Book Title: Agam 25 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज की स्मृति में आयोजित संयोजक एवं प्रधान सम्पादक युवाचार्य श्री मा एकर मान त्रीणि चेदसत्राणि. [ दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्पसूत्र, व्यवहारसूत्र] (मूल अनुवाद-विवेचन-टिप्पण-पाटीटाट युक्त) neration international Pe Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहं जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क ३२-आ {परमश्रद्धेय गुरुदेव पूज्य श्री जोरावरमलजी महाराज को पुण्यस्मृति में प्रायोजित त्रीणि छेदसूत्राणि दशाश्रुतस्कन्ध - बृहत्कल्प व्यवहारसूत्र [मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद, विवेचन, टिप्पण युक्त] प्रेरणा (स्व.) उपप्रवर्तक शासनसेवी स्वामी श्री बजलालजी महाराज संयोजक तथा प्राद्य सम्पादक (स्व०) युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' अनुवादक --- विवेचक---सम्पादक अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी म. 'कमल' गीतार्य श्री तिलोकमुनिजी म० प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ ३२-आ / निर्देशन ___ साध्वी श्री उमरावकुवर 'अर्चना' / सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री श्री रतनमुनि 0 सम्प्रेरक मुनि श्री विनयकुमार 'भीम' श्री महेन्द्रमुनि 'दिनकर' [प्रथम संस्करण वीर निर्वाण सं०२५१७ विक्रम सं० 2048 जनवरी 1992 ई. / प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन समिति श्री ब्रज-मधुकर स्मृति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) पिन-३०५९०१ ] मुद्रक सतीशचन्द्र शुक्ल वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, अजमेर-३०५००१ D मूल्य 160) रुपाने : . Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publisbed at the Holy Remembrance occasion of Rev. Guru Shri Joravarmalji Maharaj TREENI CHHEDSUTRANI Dashashrutskandha Brihatkalpa Vyavhar Sutras ( Original Text with Variant Readings, Hindi Version, Notes and Annotations etc. ] Inspiring Soul (Late) Up-pravartaka Shasansevi Rev. Swami Shri Brijlalji Maharaj Convener & Founder Editor (Late) Yuvacharya Shri Mishrimalji Maharaj 'Madhukar' Trabslator-Annotator-Editor Anuyoga Pravartaka Muni Shri Kanbaiyalalji 'Kamal' Geetarth Shri Tilokmuniji Publishers Shri Agam Prakashan Samiti Beawar (Raj.) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granthmala Publicatios No. 32-B O Direction Sadhwi Shri Umravkunwar 'Archana' Board of Editors Anuyogapravartaka Muni Shri Kanbaiyalalji 'Kamal' Upacharya Shri Devendra Muni Shastri Shri Ratan Muni O Promotor Muni Shri Vinayakumar 'Bhima' Sri Mahendra Muni 'Dinakar' First Edition Vir-Nirvana Samvat 2517 Vikram Samvat 2048, January 1992. O Publisher Shri Agam Prakashan Samiti, Shri Brij-Madhukar Smriti Bhawan, Pipaliya Bazar, Beawar (Raj.) Pin 305 901 O Printer Satish Chandra Shukla Vedic Yantralaya Kesarganj, Ajmer Price Rs Gtd +75| Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण निरतिचार संयमसाधना में सतत संलग्न रहने वाले अतीत, अनागत और वर्तमान के सभी श्रुतधर स्थविरों के करकमलों में। समर्पक अनुयोगप्रवर्तक मुनि कन्हैयालाल 'कमल' गीतार्थ तिलोकमुनि Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय "त्रीणि छेदमुत्राणि' शीर्षक के अन्तर्गत दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प और व्यवहार ये तीन छेदमूत्र प्रकाशित है। पृष्ठ मर्यादा अधिक होने से निशीथमुत्र को पृथक ग्रन्थांक के रूप में प्रकाशित किया है / इन चारों छेदसूत्रों का अनुवाद. विवेचन, संपादन अादि का कार्य मुख्य रूप से अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी म. 'कमल' के सान्निध्य में गीतार्थ मुनि श्री तिलोकमुनिजी ने वहुत परिश्रम. लगन और मनोयोगपूर्वक किया है। अताव पाठकगण छेदम्त्रों सम्बन्धी अपनी जिज्ञासानों के समाधान के लिए मुनि श्री तिलोकमुनिजी से संपर्क बनायें। आगमबत्तीमी के अंतिम वर्ग में छदसूत्रों का समावेश है। इनके प्रकाशन के साथ सभी आगमों का प्रकाशन कार्य संपन्न हो गया है / अताव उपमहार के रूप में ममिति अपना निवेदन प्रस्तुत करती है-- श्रमणमंध के युवाचार्यश्री स्व. श्रद्धय मधुकरमुनिजी म. सा. जब अपने महामहिम गुरुदेवश्री जोरावरमलजी म. सा. में प्रागमों का अध्ययन करते थे तब गुरुदेवश्री ने अनेक बार अपने उद्गार व्यक्त किये थे कि प्रागमों को उनकी टीकानों का मारांश लेकर सरल सुबोध भाषा, शैली में उपलब्ध कराया जाये तो पठन-पाठन के लिये विशेष उपयोगी होगा। गुरुदेवश्री के इन उदगारों में बवाचार्यश्री जी को प्रेरणा मिली। अपने ज्येष्ठ गहम्राता स्वामीजी श्री हजारीमलजी म., स्वामीजी श्री ब्रजलालजी म. से चर्चा करते, योजना बनाते और जब अपनी ओर मे योजना को पूर्ण पद दिया तब विद्वद्वर्य मुनिराजों, विदुषी साध्वियों को भी अपने विचारों में अवगत कराया। सद्गृहस्थों से परामर्श किया / इम प्रकार मभी और में योजना का अनुमोदन हो गया तब वि. सं. 2036 वैशाख शुक्ला 10 श्रमणभगवान महावीर के कैवल्यदिवस पर भगवान की देशना रूप पागमबत्तीसी के संपादन, प्रकाशन को प्रारम्भ करने की घोषणा कर दी गई और निर्धारित रीति-नीति के अनुसार कार्य प्रारम्भ हो गया। युवाचार्य चादर-प्रदान महात्मव दिवस पर ग्राचारांगम्त्र को जिनागम ग्रन्थमाला ग्रन्यांक 1 के रूप में पाठकों के अध्ययनार्थ प्रस्तुत किया। यह प्रकाशन-परम्पग प्रवाध गति में चल रही थी कि दारुणप्रसंग उपस्थित हो गया. अवसाद की गहरी घटायें घिर ग्राई। योजनाकार युवाचार्यश्री दिवंगत हो गये। यह मामिक ग्राघात था। किन्तु साहम और स्व. युवाचार्यश्री के वरद पाशीर्वादों का संबल लेकर समिति अपने कार्य में तत्पर रही। इसी का सुफल है कि ग्रागमवतीसी के प्रकाशन के जिस महान कार्य को प्रारम्भ किया था, वह यथाविधि सम्पन्न कर सकी है। ममिति अध्यात्मयोगिनी विदुषी महामती श्री उमरावकूवरजी म. सा. "अर्चना" की कृतज्ञ है। अपने मार्ग-दर्शन और युवाचार्यश्री के रिक्त स्थान की पुति कर कार्य को पूर्ण करने की प्रेरणा दी। पद्मश्री मोहनमलजी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा. चोरडिया, श्री चिम्मतसिंहजी लोढ़ा, श्री पुखराजजी शिशोदिया, श्री चांदमलजी बिनायकिया, पण्डित श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल अादि व अन्यान्य अजात कर्मठ महयोगीयों का जो अब हमारे बीच नहीं हैं, स्मरण कर श्रद्धांजलि समर्पित करती है। अंत में समिति अपने सहयोगी परिवार के प्रत्येक सदस्य को धन्यवाद देती है। इनके सहकार में जैन वाङमय की चतुर्दिक-चतुर्गणित श्रीवृद्धि कर मकी है। हम तो इनके मार्गदर्शन में मामान्य कार्यवाहक की भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। रतनचन्द मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष अमरचन्द मोदी सायरमल चोरडिया महामंत्री श्री आगम प्रकाशन समिति, पीपलिया बाजार, ब्यावर-३०५९०१ अमरचन्द मोदी मंत्री Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय छेद-सूत्र : समीक्षात्मक विवेचन पागमों की संख्या स्थानकवासी जैन परंपरा जिन आगमों को वीतराग-वाणी के रूप में मानती है, उनकी संख्या 32 है। वह इस प्रकार है-ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल, चार छेद और एक आवश्यक / श्वेताम्बर मूर्ति-पूजक परंपरा के अनुसार पैंतालीस आगम हैं। अंग, उपांग आदि की संख्या तो समान है। किन्तु प्रकीर्णकों और छेदसूत्रों में निशीथ, दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प व व्यवहारसूत्र के साथ महानिशीथ और पंचकल्प को अधिक माना है। अंग, उपांग आदि आगमों में धर्म, दर्शन, आचार, संस्कृति, सभ्यता, इतिहास, कला आदि साहित्य के सभी अंगों का समावेश है / परन्तु मुख्य रूप से जैन दर्शन और धर्म के सिद्धान्तों और आचारों का विस्तार से वर्णन किया गया है। अंग, उपांग, मूलवर्ग में प्रायः सैद्धान्तिक विचारों की मुख्यता है। आचारांग, उपासक दशांग और प्रावश्यक सूत्रों में प्राचार का विस्तार से वर्णन किया है। छेदसूत्र आचारशुद्धि के नियमोपनियमों के प्ररूपक हैं। प्रस्तुत में छेदसूत्रों सम्बंधी कुछ संकेत करते हैं। छेदसूत्र नाम क्यों? छेद शब्द जैन परम्परा के लिये नवीन नहीं है। चारित्र के पांच भेदों में दूसरे का नाम छेदोपस्थापनाचारित्र है / कान, नाक प्रादि अवयवों का भेदन तो छेद शब्द का सामान्य अर्थ है, किन्तु धर्म-सम्बन्धी छेद का लक्षण इस प्रकार है वज्झाणुटाणेणं जेण ण बाहिज्जए तये णियया। संभवइ य परिसुद्ध' सो पुण धम्मम्मि छेउत्ति / जिन बाह्यक्रियाओं से धर्म में बाधा न आती हो और जिससे निर्मलता की वद्धि हो, उसे छेद कहते हैं। अतएव छेदोपस्थापना का लक्षण यह हुआ-पुरानी सावध पर्याय को छोड़कर अहिंसा प्रादि पांच प्रकार के यमरूप धर्म में आत्मा को स्थापित करना छेदोपस्थापनासंयम है। अथवा जहाँ हिंसा, चोरी इत्यादि के भेद पूर्वक सावध क्रियाओं का त्याग किया जाता है और व्रतभंग हो जाने पर इसकी प्रायश्चित्त आदि से शुद्धि की जाती है, उसको छेदोपस्थापना संयम कहते हैं। यह निरतिचार और सातिचार के भेद से दो प्रकार का है। निरतिचार छेदोपस्थापना में पूर्व के सर्वसावद्यत्याग रूप सामायिक चारित्र के पृथक-पृथक अहिंसा आदि पंच महाव्रत रूप भेद करके साधक को स्थापित किया जाता है। सातिचार छेदोपस्थापनाचारित्र में उपस्थापित (पून: स्थापित) करने के लिये आलोचना के साथ प्रायश्चित्त भी आवश्यक है। यह प्रायश्चित्तविधान स्खलनाओं की गंभीरता को देखकर किया जाता है। प्रायश्चित्त दस प्रकार के हैं। इनमें छेदप्रायश्चित्त सातवां है। आलोचनाई प्रायश्चित्त से छेदाह प्रायश्चित्त पर्यन्त सात प्रायश्चित्त होते हैं। ये वेषयुक्त श्रमण को दिये जाते हैं। अंतिम तीन वेषमुक्त श्रमण को दिये जाते हैं। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेषमुक्त श्रमण को दिये जाने वाले प्रायश्चित्तों में छेदप्रायश्चित्त अंतिम प्रायश्चित्त है। इसके साथ पूर्व के छह प्रायश्चित्त ग्रहण कर लिये जाते हैं। मूलाह, अनवस्थाप्याई और पारिञ्चिकाई प्रायश्चित्त वाले अल्प होते हैं। आलोचनाह से छेदाह पर्यन्त प्रायश्चित्त वाले अधिक होते हैं। इसलिये उनकी अधिकता से सहस्राम्रवन नाम के समान दशाश्रुतस्कन्ध (आचारदसा) बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ आगमों को छेदसूत्र कहा जाता है। छेदसूत्रों का सामान्य वर्ण्य-विषय उपर्युक्त कथन से यह ज्ञात हो जाता है कि साधनामय जीवन में यदि साधक के द्वारा कोई दोष हो जाये कैसे बचा जाये, उसका परिमार्जन कैसे किया जाये, यह छेदसूत्रों का सामान्य वर्ण्य-विषय है। इस दृष्टि से छेदसूत्रों के विषयों को चार भागों में विभाजित किया जा सकता है - 1. उत्सर्गमार्ग, 2. अपवादमार्ग, 3. दोषसेवन, 4 प्रायश्चित्तविधान / 1. जिन नियमों का पालन करना साधु-साध्वीवर्ग के लिये अनिवार्य है। बिना किसी होनाधिकता, परिवर्तन के समान रूप से जिस समाचारी का पालन करना अवश्यंभावी है और इसका प्रामाणिकता से पालन करना उत्सर्गमार्ग है। निर्दोष चारित्र की प्राराधना करना इस मार्ग की विशेषता है। इसके पालन करने से साधक में अप्रमत्तता बनी रहती है तथा इस मार्ग का अनुसरण करने वाला साधक प्रशंसनीय एवं श्रद्धेय बनता है। 2. अपवाद का अर्थ है विशेषविधि / वह दो प्रकार की है--(१) निर्दोष विशेषविधि और (2) सदोष विशेषविधि / सामान्यविधि से विशेषविधि बलवान होती है। आपवादिक विधि सकारण होती है। उत्तरगुणप्रत्याख्यान में जो प्रागार रखे जाते हैं, वे सब निर्दोष अपवाद हैं। जिस क्रिया, प्रवत्ति से प्राज्ञा का अतिक्रमण न होता हो, वह निर्दोष है, परन्तु प्रबलता के कारण मन न होते हुए भी विवश होकर जिस दोष का सेवन करना पड़ता है या किया जाये, वह सदोष अपवाद है / प्रायश्चित्त से उसकी शुद्धि हो जाती है। यह मार्ग साधक को प्रार्त-रौद्र ध्यान से बचाता है। यह मार्ग प्रशंसनीय तो नहीं है किन्तु इतना निन्दनीय भी नहीं कि लोकापवाद का कारण बन जाये। अनाचार तो किसी भी रूप में अपवादविधि का अंग नहीं बनाया या माना जा सकता है। स्वेच्छा और स्वच्छन्दता से स्वैराचार में प्रवृत होना, मर्यादा का अतिक्रमण करते हुए अपने स्वार्थ, मान-अभिमान को सर्वोपरि स्थापित करना, संघ की अवहेलना करना, उद्दण्डता का प्रदर्शन करना, अनुशासन भंग करना अनाचार है। यह अकल्पनीय है, किन्तु अनाचारी कल्पनीय बनाने की युक्ति-प्रयुक्तियों का सहारा लेता है। ऐसा व्यक्ति, साधक किसी भी प्रकार की विधि से शुद्ध नहीं हो सकता है और न शुद्धि के योग्य पात्र है। 3, ४-दोष का अर्थ है उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का भंग करना और उस भंग के शुद्धिकरण के लिये की जाने वाली विधि, प्रायश्चित कहलाती है। प्रबलकारण के होने पर अनिच्छा से, विस्मृति और प्रमादवश जो दोष सेवन हो जाता है, उसकी शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त से शुद्ध होना, यही छेदसूत्रों के वर्णन की सामान्य रूपरेखा है। प्रायश्चित को अनिवार्यता दोषशुद्धि के लिये प्रायश्चित्त का विधान है, उपर्युक्त कथन से यह ज्ञात हो जाता है। इसी संदर्भ में यहाँ कुछ विशेष संकेत करते हैं। [10] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्म के पांच प्राचारों के बीचोंबीच चारित्राचार को स्थान देने का यह हेतु है कि ज्ञानाचारदर्शनाचार तथा तपाचार-वीर्याचार की समन्वित साधना निर्विघ्न सम्पन्न हो, इसका एक मात्र साधन चारित्राचार है / चारित्राचार के आठ विभाग हैं--पांच समिति, तीन गुप्ति / पाँच समितियां संयमी जीवन में निवृत्तिमूलक प्रवृत्तिरूपा हैं और तीन गुप्तियां तो निवृत्तिरूपा ही हैं। इनकी भूमिका पर अनगार की साधना में एक अपूर्व उल्लास, उत्साह के दर्शन होते हैं। किन्तु विषय-कषायवश, राग-द्वेषादि के कारण यदि समिति, गुप्ति और महाव्रतों की मर्यादाओं का अतिक्रम, व्यतिक्रम या अतिचार यदा-कदा हो जाये तो सुरक्षा के लिये प्रायश्चित्त प्राकार (परकोटा) रूप है। फलितार्थ यह है कि मूलगुणों, उत्तरगुणों में प्रतिसेवना का धुन लग जाये तो उसके परिहार के लिये प्रायश्चित्त अनिवार्य है। छेदप्रायश्चित्त की मुख्यता का कारण प्रायश्चित्त के दस प्रकार हैं। इनमें प्रारंभ के छह प्रायश्चित्त सामान्य दोषों की शुद्धि के लिये हैं और अंतिम चार प्रायश्चित्त प्रबल दोषों को शुद्धि के लिये हैं। छेदार्ह प्रायश्चित्त में अंतिम चार प्रायश्चित्तों में प्रथम प्रायश्चित्त है। व्याख्याकारों ने इसकी व्याख्या करते हए आयुर्वेद का एक रूपक प्रस्तुत किया है। उसका भाव यह है--किसी व्यक्ति का अंग-उपांग रोग या विष से इतना अधिक दूषित हो जाये कि उपचार से उसके स्वस्थ होने की संभावना ही न रहे तो शल्यक्रिया से उस अंग-उपांग का छेदन करना उचित है, पर रोग या विष को शरीर में व्याप्त नहीं होने देना चाहिये। क्योंकि ऐसा न करने पर अकालमृत्यु अवश्यंभावी है। किन्तु अंगछेदन के पूर्व वैद्य का कर्तव्य है कि रुग्ण व्यक्ति और उसके निकट संबंधियों को समझाये कि अंग-उपांग रोग से इतना दूषित हो गया है कि अब पोषधोपचार से स्वस्थ होने की संभावना नहीं है। जीवन की सुरक्षा और वेदना की मुक्ति चाहें तो शल्यक्रिया से अंग-उपांग का छेदन करवा लें। यद्यपि शल्यक्रिया से अंग-उपांग का छेदन करते समय तीव्र वेदना होगी पर होगी थोड़ी देर, किन्तु शेष जीबन वर्तमान जैसी वेदना से मुक्त रहेगा। इस प्रकार समझाने पर वह रुग्ण व्यक्ति और उसके अभिभावक अंग-छेदन के लिये सहमत हो जाये तो चिकित्सक का कर्तव्य है कि अंग-उपांग का छेदन कर शरीर और जीवन को व्याधि से बचावे / __ इस रूपक की तरह प्राचार्य आदि अनगार को समझायें कि दोष प्रतिसेवना से आपके उत्तरगुण इतने अधिक दूषित हो गये हैं कि अब उनकी शुद्धि आलोचनादि सामान्य प्रायश्चित्तों से संभव नहीं है। अब आप चाहें तो प्रतिसेवनाकाल के दिनों का छेदन कर शेष संयमी जीवन को सुरक्षित किया जाये। अन्यथा न समाधिमरण होगा और न भवभ्रमण से मुक्ति होगी। इस प्रकार समझाने पर वह अनगार यदि प्रतिसेवना का परित्याग कर छेदप्रायश्चित्त स्वीकार करे तो प्राचार्य उसे छेदप्रायश्चित्त देकर शुद्ध करें। यहाँ यह विशेष जानना चाहिये कि छेदप्रायश्चित्त से केवल उत्तरगुणों में लगे दोषों की शुद्धि होती है। मूलगुणों में लगे दोषों की शुद्धि मूलाह आदि तीन प्रायश्चित्तों से होती है। छेदसूत्रों की वर्णनशैली __ छेदसूत्रों में तीन प्रकार के चारित्राचार प्रतिपादित हैं--(१) हेयाचार, (2) ज्ञेयाचार, (3) उपादेयाचार / इनका विस्तृत विचार करने पर यह रूप फलित होता है (1) विधिकल्प, (2) निषेधकल्प, (3) विधिनिषेधकल्प, (4) प्रायश्चित्तकल्प, (5) प्रकीर्णकः / इनमें से प्रायश्चित्तकल्प के अतिरिक्त अन्य विधि-कल्पादिक के चार विभाग होंगे [11] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) निर्ग्रन्थों के विधिकल्प, (2) निग्रंथियों के विधिकल्प, (3) निग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के विधिकल्प, (4) सामान्य विधिकल्प / इसी प्रकार निषेधकल्प आदि भी समझना चाहिये / जिन सूत्रों में 'कप्पई' शब्द का प्रयोग है, वे विधिकल्प के सूत्र हैं। जिनमें 'नो कप्पई' शब्द प्रयोग है, वे निषेधकल्प के सूत्र हैं। जिनमें 'कप्पई' और 'नो कप्पई' दोनों का प्रयोग है वे विधि-निषेधकल्प के सुत्र हैं और जिनमें 'कप्पई' और 'नोकप्पई' दोनों का प्रयोग नहीं है वे विधानसुत्र हैं। प्रायश्चित्तविधान के लिये सूत्रों में यथास्थान स्पष्ट उल्लेख है। छेदसूत्रों में सामान्य से विधि-निषेधकल्पों का उल्लेख करने के बाद निर्ग्रन्थों के लिये विधिकल्प और निषेधकल्प का स्पष्ट संकेत किया गया है। इसी प्रकार निर्ग्रन्थी के विधि-निषेधकल्प का कथन है। दोनों के लिये क्या और कौन विधि-निषेधकल्प रूप है और प्रतिसेवना होने पर किसका कितना प्रायश्चित्त विधान है, उसकी यहां विस्तृत सूची देना संभव नहीं है। ग्रन्थावलोकन से पाठकगण स्वयं ज्ञात कर लें। प्रायश्चित्तविधान के दाता-आदाता की योग्यता दोष के परिमार्जन के लिये प्रायश्चित्त विधान है। इसके लेने और देने वाले की पात्रता के सम्बन्ध में छेदसूत्रों में विस्तृत वर्णन है। जिसके संक्षिप्त सार का यहां कुछ संकेत करते हैं। अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार दोष सेवन के कारण हैं / किन्तु जो वक्रता और जड़ता के कारण दोषों की आलोचना सहजभाव से नहीं करते हैं, वे तो कभी भी शुद्धि के पात्र नहीं बन सकते हैं / यदि कोई मायापूर्वक आलोचना करता है तब भी उसकी आलोचना फलप्रद नहीं होती है। उसकी मनोभूमिका अालोचना करने के लिये तत्पर नहीं होती तो प्रायश्चित्त करना आकाशकुसुमबत् है। उक्त कथन का सारांश यह हुआ कि आलोचक ऋजु, छलकपट से रहित मनस्थितिवाला होना चाहिये। उसके अंतर् में पश्चात्ताप की भावना हो, तभी दोषपरिमार्जन के लिये तत्पर हो सकेगा। इसी प्रकार प्रालोचना करने वाले की आलोचना सुनने वाला और उसकी शुद्धि में सहायक होने का अधिकारी वही हो सकेगा जो प्रायश्चित्तविधान का मर्मज्ञ हो, तटस्थ हो, दूसरे के भावों का वेत्ता हो, परिस्थिति का परिज्ञान करने में सक्षम हो, स्वयं निर्दोष हो, पक्षपात रहित हो, प्रादेय वचन वाला हो। ऐसा वरिष्ठ साधक दोषी को निर्दोष बना सकता है। संघ को अनुशासित एवं लोकापवाद, भ्रांत धारणाओं का शमन कर सकता है। इस संक्षिप्त भूमिका के आधार पर अब इस ग्रन्थ में संकलित-१. दशाश्रुतस्कन्ध, 2. बृहत्कल्प और 3. व्यवहार, इन तीन छेदसूत्रों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करते हैं। (1) दशाश्रुतस्कन्ध अथवा प्राचारदशा समवायांग, उत्तराध्ययन और आवश्यकसूत्र में कल्प और व्यवहारसूत्र के पूर्व आयारदसा (आचारदशा) या नाम कहा गया है। अतः छेदसूत्रों में यह प्रथम छेदसूत्र है। स्थानांगसूत्र के दसवें स्थान में इसके दस अध्ययनों का उल्लेख होने से 'दशाश्रुतस्कन्ध' यह नाम अधिक प्रचलित हो गया है। दस अध्ययनों के नाम इस प्रकार हैं१. असमाधिस्थान, 2, सबलदोष, 3. अाशातना, 4. गणिसम्पदा, 5. चित्तसमाधिस्थान, 6. उपासकप्रतिमा, 7. भिक्षप्रतिमा, 8. पर्युषणाकल्प 9. मोहनीयस्थान और 10. आयतिस्थान / इन दस अध्ययनों में असमाधिस्थान, [12] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्तसमाधिस्थान, मोहनीयस्थान और आयतिस्थान में जिन तत्त्वों का संकलन किया गया है, वे वस्तुतः योगविद्या से संबद्ध हैं। योगशास्त्र से उनकी तुलना की जाये तो ज्ञात होगा कि चित्त को एकाग्र तथा समाहित करने के लिए प्राचारदशा के दस अध्ययनों में ये चार अध्ययन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है / उपासकप्रतिमा और भिक्षुप्रतिमा श्राबक व श्रमण की कठोरतम साधना के उच्चतम नियमों का परिज्ञान कराते हैं / पर्युषणाकल्प में पर्युषण रब करना चाहिये, कैसे मनाना चाहिये...? कब मनाना चाहिये, इस विषय पर विस्तार से विचार किया गया है। सबलदोष और आशातना इन दो दशानों में साधुजीवन के दैनिक नियमों का विवेचन किया गया है और कहा गया है कि इन नियमों का परिपालन होना ही चाहिये। इनमें जो त्याज्य हैं, उनका दृढ़ता से त्याग करना चाहिये और जो उपादेय हैं, उनका पालन करना चाहिये। चतुर्थ दशागणिसंपदा में आचार्यपद पर विराजित व्यक्ति के व्यक्तित्व, प्रभाव तथा उसके