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वर्ष ४० किरण ३
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मोम्म्
अनेकान
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण संवत् २५१३, वि० सं० २०४४
{ जुलाई-सितम्बर
"मैं" और "तू"
मैं शुद्ध बुद्ध चैतन्य रूप, तू जड़ पुद्गल का रागी । शुभ्र स्फटिकसम उज्जवल, तू कलुषित भावों का धारी ॥ मैं शीतल अमृत जलधार सदृश, तू तप्तायमान लौह-सा दग्ध । मैं आनन्द महोदधि का वासी, तू राग-द्वेष भावों से तप्त ॥ मैं मोह-अरि का हन्ता तू मोह-रिपु का दीन दास । मैं ध्रुव अचल और अनुपम, तू हर क्षण काल का ग्रास ॥ मैं ज्ञान ज्योति की दीपशिखा, तू अज्ञान तिमिर का वासी । मैं वीतराग बन कर डोलूं, तू शलभ सदृश अनुरागी ॥ मैं निज स्वभाव में लीन हुआ, तू पर भावों के साथ बहा । मैं एक अकेला आकिंचन, तू प्रिय जनों से रहा घिरा ॥ मैं हर क्षण ज्ञाता-दृष्टा, तू हर क्षण कर्ता-भोक्ता । मैं हर क्षण कर्म काटता तू हर क्षण कर्म जोड़ता || मैं शुद्धोपयोग में रमण करूँ, तू पुण्य-बंध का अभिलाषी । मैं मुक्ति रमा का सहचर, तू चंचला लक्ष्मी का साथी | मैं 'सविता' सम आलोक पुंज, तू निशा सदृश दिग्भ्रमित रहा । मैं मोक्ष मार्ग का पथिक बना, तू स्वर्ण महल में रमा रहा ॥ मैं जरा-मरण से मुक्त हुआ, तू रोग-शोक से व्यथित सदा । "मैं" ने पाया सिद्धों का स्वरूप, "तू" ने पाया संसार सदा ॥ -डॉ० सविता जैन २/ ३५ दरियागंज, नई दिल्ली