्रशस्ति मे इस हडल्लि का उल्लेख अर्थ ग्राम है। अत: यह निश्चित है कि हाडल्लि का
सगीतपुर के नाम से मिलता है। क्योकि कन्नड़ भाषा ही संस्कृत नाम संगीत पुर है।