शारीरिक प्रभाव का अत्यन्त उपयोगी वर्णन किया गया है। प्राचार्यपद की लिप्सा में संलग्न व्यक्तियों को प्राचार्यपद ग्रहण करने के पूर्व इनका अध्ययन करना आवश्यक है। इस प्रकार यह दशाश्रुतस्कन्ध (आचारदशा) सत्र श्रमणजीवन में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रकारान्तर से दशाश्रतस्कन्ध की दशाओं के प्रतिपाद्य का उल्लेख इस रूप में भी हो सकता हैप्रथम तीन दशानों और अंतिम दो दशाओं में साधक के हेयाचार का प्रतिपादन है। चौथी दशा में अगीतार्थ अनगार के ज्ञेयाचार का और गीतार्थ अनगार के लिये उपादेयाचार का कथन है। पांचवी दशा में उपादेयाचार का निरूपण है। छठी दशा में अनगार के लिये जयाचार और सागार (श्रमणोपासक) के लिये उपादेयाचार का कथन है। सातवी दशा में अनगार के लिये उपादेयाचार और सागार के लिये ज्ञेयाचार का कथन किया है। आठवीं दशा में अनगार के लिये कुछ ज्ञेयाचार, कुछ हेयाचार और कुछ उपादेयाचार है। इस प्रकार यह आचारदशा-दशाश्रुतस्कंध अनगार और सागार दोनों के लिये उपयोगी है। कल्प, व्यवहार आदि छेदसूत्रों में भी हेय, ज्ञेय और उपादेय प्राचार का कथन किया गया है। (2) बृहत्कल्पसूत्र कल्प शब्द अनेक अर्थों का बोधक है, इस शब्द का प्रयोग वैदिक साहित्य में उपलब्ध होता है। वेद के छहः अंग हैं उनमें एक वह अंग है जिसमें यज्ञ प्रादि कर्मकाण्डों का विधान है, वह अंग कल्प कहलाता है। कालमान के लिये भी कल्प शब्द का प्रयोग मिलता है। चौदह मन्वन्तरों का कालमान कल्प शब्द से जाना जाता है। उसमें चार अरब, बत्तीस करोड़ वर्ष बीत जाते हैं। इतने लम्बे काल की संज्ञा को कल्प कहा है। सदृश अर्थ में भी कल्प शब्द का प्रयोग किया जाता है, जैसे कि श्रमणकल्प, ऋषिकल्प इत्यादि / कल्प शब्द उस वृक्ष के लिए भी प्रयुक्त होता है जो वृक्ष मनोवांछित फल देने वाला है, वह कल्पवृक्ष कहलाता है। राज्यमर्यादा के लिए भी कल्प शब्द का प्रयोग किया जाता है। बारहवें देवलोक तक राजनीति की मर्यादा है। इसी कारण उन देवलोकों को 'कल्प देवलोक' कहा जाता है। मर्यादा वैधानिकरीति से जो भी कोई जीवन चलाता है, वह अवश्य ही सुख और सम्पत्ति से समृद्ध बन जाता है। प्रस्तुत शास्त्र का नाम जिस कल्प शब्द से चरितार्थ किया है, वह उपर्युक्त अर्थों से बिल्कुल भिन्न है। [13] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत प्रसंग में कल्प शब्द का अर्थ धर्म-मर्यादा है। साधु आचार ही धर्म-मर्यादा है। जिस शास्त्र में धर्ममर्यादा का वर्णन हो बह कल्प है, नाम विषयानुरूप ही है। जिस शास्त्र का जैसा विषय हो वैसा नाम रखना यथार्थ नाम कहलाता है। साधुधर्म के आन्तरिक और बाह्य-आचार का निर्देश एवं मर्यादा बताने वाला शास्त्र कल्प कहलाता है। जिस सूत्र में भगवान महावीर, पार्श्वनाथ, अरिष्टनेमि और ऋषभदेव का जीवनवृत्त है, उस शास्त्र के अंतिम प्रकरण में साधु समाचारी का वर्णन है। वह पर्युषणाकल्प होने से लघुकल्प है। उसकी अपेक्षा से जिसमें साधु-मर्यादा का वर्णन विस्तृत हो, वह वहत्वल्प कहलाता है। इसमें सामायिक, छेदोपस्थापनीय और परिहारविशुद्धि इन तीनों चारित्रों के विधि विधानों का सामान्य रूप से वर्णन है / बृहत्कल्प शास्त्र में जो भी वर्णन है उन सबका पालन करना उक्त चारित्रशीलों के लिये अवश्यंभावी है / विविध सूत्रों द्वारा साधु साध्वी की विविध मर्यादाओं का जिसमें वर्णन किया गया है, उसे बहत्कल्पसूत्र कहते है / प्राकृत भाषा में बिहक्कप्पसुत्तं रूप बनता है। प्रस्तुत "कप्पसुत्तं" (कल्पसूत्र) और “कप्पसुय" (कल्पश्रुत) एक हैं या भिन्न हैं ? यह आशंका अप्रासंगिक है, क्योंकि "कप्पसुत्तं" कालिक आगम है। अाचारदशा अर्थात् दशाश्रुतस्कन्ध का आठवां अध्ययन "पर्युषणाकल्प" है, इसमें केवल वर्षावास की समाचारी है। कुछ शताब्दियों पहले इस “पर्युषणाकल्प" को तीर्थंकरों के जीवनचरित्र तथा स्थविरावली से संयुक्त कर दिया गया था। यह शनैः-शनै: कल्पसूत्र के नाम से जनसाधरण में प्रसिद्ध हो गया। इस कल्पसूत्र से प्रस्तुत कल्पसूत्र का नाम भिन्न दिखाने के लिए प्रस्तुत कल्पसूत्र का नाम बहत्कल्पसूत्र दिया गया है। वास्तव में बृहत्कल्पसूत्र नाम के आगम का किसी आगम में उल्लेख नहीं है। नन्दीसत्र में इसका नाम "कप्पो" है / कप्पसुयं के दो विभाग हैं "चुल्लकप्पसुयं" और "महाकप्पसुर्य" / इसी प्रकार "कप्पियाकप्पियं" भी उत्कालिक आगम है। ये सब प्रायश्चित्त-विधायक आगम हैं, पर ये विच्छिन्न हो गये हैं ऐसा जैनसाहित्य के इतिहासज्ञों का अभिमत है। कल्प वर्गीकरण प्रस्तुत "कल्पसुत्तं" का मूल पाठ गद्य में है और 473 अनुष्टुप श्लोक प्रमाण है / इसमें 81 विधि-निषेधकल्प हैं / ये सभी कल्प पांच समिति और पांच महाव्रतों से सम्बन्धित हैं / अतः इनका वर्गीकरण यहाँ किया गया है। जिन सूत्रों का एक से अधिक समितियों या एक से अधिक महाव्रतों से सम्बन्ध है, उनका स्थान समिति और महाव्रत के संयुक्त विधि-निषेध और महाव्रतकल्प शीर्षक के अन्तर्गत है। उत्तराध्ययन अ० 24 के अनुसार ईर्यासमिति का विषय बहुत व्यापक है, इसलिए जो सूत्र सामान्यतया ज्ञान, दर्शन या चारित्र आदि से सम्बन्धित प्रतीत हुए हैं उनको "ईर्यासमिति के विधि-निषेधकल्प" शीर्षक के नीचे स्थान दिया है। वर्गीकरणदर्शक प्रारूप इस प्रकार है (1) ईर्यासमिति के विधि-निषेध कल्प—१. चारसूत्र, 2. अध्वगमनसूत्र, 3. आर्यक्षेत्रसूत्र, 4. महानदीसूत्र, 5. बैराज्य–विरुद्धराज्यसूत्र, 6. अन्तगृहस्था, 7. वाचनासूत्र, 8. संज्ञाप्यसूत्र, 9. गणान्तरोपसम्पत्सूत्र, 10. कल्पस्थितिसूत्र / 1. अभिधान राजेन्द्र : भाग तृतीय पृष्ठ 239 पर "कप्पसुयं" शब्द का विवेचन / [14] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) ईर्यासमिति और परिष्ठापनिकासमिति के संयुक्त विधि-निषेधकल्प---११. विचारभूमिविहारभूमिसूत्र / (3) भाषा-समिति के विधि-निषेधकल्प-१२. वचनसूत्र, 13. प्रस्तारसूत्र, 14. अन्तरगृहस्थानादिसूत्र, (4) एषणासमिति के विधि-निषेधकल्प [आहारषणा] -- 15. प्रलम्बसूत्र, 16. रात्रि भक्तसूत्र, 17. संखतिसूत्र, 18. सागारिक-पारिहारिकसूत्र, 19. आहुतिका-निहति कासूत्र, 20. अंशिकासूत्र, २१.कालक्षेत्रातिक्रान्तसूत्र, 22. कल्पस्थिताकल्पस्थितसूत्र, 23. संस्तृत-निविचिकित्ससूत्र, 24. उद्गारसूत्र, 25. ग्राहारविधिसूत्र, 26. परिवासितसूत्र, 27. पुलाकभक्तसूत्र, 28. क्षेत्रावग्रहप्रमाणसूत्र, 29. रोधक (सेना) सूत्र (पाणषणा) 30. पानकविधिसूत्र, 31. अनेषणीयसूत्र, 32. मोकसूत्र, (वस्त्रंषणा) 33. चिलिमिलिका सूत्र 34. रात्रिवस्त्रादिग्रहणसत्र, 35. हताहतासूत्र, 36, उपधिसूत्र, 37. वस्त्रसुत्र, 38. निश्रासूत्र, 39. त्रिकृत्स्नचतुःकृत्स्नसूत्र, 40. समवसरणसूत्र, 41. यथारत्नाधिक वस्त्रपरिभाजकसूत्र, (वस्त्र-पाषणा) 42. प्रवग्रहसूत्र, (पाषणा) 43. घटीमात्रक सूत्र , (रजोहरणैषणा) 44. रजोहरणसूत्र, (चमैषणा) 45. चर्मसूत्र, (शय्या-संस्तारकेषणा) 46. शय्या-संस्तारकसूत्र, 47. यथारत्नाधिक शय्या-संस्तारक-परिभाजनसूत्र, (स्थानेषणा) 48. अवग्रहसूत्र, (उपाश्रयैषणा) 49. आपणगृह-रथ्यामुखसूत्र, 50. चित्रकर्मसूत्र, 51. सागारिक निधासूत्र, 52. सागारिक उपाश्रयसूत्र, 53. प्रतिबद्ध शय्यासूत्र, 54. गाथापतिकुलमध्यवाससूत्र, 55. उपाश्रयसूत्र, 56. उपाश्रयविधिसूत्र, (वसतिनिवास) 57. मासकल्पसूत्र, 58. वगडासूत्र, महावतों के अनधिकारी 59. प्रव्राजनासूत्र (महाव्रत प्ररूपण) 60. महावतसूत्र, प्रथम महावत के विधिनिषेधकल्प 61. अधिकरणसूत्र, 62. व्यवशमनसूत्र, प्रथम और तृतीय महावत के विधिनिषेधकल्प 63. आवस्थाप्पसूत्र, प्रथम-चतुर्थ महावत के विधिनिषेधकल्प 64. दकतीरसूत्र, 65. अनुद्घातिकसूत्र, चतुर्थमहावत के विधिनिषेधकल्प 66. उपाश्रय-प्रवेशसूत्र, 67. अपावृतद्वार उपाश्रयसूत्र, 68. अवग्रहानन्तक-प्रवग्रहपट्टकसूत्र, 69. ब्रह्मापायसूत्र, 70. ब्रह्मरक्षासूत्र, 71. पाराञ्चिकसुत्र, 72. कण्टकादि-उद्धरणसूत्र, 73. दुर्गसूत्र, 74. क्षिप्तचित्तादिसूत्र, तपकल्प' 75. कृतिकर्मसूत्र 76. ग्लानसूत्र, 77. पारिहारिकसूत्र 78. व्यवहारसूत्र, मरणोत्तरविधि 79. विश्वम्भवनसूत्र, महावत और समिति के संयुक्तकल्प 80. परिमन्थसत्र इस वर्गीकरण से प्रत्येक विज्ञपाठक इस आगम की उपादेयता समझ सकते हैं। श्रामण्य जीवन के लिए ये विधि-निषेधकल्प कितने महत्त्वपूर्ण हैं। इनके स्वाध्याय एवं चिन्तन-मनन से ही पंचाचार का यथार्थ पालन सम्भव है। यह पागमज्ञों का अभिमत है तथा इन विधि-निषेधकल्पों के ज्ञाता ही कल्प विपरीत पाचरण के निवारण करने में समर्थ हो सकेंगे, यह स्वतः सिद्ध है। (3) व्यवहारसूत्र प्रस्तुत व्यवहारसूत्र तृतीय छेदसूत्र है / इसके दस उद्देशक हैं। दसवें उद्देशक के अंतिम (पांचवें) सूत्र में पांच व्यवहारों के नाम है / इस सूत्र का नामकरण भी पाँच व्यवहारों को प्रमुख मानकर ही किया गया है। 1. उपाश्रय विधि-निषेध-कल्प के जितने सूत्र हैं वे प्रायः चतुर्थ महावत के विधि-निषेध-कल्प भी हैं। 2. विनय यावत्य और प्रायश्चित्त प्रादि ग्राभ्यन्तर तपों का विधान करने वाले ये सत्र हैं। 3. प्रथम छेदसूत्र दशा, (आयारदशा दशाश्रुतस्कन्ध), द्वितीय छेदसूत्र कल्प (बृहत्कल्प) और तृतीय छेदसूत्र व्यवहार / देखिए सम० 26 सूत्र--२ / अथवा उत्त० अ० 31, गा० 17 / भाष्यकार का मन्तव्य है-व्यवहारसूत्र के दसवें उद्देशक का पांचवां सूत्र ही अन्तिम सूत्र है। पुरुषप्रकार से दसविधवैयावत्य पर्यन्त जितने सूत्र हैं, वे सब परिवधित हैं या चूलिकारूप है। [ 15 ] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार-शब्दरचना वि+व+ह-+धा / 'वि' और 'अव' ये दो उपसर्ग हैं। हज-हरणे धातु है / 'ह' धातु से 'पा' प्रत्यय करने पर हार बनता है। वि+व+हार---इन तीनों से व्यवहार शब्द की रचना हुई है। 'वि'--विविधता या विधि का सूचक है। 'प्रव'--संदेह का सूचक है। 'हार'-हरण क्रिया का सूचक है। फलितार्थ यह है कि विवाद विषयक नाना प्रकार के संशयों का जिससे हरण होता है वह 'व्यवहार' है। यह व्यवहार शब्द का विशेषार्थ है। व्यवहारसूत्र के प्रमुख विषय 1. व्यवहार, 2. व्यवहारी और 3. व्यवहर्तव्य-ये तीन इस सूत्र के प्रमुख विषय हैं। ___ दसवें उद्देशक के अन्तिम सूत्र में प्रतिपादित पांच व्यवहार करण (साधन) हैं, गण की शुद्धि करने वाले गीतार्थ (प्राचार्यादि) व्यवहारी (व्यवहार क्रिया प्रवर्तय) कर्ता हैं, और श्रमण श्रमणियां व्यवहर्तव्य (व्यवहार करने योग्य) हैं / अर्थात् इनकी अतिचार शुद्धिरूप क्रिया का सम्पादन व्यवहारज्ञ व्यवहार द्वारा करता है। जिस प्रकार कुम्भकार (कर्ता), चक्र, दण्ड मृत्तिका सूत्र आदि करणों द्वारा कुम्भ (कर्म) का सम्पादन करता है-इसी प्रकार व्यवहारज्ञ व्यवहारों द्वारा व्यवहर्तव्यों (गण) की अतिचार शुद्धि का सम्पादन करता है। व्यवहार-व्याख्या व्यवहार की प्रमुख व्याख्यायें दो हैं / एक लौकिक व्याख्या और दूसरी लोकोत्तर व्याख्या / लौकिका व्याख्या दो प्रकार की है--१. सामान्य और 2. विशेष / सामान्य व्याख्या है-दूसरे के साथ किया जाने वाला आचरण अथवा रुपये-पैसों का लेन-देन / विशेष व्याख्या है-अभियोग की समस्त प्रक्रिया अर्थात न्याय / इस विशिष्ट व्याख्या से सम्बन्धित कुछ शब्द प्रचलित हैं। जिनका प्रयोग वैदिक परम्परा की श्रुतियों एवं स्मृतियों में चिरन्तन काल से चला मा रहा है। यथा-- 1. व्यवहारशास्त्र-(दण्डसंहिता) जिसमें राज्य-शासन द्वारा किसी विशेष विषय में सामूहिक रूप से बनाये गये नियमों के निर्णय और नियमों का भंग करने पर दिये जाने वाले दण्डों का विधान व विवेचन होता है। 1. 'वि' नानार्थे 'ऽव' संदेहे, 'हरणं' हार उच्यते / नाना संदेहहरणाद, व्यवहार इति स्थितिः 1-कात्यायन / नाना विवाद विषयः संशयो हियतेऽनेन इति व्यवहारः / 2. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहागणसोहिकरे नाम एगे नो माणकरे।.... ----व्यव० पुरुषप्रकार सूत्र 3. गाहा-वहारी खलु कत्ता, ववहारो होई करणभूतो उ। वहरियव्वं कज्ज, कुभादि तियस्स जह सिद्धी / / --व्य० भाध्यपीठिका गाथा 2 4. न कश्चित् कस्यचिन्मित्रं, न कश्चित् कस्यचिद् रिपुः / व्यवहारेण जायन्ते, मित्राणि रिपवस्तथा / / -हितो० मि० 72 5. परस्परं मनुष्याणां, स्वार्थविप्रतिपत्तिषु / वाक्यानयायाद् व्यवस्थान, व्यवहार उदाहृतः / / मिताक्षरा। [16] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. व्यवहारज्ञ--(न्यायाधीश) जो व्यवहारशास्त्र का ज्ञाता होता है वही किसी अभियोग आदि पर विवेकपूर्वक विचार करने वाला एवं दण्डनिर्णायक होता है। ____ लोकोत्तर व्याख्या भी दो प्रकार की है.-१ सामान्य और 2 विशेष / सामान्य व्याख्या है—एक गण का दूसरे गण के साथ किया जाने वाला आचरण / अथवा एक श्रमण का दूसरे श्रमण के साथ, एक आचार्य, उपाध्याय आदि का दूसरे आचार्य , उपाध्याय आदि के साथ किया जाने वाला आचरण / विशेष व्याख्या है –सर्वज्ञोक्त विधि से तप प्रभृति अनुष्ठानों का “वपन" याने बोना और उससे अतिचारजन्य पाप का हरण करना व्यवहार है'। 'विवाप' शब्द के स्थान में 'व्यव' आदेश करके 'हार' शब्द के साथ संयुक्त करने पर व्यवहार शब्द की सृष्टि होती है यह भाष्यकार का निर्देश है। व्यवहार के भेद-प्रभेद व्यवहार दो प्रकार का है—१ बिधि व्यवहार और 2 अविधि व्यवहार / अविधि व्यवहार मोक्ष-विरोधी है, इसलिए इस सूत्र का विषय नहीं है, अपितु विधि व्यवहार ही इसका विषय है। व्यवहार चार प्रकार के हैं-१ नामव्यवहार 2 स्थापनाव्यवहार 3 द्रव्यव्यवहार और 4 भावव्यवहार। 1. नामव्यवहार—किसी व्यक्ति विशेष का 'व्यवहार' नाम होना / 2. स्थापनाव्यवहार-व्यवहार नाम वाले व्यक्ति की सत् या असत् प्रतिकृति / 3. द्रव्यव्यवहार के दो भेद हैं—आगम से और नोआगम से। आगम से अनुपयुक्त (उपयोगरहित) व्यवहार पद का ज्ञाता / नोआगम से—द्रव्यव्यवहार तीन प्रकार का है-१ ज्ञशरीर 2 भव्यशरीर और 3 तद्व्यतिरिक्त / ज्ञशरीर–व्यवहार पद के ज्ञाता का मृतशरीर / भव्यशरीर–व्यवहार पद के ज्ञाता का भावीशरीर / तव्यतिरिक्त द्रव्यव्यवहार-व्यवहार श्रुत या पुस्तक / यह तीन प्रकार का है-१ लौकिक, 2 लोकोत्तर और कुप्रावनिक। लौकिक द्रव्यव्यवहार का विकासक्रम मानव का विकास भोगभूमि से प्रारम्भ हुआ था। उस आदिकाल में भी पुरुष पति रूप में और स्त्री पत्नी रूप में ही रहते थे, किन्तु दोनों में काम-वासना अत्यन्त सीमित थी। सारे जीवन में उनके केवल दो सन्ताने (एक साथ) होती थीं। उनमें भी एक बालक और एक बालिका ही। "हम दो हमारे दो" उनके सांसारिक जीवन का यही सूत्र था। वे भाई-बहिन ही युवावस्था में पति-पत्नी रूप में रहने लगते थे। 1. व्यव० भाष्य० पीठिका गा० 4 / 2. व्यव० भाष्य० पीठिका गा० 4 / 3. व्यय० भाष्य० पीठिका गाथा-६ / [ 17 ] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके जीवन-निर्वाह के साधन थे कल्पवृक्ष / सोना-बैठना उनकी छाया में, खाना फल, पीना वृक्षों का मदजल / पहनते थे वल्कल और सुनते थे वृक्षवाद्य प्रतिपल / न वे काम-धन्धा करते थे, न उन्हें किसी प्रकार की कोई चिन्ता थी, अतः वे दीर्घजीवी एवं अत्यन्त सुखी थे। न वे करते थे धर्म, न वे करते थे पापकर्म, न था कोई वक्ता, न था कोई श्रोता, न थे वे उद्दण्ड, न उन्हें कोई देता था दण्ड, न था कोई शासक, न थे वे शासित। ऐसा था युगलजन-जीवन / कालचक्र चल रहा था। भोगभूमि कर्मभूमि में परिणत होने लगी थी। जीवन-यापन के साधन कल्पवृक्ष विलीन होने लगे थे। खाने-पीने और सोने-बैठने की समस्यायें सताने लगी थीं। क्या खायें-पीयें ? कहाँ रहें, कहाँ सोयें ? ऊपर आकाश था, नीचे धरती थी। सर्दी, गर्मी और वर्षा से बचें तो कैसे बचें? --इत्यादि अनेक चिन्ताओं ने मानव को घेर लिया था। खाने-पीने के लिए छीना-झपटी चलने लगी। अकाल मृत्युएँ होने लगी और जोड़े (पति-पत्नी) का जीवन बेजोड़ होने लगा। प्रथम सुषम-सुषमाकाल और द्वितीय सुषमाकाल समाप्त हो गया था। तृतीय सुषमा-दुषमाकाल के दो विभाग भी समाप्त हो गये थे। तृतीय विभाग का दुश्चक्र चल रहा था / वह था संक्रमण-काल / सुख, शान्ति एवं व्यवस्था के लिए सर्वप्रथम प्रथम पांच कुलकरों ने अपराधियों को 'हत्'--इस वाग्दण्ड से प्रताड़ित किया, पर कुछ समय बाद यह दण्ड प्रभावहीन हो गया। दण्ड की दमन नीति का यह प्रथम सूत्र था। मानव हृदय में हिंसा के प्रत्यारोपण का युग यहीं से प्रारम्भ हुआ। द्वितीय पांच कुलकरों ने आततायियों को "मत" इस वाग्दण्ड से प्रताड़ित कर प्रभावित किया, किन्तु यह दण्ड भी समय के सोपान पार करता हुआ प्रभावहीन हो गया / तृतीय पांच कुलकरों ने अशान्ति फैलाने वालों को “धिक" इस वाग्दण्ड से शासित कर निग्रह किया। यद्यपि दण्डनीय के ये तीनों दण्ड वाग्दण्ड मात्र थे, पर हिंसा के पर्यायवाची दण्ड ने मानव को कोमल न बनाकर क्रूर बनाया, दयालु न बनाकर दुष्ट बनाया। प्रथम कुलकर का नाम यद्यपि "सुमति" था। मानव की सुख-समृद्धि के लिए उसे "शमन" का उपयोग करना था पर काल के कुटिल कुचक्रों से प्रभावित होकर उसने भी "दमन" का दुश्चक्र चलाया। अन्तिम कुलकर श्री ऋषभदेव थे। धिक्कार की दण्डनीति भी असफल होने लगी तो भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) के श्रीमुख से कर्म त्रिपदी "1 असि, 2 मसि, 3 कृषि' प्रस्फुरित हुई। मानव के सामाजिक जीवन का सूर्योदय हुआ / मानव समाज दो वर्गों में विभक्त हो गया / एक वर्ग शासकों का और एक वर्ग शासितों का। अल्पसंख्यक शासक वर्ग बहुसंख्यक शासित वर्ग पर अनुशासन करने लगा। भगवान आदिनाथ के सुपुत्र भरत चक्रवर्ती बने / पूर्वजों से विरासत में मिली दमननीति का प्रयोग वे अपने भाइयों पर भी करने लगे। उपशमरस के आदिश्रोत भ० आदिनाथ (ऋषभदेव) ने बाहबली आदि को शाश्वत (आध्यात्मिक) साम्राज्य के लिए प्रोत्साहित किया तो वे मान गये। क्योंकि उस युग के मानव 'ऋजुजड़ प्रकृति के थे। अहिंसा की अमोघ अमीधारा से भाइयों के हृदय में प्रज्वलित राज्यलिप्सा की लोभाग्नि सर्वथा शान्त हो गई। [18] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० अजितनाथ से लेकर भ. पार्श्वनाथ पर्यन्त 'ऋजप्राज्ञ' मानवों का युग रहा / ग्यारह चक्रवर्ती, नो बलदेव, नो वासुदेव और नौ प्रतिवासुदेवों के शासन में दण्डनीति का इतना दमनचक्र चला कि सौम्य शमननीति को लोग प्रायः भूल गये। दाम- --प्रलोभन, दण्ड और भेद - इन तीन नीतियों का ही सर्व साधारण में अधिकाधिक प्रचार-प्रमार होता रहा / अब आया "वक्रजड़" मानवों का युग / मानव के हृदयपटल पर वक्रता और जड़ता का साम्राज्य छा गया। सामाजिक व्यवस्था के लिए दण्ड (दमन) अनिवार्य मान लिया गया। अंग-भंग और प्राणदण्ड सामान्य हो गये। दण्डसंहितायें बनी, दण्ड-यन्त्र बने / दण्डन्यायालय और दण्डविज्ञान भी विकसित हआ। आग्नेयास्त्र आदि अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों ने अतीत में और वर्तमान में अणुबम आदि अनेक अस्त्रों द्वारा नृशंस दण्ड से दमन का प्रयोग होता रहा है। पौराणिक साहित्य में एक दण्डपाणि (यमराज) का वर्णन है पर आज तो यत्र-तत्र-सर्वत्र अनेकानेक दण्डपाणि ही चलते फिरते दिखाई देते हैं / यह लौकिक द्रव्यव्यवहार है। लोकोत्तर द्रव्यव्यवहार---प्राचार्यादि की उपेक्षा करनेवाले स्वच्छन्द श्रमणों का अन्य स्वच्छन्द श्रमणों के साथ अशनादि आदान-प्रदान का पारस्परिक व्यवहार / लोकोत्तर भावव्यवहार-१ यह दो प्रकार का है ? पागम से और 2 नोमागम से / आगम से--- उपयोगयुक्त व्यवहार पद के अर्थ का ज्ञाता' / नोग्रागम से पांच प्रकार के व्यवहार हैं 1. आगम, 2. श्रुत, 3. आज्ञा, 4. धारणा, 5. जीत / 1. जहाँ पागम हो वहाँ पागम से व्यवहार की प्रस्थापना करें। 2. जहाँ आगम न हो, श्रुत हो, वहाँ श्रुत से व्यवहार की प्रस्थापना करें। 3. जहाँ श्रुत न हो, प्राज्ञा हो, वहाँ प्राज्ञा से व्यवहार की प्रस्थापना करें। 4. जहाँ प्राज्ञा न हो, धारणा हो, वहाँ धारणा से व्यवहार की प्रस्थापना करें / 5. जहाँ धारणा न हो, जीत हो, वहाँ जीत से व्यवहार की प्रस्थापना करें। इन पांचों से व्यवहार की प्रस्थापना करें:-१. पागम, 2. श्रुत, 3. प्राज्ञा, 4. धारणा और 5. जीत से। इनमें से जहाँ-जहाँ जो हो वहाँ-वहाँ उसी से व्यवहार की प्रस्थापना करें। प्र० भंते ! पागमबलिक श्रमण निर्ग्रन्थों ने (इन पांच व्यवहारों के सम्बन्ध में) क्या कहा है? उ०—(आयुष्मन श्रमणो) इन पांचों व्यवहारों में से जब-जब जिस-जिस विषय में जो व्यवहार हो तब-तब उस उस विषय में अनिश्रितोपाश्रित ...-- (मध्यस्थ) रहकर सम्यक् व्यवहार करता हुआ श्रमण-निर्ग्रन्थ आज्ञा का पाराधक होता है ! 1. प्रागमतो व्यवहारपदार्थज्ञाता तत्र चोपयुक्त 'उपयोगो भाव निक्षेप' इति वचनात् / -व्यव० भा० पीठिका गाथा 6 1. टाणं-५. उ० 2 0 ४२१/तथा भग० श० 8. उ० 8. सू० 8, 9 / [19] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमव्यवहार केवलज्ञानियों, मनःपर्यवज्ञानियों और अवधिज्ञानियों द्वारा आचरित या प्ररूपित विधि-निषेध आगमव्यवहार है। नव पूर्व, दश पूर्व और चौदह पूर्वधारियों द्वारा आचरित या प्ररूपित विधि-निषेध भी आगमव्यवहार ही है। श्रुतव्यवहार आठ पूर्व पूर्ण और नवम पूर्व अपूर्णधारी द्वारा आचरित या प्रतिपादित विधि-निषेध भी श्रुतव्यवहार है। दशा (आयारदशा-दशाश्रुतस्कन्ध), कल्प (बृहत्कल्प), व्यवहार, आचारप्रकल्प (निशीथ) आदि छेदश्रत (शास्त्र) द्वारा निर्दिष्ट विधि-निषेध भी श्रुतव्यवहार है / आज्ञाव्यवहार दो गीतार्थ श्रमण एक दूसरे से अलम दूर देशों में विहार कर रहे हों और निकट भविष्य में मिलने की सम्भावना न हो। उनमें से किसी एक को कल्पिका प्रतिसेवना का प्रायश्चित्त लेना हो तो अपने अतिचार दोष कहकर गीतार्थ शिष्य को भेजे / यदि गीतार्थ शिष्य न हो तो धारणाकुशल अगीतार्थ शिष्य को सांकेतिक भाषा में अपने अतिचार कहकर दूरस्थ गीतार्थ मूनि के पास भेजे और उस शिष्य के द्वारा कही गई आलोचना सनकर वह गीतार्थ मुनि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, संहनन, धैर्य, बल आदि का विचार कर स्वयं वहाँ आवे और प्रायश्चित्त दे। अथवा गीतार्थ शिष्य को समझाकर भेजे। यदि गीतार्थ शिष्य न हो तो आलोचना का सन्देश लाने वाले के साथ ही सांकेतिक भाषाओं में अतिचार-शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का संदेश भेजे-यह प्राज्ञाव्यवहार है / 2 धारणाव्यवहार किसी गीतार्थ श्रमण ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से जिस अतिचार का जो प्रायश्चित्त दिया है, उसकी धारणा करके जो श्रमण उसी प्रकार के अतिचार सेवन करने वाले को धारणानुसार प्रायश्चित्त आगमव्यवहार की कल्पना से तीन भेद किये जा सकते है उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य / 1. केवलज्ञानियों द्वारा आचरित या प्ररूपित विधि-निषेधपूर्ण उत्कृष्ट आगमव्यवहार है, क्योंकि केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। 2. मनःपर्यवज्ञान और अवधिज्ञान यद्यपि विकल (देश) प्रत्यक्ष हैं फिर भी ये दोनों ज्ञान आत्म-सापेक्ष हैं, इसलिये मन:पर्यवज्ञानियों या अवधिज्ञानियों द्वारा आचरित या प्ररूपित विधि-निषेध (मध्यम) आगमव्यवहार है। 3. चौदह पूर्व, दश पूर्व और नव पूर्व (सम्पूर्ण) यद्यपि विशिष्ट श्रुत हैं, फिर भी परोक्ष हैं, अतः इनके धारक द्वारा प्ररूपित या आचरित विधि-निषेध भी आगमव्यवहार है, किन्तु यह जघन्य आयमव्यवहार है। 2. सो ववहार विहण्णू, अणुमज्जित्ता सुत्तोवएसेण / सीसस्स देइ अप्पं, तस्स इमं देहि पच्छित्तं / / —व्यव० भा० उ० 10 गा०६६१ / [20] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देता है, वह धारणाव्यवहार है। अथवा -वैयावत्य अर्थात सेवाकार्यों से जिस श्रमण ने गण का उपकार किया है वह यदि छेदश्रुत न सीख सके तो गुरु महाराज उसे कतिपय प्रायश्चित्त पदों की धारणा कराते हैं यह भी धारणाव्यवहार है। जीतव्यवहार स्थिति, कल्प, मर्यादा और व्यवस्था--ये 'जीत' के पर्यायवाची हैं / गीतार्थ द्वारा प्रवर्तित शुद्ध व्यवहार जीतव्यवहार है। श्रुतोक्त प्रायश्चित्त से हीन या अधिक किन्तु परम्परा से आचरित प्रायश्चित्त देना जीतव्यवहार है। सूत्रोक्त कारणों के अतिरिक्त कारण उपस्थित होने पर जो अतिचार लगे हैं उनका प्रवर्तित प्रायश्चित्त अनेक गीतार्थों द्वारा आचरित हो तो वह भी जीतव्यवहार है। अनेक गीतार्थों द्वारा निर्धारित एवं सर्वसम्मत विधि-निषेध भी जीतव्यवहार है।' व्यवहारपंचक के क्रमभंग का प्रायश्चित्त आगमव्यवहार के होते हुये यदि कोई श्रुतव्यवहार का प्रयोग करता है तो चार गुरु के प्रायश्चित्त का पात्र होता है। इसी प्रकार श्रतव्यवहार के होते हुये प्राज्ञाव्यवहार का प्रयोगकर्ता, याज्ञाव्यवहार के होते हये धारणाव्यवहार का प्रयोगकर्ता तथा धारणाव्यवहार के होते हुये जीतव्यवहार का प्रयोगकर्ता चार गुरु के प्रायश्चित्त का पात्र होता है। व्यवहारपंचक का प्रयोग पूर्वानुपूर्वीक्रम से अर्थात् अनुक्रम से ही हो सकता है किन्तु पश्चानुपूर्वीक्रम से अर्थात् विपरीतक्रम से प्रयोग करना सर्वथा निषिद्ध है। आगमव्यवहारी आगमव्यवहार से ही व्यवहार करते है; अन्य श्रुतादि व्यवहारों से नहीं क्योंकि जिस समय सूर्य का प्रकाश हो उस समय दीपक के प्रकाश की आवश्यकता नहीं रहती। कि पुण गुणोवएसो, ववहारस्स उ चिउ पसत्थस्म / एसो भे परिकहियो, दुवालसंगस्स गवणीयं / __-व्यव० उ० 10 भाष्य गाथा 724 / जं जीतं सावज्ज, न तेण जीएण होइ बवहारो। जं जीयमसावज्जं, तेण उ जीएण ववहारो॥ –व्यव० उ० 10 भाष्य गाथा 715 / ज जस्स पच्छित्तं, पायरियपरंपराए अविरुद्ध / जोगा य बहु विगप्पा, एमो खलु जीतकप्पो / / -व्यव० भाष्य पीबिका गाथा 12 / जं जीयमसोहिकरं, पासत्थ-पमत्त-संजयाईण्णं / जइ वि महाजणाइन्न, न तेण जीएण बवहारो॥ जं जीयं सोहिकर, संवेगपरायणेन दत्तेण / एगेण वि पाइण्णं, तेण उ जीएण बवहारो॥ .-व्यव० उ० 10 भाष्य गाथा 720, 721 / [21] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतव्यवहार तीर्थ (जहाँ तक चतुर्विध संघ रहता है वहाँ तक) पर्यन्त रहता है / अन्य व्यवहार विच्छिन्न हो जाते हैं।' कुप्रावनिकव्यवहार अनाज में, रस में, फल में और फल में होने वाले जीवों की हिंसा हो जावे तो घी चाटने से शुद्धि हो जाती है। कपास, रेशम, ऊन, एकखुर और दोखुर वाले पशु, पक्षी, सुगन्धित पदार्थ, औषधियों और रज्जु आदि की चोरी करे तो तीन दिन दूध पीने से शुद्धि हो जाती है। ऋग्वेद धारण करने वाला विप्र तीनों लोक को मारे या कहीं भी भोजन करे तो उसे किसी प्रकार का पाप नहीं लगता है। ग्रीष्मऋतु में पंचाग्नि तप करना, वर्षाऋतु में वर्षा बरसते समय बिता छाया के बैठना और शरदऋतु में मीले वस्त्र पहने रहना-इस प्रकार क्रमशः तप बढ़ाना चाहिये / " व्यवहारी व्यवहारज्ञ, व्यवहारी, व्यवहर्ता-ये समानार्थक हैं। जो प्रियधर्मी हो, दृढ़धर्मी हो, वैराग्यवान हो, पापभीरु हो, सूत्रार्थ का ज्ञाता हो और राग-द्वेषरहित (पक्षपातरहित) हो वह व्यवहारी होता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, अतिचारसेवी पुरुष और प्रतिसेवना का चिन्तन करके यदि किसी को अतिचार के अनुरूप प्रागमविहित प्रायश्चित्त देता है तो व्यवहारज्ञ (प्रायश्चित्तदाता) अाराधक होता है। 1. गाहा-सुत्तमणागयविसयं, खेत्तं कालं च पप्प ववहारो। होहिति न आइल्ला, जा तित्थं ताव जीतो उ / / ---व्यव० 10 भाष्य गाथा 55 / अन्नाद्यजानां सत्त्वानां, रसजानां च सर्वशः / फलपुष्पोद्भवानां च, घृतप्राशो विशोधनम् // ---मनु० अ० 11/143 / कासकीटजीर्णानां, द्विशफैकशफस्य च / पक्षिगन्धौषधीनां च, रज्ज्वाश्चैव त्यहं पयः / / -मनु० अ० 11/16 / 4. हत्वा लोकानपीमांस्त्री, नश्यन्नपि यतस्ततः / ऋग्वेदं धारयन्विप्रो, नैनः प्राप्नोति किञ्चन // .-मनु० अ० 11/261 / ग्रीष्मे पञ्चतपास्तुस्याद्वर्षा स्वभ्रावकाशिकः / आर्द्रवासास्तु हेमन्ते, क्रमशो वर्धयस्तपः॥ -मनु० अ० 6/23 / 6. क-पियधम्मा दढधम्मा, संविग्गा चेव दज्जभीरू अ। सुत्तत्थ तदुभयविऊ, अणिस्सिय ववहारकारी य / / --व्य० भाष्य पीठिका गाथा 14 / ख–१ प्राचारवान्, 2 अाधारवान्, 3 व्यवहारवान्, 4 अपनीडक, 5 प्रकारी, 6 अपरिश्रावी, 7 निर्यापक, 8 अपायदर्शी, 9 प्रियधर्मी, 10 दृढ़धर्मी। ठाणं० 10, सू० 733 / ग-व्यव० उ०१० भाष्य गाथा 243 / 245 / 246 / 247 / 298 / 300 / [ 22 ] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य, क्षेत्र प्रादि का चिन्तन किये बिना राग-द्वेषपूर्वक हीनाधिक प्रायश्चित्त देता है वह व्यवहारज्ञ (प्रायश्चित्तदाता) विराधक होता है।' व्यवहर्तव्य व्यवहर्तव्य व्यवहार करने योग्य निर्ग्रन्थ हैं। ये अनेक प्रकार के हैं। निर्ग्रन्थ चार प्रकार के हैं१. एकरानिक होता है किन्तु भारीकर्मा होता है, अत: वह धर्म का अनाराधक होता है। 2. एकरानिक होता है और हलुकर्मा होता है, अतः वह धर्म का पाराधक होता है।। 3. एक अवमरात्निक होता है और भारीकर्मा होता है, अतः वह धर्म का अनाराधक होता है / 4. एक अवमरानिक होता है किन्तु हलुकर्मा होता है, अत: वह धर्म का आराधक होता हैं। इसी प्रकार निर्ग्रन्थियाँ भी चार प्रकार की होती हैं। 4 निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के हैं--. 1. पुलाक—जिसका संयमी जीवन भूसे के समान साररहित होता है। यद्यपि तत्त्व में श्रद्धा रखता है, क्रियानुष्ठान भी करता है, किन्तु तपानुष्ठान से प्राप्त लब्धि का उपयोग भी करता है और ज्ञानातिचार लगेऐसा बर्तन-व्यवहार रखता है। 2. बकुश-ये दो प्रकार के होते हैं--उपकरणबकुश और शरीरबकुश / जो उपकरणों को एवं शरीर को सजाने में लगा रहता है और ऋद्धि तथा यश का इच्छुक रहता है / छेदप्रायश्चित्त योग्य अतिचारों का सेवन करता है। 3. कुशील- यह दो प्रकार का है-१ प्रतिसेवनाकुशील और 2 कषायकुशील / प्रतिसेवनाकुशील जो पिण्डशुद्धि आदि उत्तरगुणों में अतिचार लगाते हैं / कषायकुशील-जो यदा कदा संज्वलन कषाय के उदय से स्वभावदशा में स्थिर नहीं रह पाता / 4. निम्रन्थ-उपशान्तमोह निर्ग्रन्थ / 5. स्नातक--सयोगीकेवली और अयोगीकेवली। इन पांच निर्ग्रन्थों के अनेक भेद-प्रभेद हैं। ये सब व्यवहार्य हैं। जब तक प्रथम संहनन और चौदह पूर्व का ज्ञान रहा तब तक पूर्वोक्त दस प्रायश्चित्त दिये जाते थे। इनके 1. गाहा--जो सुयमहिज्जइ, बहं सुत्तत्थं च निउणं विजाणाइ / कप्पे ववहारंमि य, सो उ पमाणं सुयहराणं / / कप्पस्स य निज्जुत्ति ववहारस्स व परमनिउणस्स / जो अत्थतो वियाणइ, बवहारी सो अणुण्णातो।। 2. जो दीक्षापर्याय में बड़ा हो / 3. जो दीक्षापर्याय में छोटा हो / ठाणं०४, उ० 3, सूत्र 320 / -व्यव० उ०१० भाष्य गाथा 605, 607 >> [ 23 ] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विच्छन्न होने पर अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त भी विच्छन्न हो गये -अर्थात् ये दोनों प्रायश्चित्त अव नहीं दिये जाते हैं। शेष आठ प्रायश्चित्त तीर्थ (चतुर्विधसंघ) पर्यन्त दिये जायेंगे। पुलाक को व्युत्सर्मपर्यन्त छह प्रायश्चित्त दिए जाते थे। प्रतिसेवकबकुश और प्रतिसेवनाकुशील को दसों प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। स्थविरों को अनबस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त नहीं दिये जाते; शेष आठ प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। निर्ग्रन्थ को केवल दो प्रायश्चित्त दिये जा सकते हैं-१ आलोचना, 2 विवेक / स्नातक केवल एक प्रायश्चित्त लेता है-विवेक / उन्हें कोई प्रायश्चित्त देता नहीं है।' 1 सामायिकचारित्र वाले को छेद और मूल रहित आठ प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। 2 छेदोपस्थापनीयचारित्र वाले को दसों प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। 3 परिहारविशुद्धिचारित्र वाले को मूलपर्यन्त पाठ प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। 4 सूक्ष्मसंपरायचारित्र वाले को तथा 5 यथाख्यातचारित्र वाले को केवल दो प्रायश्चित दिये जाते हैं१ अालोचना और 2 विवेक / ये सब व्यवहार्य हैं / 2 व्यवहार के प्रयोग व्यवहारज्ञ जब उक्त व्यवहारपंचक में से किसी एक व्यवहार का किसी एक व्यवहर्तव्य (व्यवहार करने योग्य श्रमण या श्रमणी) के साथ प्रयोग करता है तो विधि के निषेधक को या निषेध के विधायक को प्रायश्चित्त देता है तब व्यवहार शब्द प्रायश्चित्त रूप तप का पर्यायवाची हो जाता है। अतः यहाँ प्रायश्चित्त रूप तप का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। 1 गुरुकः, 2 लघुक, 3 लघुस्वक / गुरुक के तीन भेद 1 गुरुक, 2 गुरुतरक और 3 यथागुरुक / गाहा---पालोयणपडिक्कमणे, मीस-विवेगे तहेव विउस्सग्गे / एएछ पच्छित्ता, पूलागनियंठाय बोधव्वा / / बउसपडिसेवगाणं, पायच्छिन्ना हवं ति सव्वे वि / भवे कप्पे, जिणकप्पे अहा होति / / पालोयणा विवेगो य, नियंठस्स दुवे भवे / विवेगो य सिणायस्स, एमेया पडिवत्तितो॥ -व्यव० 10 भाष्य गाथा 357, 58, 59 सामाइयसंजयाणं, पायच्छित्ता, छेद-मूलरहियट्ठा / थेराणं जिणाणं पुण, मूलत अव्हा होई॥ परिहारविसुद्धीए, मूलं ता अट्टाति पच्छित्ता। थेराणं जिणाणं पुण, जविहं छेयादिवज्ज वा / / पालोयणा-विवेगो य तइयं तु न विज्जती। सुहुमेय संपराए, अहक्खाए तहेव य // -व्यव० उ०१० भाष्य गाथा 361-62-63-64 / [ 24 ] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघु के तीन भेद 1. लघुक, 2. लघुतरक और 3. यथालघुक / लघुस्वक के तीन भेद 1. लघुस्वक, 2. लघुस्वतरक और 3. यथालघुस्वक / गुरु प्रायश्चित्त महा प्रायश्चित्त होता है उसकी अनदधातिक संज्ञा है। इस प्रायश्चित्त के जितने दिन निश्चित हैं और जितना तप निर्धारित है वह तप उतने ही दिनों में पूरा होता है। यह तप पिकाप्रतिसेवना वालों को ही दिया जाता है। गुरुक व्यवहार : प्रायश्चित तप 1. गुरु प्रायश्चित्त-एक मास पर्यन्त अट्ठम तेला (तीन दिन उपवास) 2. गुरुतर प्रायश्चित्त- चार मास पर्यन्त दशम '.---चोला (चार दिन का उपवास) 3. गुरुतर प्रायश्चित--छह मास पर्यन्त द्वादशम3-पचोला (पांच दिन का उपवास)। लघुक व्यवहार/प्रायश्चित तप 1. लघु प्रायश्चित्त--तीस दिन पर्यन्त छद्र--बेला (दो उपवास) 2. लघुतर प्रायश्चित्त-पचीस दिन पर्यन्त चउत्थ' - उपवास / 3. यथालघु प्रायश्चित—बीस दिन पर्यन्त आचाम्ल / ' 1. लघुस्वक प्रायश्चित्त-पन्द्रह दिन पर्यन्त एक स्थानक --(एगलठाणो) 2. लघुस्वतरक प्रायश्चित्त-दस दिन पर्यन्त-पूर्वार्ध (दो पोरसी) 3. यथालघुस्वक प्रायश्चित्त-पांच दिन पर्यन्त--निविकृतिक (विकृतिरहित आहार) / 1. एक मास में पाठ अद्रम होते हैं--- इनमें चौवीस दिन तपश्चर्या के और आठ दिन पारणा के। अन्तिम पारणे का दिन यदि छोड़ दें तो एक माम (इकतीस दिन) गुरु प्रायश्चित्त का होता है। में छह दसम होते हैं इनमें चौबीस दिन तपश्चर्या के और छह दिन पारणे के इस प्रकार एक मास (तीस दिन) गुरु प्रायश्चित्त का होता है / 3. एक मास में पाँच द्वादशम होते हैं-इनमें पचीस दिन तपश्चर्या के और पाँच दिन पारणे के इस प्रकार एक मास (तीस दिन) गुरु प्रायश्चित्त का होता है। 4. तीस दिन में दस छुट्ट होते हैं- इनमें बीस दिन तपश्चर्या के और दस दिन पारणे के होते हैं। में तेरह उपवास होते हैं. इनमें तेरह दिन तपश्चर्या के और बारह दिन पारणे के / अन्तिम पारणे का दिन यहाँ नहीं गिना है। 6. बीस दिन में दस आचाम्ल होते हैं-इनमें दस दिन तपश्चर्या के और दस दिन पारणे के होते हैं / 7. पन्द्रह दिन एक स्थानक निरन्तर किये जाते हैं। 8. दस दिन पूर्वार्ध निरन्तर किये जाते हैं। 9. पांच दिन निर्विकृतिक आहार निरन्तर किया जाता है। 10. वह० उद्दे० 5 भाष्य गाथा 6039-6044 / [25] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु प्रायश्चित तप के तीन विभाग१. जघन्य, 2. मध्यम और 3. उत्कृष्ट / 1. जघन्य गुरु प्रायश्चित्त-एक मासिक और द्वैमासिक / 2. मध्यम गुरु प्रायश्चित्त--त्रैमासिक और चातुर्मासिक / 3. उत्कृष्ट गुरु प्रायश्चित्त-पांचमासिक और पाण्मासिक / जघन्य गुरु प्रायश्चित्त तप है--एक मास या दो मास पर्यन्त निरन्तर अट्टम तप करना। मध्यम गुरु प्रायश्चित्त तप है—तीन मास या चार मास पर्यन्त निरन्तर दशम तप करना। उत्कृष्ट गुरु प्रायश्चित्त तप है-पाँच मास या छह मास पर्यन्त निरन्तर द्वादशम तप करना। इसी प्रकार लघ प्रायश्चित्त तप के और लघस्वक तप के भी तीन-तीन विभाग हैं। तथा तप की आराधना भी पूर्वोक्त मास क्रम से ही की जाती है। उत्कृष्ट गुरु प्रायश्चित्त के तीन विभाग-- 1. उत्कृष्ट-उत्कृष्ट, 2. उत्कृष्ट-मध्यम, 3. उत्कृष्ट-जघन्य / 1. उत्कृष्ट-उत्कृष्ट गुरु प्रायश्चित-पाँच मास या छह मास पर्यन्त निरन्तर द्वादशम तप करना / 2. उत्कृष्ट-मध्यम गुरु प्रायश्चित्त–तीन मास या चार मास पर्यन्त निरन्तर द्वादशम तप करना / 3. उत्कृष्ट-जघन्य गुरु प्रायश्चित्त-एक मास या दो मास पर्यन्त निरन्तर द्वादशम तप करना / इसी प्रकार मध्यम गुरु प्रायश्चित्त के तीन विभाग और जघन्य गुरु प्रायश्चित्त के भी तीन विभाग हैं। तपाराधना भी पूर्वोक्त क्रम से ही की जाती है। उत्कृष्ट लघ प्रायश्चित्त, मध्यम लघ प्रायश्चित्त, जघन्य लघ प्रायश्चित्त के तीन, तीन विभाग तथा उत्कृष्ट लघुस्वक प्रायश्चित्त, मध्यम लधुस्वक प्रायश्चित्त और जघन्य लघुस्वक प्रायश्चित्त के भी तीन, तीन विभाग हैं। तपाराधना भी पूर्वोक्त मासक्रम से है। विशेष जानने के लिये व्यवहार भाष्य का अध्ययन करना चाहिये। व्यवहार (प्रायश्चित्त) को उपादेयता प्र०-भगवन ! प्रायश्चित्त से जीव को क्या लाभ होता है ? उ०—प्रायश्चित्त से पापकर्म की विशुद्धि होती है और चारित्र निरतिचार होता है। सम्यक् प्रकार से प्रायश्चित्त करने पर मार्ग (सम्यग्दर्शन) और मार्गफल (ज्ञान) की विशुद्धि होती है। प्राचार और प्राचारफल (मुक्तिमार्ग) की शुद्धि होती है।' 1. (क) उत्त० अ० 29 (ख) पावं छिदइ जम्हा, पायच्छित्तं तु भन्नए तेणं / पाएण वा विचित्तं, विसोहए तेण पच्छित्तं // -व्यव. भाष्य पीठिका, गाथा 35 (ग) प्रायः पापं समुद्दिष्टं, चित्तं तस्य विशोधनम् / यदा प्रायस्य तपस: चित्तम् निश्चय इति स्मृती। (घ) प्रायस्य पापस्य चित्तं विशोधनम् प्रायश्चित्तम् / [ 26 ] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त के भेद-प्रभेद 1. ज्ञान-प्रायश्चित्त-ज्ञान के अतिचारों की शुद्धि के लिये आलोचना आदि प्रायश्चित्त करना।' 2. दर्शन-प्रायश्चित्त-दर्शन के अतिचारों की शुद्धि के लिये आलोचना आदि प्रायश्चित्त करना। 3. चारित्र प्रायश्चित्त-चारित्र के अतिचारों की शुद्धि के लिये आलोचना आदि प्रायश्चित्त करना / 3 4. वियत्त किच्चपायच्छित्ते---इस चतुर्थ प्रायश्चित के दो पाठान्तर हैं 1. वियत्तकिच्चपायच्छित्ते-व्यक्तकृत्य प्रायश्चित / 2. चियत्तकिच्चपायच्छित्ते-त्यक्तकृत्य प्रायश्चित / क---व्यक्तकृत्य प्रायश्चित्त के दो अर्थ हैं--(१) व्यक्त---अर्थात आचार्य उनके द्वारा निर्दिष्ट प्रायश्चित्त कृत्य पाप का परिहारक होता है। तात्पर्य यह है कि आचार्य यदा-कदा किसी को प्रायश्चित्त देते हैं तो वे अतिचारसेवी के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि देखकर देते हैं। प्राचार्य द्वारा दिये गये प्रायश्चित्त का उल्लेख दशाकल्प-व्यवहार आदि में हो या न हो फिर भी उस प्रायश्चित्त से आत्मशुद्धि अवश्य होती है। ___ख----व्यक्त अर्थात् स्पष्ट छेद सूत्र निर्दिष्ट प्रायश्चित्त कृत्य / भिन्न भिन्न अतिचारों के भिन्न-भिन्न (मालोचनादि कृत्य) प्रायश्चित्त / क-त्यक्त कृत्यप्रायश्चित्त ---जो कृत्य त्यक्त हैं उनका प्रायश्चित्त / ख—चियत्त—का एक अर्थ 'प्रीतिकर' भी होता है। प्राचार्य के प्रीतिकर कृत्य वैयावृत्य आदि भी प्रायश्चित्त रूप हैं। दस प्रकार के प्रायश्चित्त(१) पालोचना योग्य-जिन अतिचारों की शूद्धि प्रालोचना से हो सकती है ऐसे अतिचारों की आलोचना (ङ) जिस प्रकार लौकिक व्यवहार में सामाजिक या राजनैतिक अपराधियों को दण्ड देने का विधान है—इसौ प्रकार मूलगुण या उत्तरगुण सम्बन्धी (1) अतिक्रम, (2) व्यतिक्रम, (3) अतिचार और (4) अनाचारसेवियों को प्रायश्चित्त देने का विधान है। सामान्यतया दण्ड और प्रायश्चित्त समान प्रतीत होते हैं, किन्तु दण्ड क्रूर होता है और प्रायश्चित्त अपेक्षाकृत कोमल होता है। दण्ड अनिच्छापूर्वक स्वीकार किया जाता है और प्रायश्चित्त स्वेच्छापूर्वक स्वीकार किया जाता है / दण्ड से बासनाओं का दमन होता है और प्रायश्चित्त से शमन होता है। 1. ज्ञान के चौदह अतिचार / 2. दर्शन के पाँच अतिचार / 3. चारित्र के एकसौ छह (106) अतिचार पांच महाव्रत से पच्चीस अतिचार / रात्रिभोजन त्याग के दो अतिचार। इर्यासमिति के चार अतिचार / भाषासमिति के दो अतिचार। एषणा समिति के सेंतालीस अतिचार। आदान निक्षेपणा समिति के दो अति चार / परिष्ठापना समिति के दस प्रतिचार / तीन गुप्ति के 9 अतिचार। संलेखना के 5 अतिचार 4. 'चियत्त' का 'प्रीतिकर' अर्थसूचक संस्कृत रूपान्तर मिलता नहीं है। -अर्धमागधीकोश भाग 2 चियत्तशब्द पृ० 628 [ 27 ] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना आलोचना योग्य प्रायश्चित्त है। एषणा समिति और परिष्ठापना समिति के अतिचार प्रायः आलोचना योग्य हैं। (2) प्रतिक्रमणयोंग्य-जिन अतिचारों की शुद्धि प्रतिक्रमण से हो सकती है, ऐसे अतिचारों का प्रतिक्रमण करना—प्रतिक्रमण योग्य है। समितियों एवं गुप्तियों के अतिचार प्रायः प्रतिक्रमण योग्य हैं। (3) उभययोग्य----जिन अतिचारों की शुद्धि आलोचना और प्रतिक्रमण-दोनों से ही हो सकती है ऐसे अतिचारों की आलोचना तथा उनका प्रतिक्रमण करना-उभय योग्य प्रायश्चित्त है। एकेन्द्रियादि जीवों का अभिधान करने से यावत स्थानान्तरण करने से जो अतिचार होते हैं वे उभय प्रायश्चि योग्यत्त हैं। (4) विवेकयोग्य-जिन अतिचारों को शुद्धि विवेक अर्थात् परित्याग से होती है ऐसे अतिचारों का परित्याग करना विवेक (त्याग) योग्य प्रायश्चित्त है। आधाकर्म आहार यदि आ जाय तो उसका परित्याग करना ही विवेकयोग्य प्रायश्चित्त है।। (5) व्युत्सर्ग योग्य-जिन अतिचारों की शुद्धि कायिक क्रियाओं का अवरोध करके ध्येय में उपयोग स्थिर करने से होती है ऐसे अतिचार व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त योग्य हैं। नदी पार करने के बाद किया जाने वाला कायोत्सर्ग व्युत्सर्ग योग्य प्रायश्चित्त है। (6) तपयोग्य-जिन अतिचारों की शूद्धि तप से ही हो सकती है--ऐसे अतिचार तप प्रायश्चित्त योग्य हैं। निशीथसूत्र निर्दिष्ट अतिचार प्रायः तप (मुरुमास, लघुमास) प्रायश्चित्त योग्य हैं। (7) छेदयोग्य-जिन अतिचारों की शुद्धि दीक्षा छेद से हो सकती है वे अतिचार छेद प्रायश्चित्त योग्य हैं। पाँच महाव्रतों के कतिपय अतिचार छेद प्रायश्चित्त योग्य हैं। (8) मूलयोग्य-जिन अतिचारों की शुद्धि महाव्रतों के पुन: आरोपण करने से ही हो सकती है, ऐसे अनाचार मूल प्रायश्चित्त के योग्य होते हैं / एक या एक से अधिक महाव्रतों का होने वाला मूल प्रायश्चित्त योग्य है / (9) अनवस्थाप्ययोग्य-जिन अनाचारों की शुद्धि व्रत एवं वेष रहित करने पर ही हो सकती है-ऐसे अनाचार अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त योग्य होते हैं / अकारण अपवाद मार्ग सेवन में आसक्त, एक अतिचार का अनेक बार आचरणकर्ता, तथा एक साथ अनेक अतिचार सेवनकर्ता छेद प्रायश्चित्त योग्य होता है। जिस प्रकार शेष अंग की रक्षा के लिये व्याधिविकृत अंग का छेदन अत्यावश्यक है-इसी प्रकार शेष व्रत पर्याय की रक्षा के लिये दूषित व्रत पर्याय का छेदन भी अत्यावश्यक है। 2. एक बार या अनेक बार पंचेन्द्रिय प्राणियों का वध करने वाला, शील भंग करने वाला, संक्लिष्ट संकल्पपूर्वक मृषावाद बोलने वाला, अदत्तादान करने वाला, परिग्रह रखने वाला, पर-लिंग (परिव्राजकादि का वेष) धारण करने वाला तथा गृहस्थलिंग धारण करने वाला मूल प्रायश्चित्त योग्य होता है। 3. अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त योग्य तीन हैं-- 1. साधमिक की चोरी करने वाला, 2. अन्यर्मियों की चोरी करने वाला, 3. दण्ड, लाठी या मुक्के आदि से प्रहार करने वाला। -ठाणं० 3, उ०४ सू० 201 [28] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (10) पारांचिक योग्य-जिन अनाचारों की शुद्धि गृहस्थ का वेष धारण कराने पर और बहुत लम्बे समय तक निर्धारित तप का अनुष्ठान कराने पर ही हो सकती है ऐसे अनाचार पारांचिकप्रायश्चित्त योग्य होते हैं। इस प्रायश्चित्त वाला व्यक्ति उपाश्रय, ग्राम और देश से बहिष्कृत किया जाता है। प्रायश्चित्त के प्रमुख कारण 1. अतिक्रम-दोषसेवन का संकल्प / 2. व्यतिक्रम-दोषसेवन के साधनों का संग्रह करना / 3. अतिचार-दोषसेवन प्रारम्भ करना। 4. अनाचार-~-दोषसेवन कर लेना। अतिक्रम के तीन भेद१. ज्ञान का अतिक्रम, 2. दर्शन का अतिक्रम, 3. चारित्र का अतिक्रम। इसी प्रकार ज्ञान का व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार हैं / दर्शन और चारित्र के भी तीन-तीन भेद हैं। ज्ञान का अतिक्रम तीन प्रकार का है ---- 1. जघन्य, 2. मध्यम, 3. उत्कृष्ट / इसी प्रकार ज्ञान का व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार हैं। दर्शन और चारित्र के भी तीन-तीन भेद हैं। ज्ञानादि का अतिक्रम हो गया हो तो गुरु के समक्ष आलोचना करना, प्रतिक्रमण करना तथा निन्दा, गहरे आदि करके शुद्धि करना, पुनः दोषसेवन न करने का दृढ़ संकल्प करना तथा प्रायश्चित्त रूप तप करना / इसी प्रकार के ज्ञान के व्यतिक्रमादि तथा दर्शन-चारित्र के अतिक्रमादि की शुद्धि करनी चाहिए।' 1. ठाणं० 6, सू० 489 / ठाणं० 8, सू० 605 / ठाणं० 9, सू० 688 / ठाणं० 10, सू० 733 / पारांचिक प्रायश्चित्त योग्य पाँच हैं१. जो कुल (गच्छ) में रहकर परस्पर कलह कराता हो। 2. जो गण में रहकर परस्पर कलह कराता हो। 3. जो हिंसाप्रेक्षी हो, 4. जो छिद्रप्रेमी हो, 5. प्रश्नशास्त्र का बारम्बार प्रयोग करता हो। -ठागं 5, उ०१ सू० 398 / पारांचिक प्रायश्चित्त योग्य तीन हैं१. दुष्ट पारांचिक 2. प्रमत्त पारांचिक 3. अन्योऽन्य मैथनसेवी पारांचिक / अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में विशेष जानने के लिये व्यवहारभाश्य देखना चाहिये। 2. (क) ठाणं 3 उ०४ सू० 195 / (ख) अस्वाध्यायकाल में स्वाध्याय करने का संकल्प करना ज्ञान का अतिक्रम है / पुस्तक लेने जाना- ज्ञान का व्यतिक्रम है / स्वाध्याय प्रारम्भ करना ज्ञान का अतिचार है। पूर्ण स्वाध्याय करना ज्ञान का अनाचार है। इसी प्रकार दर्शन तथा चारित्र के अतिक्रमादि समझने चाहिए। [29] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिसेवना के दस प्रकार 1. दर्पप्रतिसेवना-अहंकारपूर्वक अकृत्य सेवन / 2. प्रमादप्रतिसेवना-निद्रादि पांच प्रकार के प्रमादवश अकृत्य सेवन / 3. अनाभोग प्रतिसेवना--विस्मृतिपूर्वक अनिच्छा से प्रकृत्य सेवन / 4. प्रातुरप्रतिसेवना-रुग्णावस्था में अकृत्य सेवन / 5. आपत्तिप्रतिसेवना-दुभिक्षादि कारणों से अकृत्य सेवन / 6. शंकित प्रतिसेवना-आशंका से प्रकृत्य सेवन / 7. सहसाकार प्रतिसेवना-अकस्मात् या बलात्कार से प्रकृत्य सेवन / 8. भयप्रतिमेवना-भय से अकृत्य सेवन / 9. प्रवषप्रतिसेवना-द्वेषभाव से अकृत्य सेवन / 10. विमर्शप्रतिसेवना-शिष्य की परीक्षा के निमित्त प्रकृत्य सेवन / ये प्रतिसेवनायें संक्षेप में दो प्रकार की हैं-दपिका और कल्पिका / राग-द्वेष पूर्वक जो अकृत्य सेवन किया जाता है वह दपिका प्रतिसेवना है। इस प्रतिसेवना से प्रतिसेवक विराधक होता है। राग-द्वेष रहित परिणामों से जो प्रतिसेवना हो जाती है या की जाती है वह कल्पिका प्रतिसेवना है। इसका प्रतिसेवक आराधक होता है। पाठ प्रकार के ज्ञानातिचार१. कालातिचार-अकाल में स्वाध्याय करना / 2. विनयातिचार-श्रुत का अध्ययन करते समय जाति और कुल मद से गुरु का विनय न करना। 3. बहुमानातिचार-श्रुत और गुरु का सन्मान न करना। 4. उपधानातिचार-श्रुत की वाचना लेते समय प्राचाम्लादि तपन करना। 5. निह्नवनाभिधानातिचार-गुरु का नाम छिपाना। 6. व्यंजनातिचार-हीनाधिक अक्षरों का उच्चारण करना। 7. अर्थातिचार-प्रसंग संगत अर्थ न करना / अर्थात विपरीत अर्थ करना। 8. उभयातिचार-हस्व की जगह दीर्घ उच्चारण करना, दीर्घ की जगह ह्रस्व उच्चारण करना / उदात्त __ के स्थान में अनुदात्त का और अनुदात्त के स्थान में उदात्त का उच्चारण करना / अतिक्रम, व्यतिक्रम और अतिचार ये तीन संज्वलन कषाय के उदय से होते हैं-इनकी शुद्धि आलोचनाह से लेकर तपोऽहंपर्यन्त प्रायश्चित्तों से होती है / छेद, मूला, अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त योग्य अतिचार और अनाचार शेष बारह कषायों (अनन्तानुबन्धी 4, अप्रत्याख्यानी 4, प्रत्याख्यानी 4) के उदय से होते हैं। 1. गाहा--रागद्दोसाणुगया, तु दप्पिया कप्पिया तु तदभावा। प्राराधणा उ कप्पे, विराधणा होति दप्पेण // -बृह० उ०४ भाष्य माथा 4943 / 2. सव्वे वि अइयारा संजलणाणं उदयओ होंति // -अभि० कोष---'अइयार' शब्द / [30] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकट और प्रच्छन्न दोष सेवन अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार-इन चार प्रकार के दोषों का सेवन करने वाले श्रमणश्रमणियां चार प्रकार के हैं 1. कुछ श्रमण-धमणियाँ इन उक्त दोषों का सेवन प्रकट करते हैं अर्थात् प्रच्छन्न नहीं करते हैं। 2. कुछ श्रमण-श्रमणियाँ इन उक्त दोषों का सेवन प्रच्छन्न करते हैं अर्थात् प्रकट नहीं करते हैं। 3. कुछ श्रमण-श्रमणियाँ इन उक्त दोषों का सेवन प्रकट भी करते हैं और प्रच्छन्न भी करते हैं। 4. कुछ श्रमण-श्रमणियाँ इन उक्त दोषों का सेवन न प्रकट करते हैं और न प्रच्छन्न करते हैं।' प्रथम भंग वाले—श्रमण-श्रमणियाँ अनुशासन में नहीं रहने वाले अविनीत, स्वच्छन्द, प्रपंची एवं निर्लज्ज होते हैं और वे पापभीरू नहीं होते हैं अतः दोषों का सेवन प्रकट करते हैं। द्वितीय भंग वाले-श्रमण-श्रमणियाँ दो प्रकार के होते हैं-अत: दोष का सेवन प्रकट करते हैं / यथा प्रशस्त भावना वाले-श्रमण-श्रमणियाँ यदि यदा-कदा उक्त दोषों का सेवन करते हैं तो प्रच्छन्न करते हैं, क्योंकि वे स्वयं परिस्थितिवश आत्मिक' दुर्बलता के कारण दोषों का सेवन करते हैं इसलिए ऐसा सोचते हैं कि मुझे दोष-सेवन करते हये देखकर अन्य श्रमण-श्रमणियाँ दोष-सेवन न करें अतः वे दोषों का सेवन प्रच्छन्न करते हैं। अप्रशस्त भावना वाले...मायावी श्रमण-श्रमणियाँ लोक-लज्जा के भय से या श्रद्धालुजनों की श्रद्धा मेरे पर बनी रहे इस संकल्प से उक्त दोषों का सेवन प्रकट नहीं करते हैं अपितु छिपकर करते हैं। तृतीय भंग वाले-श्रमण-श्रमणियाँ वंचक प्रकृति के होते हैं वे सामान्य दोषों का सेवन तो प्रकट करते हैं किन्तु सशक्त (प्रबल) दोषों का सेवन प्रच्छन्न करते हैं / ___यदि उन्हें कोई सामान्य दोष सेवन करते हुये देखता है तो वे कहते हैं-'सामान्य दोष तो इस पंचमकाल में सभी को लगते हैं। अत: इन दोषों से बचना असम्भव है।' चतुर्थ भंग बाले---श्रमण-श्रमणियां सच्चे वैराग्य वाले होते हैं, मुमुक्षु और स्वाध्यायशील भी होते हैं प्रतः वे उक्त दोषों का सेवन न प्रकट करते हैं, न प्रच्छन्न करते हैं / प्रथम तीन भंग वाले श्रमण-श्रमणियों द्वारा सेवित दोषों की शूद्धि के लिए ही व्यवहारसुत्र निर्दिष्ट प्रायश्चित्त-विधान है। अंतिम चतुर्थ भंग वाले श्रमण-श्रमणियाँ निरतिचार चारित्र के पालक होते हैं अतः उनके लिए किसी भी प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान नहीं है। व्यवहारशुद्धि कठिन भी, सरल भी प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव आदिनाथ के धर्मशासन में श्रमण-श्रमणियाँ प्रायः ऋजु-सरल होते थे पर जड (अल्पबौद्धिक विकास वाले) होते थे। अतः वे सूत्र सिद्धान्त निर्दिष्ट समाचारी का परिपूर्ण ज्ञान तथा परिपूर्ण पालन नहीं कर पाते थे। उनकी व्यवहार शुद्धि दुःसाध्य होने का एकमात्र यही कारण था। 1. ठाणं-४, उ. 1, सू. 272 [31] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावीस तीर्थंकरों (भगवान् अजितनाथ से भ० पार्श्वनाथ पर्यन्त) के श्रमण-श्रमणी प्रायः ऋजु-प्राज्ञ (सरल और प्रबुद्ध) होते थे। वे सूत्र सिद्धान्त प्रतिपादित समाचारी का परिपूर्ण ज्ञान तथा परिपूर्ण पालन करने में सदा प्रयत्नशील रहते थे अतः उनकी व्यवहार शूद्धि अति सरल थी। अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर की परम्परा के श्रमण-श्रमणी प्रायः वक्रजड हैं। दशा, कल्प, व्यवहार प्रादि में विशद श्रुत समाचारी के होते हुये भी प्रत्येक गच्छ भिन्न-भिन्न समाचारी की प्ररूपणा करता है। पर्युषणपर्व तथा संवत्सरी पर्व जैसे महान धार्मिक पर्वो की आराधना, पक्खी, चौमासी आलोचना भी विभिन्न दिनों में की जाती है। वक्रता और जड़ता के कारण मूलगुण तथा उत्तरगणों में लगने वाले अतिचारों की आलोचना भी वे सरल हृदय से नहीं करते अतः उनकी व्यवहार शुद्धि अति कठिन है।' पालोचना और आलोचक आलोचना-अज्ञान, अहंकार, प्रमाद या परिस्थितिवश जो उत्सर्ग मार्ग से स्खलन अर्थात अतिचार होता है—उसे गुरु के समक्ष प्रकट करना आलोचना है और आलोचक वह है जो पूर्वोक्त कारणों से लगे हुये अतिचारों को गुरु के समक्ष प्रकट करता है / ___ यदि आलोचक मायावी हो और मायापूर्वक पालोचना करता हो तो उसको आलोचना का उसे अच्छा फल नहीं मिलता है। यदि पालोचक मायावी नहीं है और मायारहित आलोचना करता है तो उसकी आलोचना का उसे अच्छा फल मिलता है। व्यवहारशुद्धि के लिये तथा निश्चय (आत्म) शुद्धि के लिये लगे हये अतिचारों की आलोचना करना अनिवार्य है किन्तु साधकों के विभिन्न वर्ग हैं। उनमें एक वर्ग ऐसा है जो अतिचारों की पालोचना करता ही नहीं है। उनका कहना है-हमने अतिचार (अकृत्य) सेवन किये हैं, करते हैं और करते रहेंगे। क्योंकि देश, काल और शारीरिक-मानसिक स्थितियां ऐसी हैं कि हमारा संयमी जीवन निरतिचार रहे.-ऐसा हमें संभव नहीं लगता है अत: आलोचना से क्या लाभ है यह तो हस्तिस्नान जैसी प्रक्रिया है। अतिचार लगे आलोचना की और फिर अतिचार लगे--यह चक्र चलता ही रहता है। उनका यह चिन्तन अविवेकपूर्ण है क्योंकि वस्त्र पहने हैं, पहनते हैं और पहनते रहेंगे तो पहने गये वस्त्र मलिन हुये हैं, होते हैं और होते रहेंगे--'फिर वस्त्र शुद्धि से क्या लाभ है !'---यह कहना कहाँ तक उचित है ? ब तक वस्त्र पहनना है तब तक उन्हें शुद्ध रखना भी एक कर्तव्य है. क्योंकि वस्त्रशुद्धि के भी कई लाभ हैं-प्रतिदिन शुद्ध किये जाने वाले वस्त्र प्रति मलिन नहीं होते हैं और स्वच्छ वस्त्रों से स्वास्थ्य भी समृद्ध रहता है / इसी प्रकार जब तक योगों के व्यापार हैं और कषाय तीव्र या मन्द है तब तक अतिचार जन्य कर्ममल लगना निश्चित है। 1. गाहा-पुरिमाणं दुब्बिसोझो उ, चरिमाणं दुरणुपालो। कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसोझो सुपालो / --उत्त. अ. 23, गाथा --27 / [ 32] Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिदिन अतिचारों की अालोचना करते रहने से आस्मा कर्ममल से प्रतिमलिन नहीं होता है और भावप्रारोग्य रहता है। ज्यों ज्यों योगों का व्यापार अवरुद्ध होता है और कषाय मन्दतम होते जाते हैं, त्यों त्यों अतिचारों का लगना प्रल्प होता जाता है। द्वितीय वर्ग ऐसा है जो अयश-अकीति, अवर्ण (निन्दा) या अवज्ञा के भय से अयवा यश-कीर्ति या पूजा-सत्कार कम हो जाने के भय से अतिचारों की आलोचना ही नहीं करते। तृतीय वर्ग ऐसा है जो आलोचना तो करता है पर मायापूर्वक करता है / वह सोचता है मैं यदि पालोचना नहीं करूगा तो मेरा वर्तमान जीवन गहित हो जायगा और भावी जीवन भी विक्रत हो जाय करूंगा तो मेरा वर्तमान एवं भावी जीवन प्रशस्त हो जायगा अथवा पालोचना कर लूगा तो ज्ञान दर्शन एवं चारित्र की प्राप्ति हो जायगी। मायावी आलोचक को दुगुना प्रायश्चित्त देने का विधान प्रारम्भ के सूत्रों में है। चौथा वर्ग ऐसा है जो मायारहित आलोचना करता है, वह 1. जातिसम्पन्न, 2. कुलसम्पन्न, 3. विनयसम्पन्न, 4. ज्ञानसम्पन्न, 5. दर्शनसम्पन्न, 6. चारित्रसम्पन्न, 7. क्षमाशील, 8. निग्रहशील, 9, अमायी, 10. अपश्चात्तापी / ऐसे साधकों का यह वर्ग है / इनका व्यवहार और निश्चय दोनों शुद्ध होते हैं / __ पालोचक गीतार्थ हो या अगीतार्थ, उन्हें आलोचना सदा गीतार्थ के सामने ही करनी चाहिये / गीतार्थ के अभाव में किन के सामने करना चाहिये।' उनका एक क्रम है--जो छेदसूत्रों के स्वाध्याय से जाना जा सकता है। व्यवहारसूत्र का सम्पादन क्यों संयमी आत्माओं के जीवन का चरम लक्ष्य है -"निश्चयशुद्धि' अर्थात् आत्मा की (कर्म-मल से) सर्वथा मुक्ति और इसके लिये व्यवहारसूत्र प्रतिपादित व्यवहारशुद्धि अनिवार्य है। जिसप्रकार शारीरिक स्वास्थ्यलाभ के लिये उदरशुद्धि आवश्यक है और उदरशुद्धि के लिये आहारशुद्धि अत्यावश्यक है-इसी प्रकार प्राध्यात्मिक आरोग्यलाभ के लिए निश्चयशुद्धि आवश्यक है और निश्चयशुद्धि के लिये व्यवहारशुद्धि आवश्यक है। क्योंकि व्यवहारशुद्धि के बिना निश्चयशुद्धि सर्वथा असंभव है। सांसारिक जीवन में व्यवहारशुद्धि वाले (रुपये-पैसों के देने लेने में प्रामाणिक) के साथ ही लेन-देन का व्यवहार किया जाता है। आध्यात्मिक जीवन में भी व्यवहारशुद्ध साधक के साथ ही कृतिकर्मादि (वन्दन-पूजनादि) व्यवहार किये जाते हैं। 1. गाहा–पायरियपायमूलं, गंतूर्ण सइ परक्कमे / ताहे सव्वेण अत्तसोही, कायव्वा एस उवएसो।। जह सकुसलो वि वेज्जो, अन्नस्स कहेइ अत्तणो वाहि / वेज्जस्स य सो सोउतो, पडिकम्म समारभते // जायांतेण वि एवं, पायच्छित्तविहिमप्पणो निउणं / तह वि य पागडतरयं, पालोएदव्वयं होइ / जह बालो जप्पंतो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ / तं तह पालोइज्जा मायामय विप्पमुक्को उ / .-व्यव० उ० 10 भाष्य गाथा 460-471 / [ 33 ] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारसूत्र प्रतिपादित पांच व्यवहारों से संयमी प्रात्माओं का व्यवहारपक्ष शुद्ध (अतिचारजन्य पापमल-रहित) होता है। ग्रन्थ में प्रकाशित छेदसूत्रों के लिये कतिपय विचार व्यक्त किये हैं। इस लेखन में मेरे द्वारा पूर्व में सम्पादित अायारदसा, कप्पसुत्तं छेदसूत्रों में पण्डितरत्न मुनि श्री विजयमुनिजी शास्त्री के "प्राचारदशा: एक अनुशीलन" और उपाध्याय मुनि श्री फूलचन्दजी 'श्रमण के "बृहत्कल्पसूत्र की उत्थानिका" के प्रावश्यक लेखांशों का समावेश किया है। एतदर्थ मुनिद्वय का सधन्यवाद आभार मानता हूँ। विस्तृत विवेचन आदि लिखने का कार्य श्री तिलोकमुनिजी म. ने किया है। अतएव पाठकगण अपनी जिज्ञासानों के समाधान के लिये मुनिश्री से संपर्क करने की कृपा करें। ----मुनि कन्हैयालाल "कमल" [ 34 ] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना त्रीणि छेदसूत्राणि : एक समीक्षात्मक अध्ययन वैदिक परम्परा में जो स्थान वेद का है, बौद्ध परम्परा में जो स्थान त्रिपिटक का है, ईसाई धर्म में जो स्थान बाईबिल का है, इस्लाम धर्म में जो स्थान कुरान का है, वही स्थान जैनपरम्परा में आगम-साहित्य का है। वेद तथा बौद्ध और जैन आगम-साहित्य में महत्त्वपूर्ण भेद यह रहा है कि वैदिक परम्परा के ऋषियों ने शब्दों की सुरक्षा पर अधिक बल दिया जबकि जैन और बौद्ध परम्परा में अर्थ पर अधिक बल दिया गया है। यही कारण है कि वेदों के शब्द प्राय: सुरक्षित रहे हैं और अर्थ की दृष्टि से वे एक मत स्थिर नहीं कर सके हैं। जैन और बौद्ध परम्परा में इससे बिल्कुल ही विपरीत रहा है। वहाँ अर्थ की सुरक्षा पर अधिक बल दिया गया है, शब्दों की अपेक्षा अर्थ अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। यही कारण है कि आगमों के पाठभेद मिलते हैं, पर उनमें प्रायः अर्थभेद नहीं है। वेद के शब्दों में मंत्रों का प्रारोपण किया गया है जिससे शब्द तो सुरक्षित रहे, पर उसके अर्थ नष्ट हो गए / जैन आगम-साहित्य में मंत्र-शक्ति का आरोप न होने से अर्थ पूर्ण रूप से सुरक्षित रहा है। वेद किसी एक ऋषि विशेष के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते, जब कि जैन गणिपिटक एवं बौद्ध त्रिपिटक क्रमश: भगवान महावीर और तथागत बुद्ध की वाणी का प्रतिनिधित्व करते हैं। जैन आगमों के अर्थ के प्ररूपक तीर्थकर रहे हैं और सूत्र के रचयिता गणधर हैं। जैन और वैदिक परम्परा की संस्कृति पृथक-पृथक रही है। जनसंस्कृति अध्यात्म प्रधान है। जैन आगमों में अध्यात्म का स्वर प्रधान रूप से झंकृत रहा है, वेदों में लौकिकता का स्वर मुखरित रहा है। यहाँ पर यह बात भी विस्मरण नहीं होनी चाहिए कि आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व अण-विज्ञान, जीव-विज्ञान, बनस्पति-विज्ञान आदि के सम्बन्ध में जो बातें जैन आगमों में बताई गई हैं, उन्हें पढ़कर आज का वैज्ञानिक भी विस्मित है। जैन आगम... साहित्य का इन अनेक दृष्टियों से भी महत्त्व रहा है। कुछ समय पूर्व पाश्चात्य और पौर्वात्य विज्ञों की यह धारणा थी कि वेद ही आगम और त्रिपिटक के मूल स्रोत हैं, पर मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त ध्वंसावशेषों ने विज्ञों की धारणा में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया है कि आर्यों के आगमन से पूर्व भारत में जो संस्कृति थी वह पूर्ण रूप से विकसित थी और वह श्रमणसंस्कृति थी। निष्पक्ष विचारकों ने यह सत्य-तथ्य एक मत से स्वीकार किया है कि श्रमणसंस्कृति के प्रभाव से ही वैदिक परम्परा ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाव्रतों को स्वीकार किया है। आज जो वैदिक { 35 ] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परा में अहिंसादि का वर्णन है वह जैनसंस्कृति की देन है / ' आगम शब्द के अनेक अर्थ हैं। उस पर मैंने विस्तार से चर्चा की है। आचाराङ्ग में जानने के अर्थ में पागम शब्द का प्रयोग हमा है। "आगमेत्ता-आणवेज्जा"२ जानकर प्राज्ञा करे। लाघवं आगममाणे लघुता को जानने वाला / व्यवहारभाष्य में संघदासगणी ने प्रागम-व्यवहार का वर्णन करते हुए उसके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद किये हैं। प्रत्यक्ष में अवधि, मनापर्यव और केवल ज्ञान है और परोक्ष में चतुर्दश पूर्व और उनसे न्यून श्रुतज्ञान का समावेश है। इससे भी स्पष्ट है कि जो ज्ञान है वह प्रागम है। सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकरों के द्वारा दिया गया उपदेश भी ज्ञान होने के कारण प्रागम है। भगवती, अनुयोगद्वार और स्थानाङ्ग में प्रागम शब्द शास्त्र के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वहाँ पर प्रमाण के चार भेद किये गये हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और प्रागम / प्रागम के भी लौकिक और लोकोत्तर ये दो भेद किए गए हैं। लौकिक पागम भारत, रामायण प्रादि हैं और लोकोत्तर पागम आचार, सूत्रकृत प्रादि हैं। लोकोत्तर आगम के सुत्तागम, अत्थागम और तदुभयागम ये तीन भेद भी किए गए हैं। एक अन्य दष्टि से आगम के तीन प्रकार और मिलते हैं-प्रात्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम / अागम के अर्थरूप और सत्ररूप ये दो प्रकार हैं। तीर्थंकर प्रभु अर्थरूप प्रागम: का उपदेश करते हैं अत: अर्थरूप ग्रामम तीर्थंकरों का प्रात्मागम कहलाता है, क्योंकि वह अर्थागम उनका स्वयं का है, दूसरों से उन्होंने नहीं लिया है, किन्तु वही अर्थागम गणधरों ने तीर्थंकरों से प्राप्त किया है / गणधर और तीर्थंकर के बीच किसी तीसरे व्यक्ति का व्यवधान नहीं है एतदर्थ गणधरों के लिए वह अर्थागम अनन्तरागम कहलाता है, किन्तु उस अर्थागम के आधार से स्वयं गणधर सूत्ररूप रचना करते हैं। इसलिए सूत्रागम गणधरों के लिए प्रात्मागम कहलाता है। गणधरों के साक्षात् शिष्यों को गणधरों से सूत्रागम सीधा ही प्राप्त होता है, उनके मध्य में कोई भी व्यवधान नहीं होता। इसलिए उन शिष्यों के लिए सूत्रागम अनन्तरागम है, किन्तु अर्थागम तो परम्परागम ही है। क्योंकि वह उन्होंने अपने धर्मगुरु गणधरों से प्राप्त किया है। किन्तु यह गणधरों को भी प्रात्मागम नहीं था। उन्होंने तीर्थंकरों से प्राप्त किया था। गजधरों के प्रशिष्य और 1. संस्कृति के चार अध्याय : पृ. 125 -रामधारीसिंह "दिनकर" 2. प्राचारांग 124 ज्ञात्वा प्राज्ञापयेत् 3. आचारांग 116 / 3 लाघवं आगमयन् अवबुध्यमानः 4. व्यवहारभाष्य गा. 201 5. भगवती 5 / 3 / 192 6. अनुयोगद्वार 7. स्थानाङ्ग 338, 228, 8. अनुयोगद्वार 49-50 पृ. 68, पुण्यविजयजी सम्पादित, महावीर विद्यालय, बम्बई द्वारा प्रकाशित 9. अहवा आगमे तिबिहे पण्णत्ते, तं जहा-सुत्तागमे य अत्थागमे य तदुभयागमे य / -~अनुयोगद्वारसूत्र 470, पृ. 179 10. अहवा प्रागमे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा--अत्तागमे, अणंतरागमे परंपरागमे य / --अनुयोगद्वारसूत्र 470, पृ. 179 11. (क) श्रीचन्द्रीया संग्रहणी गा. 112 (ख) आवश्यकनियुक्ति गा. 92 [ 36 ] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी परम्परा में होने वाले अन्य शिष्य और प्रशिष्यों के लिए सूत्र और अर्थ परम्परागम हैं / 2 श्रमण भगवान महावीर के पावन प्रवचनों का सूत्र रूप में संकलन-प्राकलन गणधरों ने किया, वह अंगसाहित्य के नाम से विश्रुत हुप्रा / उसके आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, भगवती, ज्ञाता, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाक और दृष्टिबाद ये बारह विभाग हैं। दृष्टिबाद का एक विभाग पूर्व साहित्य है। आवश्यकनियुक्ति के अनुसार गणधरों ने अर्हद्भाषित मातृकापदों के आधार से चतुर्दश शास्त्रों का निर्माण किया, जिसमें सम्पूर्ण श्रुत की अवतारणा की गई। ये चतुर्दश शास्त्र चतुर्दश पूर्व के नाम से विश्रुत हुए / इन पूर्वो की विश्लेषण-पद्धति अत्यधिक क्लिष्ट यी अतः जो महान् प्रतिभासम्पन्न साधक थे उन्हीं के लिए वह पूर्व साहित्य ग्राहय था / जो साधारण प्रतिभासम्पन्न साधक थे उनके लिए एवं स्त्रियों के उपकारार्थ द्वादशांगी की रचना की गई। आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने लिखा है कि दष्टिबाद का अध्ययन-पठन स्त्रियों के लिए बज्य था। क्योंकि स्त्रियां तुच्छ स्वभाव की होती हैं, उन्हें शीघ्र हो गर्व प्राता है। उनकी इन्द्रियां चंचल होती हैं। उनकी मेधा-शक्ति पुरुषों की अपेक्षा दुर्बल होती है एतदर्थ उत्थान-समुत्थान प्रभृति अतिशय या चमत्कार युक्त अध्ययन और दृष्टिवाद का ज्ञान उनके लिए नहीं है।१४ मलधारी प्राचार्य हेमचन्द्र ने प्रस्तुत विषय का स्पष्टीकरण करते हए लिखा है कि स्त्रियों को यदि किसी तरह दृष्टिवाद का अध्ययन करा दिया जाए तो तुच्छ प्रकृति के कारण "मैं दृष्टिवाद की अध्येता हूं" इस प्रकार मन में अहंकार आकर पुरुष के परिभव-तिरस्कार प्रभृति में प्रवृत्त हो जाये जिससे उसकी दुर्गति हो सकती है एतदर्थ दया के अवतार महान् परोपकारी तीर्थंकरों ने उत्थान, समुत्थान आदि अतिशय चमत्कार युक्त अध्ययन एवं दृष्टिवाद के अध्ययन का स्त्रियों के लिए निषेध किया। 5 बृहत्कल्पनियुक्ति में भी यही बात आई है / जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने और मलधारी हेमचन्द्र ने स्त्रियों की प्रवृत्ति की विकृति व मेधा की दुर्बलता के सम्बन्ध में जो लिखा है वह पूर्ण संगत नहीं लगता है / वे बातें पुरुष में भी सम्भव हैं। अनेक स्त्रियां पुरुषों से भी अधिक प्रतिभासम्पन्न व गम्भीर होती हैं। यह शास्त्र में पाये हए वर्णनों से भी स्पष्ट है / / 12. तित्थगराणं अत्थस्स अत्तागमे, गणहराणं सुत्तस्स अत्तागमे, अत्थस्स अणंतरागमे, गणहरसीसाणं सुत्तस्स अणंतरागमे अत्थस्स परंपरागमे तेणं परं सुत्तस्स वि अत्थस्स वि णो अत्तागमे णो अणंतरागमे, परम्परागमे -अनुयोगद्वार 470, पृ० 179 13. धम्मोवाओ पवयणमहबा पुब्वाई देसया तस्स / सब्बंजिणा | गणहरा, चोदसपुव्वा उ ते तस्स / / सामाइयाइयावा वयजीवनिकाय भावणा पढमं / एसो धम्मोवादो जिणेहि सव्वेहि उबइलो / / -~-आवश्यकनियुक्ति गा० 292-293 14. तुच्छा गारबबहुला चलिदिया दुब्बला धिईए य / इति पाइसेसज्झयणा भूयावायो य नो स्थीणं // ..."इह बिचित्रा जगति प्राणिनः तत्र ये दुर्मेधसः ते पूर्वाणि नाध्येतुमीशते, पूर्वाणामतिगम्भीरार्थत्वात तेषां च दुर्मेधत्वात् स्त्रीणां पूर्वाध्ययनानाधिकार एव तासां तुच्छत्वादि दोषबहुलत्वात् / -विशेषावश्यकभाष्य गाथा 55 की व्याख्या पृ० 48 प्रकाशक-प्रागमोदय समिति बम्बई [ 37 ] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब स्त्री अध्यात्म-साधना का सर्वोच्चपद तीर्थंकर नामकर्म का अनुबन्ध कर सकती है, केवलज्ञान प्राप्त कर सकती है तब दृष्टिवाद के अध्ययनार्थ जिन दुर्बलताओं की ओर संकेत किया गया है और जिन दुर्बलताओं के कारण स्त्रियों को दष्टिवाद की अधिकारिणी नहीं माना गया है उन पर विज्ञों को तटस्थ दष्टि से गम्भीर चिन्तन करना चाहिए। मेरी दृष्टि से पूर्व-साहित्य का ज्ञान लब्ध्यात्मक था / उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए केवल अध्ययन और पढ़ना ही पर्याप्त नहीं था, कुछ विशिष्ट साधनाएं भी साधक को अनिवार्य रूप से करनी पड़ती थीं। उन साधनाओं के लिए उस साधक को कुछ समय तक एकान्त-शान्त स्थान में एकाकी भी रहना आवश्यक होता था। स्त्रियों का शारीरिक संस्थान इस प्रकार का नहीं है कि वे एकान्त में एकाकी रह कर दीर्घ साधना कर सकें। इस दृष्टि से स्त्रियों के लिए दृष्टिवाद का अध्ययन निषेध किया गया हो। यह अधिक तर्कसंगत व युक्ति-युक्त है / मेरी दृष्टि से यही कारण स्त्रियों के आहारकशरीर की अनुपलब्धि प्रादि का भी है। गणधरों द्वारा संकलित अंग ग्रन्थों के आधार से अन्य स्थविरों ने बाद में ग्रन्थों की रचना की, वे अंगबाह्य कहलाये। अंग और अंगबाह्य ये आगम ग्रन्थ ही भगवान् महावीर के शासन के आधारभूत स्तम्भ हैं। जैन प्राचार की कुञ्जी हैं, जैन विचार की अद्वितीय निधि हैं, जनसंस्कृति की गरिमा हैं और जैन साहित्य की महिमा हैं। यह स्मरण रखना चाहिए कि अंगबाह्य ग्रन्थों को आगम में सम्मिलित करने की प्रक्रिया श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में एक समान नहीं रही है। दिगम्बर परंपरा में अंगबाह्य आगमों की संख्या बहुत ही स्वल्प है किन्तु श्वेताम्बरों में यह परम्परा लम्बे समय तक चलती रही जिससे अंगबाह्य ग्रन्थों की संख्या अधिक है। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात है कि प्रावश्यक के विविध अध्ययन, दशवकालिक, उत्तराध्ययन और निशीथ प्रादि दोनों ही परम्पराओं में समान रूप से मान्य रहे हैं। ___ श्वेताम्बर विद्वानों की यह मान्यता है कि आगम-साहित्य का मौलिक स्वरूप बहुत बड़े परिमाण में लुप्त हो गया है पर पूर्ण नहीं, अब भी वह शेष है। अंगों और अंगबाह्य भागमों की जो तीन बार संकलना हुई उसमें उसके मौलिक रूप में कुछ अवश्य ही परिवर्तन हुआ है। उत्तरवर्ती घटनाओं और विचारणामों का समावेश भी किया गया है। जैसे स्थानांग में सात निह्नव और नवगणों का वर्णन / प्रश्नव्याकरण में जिस विषय का संकेत किया गया है वह बर्तमान में उपलब्ध नहीं है, तथापि आगमों का अधिकांश भाग मौलिक है, सर्वथा मौलिक है। भाषा व रचना शैली की दृष्टि से बहुत ही प्राचीन है। वर्तमान भाषाशास्त्री आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को और सुत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को ढाई हजार वर्ष प्राचीन बतलाते हैं / स्थानांग, भगवती, उत्तराध्ययन, दशवकालिक, निशीथ और कल्प को भी वे प्राचीन मानते हैं। इसमें किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है कि प्रागम का मूल प्राज भी सुरक्षित है। दिगम्बर परम्परा की दृष्टि से अंग साहित्य लुप्त हो चुका है। अत: उन्होंने नवीन ग्रन्थों का सृजन किया और उन्हें आगमों की तरह प्रमाणभूत माना / श्वेताम्बरों के प्रागम-साहित्य को दिगम्बर परम्परा प्रमाणभूत नहीं मानती है तो दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों को श्वेताम्बर परम्परा मान्य नहीं करती है, पर जब मैं तटस्थ दृष्टि से चिन्तन करता तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि दोनों ही परम्पराओं के प्रागम ग्रन्थों में मौलिक दृष्टि से कोई विशेष अन्तर नहीं है। दोनों के पागम ग्रन्थों में तत्त्वविचार, जीवविचार, कर्मविचार, लोकविचार, ज्ञानविचार समान है। दार्शनिक दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है। प्राचार परम्परा की दृष्टि से भी चिन्तन करें तो वस्त्र के उपयोग के सम्बन्ध में कुछ मतभेद होने पर भी विशेष अन्तर नहीं रहा। दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में नग्नत्व पर अत्यधिक बल दिया गया, किन्तु व्यवहार में नग्न मुनियों की संख्या बहुत ही कम रही और दिगम्बर भट्टारक आदि की संख्या Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनसे बहत अधिक रही। श्वेताम्बर पागम साहित्य में जिनकल्प को स्थविरकल्प से अधिक महत्त्व दिया गया किन्त व्यवहारिक दृष्टि से आर्य जम्बू के पश्चात् जिनकल्प का निषेध कर दिया गया। दिगम्बर परम्परा में स्त्री के निर्वाण का निषेध किया है किन्तु दिगम्बर परम्परा मान्य षखण्डागम में मनुष्य-स्त्रियां सम्यगमिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यगदष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होती हैं / 16 इसमें "संजद" शब्द को सम्पादकों ने टिप्पण में दिया है, जिसका सारांश यह है कि मनुष्य-स्त्री को "संयत" गुणस्थान न हो सकता है और संयत गुणस्थान होने पर स्त्री मोक्ष में जा सकती है। प्रस्तुत प्रश्न को लेकर दिगम्बर समाज में प्रबल विरोध का बातावरण समुत्पन्न हुआ तब ग्रन्थ के सम्पादक पं.हीरलालजी जैन आदि ने पूनः उसका स्पष्टीकरण "पखण्डागम के तृतीय भाग की प्रस्तावना" में किया किन्तु जब विज्ञों ने मूडबिद्री (कर्णाटक) में पटखण्डागम की मूल प्रति देखी तो उसमें भी "संजद" शब्द मिला है। वदकरस्वामी विरचित मूलाचार में प्रायिकामों के प्राचार का विश्लेषण करते हुए कहा है जो साधु अथवा धार्यिका इस प्रकार आचरण करते हैं वे जगत् में पूजा, यश व सुख को पाकर मोक्ष को पाते हैं। इसमें भी प्रायिकाओं के मोक्ष में जाने का उल्लेख है / किन्तु बाद में टीकाकारों ने अपनी टीकाओं में स्त्री निर्वाण का निषेध किया है। प्राचार के जितने भी नियम हैं उनमें महत्त्वपूर्ण नियम उद्दिष्ट त्याग का है, जिसका दोनों ही परम्परामों में समान रूप से महत्त्व रहा है। श्वेताम्बर प्रागम-साहित्य में और उसके व्याख्या साहित्य में प्राचार सम्बन्धी अपवाद मार्ग का विशेष वर्णन मिलता है किन्तु दिगम्बर परम्परा के अन्यों में अपवाद का वर्णन नहीं है, पर गहराई से चिन्तन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि दिगम्बर परम्परा में भी अपवाद रहे होंगे, यदि प्रारम्भ से ही अपवाद नहीं होते तो अंगवाह्य सूची में निशीथ का नाम कैसे आता ? श्वेताम्बर परम्परा में 'अपवादों को सूत्रबद्ध करके भी उसका अध्ययन प्रत्येक व्यक्ति के लिए निषिद्ध कर दिया गया। विशेष योग्यता वाला श्रमण ही उसके पढ़ने का अधिकारी माना गया / श्वेताम्बर श्रमणों की संख्या प्रारम्भ से ही अत्यधिक रही जिससे समाज की सुव्यवस्था हेतु छेदसूत्रों का निर्माण हआ। छेदसूत्रों में श्रमणाचार के निगूढ़ रहस्य और सूक्ष्म क्रिया-कलाप को समझाया गया है। श्रमण के जीवन में अनेकानेक अनुकूल और प्रतिकूल प्रसंग समुपस्थित होते हैं, ऐसी विषम परिस्थिति में किस प्रकार निर्णय लेना चाहिए यह बात छेदसूत्रों में बताई गई है। प्राचार सम्बन्धी जैसा नियम और उपनियमों का वर्णन जैन परम्परा में छेदसूत्रों में उपलब्ध होता है वैसा ही वर्णन बौद्ध परम्परा में विनयपिटक में मिलता है और वैदिक परम्परा में के कल्पसूत्र, श्रोतसूत्र और गृहसूत्रों में मिलता है। दिगम्बर परम्परा में भी छेत्रसूत्र बने थे पर आज वे उपलब्ध नहीं हैं। छेदसूत्र का नामोल्लेख मन्दीसूत्र में नहीं हुआ है। "छेद सूत्र" का सबसे प्रथम प्रयोग प्रावश्यकनियुक्ति 16. सम्मामिच्छाइट्ठि असंजदसम्माइट्ठि संजदासंजद (अत्र संजद इति पाठशेषः प्रतिभाति) ट्ठाणे णियमा पज्जत्तियाओ। -षट्खण्डागम, भाग 1 सूत्र 93 पृ. 332, प्रका..-सेठ लक्ष्मीचंद शिताबराय जैन साहित्योद्धारक फण्ड कार्यालय अमरावती (बरार) सन् 1939 17. एवं विधाणचरियं चरितं जे साधवो य अज्जायो / ते जगपुज्ज कित्ति सुहं च लण सिझति / / -मूलाचार 4/196, पृ. 168 [ 39] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में हरा है।१८ उसके पश्चात् विशेषावश्यकभाष्य और निशीथभाष्य' मादि में भी यह शब्द व्यवहृत हुआ है। तात्पर्य यह है कि हम अावश्यकनियुक्ति को यदि ज्योतिर्विद वराहमिहिर के भ्राता द्वितीय भद्रबाह की कृति मानते हैं तो वे विक्रम की छठी शताब्दी में हुए हैं। उन्होंने इसका प्रयोग किया है। स्पष्ट है कि "छेदसुत्त" शब्द का प्रयोग "मूलसुत्त" से पहले हुआ है। अमुक प्रागमों को "छेदसूत्र" यह अभिधा क्यों दी गई ? इस प्रश्न का उत्तर प्राचीन ग्रन्थों में सीधा और स्पष्ट प्राप्त नहीं है। हाँ यह स्पष्ट है कि जिन सूत्रों को "छेदसुत्त" कहा गया है वे प्रायश्चित्तसूत्र हैं। स्थानाङ्ग में श्रमणों के लिए पांच चारित्रों का उल्लेख है (1) सामायिक, (2) छेदोपस्थापनीय, (3) परिहारविशुद्धि, (4) सूक्ष्मसंपराय, (5) ययाख्यात / 22 इनमें से वर्तमान में तीन अन्तिम चारित्र विच्छिन्न हो गये हैं। सामायिक चारित्र स्वल्पकालीन होता है, छेदोपस्थापनिक चारित्र ही जीवन पर्यन्त रहता है। प्रायश्चित्त का सम्बन्ध भी इसी चारित्र से है। संभवत: इसी चारित्र को लक्ष्य में रखकर प्रायश्चित्तसूत्रों को छेदसूत्र की संज्ञा दी गई हो। मलयगिरि की आवश्यकवृत्ति 23 में छेदसूत्रों के लिए पद-विभाग, समाचारी शब्द का प्रयोग हमा है। पद-विभाग और छेद ये दोनों शब्द रखे गये हों। क्योंकि छेदसूत्रों में एक सूत्र का दूसरे सूत्र से सम्बन्ध नहीं है। सभी सूत्र स्वतंत्र हैं। उनकी व्याख्या भी छेद-दष्टि से या विभाग-दष्टि से की जाती है। दशाश्रुतस्कन्ध, निशीथ, व्यवहार और बृहत्कल्प ये सूत्र नौवें प्रत्याख्यान पूर्व से उद्धृत किये गये हैं,२४ उससे छिन्न अर्थात् पृथक् करने से उन्हें छेदसूत्र की संज्ञा दी गई हो, यह भी सम्भव है / 25 छेदसूत्रों को उत्तम श्रुत माना गया है। भाष्यकार भी इस कथन का समर्थन करते हैं।२६ चणिकार जिनदास महत्तर स्वयं यह प्रश्न उपस्थित करते हैं कि छेदसूत्र उत्तम क्यों हैं ? फिर स्वयं ही उसका समाधान देते किदसत्र में प्रायश्चित्तविधि का निरूपण है, उससे चारित्र की विशुद्धि होती है, एतदर्थ यह श्रत उत्तम माना 18. जं च महाकप्पसुयं, जाणि असेसाणि छेअसुत्ताणि / चरणकरणाणुप्रोगो ति कालियत्थे उवमयाणि / / -आवश्यकनियुक्ति 777 ---विशेषावश्यकभाष्य 2265 20. (क) छेदसुत्तणिसीहादी, अत्यो य गतो य छेदसुत्तादी / मंतनिमित्तोसहिपाहूडे, य गाति अण्णात्थ / / ----निशीथभाप्य 5947 (ख) केनोनिकल लिटरेचर पृ. 36 भी देखिए। 21. जैनागमधर और प्राकृत वाङ्मय -लेखक पुण्यविजयजी, —-मुनि हजारीमल स्मृतिग्रन्थ, पृ. 718 22. (क) स्थानांगसूत्र 5, उद्देशक 2, सूत्र 428 (ख) विशेषावश्यकभाष्य गा. 1260-1270 23. पदविभाग, समाचारी छेदसूत्राणि / -आवश्यकनियुक्ति 665, मलयगिरिवृत्ति 24. कतरं सुत्तं ? दसाउकप्पो वबहारो य / कतरातो उद्धृतं ? उच्यते पच्चक्खाण-पुठवाओ। -दशाश्रुतस्कंघचूणि, पत्र 2 25. निशीध 19 / 17 26. छेयसुयमुत्तमसुयं / -निशीथभाष्य, 6148 [40] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया है। श्रमण-जीवन की साधना का सर्वाङ्गीण विवेचन छेदसूत्रों में ही उपलब्ध होता है। साधक की क्या मर्यादा है, उसका क्या कर्त्तव्य है ? इत्यादि प्रश्नों पर उनमें चिन्तन किया गया है। जीवन में से असंयम के अंश को काटकर पृथक करना, साधना में से दोषजन्य मलिनता को निकालकर साफ करना, भूलों से बचने के लिए पूर्ण सावधान रहना, भूल हो जाने पर प्रायश्चित्त ग्रहण कर उसका परिमार्जन करना, यह सब छेदसूत्रों का कार्य है / समाचारीशतक में समयसुन्दरगणी ने छेदसूत्रों की संख्या छह बतलाई है:(१) महानिशीथ, (2) दशाश्रुतस्कंध, (3) व्यवहार, (4) बृहत्कल्प, (5) निशीथ, (6) जीतकल्प / जीतकल्प को छोड़कर शेष पाच सूत्रों के नाम नन्दीसूत्र में भी पाये हैं। जीतकल्प जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण की कृति है, एतदर्थ उसे आगम की कोटि में स्थान नहीं दिया जा सकता / महानिशीथ का जो वर्तमान संस्करण है, वह आचार्य हरिभद्र (वि. 8 वीं शताब्दी) के द्वारा पुनरुद्धार किया हुआ है। उसका उसके पूर्व ही दीमकों ने उदरस्थ कर लिया गया था। अतः वर्तमान में उपलब्ध महानिशीथ भी आगम की कोटि में नहीं पाता। इस प्रकार मौलिक छेदसूत्र चार ही हैं-(१) दशाश्रुतस्कन्ध, (2) व्यवहार, (3) बृहत्कल्प और (4) निशीथ / निए हित आगम जैन आगमों की रचनाएं दो प्रकार से हुई है--(१) कृत, (2) नि! हित / जिन आगमों का निर्माण स्वतंत्र रूप से हुआ है वे आगम कृत कहलाते हैं। जैसे गणधरों के द्वारा द्वादशांगी की रचना की गई है और भिन्न-भिन्न स्थविरों के द्वारा उपांग साहित्य का निर्माण किया गया है, वे सब कृत पागम हैं। नि! हित आगम ये माने गये हैं - (1) आचारचूला (2) दशवकालिक (3) निशीथ (4) दशाश्रुतस्कन्ध (5) बृहत्कल्प (6) व्यवहार (7) उत्तराध्ययन का परीषह अध्ययन। प्राचारचुला यह चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु के द्वारा निर्वृहण की गई है, यह बात अाज अन्वेषणा के द्वारा स्पष्ट हो चुकी है। प्राचारांग से प्राचारचूला की रचना-शैली सर्वथा पृथक् है। उसकी रचना आचारांग के बाद हुई है। आचारांग-नियुक्तिकार ने उसको स्थविरकृत माना है।' स्थविर का अर्थ चर्णिकार ने गणधर किया है। 1. छेयसुयं कम्हा उत्तमसुत्तं ? भण्णामि जम्हा एत्थं सपायच्छित्तो विधी भण्णति, जम्हा एतेगच्चरणविशुद्धं करेति, तम्हा तं उत्तमसुत्तं / --निशीथभाष्य 6184 की चूणि 2. समाचारीशतक, आगम स्थापनाधिकार। 3. कालियं अणेगविहं पण्णत्तं, तं जहा--दसाओ, कप्पो, ववहारो, निसीह, महानिसीह / -नन्दीसूत्र 77 4. आगमयुग का जैनदर्शन, पृ० 21-22, पं० दलसुखभाई मालवणिया -प्रकाशक सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा 5. थरेहिऽणुग्गहट्ठा, सीसहि होउ पागउत्थं च / आयाराओ अत्थो, पायारंगेसु पविभत्तो // -आचारांगनियुक्ति गा० 287 6. थेरे गणधरा। --आचारांगचूणि, पृ० 326 [ 41 ] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और वृत्तिकार ने चतुर्दशपूर्वी किया है किन्तु उनमें स्थविर का नाम नहीं आया है। विज्ञों का अभिमत है कि यहाँ पर स्थविर शब्द का प्रयोग चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु के लिए ही हुआ है। आचारांग के गम्भीर अर्थ को अभिव्यक्त करने के लिए "आचारचूला" का निर्माण हुआ है / नियुक्तिकार ने पांचों चूलाओं के निर्यहूणस्थलों का संकेत किया है। दशवकालिक चतुर्दशपूर्वी शय्यंभव के द्वारा विभिन्न पूर्वो से नि!हण किया गया है / जैसे-चतुर्थ अध्ययन आत्मप्रवाद पूर्व से, पंचम अध्ययन कर्मप्रवाद पूर्व से, सप्तम अध्ययन सत्यप्रवाद पूर्व से और शेष अध्ययन प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु से उद्धत किये गये हैं।' द्वितीय अभिमतानुसार दशवकालिक गणिपिटक द्वादशांगी से उद्धृत है। निशीथ का नि! हण प्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्व से हुआ है। प्रत्याख्यान पूर्व के बीस वस्तु अर्थात् अर्थाधिकार हैं। तृतीय वस्तु का नाम आचार है। उसके भी बीस प्राभृतच्छेद अर्थात् उपविभाग हैं। बीसवें प्राभूतच्छेद से निशीथ का नि' हण किया गया है। पंचकल्पचूणि के अनुसार निशीथ के निर्यु हक भद्रबाहुस्वामी है। इस मत का समर्थन प्रागमप्रभावक मुनिश्री पुण्यविजयजी ने भी किया है। 1. "स्थविरैः" श्रुतवृद्धश्चतुर्दशपूर्वविद्भिः / 2. बिमस्स य पंचमए, अट्ठमगस्स बिइयंमि उद्देसे / भणिओ पिडो सिज्जा, वत्थं पाउग्गहो चेव / / पंचमगस्स चउत्थे इरिया, वणिज्जई समासेणं / छुट्ठस्स य पंचमए, भासज्जायं वियाणाहि / सत्तिक्कगाणि सत्तवि, निज्जढाई महापरिन्नाओ। सत्थपरिन्ना भावण, निज्जूढानो धुयविमुत्ती / / आयारपकप्पो पुण, पच्चक्खाणस्स तइयवत्थूप्रो। आयारनामधिज्जा, वीसइमा पाहुडच्छेया // -प्राचारांगनियुक्ति गा० 288-291 3. पायप्पवाय पुब्वा निज्जूढा होइ धम्मपन्नती। कम्पप्पवाय पुब्बा पिंडस्स उ एसणा तिविधा / / सच्चय्पवाय पुव्वा निज्जूढा होइ बक्कसुद्धी उ / अवसेसा निज्जढा नवमस्स उ तइयवत्थूयो। -दशवकालिकनियुक्ति गा० 16-17 बीमोऽवि अ आएसो, गणिपिडगाओ दुवालसंगायो। एअं किर णिज्जूढं मणगस्स अणुगाहटाए / - दशवकालिकनियुक्ति गा. 18 णिसीहं णवमा पुब्वा पच्चक्खाणस्स ततियवत्थूओ। आयार नामधेज्जा, वीसतिमा पाहुडच्छेदा / —निशीथभाष्य 6500 6. लेण भगवता आयारपकप्प-दसा-कप्प-ववहारा य नवमपुबनीसंदभूता निज्जूढा / --पंचकल्पचूणि, पत्र 1 (लिखित) 7. बृहत्कल्पसूत्र, भाग 6, प्रस्तावना पृ. 3 [42] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प और व्यवहार, ये तीनों पागम चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहुस्वामी के द्वारा प्रत्याख्यानपूर्व से नियूंढ हैं।' दशाश्रुतस्कन्ध की नियुक्ति के मन्तव्यानुसार वर्तमान में उपलब्ध दशाश्रुतस्कंध अंगप्रविष्ट आगमों में जो दशाएं प्राप्त हैं, उनसे लघु हैं। इनका नियूहण शिष्यों के अनुग्रहार्थ स्थविरों ने किया था। चूर्णि के अनुसार स्थविर का नाम भद्रबाहु है। ___ उत्तराध्ययन का दूसरा अध्ययन भी अंग-प्रभव माना जाता है / नियुक्तिकार भद्रबाहु के मतानुसार वह कर्मप्रवादपूर्व के सत्रहवें प्राभृत से उद्धृत है। इनके अतिरिक्त आगमेतर साहित्य में विशेषतः कर्मसाहित्य का बहुत-सा भाग पूर्वोद्धृत माना जाता है। नियू हित कृतियों के सम्बन्ध में यह स्पष्टीकरण करना आवश्यक है कि उसके अर्थ के प्ररूपक तीर्थंकर हैं, सूत्र के रचयिता गणधर हैं और जो संक्षेप में उसका वर्तमान रूप उपलब्ध है उसके कर्ता वही हैं जिन पर जिनका नाम अंकित या प्रसिद्ध है। जैसे दशवकालिक के शय्यंभव; कल्प, व्यवहार, निशीथ और दशाश्रुतस्कंध के रचयिता भद्रबाहु हैं। जैन अंग-साहित्य की संख्या के सम्बन्ध में श्वेताम्बर और दिगम्बर सभी एकमत हैं। सभी अंगों को बारह स्वीकार करते हैं। परन्तु अंगबाह्य आगमों की संख्या के सम्बन्ध में यह बात नहीं है, उनके विभिन्न मत है / यही कारण है कि आगमों की संख्या कितने ही 84 मानते हैं, कोई-कोई 45 मानते हैं और कितने ही 32 मानते हैं / नन्दीसूत्र में आगमों की जो सूची दी गई है, वे सभी आगम वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज मूल प्रागमों के साथ कुछ नियुक्तियों को मिलाकर 45 आगम मानता है और कोई 84 मानते हैं। स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा बत्तीस को ही प्रमाणभूत मानती है। दिगम्बर समाज की मान्यता है कि सभी प्रागम विच्छिन्न हो गये हैं। 1. वंदामि भद्दबाहुं, पाईणं चरिय सयलसुयणाणि / सो सुत्तस्स कारगमिसं (णं) दसासु कप्पे य ववहारे / --दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति गा.१, पत्र 1 2. डहरीओ उ इमानो, अज्झयणेसु महईओ अंगेसु / छसु नायादीएसु, वत्थविभूसावसाणमिव // डहरीयो उ इमाओ, निज्जूढायो अणुग्गहट्टाए। थरेहिं तु दसानो, जो दसा जाणओ जीवो / —दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति 5-6 दशाश्रुतस्कंधचूणि / कम्पप्पवायपुब्वे सत्तरसे पाहुडंमि जं सुत्तं / सणयं सोदाहरणं तं चेव इहंपि गायब्वं / / -उत्तराध्ययननियूक्ति गा.६९ 5. (क) तत्त्वार्थसूत्र 1-20, श्रुतसागरीय वृत्ति। (ख) षट्खण्डागम (धवला टीका) खण्ड 1, पृ. 6 बारह अंगविज्झा / Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्कन्ध दशाश्रुतस्कंध छेदसूत्र है / छेदसूत्र के दो कार्य हैं-दोषों से बचाना और प्रमादवश लगे हए दोषों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का विधान करना। इसमें दोषों से बचने का विधान है / ठाणांग में इसका अपरनाम प्राचारदशा प्राप्त होता है। दशाश्रुतस्कंध में दश अध्ययन हैं, इसलिए इसका नाम दशाश्रुतस्कंध है। दशाश्रुतस्कंघ का 1830 अनुष्टुप श्लोक प्रमाण उपलब्ध पाठ है / 216 गद्यसूत्र हैं / 52 पद्यसूत्र हैं। प्रथम उद्देशक में 20 असमाधिस्थानों का वर्णन है। जिस सत्कार्य के करने से चित्त में शांति हो, प्रात्मा ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप मोक्षमार्ग में रहे, वह समाधि है और जिस कार्य से चित्त में अप्रशस्त एवं अशांत भाव हों, ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि मोक्षमार्ग से आत्मा भ्रष्ट हो, वह असमाधि है। असमाधि के बीस प्रकार हैं। जैसेजल्दी-जल्दी चलना, बिना पूजे रात्रि में चलना, बिना उपयोग सब दैहिक कार्य करना, गुरुजनों का अपमान, निन्दा आदि करना। इन कार्यों के आचरण से स्वयं व अन्य जीवों को असमाधिभाव उत्पन्न होता है। साधक की आत्मा दूषित होती है / उसका पवित्र चारित्र मलिन होता है। अतः उसे असमाधिस्थान कहा है। द्वितीय उद्देशक में 21 शबल दोषों का वर्णन किया गया है, जिन कार्यों के करने से चारित्र की निर्मलता नष्ट हो जाती है। चारित्र मलक्लिन्न होने से वह कर्बुर हो जाता है। इसलिए उन्हें शबलदोष कहते हैं / 2 “शबलं कर्बुरं चित्रम्" शबल का अर्थ चित्रवर्णा है। हस्तमैथुन, स्त्री-स्पर्श आदि, रात्रि में भोजन लेना और करना, प्राधाकर्मी, औद्देशिक पाहार का लेना, प्रत्याख्यानभंग, मायास्थान का सेवन करना आदि-आदि ये शबल दोष हैं। उत्तरगुणों में अतिक्रमादि चार दोषों का एवं मूलगुणों में अनाचार के अतिरिक्त तीन दोषों का सेवन करने से चारित्र शबल होता है। तीसरे उद्देशक में 33 प्रकार की आशातनाओं का वर्णन है। जैनाचार्यों ने आशातना शब्द की निरुक्ति अत्यन्त सुन्दर की है। सम्यग्दर्शनादि आध्यात्मिक गुणों की प्राप्ति को आय कहते हैं और शातना का अर्थ खण्डन है। सदगुरुदेव आदि महान् पुरुषों का अपमान करने से सम्यग्दर्शनादि सद्गुणों की आशातना-खण्डना होती है।3। शिष्य का मुरु के आगे, समश्रेणी में, अत्यन्त समीप में गमन करना, खड़ा होना, बैठना आदि, गुरु, से पूर्व किसी से सम्भाषण करना, गुरु के वचनों को जानकर अवहेलना करना, भिक्षा से लौटने पर आलोचना न करना, प्रादि-आदि पाशातना के तेतीस प्रकार हैं। चतुर्थ उद्देशक में प्रकार की गणिसम्पदाओं का वर्णन है। श्रमणों के समुदाय को गण कहते हैं। गण का अधिपति गणी होता है। गणिसम्पदा के आठ प्रकार हैं--प्राचारसम्पदा, श्रुतसम्पदा, शरीरसम्पदा, वचनसम्पदा, वाचनासम्पदा, मतिसम्पदा, प्रयोगमतिसम्पदा और संग्रहपरिज्ञानसम्पदा / प्राचारसम्पदा के संयम में ध्र वयोगयुक्त होना, अहंकाररहित होना, अनियतवृत्ति होना, वृद्धस्वभावी (अचंचलस्वभावी)-ये चार प्रकार हैं। समाधानं समाधि:-चेतसः स्वास्थ्य, मोक्षमार्गेऽवस्थितिरित्यर्थ: न समाधिरसमाधिस्तस्य स्थानानि आश्रया भेदाः पर्याया असमाधि-स्थानानि / -आचार्य हरिभद्र शबलं-कबुरं चारित्रं यः क्रियाविशेषैर्भवति ते शबलास्तद्योगात्साधवो पि। -अभयदेवकृत समवायांगटीका 3. आय:– सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिलक्षणस्तस्य शातना-खण्डना निरुक्तादाशातना / .—प्राचार्य अभयदेवकृत समवायांगटीका Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतसम्पदा के बहुश्रुतता, परिचितश्रुतता, विचित्रश्रुतता, घोषविशुद्धिकारकता-ये चार प्रकार हैं। शरीरसम्पदा के शरीर की लम्बाई व चौड़ाई का सम्यक अनुपात, अलज्जास्पद शरीर, स्थिर संगठन, प्रतिपूर्ण इन्द्रियता---ये चार भेद हैं। वचनसम्पदा के प्रादेयवचन- ग्रहण करने योग्य वाणी, मधुर वचन, अनिश्रित- प्रतिबन्धरहित, असंदिग्ध वचन-ये चार प्रकार हैं। वाचनासम्पदा के विचारपूर्वक वाच्यविषय का उद्देश्य निर्देश करना, विचारपूर्वक वाचन करना, उपयुक्त विषय का ही विवेचन करना, अर्थ का सुनिश्चित रूप से निरूपण करता-ये चार भेद हैं। मतिसम्पदा के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ये चार प्रकार हैं / अवग्रह मतिसम्पदा के क्षिप्रग्रहण, बहुग्रहण, बहुविधग्रहण, ध्र वग्रहण, अनिश्रितग्रहण और असंदिग्धग्रहणये छह भेद हैं। इसी प्रकार ईहा और अवाय के भी छह-छह प्रकार हैं / धारणा मतिसम्पदा के बहुधारण, बहुबिधधारण, पुरातनधारण, दुर्द्धरधारण, अनिधितधारण और असंदिग्धधारण-....ये छह प्रकार हैं। प्रयोगमतिसम्पदा के स्वयं की शक्ति के अनुसार वाद-विवाद करना, परिषद को देखकर वाद-विवाद करना, क्षेत्र को देखकर वाद-विवाद करना, काल को देखकर वाद-विवाद करना—ये चार प्रकार हैं। संग्रहपरिज्ञासम्पदा के वर्षाकाल में सभी मुनियों के निवास के लिए योग्यस्थान की परीक्षा करना, सभी श्रमणों के लिए प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक की व्यवस्था करना, नियमित समय पर प्रत्येक कार्य करना, अपने से ज्येष्ठ श्रमणों का सत्कार-सम्मान करना-ये भेद हैं। गणिसम्पदाओं के वर्णन के पश्चात् तत्सम्बन्धी चतुर्विध विनय-प्रतिपत्ति पर चिंतन करते हुए आचारविनय, श्रुतविनय, विक्षेपणाविनय और दोषनिर्घातविनय बताये हैं। यह चतुविध विनयप्रतिपत्ति है जो गुरुसम्बन्धी विनयप्रतिपत्ति कहलाती है। इसी प्रकार शिष्य सम्बन्धी विनय प्रतिपत्ति भी उपकरणोत्पादनता, सहायता, वर्णसंज्वलनता (गुणानुवादिता), भारप्रत्यवरोहणता है / इन प्रत्येक के पुनः चार-चार प्रकार हैं। इस प्रकार प्रस्तुत उद्देशक में कुल 32 प्रकार की विनय-प्रतिपत्ति का विश्लेषण है। पांचवें उद्देशक में दश प्रकार की चित्तसमाधि का वर्णन है। धर्मभावना, स्वप्नदर्शन, जातिस्मरणज्ञान, देवदर्शन, अवधिज्ञान, अवधिदर्शन, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलमरण (निर्वाण) इन दश स्थानों के वर्णन के साथ मोहनीयकर्म की विशिष्टता पर प्रकाश डाला है। छठे उद्देशक में ग्यारह प्रकार की उपासक प्रतिमानों का वर्णन है। प्रतिमाओं के वर्णन के पूर्व मिथ्यादृष्टि के स्वभाव का चित्रण करते हुए बताया है कि वह न्याय का या अन्याय का किचिनमात्र भी बिना ख्याल किये दंड प्रदान करता है। जैसे सम्पत्तिहरण, मुडन, तर्जन, ताड़न, अंदुकबन्धन (सांकल से बांधना), निगडबन्धन, काष्ठबन्धन, चारकबन्धन (कारागृह में डालना), निगडयुगल संकुटन (अंगों को मोड़कर बांधना), हस्त, पाद, कर्ण, नासिका, अष्ठ, शीर्ष, मुख, वेद आदि का छेदन करना, हृदय-उत्पाटन, नयनादि उत्पाटन, उल्लंबन (वृक्षादि पर लटकाना), घर्षण, घोलन, शूलायन (शूली पर लटकाना), शूलाभेदन, क्षारवर्तन (जख्मों आदि पर नमकादि छिड़कना), दर्भवर्तन (घासादि से पीड़ा पहुंचाना), सिंहपुछन, वृषभपुछन, दावाग्निदग्धन, भक्तपाननिरोध प्रभृति दंड देकर आनन्द का अनुभव करता है। किन्तु सम्यग्दृष्टि प्रास्तिक होता है व उपासक बन एकादश प्रतिमाओं की साधना करता है। इन ग्यारह उपासक प्रतिमाओं का वर्णन उपासकदशांग में भी आ चुका है। [ 45 ] Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमाधारक श्रावक प्रतिमा की पूर्ति के पश्चात् संयम ग्रहण कर लेता है ऐसा कुछ प्राचार्यों का अभिमत है। कार्तिक सेठ ने 100 बार प्रतिमा ग्रहण की थी ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है। सातवें उद्देशक में श्रमण की प्रतिमाओं का वर्णन है। ये भिक्षुप्रतिमाएं 12 हैं। प्रथम प्रतिमाधारी भिक्ष को एक दत्ति अन्न की और एक दत्ति पानी की लेना कल्पता है। श्रमण के पात्र में दाता द्वारा दिये जाने वाले अन्न और जल की धारा जब तक अखण्ड बनी रहती है, उसे दत्ति कहते हैं। जहाँ एक व्यक्ति के लिए भोजन बना हो वहाँ से लेना कल्पता है। जहां दो, तीन या अधिक व्यक्तियों के लिए बना हो वहाँ से नहीं ले सकता। इसका समय एक मास का है। दूसरी प्रतिमा भी एक मास की है। उसमें दो दत्ति प्राहार की और दो दत्ति पानी की ली जाती हैं / इसी प्रकार तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठी और सातवी प्रतिमानों में क्रमशः तीन, चार, पांच, छह और सात दत्ति अन्न की और उतनी ही दत्ति पानी की ग्रहण की जाती हैं। प्रत्येक प्रतिमा का समय एक-एक मास है। केवल दत्तियों की वृद्धि के कारण ही त्रिमासिक से सातमासिक क्रमश: कहलाती हैं। आठवी प्रतिमा सात दिन-रात की होती है। इसमें एकान्तर चौविहार उपवास करना होता है। गांव के बाहर आकाश की ओर मुह करके सीधा देखना, एक करवट से लेटना और विषद्यासन (पैरों को बराबर करके) बैठना, उपसर्ग आने पर शान्तचित्त से सहन करना होता है। नौवी प्रतिमा भी सात रात्रि की होती है। इसमें चौविहार बेले-बेले पारणा किया जाता है। गांव के बाहर एकान्त स्थान में दण्डासन, लगुडासन या उत्कटकासन करके ध्यान किया जाता है। . दसबी प्रतिमा भी सात रात्रि की होती है। इसमें चौविहार तेले-तेले पारणा किया जाता है। गांव के बाहर गोदोहासन, वीरासन और आम्रकुब्जासन से ध्यान किया जाता है। ग्यारहवीं प्रतिमा एक अहोरात्रि की होती है। पाठ प्रहर तक इसकी साधना की जाती है। चौबिहार बेला इसमें किया जाता है / नगर के बाहर दोनों हाथों को घुटनों की ओर लम्बा करके दण्ड की तरह खड़े रहकर कायोत्सर्ग किया जाता है। बारहवीं प्रतिमा केवल एक रात्रि की है। इसका अाराधन तेले से किया जाता है। गांव के बाहर श्मशान में खड़े होकर मस्तक को थोड़ा झुकाकर किसी एक पुदगल पर दृष्टि रखकर निनिमेष नेत्रों से निश्चितता पूर्वक कायोत्सर्ग किया जाता है। उपसर्ग आने पर समभाव से सहन किया जाता है। इन प्रतिमाओं में स्थित श्रमण के लिए अनेक विधान भी किये हैं। जैसे---कोई व्यक्ति प्रतिमाधारी निर्ग्रन्थ है तो उसे भिक्षाकाल को तीन विभाग में विभाजित करके भिक्षा लेनी चाहिये—आदि, मध्य और चरम / आदि भाग में भिक्षा के लिए जाने पर मध्य और चरम भाग में नहीं जाना चाहिये / मासिकी प्रतिमा में स्थित श्रमण जहाँ कोई जानता हो वहाँ एक रात रह सकता है। जहां उसे कोई भी नहीं जानता वहाँ वह दो रात रह सकता है। इससे अधिक रहने पर उतने ही दिन का छेद अथवा तप प्रायश्चित्त लगता है। इसी प्रकार और भी कठोर अनुशासन का विधान लगाया जा सकता है। जैसे कोई उपाश्रय में आग लगा दे तो भी उसे नहीं जाना चाहिए। यदि कोई पकड़कर उसे बाहर खींचने का प्रयत्न करे तो उसे हठ न करते हुए सावधानीपूर्वक बाहर निकल जाना चाहिए / इसी तरह सामने यदि मदोन्मत्त हाथी, घोड़ा, बैल, कुत्ता, व्याघ्र प्रादि आ जाएं तो भी उसे उनसे डरकर एक कदम भी पीछे नहीं हटना चाहिये। शीतलता तथा उष्णता के परीषह को धैर्यपूर्वक सहन करना चाहिये। आठवें उद्देशक (दशा) में पर्युषणा कल्प का वर्णन है / पर्युषण शब्द “परि" उपसर्ग पूर्वक वस् धातु से [46 ] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अनः" प्रत्यय लगकर बना है। इसका अर्थ है, प्रात्ममज्जन, आत्मरमण या आत्मस्थ होना / पर्युषणकल्प का दूसरा अर्थ है एक स्थान पर निवास करना। वह सालंबन या निरावलंबन रूप दो प्रकार का है। सालंबन का अर्थ है सकारण और निरावलंबन का अर्थ है कारणरहित / निरावलंबन के जघन्य और उत्कृष्ट दो भेद हैं। पर्युषणा के पर्यायवाची शब्द इस प्रकार हैं-(१) परियाय वत्थवणा, (2) पज्जोसमणा, (3) पागइया, (4) परिवसना, (5) पज्जुसणा, (6) वासावास, (7) पढमसमोसरण, (8) ठवणा और (9) जेट्टोग्गह। ये सभी नाम एकार्थक हैं, तथापि व्युत्पत्ति-भेद के आधार पर किंचित् अर्थभेद भी है और यह अर्थभेद पर्युषणा से सम्बन्धित विविध परम्पराओं एवं उस नियत काल में की जाने वाली क्रियाओं का महत्त्वपूर्ण निदर्शन कराता है / इन अर्थों से कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी व्यक्त होते हैं / पर्युषणा काल के आधार से कालगणना करके दीक्षापर्याय की ज्येष्ठता व कनिष्ठता गिनी जाती है। पर्युषणाकाल एक प्रकार का वर्षमान गिना जाता है। अत: पर्युषणा को दीक्षापर्याय की अवस्था का कारण माना है / वर्षावास में भिन्न-भिन्न प्रकार के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव सम्बन्धी कुछ विशेष क्रियाओं का आचरण किया जाता है अत: पर्युषणा का दूसरा नाम पज्जोसमणा है। तीसरा, गृहस्थ आदि के लिए समानभावेन आराधनीय होने से यह “पागइया" यानि प्राकृतिक कहलाता है। इस नियत अवधि में साधक आत्मा के अधिक निकट रहने का प्रयत्न करता है अतः वह परिवसना भी कहा जाता है। पर्युषणा का अर्थ सेवा भी है। इस काल में साधक आत्मा के ज्ञानदर्शनादि गुणों की सेवा उपासना करता है अतः उसे पज्जुसणा कहते हैं। इस कल्प में श्रमण एक स्थान पर चार मास तक निवास करता है अतएव इसे वासावास--वर्षावास कहा गया है। कोई विशेष कारण न हो तो प्रावृट् (वर्षा) काल में ही चातुर्मास करने योग्य क्षेत्र में प्रवेश किया जाता है अतः इसे प्रथमसमवसरण कहते हैं / ऋतुबद्धकाल की अपेक्षा से इसकी मर्यादाएं भिन्न-भिन्न होती हैं। अतएव यह ठवणा (स्थापना) है / ऋतुबद्धकाल में एक-एक मास का क्षेत्रावग्रह होता है किन्तु वर्षाकाल में चार मास का होता है अतएव इसे जेट्ठोग्गह (ज्येष्ठावग्रह) कहा है। अगर साधु आषाढ़ी पूर्णिमा तक नियत स्थान पर आ पहुंचा हो और वर्षावास की घोषणा कर दी हो तो श्रावण कृष्णा पंचमी से ही वर्षावास प्रारम्भ हो जाता है। उपर्युक्त क्षेत्र न मिलने पर श्रावण कृष्णा दशमी को, फिर भी योग्य क्षेत्र की प्राप्ति न हो तो श्रावण कृष्णा पंचदशमी- अमावस्या को वर्षावास प्रारम्भ करना चाहिए / इतने पर भी योग्य क्षेत्र न मिले तो पांच-पांच दिन बढ़ाते हुए अन्ततः भाद्रपद शुक्ला पंचमी तक तो वर्षावास प्रारम्भ कर देना अनिवार्य माना गया है। इस समय तक भी उपयुक्त क्षेत्र प्राप्त न हो तो वृक्ष के नीचे ही पयूषणाकल्प करना चाहिए / पर इस तिथि का किसी भी परिस्थिति में उल्लंघन नहीं करना चाहिए। वर्तमान में जो पर्युषणा कल्पसूत्र है, वह दशाश्रुतस्कन्ध का ही आठवां अध्ययन है। दशाश्रुतस्कन्ध की प्राचीनतम प्रतियां, जो चौदहवीं शताब्दी से पूर्व की हैं, उनमें आठवें अध्ययन में पूर्ण कल्पसूत्र आया है। जो यह स्पष्ट प्रमाणित करता है कि कल्पसूत्र स्वतन्त्र रचना नहीं किन्तु दशाश्रुतस्कन्ध का ही आठवां अध्ययन है / [47 ] Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरी बात दशाश्रुतस्कन्ध पर जो द्वितीय भद्रबाह की नियुक्ति है, जिनका समय विक्रम की छठी शताब्दी है, उसमें और उस नियुक्ति के आधार से निर्मित प्रचलित है, उसके पदों की व्याख्या मिलती है। मुनि श्री पुण्यविजयजी का अभिमत है कि दशाश्रुतस्कन्ध की चूणि लगभग सोलह सौ वर्ष पुरानी है। कल्पसूत्र के पहले सूत्र में "तेणं कालेणं तेणं समएणं समणो भगवं महावीरे.............."और अंतिम सूत्र में .............."भुज्जो भुज्जो उवदंसेइ" पाठ है। वही पाठ दशाश्रुतस्कन्ध के आठवें उद्देशक [दशा] में है। यहां पर शेष पाठ को “जाव" शब्द के अन्तर्गत संक्षेप कर दिया है। वर्तमान में जो पाठ उपलब्ध है उसमें केवल पंचकल्याणक का ही निरूपण है, जिसका पर्युषणाकल्प के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। अतः स्पष्ट है कि पर्युषणाकल्प इस अध्ययन में पूर्ण कल्पसूत्र था। कल्पसूत्र और दशाश्रुतस्कन्ध इन दोनों के रचयिता भद्रबाह हैं। इसलिए दोनों एक ही रचनाकार की रचना होने से यह कहा जा सकता है कि कल्पसूत्र दशाश्रुतस्कन्ध का पाठवा अध्ययन ही है / वृत्ति, चूणि, पृथ्वीचंदटिप्पण और अन्य कल्पसूत्र को टीकाओं से यह स्पष्ट प्रमाणित है। नौवें उद्देशक में 30 महामोहनीय स्थानों का वर्णन है। आत्मा को प्रावत करने वाले पुदगल कर्म कहलाते हैं। मोहनीयकर्म उन सब में प्रमुख है। मोहनीयकर्मबंध के कारणों की कोई मर्यादा नहीं है, तथापि शास्त्रकार ने मोहनीय कर्मबंध के हेतुभूत कारणों के तीस भेदों का उल्लेख किया है। उनमें दुरध्यवसाय की तीव्रता और क्रूरता इतनी मात्रा में होती है कि कभी कभी महामोहनीयकर्म का बन्ध हो जाता है जिससे आत्मा 70 कोटा-कोटि सागरोपम तक संसार में परिभ्रमण करता है। आचार्य हरिभद्र तथा जिनदासगणी महत्तर केवल मोहनीय शब्द का प्रयोग करते है। उत्तराध्ययन, समवायांग और दशाश्रुतस्कन्ध में भी मोहनीथस्थान कहा है।' किन्तु भेदों के उल्लेख में "महामोहं पकुव्वइ" शब्द का प्रयोग हुआ है। वे स्थान जैसे कि त्रस जीवों को पानी में डबाकर मारना, उनको श्वास आदि रोक कर मारना, मस्तक पर गीला चमड़ा आदि वाँधकर मारना, गुप्तरीति से अनाचार का सेवन करना, मिथ्या कलंक लगाना, बालब्रह्मचारी न होते हुए भी बालब्रह्मचारी कहलाना, केवलज्ञानी की निन्दा करना, बहुश्रुत न होते हुए भी बहुश्रुत कहलाना, जादू-टोना आदि करना, कामोत्पादक विकथाओं का बार-बार प्रयोग करना आदि हैं। दशवें उद्देशक दिशा का नाम "आयतिस्थान" है। इसमें विभिन्न निदानों का वर्णन है। निदान का अर्थ है-मोह के प्रभाव से कामादि इच्छाओं की उत्पत्ति के कारण होने वाला इच्छापूर्तिमूलक संकल्प / जब मानव के अन्तर्मानस में मोह के प्रबल प्रभाव से वासनाएं उदभूत होती हैं तब वह उनकी पूर्ति के लिए दृढ़ संकल्प करता है। यह संकल्पविशेष ही निदान है। निदान के कारण मानव की इच्छाएं भविष्य में भी निरन्तर बनी रहती हैं जिससे वह जन्म-मरण की परम्परा से मुक्त नहीं हो पाता। भविष्यकालीन जन्म-मरण की दृष्टि से प्रस्तुत उद्देशक का नाम प्रायतिस्थान रखा गया है। प्रायति का अर्थ जन्म या जाति है। निदान का कारण होने से आयतिस्थान माना गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो आयति में से "ति" पृथक कर लेने पर 'पाय" अवशिष्ट रहता है। प्राय का अर्थ लाभ है। जिस निदान से जन्म-मरण का लाभ होता है उसका नाम आयति है। इस दशा में वर्णन है कि भगवान् महावीर राजगह पधारे। राजा श्रेणिक व महारानी चेलना भगवान के वन्दन हेतु पहुंचे। राजा श्रेणिक के दिव्य व भव्य रूप और महान् समृद्धि को निहार कर श्रमण सोचने लगेश्रेणिक तो साक्षात् देवतुल्य प्रतीत हो रहा है। यदि हमारे तप, नियम और संयम आदि का फल हो तो हम भी 1. तीसं मोह-ठणाई-अभिक्खणं-अभिक्खणं आयारेमाणे वा समायारेमाणे वा मोहणिज्जताए कम्मं पकरेई / --दशाश्रुतस्कन्ध, पृ. ३२१-उपा. आत्मारामजी महाराज [48 ] Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस जैसे बनें। महारानी चेलना के सुन्दर सलौने रूप व ऐश्वर्य को देखकर श्रमणियों के अन्तर्मानस में यह संकल्प हुआ कि हमारी साधना का फल हो तो हम आगामी जन्म में चलना जैसी बनें / अन्तर्यामी महावीर ने उनके संकल्प को जान लिया और श्रमण-श्रमणियों से पूछा कि क्या तुम्हारे मन में इस प्रकार का संकल्प हुआ है? उन्होंने स्वीकृति सूचक उत्तर दिया--"हां, भगवन् ! यह बात सत्य है।" भगवान् ने कहा-"निर्ग्रन्थ-प्रवचन सर्वोत्तम है, परिपूर्ण है, सम्पूर्ण कर्मों को क्षीण करने वाला है। जो श्रमण या श्रमणियां इस प्रकार धर्म से विमुख होकर ऐश्वर्य आदि को देखकर लुभा जाते हैं और निदान करते हैं वे यदि बिना प्रायश्चित्त किए आयु पूर्ण करते हैं तो देवलोक में उत्पन्न होते हैं और वहां से वे मानवलोक में पुनः जन्म लेते हैं। निदान के कारण उन्हें केवली धर्म की प्राप्ति नहीं होती। वे सदा सांसारिक विषयों में ही मुग्ध बने रहते हैं।" शास्त्रकार ने 9 प्रकार के निदानों का वर्णन कर यह बताया कि निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सब कर्मों से मुक्ति दिलाने वाला एकमात्र साधन है / अतः निदान नहीं करना चाहिए और किया हो तो आलोचना-प्रायश्चित्त करके मुक्त हो जाना चाहिए। उपसंहार इस प्रकार प्रस्तुत प्रागम में भगवान महावीर की जीवनी विस्तार से पाठवी दशा में मिलती है। चित्तसमाधि एवं धर्मचिन्ता का सुन्दर वर्णन है / उपासकप्रतिमाओं व भिक्षुप्रतिमाओं के भेद-प्रभेदों का भी वर्णन है। बृहत्कल्प बृहत्कल्प का छेदसूत्रों में गौरवपूर्ण स्थान है / अन्य छेदसूत्रों की तरह इस सूत्र में भी श्रमणों के आचारविषयक विधि-निषेध, उत्सर्ग-अपबाद, तप, प्रायश्चित्त आदि पर चिन्तन किया गया है। इसमें छह उद्देशक हैं, 81 अधिकार हैं, 473 श्लोकप्रमाण उपलब्ध मूलपाठ है / 206 सूत्रसंख्या है। प्रथम उद्देशक में 50 सूत्र हैं / पहले के पांच सूत्र तालप्रलंब विषयक है। निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के लिए ताल एवं प्रलंब ग्रहण करने का निषेध है। इसमें अखण्ड एवं अपक्व तालफल व तालमूल ग्रहण नहीं करना चाहिए किन्तु विदारित, पक्व ताल प्रलंब लेना कल्प्य है, ऐसा प्रतिपादित किया गया है, आदि-आदि / मासकल्प विषयक नियम में श्रमणों के ऋतुबद्धकाल–हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु के 8 महिनों में एक स्थान पर रहने के अधिकतम समय का विधान किया है। श्रमणों को सपरिक्षेप अर्थात् सप्राचीर एवं प्राचीर से बाहर निम्नोक्त 16 प्रकार के स्थानों में वर्षाऋतु के अतिरिक्त अन्य समय में एक साथ एक मास से अधिक ठहरना नहीं कल्पता। 1. ग्राम [जहां राज्य की अोर से 18 प्रकार के कर लिये जाते हों] 2. मगर [जहां 18 प्रकार के कर न लिए जाते हों 3. खेट [जिसके चारों ओर मिट्टी की दीवार हो] 4. कर्बट [जहां कम लोग रहते हों] 5. मडम्ब [जिसके बाद ढाई कोस तक कोई गाँव न हो] [ 49 ] Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. पत्तन [जहां सब वस्तुएं उपलब्ध हों] 7. आकर [जहां सब वस्तुएं उपलब्ध हों] 8. द्रोणमुख [जहाँ जल और स्थल को मिलाने वाला मार्ग हो, जहां समुद्री माल प्राकर उतरता हो] 9. निगम [जहां व्यापारियों की वसति हो] 10. राजधानी [जहां राजा के रहने के महल आदि हों] 11. प्राश्रम [जहां तपस्वी आदि रहते हों] 12. निवेश सन्निवेश [जहां सार्थवाह पाकर उतरते हों] 13. सम्बाध-संबाह [जहां कृषक रहते हों अथवा अन्य गांव के लोग अपने गांव से धन आदि की रक्षा के निमित्त पर्वत, गुफा आदि में आकर ठहरे हुए हों] 14. घोष [जहां गाय आदि चराने वाले गूजर लोग-ग्वाले रहते हों] 15. अंशिका [गांव का अर्ध, तृतीय अथवा चतुर्थ भाग] 16. पुटभेदन [जहां पर गांव के व्यापारी अपनी चीजें बेचने आते हों] नगर की प्राचीर के अन्दर और बाहर एक-एक मास तक रह सकते हैं। अन्दर रहते समय भिक्षा अन्दर से लेनी चाहिए और बाहर रहते समय बाहर से। श्रमणियां दो मास अन्दर और दो मास बाहर रह सकती हैं। जिस प्राचीर का एक ही द्वार हो वहां निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को एक साथ रहने का निषेध किया है, पर अनेक द्वार हों तो रह सकते हैं। जिस उपाश्रय के चारों ओर अनेक दुकानें हों, अनेक द्वार हों वहां साध्वियों को नहीं रहना चाहिए किन्तु साधु यतनापूर्वक रह सकता है / जो स्थान पूर्ण रूप से खुला हो, द्वार न हों वहां पर साध्वियों को रहना नहीं कल्पता। यदि अपवादरूप में उपाश्रय-स्थान न मिले तो परदा लगाकर रह सकती हैं। निर्ग्रन्थों के लिए खुले स्थान पर भी रहना कल्पता है। निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को कपड़े की मच्छरदानी [चिलिमिलिका रखने व उपयोग करने की अनुमति प्रदान की गई है। निर्ग्रन्थ व निर्ग्रन्थियों को जलाशय के सन्निकट खड़े रहना, बैठना, लेटना, सोना, खाना-पीना, स्वाध्याय आदि करना नहीं कल्पता / जहां पर विकारोत्पादक चित्र हों वहां पर श्रमण-श्रमणियों को रहना नहीं कल्पता। मकान मालिक की बिना अनुमति के रहना नहीं कल्पता। जिस मकान के मध्य में होकर रास्ता हो--- जहां गृहस्थ रहते हों, वहां श्रमण-श्रमणियों को नहीं रहना चाहिए / किसी श्रमण का आचार्य, उपाध्याय, श्रमण या श्रमणी से परस्पर कलह हो गया हो, परस्पर क्षमायाचना करनी चाहिए। जो शांत होता है वह आराधक है। श्रमणधर्म का सार उपशम है-"उवसमसारं सामण्णं"। वर्षावास में विहार का निषेध है किन्तु हेमन्त व ग्रीष्म ऋतु में विहार का विधान है। जो प्रतिकूल क्षेत्र हों वहाँ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को बार-बार विचरना निषिद्ध है। क्योंकि संयम की विराधना होने की सम्भावना है। इसलिए प्रायश्चित्त का विधान है। [ 50 ] Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गहस्थ के यहां भिक्षा के लिए या शौचादि के लिए श्रमण बाहर जाय उस समय यदि कोई गृहस्थ वस्त्र, पात्र, कम्बल आदि देना चाहे तो आचार्य की अनुमति प्राप्त होने पर उसे लेना रखना चाहिए। वैसे ही धमणी के लिए प्रवर्तिनी की आज्ञा आवश्यक है। श्रमण-श्रमणियों के लिए रात्रि के समय या असमय में आहारादि ग्रहण करने का निषेध किया गया है। इसी तरह वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण ग्रहण का निषेध है। अपवादरूप में यदि तस्कर श्रमण-श्रमणियों के वस्त्र चुराकर ले गया हो और वे पुनः प्राप्त हो गये हों तो रात्रि में ले सकते हैं। यदि वे वस्त्र तस्करों ने पहने हों, स्वच्छ किये हों, रंगे हों या धूपादि सुगन्धित पदार्थों से वासित किये हों तो भी ग्रहण कर सकते हैं। निर्ग्रन्थ व निर्ग्रन्थियों को रात्रि के समय या विकाल में विहार का निषेध किया गया है। यदि उच्चारभूमि आदि के लिए अपवाद रूप में जाना ही पड़े तो अकेला न जाय किन्तु साधुओं को साथ लेकर जाय / निर्ग्रन्थ व निर्ग्रन्थियों के विहार क्षेत्र की मर्यादा पर चिन्तन किया गया है / पूर्व में अंगदेश एवं मगधदेश तक, दक्षिण में कौसाम्बी तक, पश्चिम में स्थूणा तक व उत्तर में कुणाला तक-ये आर्यक्षेत्र हैं। प्रार्यक्षेत्र में विचरने से ज्ञान-दर्शन की वृद्धि होती है। यदि अनार्यक्षेत्र में जाने पर रत्नत्रय की हानि की सम्भावना न हो तो जा सकते हैं। द्वितीय उद्देशक में उपाश्रय विषयक 12 सूत्रों में बताया है कि जिस उपाश्रय में शाली, वीहि, मूग, उड़द आदि बिखरे पड़े हों वहां पर श्रमण-श्रमणियों को किंचित् समय भी न रहना चाहिए किन्तु एक स्थान पर ढेर रूप में पड़े हुए हों तो वहां हेमन्त व ग्रीष्म ऋतु में रहना कल्पता है। यदि कोष्ठागार आदि में सुरक्षित रखे हुए हों तो वर्षावास में भी रहना कल्पता है। जिस स्थान पर सुराविकट, सौवीरविकट आदि रखे हों वहाँ किंचित् समय भी साधु-साध्वियों को नहीं रहना चाहिए।' यदि कारणवशात् अन्वेषणा करने पर भी अन्य स्थान उपलब्ध न हो तो श्रमण दो रात्रि रह सकता है, अधिक नहीं। अधिक रहने पर छेद या परिहार का प्रायश्चित्त आता है / 2 / इसी तरह शीतोदकविकटकुभ, उष्णोदकविकटकुभ, ज्योति, दीपक अादि से युक्त उपाश्रय में नहीं रहना चाहिए। इसी तरह एक या अनेक मकान के अधिपति से आहारादि नहीं लेना चाहिए। यदि एक मुख्य हो तो उसके अतिरिक्त शेष के यहां से ले सकते हैं। यहां पर शय्यातर मुख्य है जिसकी प्राज्ञा ग्रहण की है। शय्यातर के विविध पहलुओं पर चिन्तन किया गया है। निम्रन्थ-निर्गन्थियों को जांगिक, भाँगिक, सानक, पोतक और तिरिटपट्टक ये पाँच प्रकार से वस्त्र लेना --क्षेमकीर्तिकृत वृति, पृष्ठ 10952 2. "छेदो वा" पंचरात्रिन्दिवादिः “परिहारो वा" मासलघुकादिस्तपोविशेषो भवतीति सूत्रार्थः / / -वही 3. जंगमाः त्रसाः तदवयवनिष्पन्नं जांगमिकम्, भगा अतसी तन्मयं भांगिकम्, सनसूत्रमयं सानकम्, पोतक कार्यासिकम् तिरीट: वृक्षविशेषस्तस्य यः पट्टो वल्कल क्षणस्तनिष्पन्न तिरीटपट्टकं ना पंचमम् / ~-उ०२, सू०२४ [ 51 ] Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पता है और औणिक, प्रौष्ट्रिक, सानक, वच्चकचिप्पक, मूजचिप्पक ये पांच प्रकार के' रजोहरण रखना कल्पता है। तृतीय उद्देशक में निर्ग्रन्थों को निर्ग्रन्थियों के उपाश्रय में बैठना, सोना, खाना, पीना, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग करना नहीं कल्पता / इसी प्रकार निर्ग्रन्थियों को निर्ग्रन्थों के उपाश्रय प्रादि में बैठना, खाना, पीना आदि नहीं कल्पता / प्रागे के चार सूत्रों में चर्म विषयक, उपभोग आदि के सम्बन्ध में कल्पाकल्प की चर्चा है। वस्त्र के सम्बन्ध में कहा है कि वे रंगीन न हों, किन्तु श्वेत होने चाहिए। कौनसी-कौनसी वस्तुएं धारण करना या न करना-इसका विधान किया गया है। दीक्षा लेते समय वस्त्रों की मर्यादा का भी वर्णन किया गया है। वर्षावास में वस्त्र लेने का निषेध है किन्तु हेमन्त व ग्रीष्म ऋतू में आवश्यकता होने पर वस्त्र लेने में बाधा नहीं है और वस्त्र के विभाजन का इस सम्बन्ध में भी चिन्तन किया है। निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को प्रातिहारिक वस्तुएं उसके मालिक को बिना दिये अन्यत्र विहार करना नहीं कल्पता। यदि किसी वस्तु को कोई चुरा ले तो उसकी अन्वेषणा करनी चाहिये और मिलने पर शय्यातर को दे देनी चाहिए / यदि आवश्यकता हो तो उसकी आज्ञा होने पर उपयोग कर सकता है / चतुर्थ उद्देशक में अब्रह्मसेवन तथा रात्रि-भोजन आदि व्रतों के सम्बन्ध में दोष लगने पर प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। पंडक, नपुसक एवं वातिक प्रव्रज्या के लिए अयोग्य है। यहां तक कि उनके साथ संभोग एक साथ भोजन-पानादि करना भी निषिद्ध है। अविनीत, रसलोलुपी व क्रोधी को शास्त्र पढ़ाना अनुचित है। दुष्ट, मूढ और दुविदग्ध ये तीन प्रव्रज्या और उपदेश के अनधिकारी हैं। निग्रंन्थी रुग्ण अवस्था में या अन्य किसी कारण से अपने पिता, भाई, पुत्र आदि का सहारा लेकर उठती या बैठती हो और साधु के सहारे की इच्छा करे तो चातुर्मासिक प्रायश्चित पाता है। इसी तरह निर्ग्रन्थ माता, श्री आदि का सहारा लेते हुए तथा साध्वी के सहारे की इच्छा करे तो उसे भी चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। इसमें चतुर्थ व्रत के खंडन की सम्भावना होने से प्रायश्चित्त का विधान किया है। निर्ग्रन्थ व निर्गन्थियों को कालातिक्रान्त, क्षेत्रातिक्रान्त प्रशनादि ग्रहण करना नहीं कल्पता। प्रथम पौरुषी का लाया हुआ आहार चतुर्थ पौरुषी तक रखना नहीं कल्पता। यदि भूल से रह जाय तो परठ देना चाहिए। उपयोग करने पर प्रायश्चित्त का विधान है। यदि भूल से अनेषणीय, स्निग्ध प्रशनादि भिक्षा में आ गया हो तो अनपस्थापित श्रमण- जिनमें महाव्रतों की स्थापना नहीं की है उन्हें दे देना चाहिए। यदि वह न हो तो निर्दोष स्थान पर परठ देना चाहिए। आचेलक्य प्रादि कल्प में स्थित श्रमणों के लिए निर्मित आहारादि अकल्पस्थित श्रमणों के लिए कल्पनीय है। जो आहारादि अकल्पस्थित श्रमणों के लिए निर्मित हो वह करूपस्थित श्रमणों के लिए अकल्प्य होता है। यहां पर कल्पस्थित का तात्पर्य है "पंचयामधर्मप्रतिपन्न" और अकल्पस्थित धर्म का अर्थ है "चातुर्यामधर्मप्रतिपन्न"। 1. "ौणिक" ऊरणिकानामूर्णाभिनिवृत्तम्, "पौष्ट्रिक" उष्ट्रोमभिनिवृत्तम्, “सानक" सनवृक्षवल्काद् जातम् "वाचकः" तृणविशेषस्तस्य "चिप्पकः'' कुट्टितः त्वगूपः तेन निष्पन्न वच्चकचिप्पकम् “मुजः" शरस्तम्बस्तस्य चिप्पकाद् जातं मुजचिप्पक नाम पंचममिति / -----उ० 2, सू० 25 [ 52 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी निग्रन्थ को ज्ञान आदि के कारण अन्य गण में उपसम्पदा लेनी हो तो आचार्य की अनुमति प्रावश्यक है। इसी प्रकार प्राचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक आदि को भी यदि अन्य गण में उपसम्पदा लेनी हो तो अपने समुदाय की योग्य व्यवस्था करके ही अन्य गण में सम्मिलित होना चाहिए। संध्या के समय या रात्रि में कोई श्रमण या श्रमणी कालधर्म को प्राप्त हो जाय तो दूसरे श्रमण-श्रमणियों को उस मृत शरीर को रात्रि भर सावधानी से रखना चाहिए। प्रातः गृहस्थ के घर से बांस आदि लाकर मृतक को उससे बांधकर दूर जंगल में निर्दोष भूमि पर प्रस्थापित कर देना चाहिए और पुन: बांस आदि गहस्थ को दे देना चाहिए। श्रमण ने किसी गहस्थ के साथ यदि कलह किया हो तो उसे शांत किये बिना भिक्षाचर्या करमा नहीं कल्पता। परिहारविशुद्धचारित्र ग्रहण करने की इच्छा वाले श्रमण को विधि समझाने हेतु पारणे के दिन स्वयं चार्य, उपाध्याय उसके पास जाकर आहार दिलाते हैं और स्वस्थान पर आकर परिहारविशुद्धचारित्र का पालन करने की विधि बतलाते हैं। श्रमण-श्रमणियों को गंगा, यमुना, सरयू, कोशिका, मही इन पांच महानदियों में से महीने में एक से अधिक बार एक नदी पार नहीं करनी चाहिए। ऐरावती आदि छिछली नदियां महीने में दो-तीन बार पार की जा सकती हैं। श्रमण-श्रमणियों को घास की ऐसी निर्दोष झोपड़ी में, जहां पर अच्छी तरह से खड़ा नहीं रहा जा सके, हेमन्त व ग्रीष्म ऋतु में रहना बय॑ है। यदि निर्दोष तृणादि से बनी हुई दो हाथ से कम ऊंची झोपड़ी है तो वर्षाऋतु में वहां नहीं रह सकते / यदि दो हाथ से अधिक ऊंची है तो वहां वर्षाऋतु में रह सकते हैं। पंचम उद्देशक में बताया है कि यदि कोई देव स्त्री का रूप बनाकर साधु का हाथ पकड़े और वह साधु उसके कोमल स्पर्श को सुखरूप माने तो उसे मैथुन प्रतिसेवन दोष लगता है और उसे चातुर्मासिक गुरु-प्रायश्चित्त आता है। इसी प्रकार साध्वी को भी उसके विपरीत पुरुष स्पर्श का अनुभव होता है और उसे सुखरूप माने तो चातुर्मासिक गुरु-प्रायश्चित्त आता है। कोई श्रमण बिना क्लेश को शांत किए अन्य गण में जाकर मिल जाय और उस गण के प्राचार्य को ज्ञात हो जाय कि यह श्रमण बहां से कलह करके आया है तो उसे पांच रातदिन का छेद देना चाहिए और उसे शान्त कर अपने गण में पुनः भेज देना चाहिए। सशक्त या अशक्त श्रमण सूर्योदय हो चुका है या अभी अस्त नहीं हुया है ऐसा समझकर यदि आहारादि करता है और फिर यदि उसे यह ज्ञात हो जाय कि अभी तो सूर्योदय हुआ ही नहीं है या अस्त हो गया है तो उसे आहारादि तत्क्षण त्याग देना चाहिए। उसे रात्रिभोजन का दोष नहीं लगता। सूर्योदय और सूर्यास्त के प्रति शंकाशील होकर आहारादि करने वाले को रात्रिभोजन का दोष लगता है। श्रमण-श्रमणियों को रात्रि में डकारादि के द्वारा मुह में अन्न आदि आ जाय तो उसे बाहर थूक देना चाहिए / यदि पाहारादि में द्वीन्द्रियादि जीव गिर जाय तो यतनापूर्वक निकाल कर आहारादि करना चाहिए। यदि निकलने की स्थिति में न हो तो एकान्त निर्दोष स्थान में परिस्थापन कर दे। अाहारादि लेते समय सचित्त पानी की बूदें आहारादि में गिर जाएं और वह आहार गरम हो तो उसे खाने में किचित मात्र भी दोष नहीं है। [53 ] Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्योंकि उसमें पड़ी हुई बूंदें अचित्त हो जाती हैं / यदि आहार शीतल है तो न स्वयं खाना चाहिए और न दूसरों को खिलाना चाहिए अपितु एकान्त स्थान पर परिस्थापन कर देना चाहिए। निर्ग्रन्थी को एकाकी रहना, नग्न रहना, पावरहित रहना, ग्रामादि के बाहर आतापना लेना, उत्कटुकासन, वीरासन, दण्डासन, लगुडशायी आदि आसन पर बैठकर कायोत्सर्ग करना वयं है। - निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को परस्पर मोक (पेशाब या थूक) का आचमन करना अकल्प्य है किन्तु रोगादि कारणों से ग्रहण किया जा सकता है / परिहारकरूप में स्थिति भिक्ष को स्थविर आदि के आदेश से अन्यत्र जाना पड़े तो शीघ्र जाना चाहिए और कार्य करके पुनः लौट आना चाहिए। यदि चारित्र में किसी प्रकार का दोष लगे तो प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध कर लेना चाहिए। छठे उद्देशक में यह बताया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को अलीक (झूठ) वचन, हीलितवचन, खिसितवचन, परुषवचन, गार्हस्थिकवचन, व्यवशमितोदीरणवचन (शांत हुए कलह को उभारनेवाला वचन), ये छह प्रकार के वचन नहीं बोलना चाहिए। प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, अविरति-अब्रह्म, नपुसक, दास आदि का आरोप लगाने वाले को प्रायश्चित्त पाता है। निर्गन्थ के पैर में कांटा लग गया हो और वह निकालने में असमर्थ हो तो उसे अपवादरूप में निर्ग्रन्थी निकाल सकती है। इसी प्रकार नदी आदि में डूबने, गिरने, फिसलने आदि का प्रसंग आये तो साधु साध्वी का हाथ पकड़कर बचाये / इसी प्रकार विक्षिप्तचित्त निर्ग्रन्थी को अपने हाथ से पकड़कर उसके स्थान पर पहुंचा दे, वैसे ही भी साध्वी हाथ पकड़कर पहुंचा सकती है। यह स्मरण रखना चाहिए कि ये आपवादिक सूत्र हैं। इसमें विकारभावना नहीं किन्तु परस्पर के संयम की सुरक्षा की भावना है। साधु की मर्यादा का नाम कल्पस्थिति है / यह छह प्रकार की है—सामायिक-संयतकल्पस्थिति, छेदोपस्थापनीय संयतकल्पस्थिति, निर्विशमानकल्पस्थिति, निविष्टकायिककल्पस्थिति, जिनकल्पस्थिति और स्थविरकल्पस्थिति। ___इस प्रकार बृहत्कल्प में श्रमण-श्रमणियों के जीवन और व्यवहार से सम्बन्धित अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों पर प्रकाश डाला है। यही इस शास्त्र की विशेषता है। व्यवहारसूत्र बृहत्कल्प और व्यवहार ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं / व्यवहार भी छेदसूत्र है जो चरणानुयोगमय है। इसमें दश उद्देशक हैं / 373 अनुष्टुप श्लोक प्रमाण उपलब्ध मूल पाठ है / 267 सूत्र संख्या है। प्रथम उद्देशक में मासिक प्रायश्चित्त के योग्य दोष का सेवन कर उस दोष की प्राचार्य आदि के पास कपटरहित आलोचना करने वाले श्रमण को एकमासिक प्रायश्चित्त पाता है जबकि कपटसहित करने पर द्विमासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। द्विमासिक प्रायश्चित्त के योग्य दोष की साधक निष्कपट आलोचना करता है तो उसे द्विमासिक प्रायश्चित्त पाता है और कपटसहित करने से तीन मास का / इस प्रकार तीन, चार, पांच और छह मास के [ 54 ] Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त का विधान है। अधिक से अधिक छह मास के प्रायश्चित्त का विधान है। जिसने अनेक दोषों का सेवन किया हो उसे क्रमशः पालोचना करनी चाहिए और फिर सभी का साथ में प्रायश्चित्त लेना चाहिए। प्रायश्चित्त करते हुए भी यदि पुनः दोष लग जाय तो उसका पुनःप्रायश्चित्त करना चाहिए। प्रायश्चित्त का सेवन करने वाले श्रमण को स्थविर आदि की अनुज्ञा लेकर ही अन्य साधुओं के साथ उठनाबैठना चाहिए। आज्ञा की अवहेलना कर किसी के साथ यदि वह बैठता है तो उतने दिन की उसकी दीक्षापर्याय कम होती है जिसे आगमिक भाषा में छेद कहा गया है। परिहारकल्प का परित्याग कर स्थविर आदि की सेवा के लिए दूसरे स्थान पर जा सकता है / कोई श्रमण गण का परित्याग कर एकाकी विचरण करता है और यदि वह अपने को शुद्ध प्राचार के पालन करने में असमर्थ अनुभव करता है तो उसे आलोचना कर छेद या नवीन दीक्षा ग्रहण करवानी चाहिए / जो नियम सामान्य रूप से एकलविहारी श्रमण के लिए है वही नियम एकलविहारी गणावच्छेदक, आचार्य व शिथिलाचारी श्रमण के लिए है। आलोचना प्राचार्य, उपाध्याय के समक्ष कर प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध होना चाहिए। यदि वे अनुपस्थित हों तो अपने संभोगी, सार्मिक, बहुश्रुत आदि के समक्ष आलोचना करनी चाहिए। यदि वे पास में न हों तो अन्य समुदाय के संभोगी, बहुश्रुत आदि श्रमण जहाँ हों वहाँ जाकर आलोचना कर प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिए। यदि वह भी न हों तो सारूपिक (सदोषी) किन्तु बहुश्रुत साधु हों तो वहाँ जाकर प्रायश्चित्त लेना चाहिए। यदि वह भी न हों तो बहुश्रुत श्रमणोपासक के पास और उसका भी अभाव हो तो सम्यग्दष्टि गहस्थ के पास जाकर प्रायश्चित्त करना चाहिए / इन सबके अभाव में गाँव या नगर के बाहर जाकर पूर्व या उत्तर दिशा के सम्मुख खड़े होकर दोनों हाथ जोड़कर अपने अपराध की पालोचना करे / द्वितीय उद्देशक में कहा है कि एक समान समाचारी वाले दो सार्मिक साथ में हों और उनमें से किसी एक ने दोष का सेवन किया हो तो दूसरे के सन्मुख प्रायश्चित्त लेना चाहिए। प्रायश्चित्त करने वाले की सेवा आदि का भार दूसरे श्रमण पर रहता है। यदि दोनों ने दोषस्थान का सेवन किया हो तो परस्पर आलोचना कर प्रायश्चित्त लेकर सेवा करनी चाहिए। अनेक श्रमणों में से किसी एक श्रमण ने अपराध किया हो तो एक को ही प्रायश्चित्त दे / यदि सभी ने अपराध किया है तो एक के अतिरिक्त शेष सभी प्रायश्चित्त लेकर शुद्धिकरण करें और उनका प्रायश्चित्त पूर्ण होने पर उसे भी प्रायश्चित्त देकर शुद्ध करें। परिहारकल्पस्थित श्रमण कदाचित् रुग्ण हो जाय तो उसे गच्छ से बाहर निकालना नहीं कल्पता / जब तक वह स्वस्थ न हो जाय तब तक बयावृत्य करवाना गणावच्छेदक का कर्तव्य है और स्वस्थ होने पर उसने सदोषावस्था में सेवा करवाई अतः उसे प्रायश्चित्त लेना चाहिए। इसी तरह अनवस्थाप्य एवं पारांचिक प्रायश्चित्त करने वाले को भी रुग्णावस्था में गच्छ से बाहर नहीं करना चाहिए। विक्षिप्तचित्त को भी गच्छ से बाहर निकालना नहीं कल्पता और जब तक उसका चित्त स्थिर न हो जाय तब तक उसकी पूर्ण सेवा करनी चाहिए तथा स्वस्थ होने पर नाममात्र का प्रायश्चित्त देना चाहिए। इसी प्रकार दीप्तचित्त (जिसका चित्त अभिमान से उददीप्त हो गया है), उन्मादप्राप्त, उपसर्गप्राप्त, साधिकरण, सप्रायश्चित्त ग्रादि को गच्छ से बाहर निकालना नहीं कल्पता। नौवां अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त करने वाले साधु को मृहस्थलिंग धारण कराये बिना संयम में पुनः स्थापित [ 55 ] Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसका अपराध इतना महान होता है कि बिना वैसा किये उसका पूरा प्रायश्चित्त नहीं हो पाता और न अन्य श्रमणों के अन्तर्मानस में उस प्रकार के अपराध के प्रति भय ही उत्पन्न होता है। इसी प्रकार दसवें पारंचिक प्रायश्चित्त वाले श्रमण को भी गहस्थ का वेष पहनाने के पश्चात पुन: संयम में स्थापित करना चाहिए / यह अधिकार प्रायश्चित्तदाता के हाथ में है कि उसे गहस्थ का वेष न पहनाकर अन्य प्रकार का वेष भी पहना सकता है। पारिहारिक और अपारिहारिक श्रमण एक साथ आहार करें, यह उचित नहीं है / पारिहारिक श्रमणों के साथ बिना तप पूर्ण हुए अपारिहारिक श्रमणों को आहारादि नहीं करना चाहिए, क्योंकि जो तपस्वी हैं उनका तप पूर्ण होने के पश्चात् एक मास के तप पर पांच दिन और छह महीने के तप पर एक महीना व्यतीत हो जाने के पूर्व उनके साथ कोई आहार नहीं कर सकता, क्योंकि उन दिनों में उनके लिए विशेष प्रकार के पाहार की आवश्यकता होती है जो दूसरों के लिए आवश्यक नहीं / तृतीय उद्देशक में बताया है कि किसी श्रमण के मानस में अपना स्वतंत्र गच्छ बनाकर परिभ्रमण करने की इच्छा हो पर वह आचारांग आदि का परिज्ञाता नहीं हो तो शिष्य आदि परिवारसहित होने पर भी पृथक् गण बनाकर स्वच्छन्दी होना योग्य नहीं। यदि वह आचारांग आदि का ज्ञाता है तो स्थविर से अनुमति लेकर विचर थविर की बिना अनुमति के विचरने बाले को जितने दिन इस प्रकार विचरा हो उतने ही दिन का छेद या पारिहारिक प्रायश्चित्त का भागी होना पड़ता है। उपाध्याय वही बन सकता है जो कम से कम तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाला है, निर्ग्रन्थ के प्राचार में निष्णात हैं, संयम में प्रवीण है, आचारांग प्रादि प्रवचनशास्त्रों में पारंगत है, प्रायश्चित्त देने में पूर्ण समर्थ है, संघ के लिए क्षेत्र आदि का निर्णय करने में दक्ष है, चारित्रवान है, बहुश्रुत है आदि / प्राचार्य वह बन सकता है जो श्रमण के प्राचार में कुशल, प्रवचन में पटु, दशाश्रुतस्कन्ध-कल्प-बृहत्कल्पव्यवहार का ज्ञाता है और कम से कम पांच वर्ष का दीक्षित है / आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तिनी, स्थविर, गणी, गणावच्छेदक पद उसे दिया जा सकता है जो श्रमण के प्राचार में कुशल, प्रवचनदक्ष, असंक्लिष्टमना व स्थानांग-समवायांग का ज्ञाता है। अपवाद में एक दिन की दीक्षापर्याय वाले साधु को भी प्राचार्य, उपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है। उस प्रकार का साधु प्रतीतिकारी, धैर्यशील, विश्वसनीय, समभावी, प्रमोद कारी, अनुमत, बहुमत व उच्च कुलोत्पन्न एवं गुणसंपन्न होना आवश्यक है। आचार्य अथवा उपाध्याय की आज्ञा से ही संयम का पालन करना चाहिए / अब्रह्म का सेवन करने वाला प्राचार्य आदि पदवी के अयोग्य है / यदि गच्छ का परित्याग कर उसने वैसा कार्य किया है तो पुनः दीक्षा धारण कर तीन वर्ष बीतने पर यदि उसका मन स्थिर हो, विकार शांत हो, कषाय आदि का अभाव हो तो प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है। चतुर्थ उद्देशक में कहा है कि प्राचार्य अथवा उपाध्याय के साथ हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में कम से कम एक अन्य साधु होना चाहिए और गणावच्छेदक के साथ दो / बर्षाऋतु में प्राचार्य और उपाध्याय के साथ दो व गणावच्छेदक के साथ तीन साधुओं का होना आवश्यक है। [ 56 ] Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य की महत्ता पर प्रकाश डालकर यह बताया गया है कि उनके अभाव में किस प्रकार रहना चाहिए ? आचार्य, उपाध्याय यदि अधिक रुग्ण हों और जीवन की आशा कम हो तो अन्य सभी श्रमणों को बुलाकर प्राचार्य कहे कि मेरी आयु पूर्ण होने पर अमुक साधु को अमुक पदवी प्रदान करना / उनकी मृत्यु के पश्चात् यदि वह साधु योग्य प्रतीत न हो तो अन्य को भी प्रतिष्ठित किया जा सकता है और योग्य हो तो उसे ही प्रतिष्ठित करना चाहिए। अन्य योग्य श्रमण आचारांग आदि पढ़कर दक्ष न हो जाय तब तक आचार्य आदि की सम्मति से अस्थायी रूप से साधु को किसी भी पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है और योग्य पदाधिकारी प्राप्त होने पर पूर्वव्यक्ति को अपने पद से पृथक हो जाना चाहिए। यदि वह वैसा नहीं करता है तो प्रायश्चित्त का भागी होता है। दो श्रमण साथ में विचरण करते हों तो उन्हें योग्यतानुसार छोटा और बड़ा होकर रहना चाहिए और एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए / इसी प्रकार आचार्य, उपाध्याय को भी। पांचवें उद्देशक में प्रवर्तिनी को कम से कम दो अन्य साध्वियों के साथ शीतोष्णकाल में ग्रामानुग्राम विचरण करना चाहिए और गणावच्छेदिका के साथ तीन अन्य साध्वियां होनी चाहिए / वर्षा ऋतु में प्रवर्तिनी के साथ तीन और गणावच्छेदिका के साथ चार साध्वियां होनी चाहिए। प्रवर्तिनी प्रादि की मृत्यू और पदाधिकारी की नियुक्ति के सम्बन्ध में जैसा श्रमणों के लिए कहा गया है वैसा ही श्रमणियों के लिए भी समझना चाहिए। वैयावृत्य के लिए सामान्य विधान यह है कि श्रमण, श्रमणी से और श्रमणी, श्रमण से बयावृत्य न करावे किन्तु अपवादरूप में परस्पर सेवा-शुश्रूषा कर सकते हैं। सर्पदंश आदि कोई विशिष्ट परिस्थिति पैदा हो जाय तो अपवादरूप में गहस्थ से भी सेवा करवाई जा न स्थविरकल्पियों के लिए है। जिनकल्पियों के लिए सेवा का विधान नहीं है। यदि वे सेवा करवाते हैं तो पारिहारिक तपरूप प्रायश्चित्त करना पड़ता है। छठे उद्देशक में बताया है कि अपने स्वजनों के यहां बिना स्थविरों की अनुमति प्राप्त किए नहीं जाना चाहिए। जो श्रमण-श्रमणी अल्पश्रुत व अल्प-प्रागमी हैं उन्हें एकाकी अपने सम्बन्धियों के यहां नहीं जाना चाहिए / यदि जाना है तो बहुश्रुत व बहुप्रागमधारी श्रमण-श्रमणी के साथ जाना चाहिए। श्रमण के पहुंचने के पूर्व जो वस्तु पक कर तैयार हो चुकी है वह ग्राह्य है और जो तैयार नहीं हुई है वह अग्राह्य है। प्राचार्य, उपाध्याय यदि बाहर से उपाश्रय में आवें तो उनके पांव पोंछकर साफ करना चाहिए। उनके लघुनीत आदि को यतनापूर्वक भूमि पर परठना चाहिए। यथाशक्ति उनकी वैयावृत्य करनी चाहिए / उपाश्रय में उनके साथ रहना चाहिए। उपाश्रय के बाहर जावें तब उनके साथ जाना चाहिए / गणावच्छेदक उपाश्रय में रहें तब साथ रहना चाहिए और उपाश्रय से बाहर जाएं तो साथ जाना चाहिए। श्रमण-श्रमणियों को प्राचारांग आदि आगमों के ज्ञाता श्रमण-श्रमणियों के साथ रहन कल्पता है और बिना ज्ञाता के साथ रहने पर प्रायश्चित्त का भागी बनना पड़ता है। किसी विशेष कारण से अन्य गच्छ से निकलकर आने वाले श्रमण-श्रमणी यदि निर्दोष हैं, आचारनिष्ठ हैं, सबलदोष से रहित हैं, क्रोधादि से असंस्पृष्ट हैं, अपने दोषों की आलोचना कर शूद्धि करते हैं, तो उनके साथ समानता का व्यवहार करना कल्पता है, नहीं तो नहीं। [ 57 ] Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवें उद्देशक में यह विधान है कि साधू स्त्री को अोर साध्वी पुरुष को दीक्षा न दे। यदि किसी ऐसे स्थान में किसी स्त्री को वैराग्य भावना जाग्रत हई हो जहां सन्निकट में साध्वी न हो तो वह इस शर्त पर दीक्षा देता है कि वह यथाशीघ्र किसी साध्वी को सुपुर्द कर देगा। इसी तरह साध्वी भी पुरुष को दीक्षा दे सकती है। जहां पर तस्कर, बदमाश या दुष्ट व्यक्तियों का प्राधान्य हो वहां श्रमणियों को विचरना नहीं कल्पता, क्योंकि वहां पर वस्त्रादि के अपहरण व व्रतभंग श्रादि का भय रहता है। श्रमणों के लिए कोई बाधा नहीं है। किसी श्रमण का किसी ऐसे श्रमण से वैर-विरोध हो गया है जो विकट दिशा (चोरादि का निवास हो ऐसा स्थान) में है तो वहाँ जाकर उससे क्षमायाचना करनी चाहिए, किन्तु स्वस्थान पर रहकर नहीं। किन्तु श्रमणी अपने स्थान से भी क्षमायाचना कर सकती है। साधु-साध्वियों को आचार्य, उपाध्याय के नियन्त्रण के बिना स्वच्छन्द रूप से परिभ्रमण करना नहीं कल्पता। आठवें उद्देशक में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि साधू एक हाथ से उठाने योग्य छोटे-मोटे शय्या संस्तारक, तीन दिन में जितना मार्ग तय कर सके उतनी दूर से लाना कल्पता है। किसी बद्ध निर्ग्रन्थ के लिए मावश्यकता पड़ने पर पांच दिन में जितना चल सके उतनी दूरी से लाना कल्पता है / स्थविर के लिए निम्न उपकरण कल्पनीय हैं—दण्ड, भाण्ड, छत्र, मात्रिका, लाष्ठिक (पीठ के पीछे रखने के लिए तकिया या पाटा), ध्यायादि के लिए बैठने का पाटा), चेल (वस्त्र), चेल-चिलिमिलिका (वस्त्र का पर्दा), चर्म, चर्मकोश (चमड़े की थैली), चर्म-पलिछ (लपेटने के लिए चमड़े का टुकड़ा)। इन उपकरणों में से जो साथ में रखने के योग्य न हों उन्हें उपाश्रय के समीप किसी गृहस्थ के यहां रखकर समय-समय पर उनका उपयोग किया जा सकता है। किसी स्थान पर अनेक श्रमण रहते हों, उनमें से कोई श्रमण किसी गृहस्थ के यहां पर कोई उपकरण भूल गया हो और अन्य श्रमण वहां पर गया हो तो गृहस्थ श्रमण से कहे कि यह उपकरण आपके समुदाय के संत का है तो संत उस उपकरण को लेकर स्वस्थान पर आये और जिसका उपकरण हो उसे दे दे। यदि वह उपकरण किसी संत का न हो तो न स्वयं उसका उपयोग करे और न दूसरों को उपयोग के लिए दे किन्तु निर्दोष स्थान पर उसका परित्याग कर दे। यदि श्रमण वहां से विहार कर गया हो तो उसकी अन्वेषणा कर स्वयं उसे उसके पास पहुंचावे / यदि उसका सही पता न लगे तो एकान्त स्थान पर प्रस्थापित कर दे। पाहार की चर्चा करते हुए बताया है कि आठ ग्रास का आहार करने वाला अल्प-याहारी, बारह ग्रास का आहार करने वाला अपार्धावमौदरिक, सोलह ग्रास का आहार करने वाला द्विभागप्राप्त, चौबीस ग्रास का आहार करने वाला प्राप्तावमौदरिक, बत्तीस ग्रास का आहार करने वाला प्रमाणोपेताहारी एवं बत्तीस ग्रास से एक ही ग्रास कम खाने वाला अवमौदरिक कहलाता है। नौवें उद्देशक में बताया है कि शय्यातर का आहारादि पर स्वामित्व हो या उसका कुछ अधिकार हो तो वह प्राहार श्रमण-श्रमणियों के लिए ग्राह्य नहीं है। इसमें भिक्षुप्रतिमानों का भी उल्लेख है जिसकी चर्चा हम दशाश्रुतस्कन्ध के वर्णन में कर चुके हैं। दसवें उहे शक में यवमध्यचन्द्र प्रतिमा या वनमध्यचन्द्रप्रतिमा का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि जो यव (जौ) के कण समान मध्य में मोटी ओर दोनों ओर पतली हो वह यवमध्यचन्द्रप्रतिमा है। जो वन के समान मध्य में पतली और दोनों और मोटी हो वह वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा है। यवमध्यचन्द्रप्रतिमा का धारक वमध्यचन्द्रप्रतिमा है। जो वन [ 58 ] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण एक मास पर्यन्त अपने शरीर के ममत्व को त्याग कर देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करता है और शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को एक दत्ति आहार की और एक दत्ति पानी की, द्वितीया को दो दत्ति आहार की और दो दत्ति पानी की ग्रहण करता है। इस प्रकार क्रमशः एक-एक दत्ति बढ़ाता हुआ पूर्णिमा को 15 दत्ति आहार की और 15 दत्ति पानी की ग्रहण करता है। कृष्णपक्ष में क्रमश: एक दत्ति कम करता जाता है और अमावस्या के दिन उपवास करता है। इसे यवमध्यचन्द्रप्रतिमा कहते हैं। वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा में कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को 15 दत्ति पाहार की और 15 दति पानी की ग्रहण की जाती है। उसे प्रतिदिन कम करते हुए यावत् अमावस्या को एक दत्ति प्राहार की और एक दत्ति पानी की ग्रहण की जाती है / शुक्लपक्ष में क्रमश: एक-एक दत्ति बढ़ाते हुए पूर्णिमा को उपवास किया जाता है / इस प्रकार 30 दिन की प्रत्येक प्रतिमा के प्रारम्भ के 29 दिन दत्ति के अनुसार पाहार और अन्तिम दिन उपवास किया जाता है। व्यवहार के आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीतव्यवहार, ये पांच प्रकार हैं। इनमें पागम का स्थान प्रथम है और फिर क्रमशः इनकी चर्चा विस्तार से भाष्य में है। स्थविर के जातिस्थविर, सूत्रस्थविर और प्रव्रज्यास्थविर, ये तीन भेद हैं। 60 वर्ष की आयु वाला श्रमण जातिस्थविर या वयःस्थविर कहलाता है। ठाणांग, समवायांग का ज्ञाता सूत्रस्थविर और दीक्षा धारण करने के 20 वर्ष पश्चात की दीक्षा वाले निर्ग्रन्थ प्रव्रज्यास्थविर कहलाते हैं। शैक्ष भूमियां तीन प्रकार की हैं-सप्त-रात्रिदिनी चातुर्मासिकी और षण्मासिकी। आठ वर्ष से कम उम्र वाले बालक-बालिकाओं को दीक्षा देना नहीं कल्पता। जिनकी उम्र लघु है वे प्राचारांगसूत्र के पढ़ने के अधिकारी नहीं हैं। कम से कम तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाले साधु को आचारांग पढ़ाना कल्प्य है / चार वर्ष की दीक्षापर्याय वाले को सूत्रकृतांग, पाँच वर्ष की दीक्षापर्याय वाले को दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प (बृहत्कल्प) और व्यवहार, आठ वर्ष की दीक्षा वाले को स्थानांग और समवायांग, दस वर्ष की दीक्षा वाले को व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती), ग्यारह वर्ष की दीक्षा वाले को लघुविमान-प्रविभक्ति, महाविमानप्रविभक्ति, अंगचूलिका, बंगलिका और विवाह-चूलिका, बारह वर्ष की दीक्षा वाले को अणोरुपपातिक, गरुलोपपातिक, धरणोपपातिक, वैश्रमणोपपातिक और वैलंधरोपपातिक, तेरह वर्ष की दीक्षा वाले को उपस्थानश्रुत, देवेन्द्रोपपात और नागपरियापनिका (नागपरियावणिग्रा), चौदह वर्ष की दीक्षा वाले को स्वप्नभावना, पन्द्रह वर्ष की दीक्षा वाले को चारणभावना, सोलह यर्ष की दीक्षा वाले को वेदनीशतक, सत्रह वर्ष की दीक्षा वाले को पाशीविषभावना, अठारह वर्ष की दीक्षा वाले को दृष्टिविधभावना, उन्नीस वर्ष की दीक्षा वाले वाले को दृष्टिवाद और बीस वर्ष की दीक्षा वाले को सब प्रकार के शास्त्र पढ़ाना कल्प्य है। वैयावृत्य (सेवा) दस प्रकार की कही गई है--१. आचार्य की वैयावृत्य, 2. उपाध्याय की वैयावृत्य, उसी प्रकार, 3. स्थविर की, 4. तपस्वी की, 5. शैक्ष-छात्र की, 6. ग्लान-रुग्ण की, 7. सामिक की, 8. कल की. 9. गण की और 10. संघ की वैयावृत्य / उपर्युक्त दस प्रकार की वयावृत्य से महानिर्जरा होती है। उपसंहार इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र की अनेक विशेषताएं हैं। इसमें स्वाध्याय पर विशेष रूप से बल दिया गया है। [ 59 ] Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ ही अयोग्यकाल में स्वाध्याय करने का निषेध किया गया है। अनध्यायकाल की विवेचना की गई है। श्रमणश्रमणियों के बीच अध्ययन की सीमाएं निर्धारित की गई हैं। आहार का कवलाहारी, अल्पाहारी और ऊनोदरी का वर्णन है / प्राचार्य, उपाध्याय के लिए बिहार के नियम प्रतिपादित किये गये हैं। आलोचना और प्रायश्चित्त की विधियों का इसमें विस्तृत विवेचन है / साध्वियों के निवास, अध्ययन, वैयावत्य तथा संघ-व्यवस्था के नियमोपनियम का विवेचन है। इसके रचयिता श्रुतकेवली भद्रबाह माने जाते हैं। व्याख्यासाहित्य आगम साहित्य के गुरु गम्भीर रहस्यों के उद्घाटन के लिये विविधव्याख्यासाहित्य का निर्माण हया है ! उस विराट आगम व्याख्यासाहित्य को हम पांच भागों में विभक्त कर सकते हैं (1) नियुक्तियां (निज्जुत्ति)। (2) भाष्य (भास) / (3) चूणियां (चुण्णि)। (4) संस्कृत टीकाएं। (5) लोकभाषा में लिखित व्याख्यासाहित्य / सर्वप्रथम प्राकृत भाषा में जो पद्यबद्ध टीकाएं लिखी गई वे नियुक्तियों के नाम से विश्रुत हैं। नियुक्तियों में मूल ग्रन्थ के प्रत्येक पद पर व्याख्या न कर मुख्य रूप से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की गई है / उसकी शैली निक्षेपपद्धति की है। जो न्यायशास्त्र में अत्यधित प्रिय रही। निक्षेपपद्धति में किसी एक पद के सम्भावित अनेक अर्थ करने के पश्चात् उनमें से अप्रस्तुत अर्थों का निषेध कर प्रस्तुत अर्थ ग्रहण किया जाता है। सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् शारपेण्टियर ने नियुक्ति की परिभाषा इस प्रकार की है--"नियुक्तियाँ अपने प्रधान भाग के केवल इण्डेक्स का काम करती हैं / वे सभी विस्तार युक्त घटनावलियों का संक्षेप में उल्लेख करती हैं।" नियुक्तिकार भद्रबाह माने जाते हैं। वे कौन थे इस सम्बन्ध में हमने अन्य प्रस्तावनाओं में विस्तार से लिखा है / भद्रबाहु की दस नियुक्तियां प्राप्त हैं / उसमें दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति भी एक है। दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति प्रथम श्रतकेवली भद्रबाह को नमस्कार किया गया है फिर दश अध्ययनों के अधिकारों का वर्णन है। प्रथम असमाधिस्थान में द्रव्य और भाव समाधि के सम्बन्ध में चिन्तन कर स्थान के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, श्रद्धा, ऊर्ध्व, चर्या, वसति, संयम, प्रग्रह, योध, अचल, गणन, संस्थान (संघाण) और भाव इन पन्द्रह निक्षेपों का वर्णन है। द्वितीय अध्ययन में शबल का नाम आदि चार निक्षेप से विचार किया है। तृतीय अध्ययन में आशातना का विश्लेषण है। चतुर्थ अध्ययन में "गणि" और "सम्पदा" पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन करते हुए कहा गया है कि गणि और गुणी ये दोनों एकार्थक हैं। प्राचार ही प्रथम गणिस्थान है। सम्पदा के द्रव्य और भाव ये दो भेद हैं / शरीर द्रव्यसम्पदा है और आचार भावसम्पदा है। पंचम अध्ययन में चित्तसमाधि का निक्षेप की दष्टि से विचार किया गया है। समाधि के चार प्रकार हैं। जब चित्त राग-द्वेष से मुक्त होता है, प्रशस्तध्यान में तल्लीन होता है तब भावसमाधि होती है। षष्ठ अध्ययन में उपासक और प्रतिमा पर निक्षेप दष्टि से चिन्तन किया गया है। उपासक के द्रव्योपासक, तदर्थोपासक, मोहोपासक और भावोपासक ये चार प्रकार है। भावोपासक वही हो सकता है जिसका जीवन सम्यग्दर्शन के आलोक से जगमगा रहा हो। यहां पर श्रमणोपासक की एकादश [60 ] Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमानों का निरूपण है। सप्तम अध्ययन में श्रमणप्रतिमाओं पर चिन्तन करते हुए भावभ्रमणप्रतिमा के समाधिप्रतिमा, उपधानप्रतिमा, विवेकप्रतिमा, प्रतिसंलीनप्रतिमा और विवेकप्रतिमा ये पाँच प्रकार बताये हैं। अष्टम अध्ययन में पर्युषणाकल्प पर चिन्तन कर परिवसना, पर्युषणा, पयु पशमना, वर्षावास, प्रथम-समवसरण, स्थापना और ज्येष्ठ ग्रह को पर्यायवाची बताया है। श्रमण वर्षावास में एक स्थान पर स्थित रहता है और पाठ माह तक वह परिभ्रमण करता है। नवम अध्ययन में मोहनीयस्थान पर विचार कर उसके पाप, बर्य, वैर, पंक, पनक, क्षोभ, असात, संग, शल्य, अतर, निरति, धर्त्य ये मोह के पर्यायवाची बताए गये हैं। दशम अध्ययन में जन्ममरण के मूल कारणों पर चिन्तन कर उससे मुक्त होने का उपाय बताया गया है। नियुक्तिसाहित्य के पश्चात् भाष्यसाहित्य का निर्माण हुआ, किन्तु दशाश्रुतस्कन्ध पर कोई भी भाष्य नहीं लिखा गया। भाष्यसाहित्य के पश्चात् चूर्णिसाहित्य का निर्माण हुआ। यह गद्यात्मक व्याख्यासाहित्य है / इसमें शुद्ध प्राकृत और संस्कृत मिश्रित प्राकृत में व्याख्या लिखी गई है। चूर्णिकार जिनदासगणि महत्तर का नाम चुणिसाहित्य में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि का मूल आधार दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति है। इस चूणि में प्रथम मंगलाचरण किया गया है। उसके पश्चात् दस अध्ययनों के अधिकारों का विवेचन किया गया है। जो सरल और सुगम है। मूलपाठ में और चूर्णिसम्मत पाठ में कुछ अन्तर है। यह चणि मुख्य रूप से प्राकृत भाषा में है। यत्र-तत्र संस्कृत शब्दों व वाक्यों के प्रयोग भी दिखाई देते हैं / चूणि के पश्चात् संस्कृत टीकाओं का युग आया। उस युग में अनेक आगमों पर संस्कृत भाषा में टीकाएं लिखी गई / ब्रह्ममुनि (ब्रह्मर्षि) ने दशाश्रुतस्कन्ध पर एक टीका लिखी है तथा प्राचार्य घासीलालजी म. ने दशाश्रुतस्कन्ध पर संस्कृत में व्याख्या लिखी और आचार्य सम्राट आत्मारामजी म. ने दशाश्रतस्कन्ध पर हिन्दी में टीका लिखी। और आचार्य अमोलकऋषिजी म. ने सर्वप्रथम हिन्दी अनुवाद लिखा। मणिविजयजी गणि ग्रन्थमाला भावनगर से दशाश्रुतस्कन्ध मूल नियुक्ति चूणि सहित वि. सं. 2011 में प्रकाशित हुआ। सुखदेवसहाय ज्वालाप्रसाद हैदराबाद से वीर सं. 2445 को अमोलकऋषिजी कृत हिन्दी अनुवाद दशाश्रुतस्कन्ध का प्रकाशित हुप्रा / जैन शास्त्रमाला कार्यालय सैदमिट्ठा बाजार लाहौर से प्राचार्य प्रात्मारामजी म. कृत सन् 1936 में हिन्दी टीका प्रकाशित हुई। संस्कृत व्याख्या व हिन्दी अनुवाद के साथ जैन शास्त्रोद्धार समिति राजकोट से सन् 1960 में घासीलालजी म. का दशाश्रुतस्कन्ध प्रकाशित हुआ। आगम अनुयोग प्रकाशन साण्डेराव से प्रायार-दशा के नाम से मूलस्पर्शी अनुवाद सन 1981 में प्रकाशित हमा / यत्र-तत्र उसमें विशेषार्थ भी दिया गया है। प्रस्तुत सम्पादन-प्रागम साहित्य के मर्मज्ञ महामनीषी मुनि श्री कन्हैयालालजी म. "कमल" ने किया है। यह सम्पादन सुन्दर ही नहीं, अति सुन्दर है। आगम के रहस्य का तथा श्रमणाचार के विविध उलझे हुए प्रश्नों का उन्होंने प्राचीन व्याख्या साहित्य के प्राधार से तटस्थ चिन्तनपरक समाधान प्रस्तुत किया है। स्वल्प शब्दों में [ 61 ] Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय को स्पष्ट करना सम्पादक मुनिजी की विशेषता है। इस सम्पादन में उनका गम्भीर पाण्डित्य यत्र-तत्र मुखरित हुआ है। बृहत्कल्प का व्याख्यासाहित्य बृहत्कल्पनियुक्ति–दशाश्रुतस्कन्ध की तरह बृहत्कल्पनियुक्ति लिखी गई है। उसमें सर्वप्रथम तीर्थंकरों को नमस्कार कर ज्ञान के विविध भेदों पर चिन्तन कर इस बात पर प्रकाश डाला है कि ज्ञान और मंगल में कथंचित् अभेद है / अनुयोग पर नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, वचन और भाव इन सात निक्षेपों से चिन्तन किया है / जो पश्चाद्भूत योग है वह अनुयोग है अथवा जो स्तोक रूप योग है वह अनूयोग है। कल्प के उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय ये चार अनुयोगद्वार हैं / कल्प और व्यवहार का अध्ययन चिन्तन करने वाला मेधावी सन्त बहुश्रुत, चिरप्रवजित, कल्पिक, अचंचल, अवस्थित, अपरिश्रावी, विज्ञ प्राप्तानुज्ञात और भावपरिणामक होता है। इसमें ताल-प्रलम्ब का विस्तार से वर्णन है, और उसके ग्रहण करने पर प्रायश्चित्त का भी विधान है। ग्राम, नगर, खेड़, कर्बटक, मडम्ब, पत्तन, आकर, द्रोणमुख, निगम, राजधानी, पाश्रम, निवेश, संबाध, घोष, अंशिका, आदि पदों पर भी निक्षेपदृष्टि से चिन्तन किया है। जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक पर भी प्रकाश डाला है। आर्य पद पर विचार करते हुए नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, जाति, कुल, कर्म, भाषा, शिल्प, ज्ञान, दर्शन, चारित्र इन बारह निक्षेपों से चिन्तन किया है। पार्यक्षेत्र में विचरण करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र की अभिवद्धि होती है। अनार्य क्षेत्रों में विचरण करने से अनेक दोषों के लगने की सम्भावना रहती है। स्कन्दकाचार्य के दृष्टान्त को देकर इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है। साथ ही ज्ञान-दर्शन-चारित्र की वृद्धि हेतु अनार्य क्षेत्र में विचरण करने का आदेश दिया है और उसके लिए राजा सम्प्रति का दृष्टान्त भी दिया गया है / श्रमण और श्रमणियों के प्राचार, विचार, आहार, विहार का संक्षेप में बहुत ही सुन्दर वर्णन किया गया है। सर्वत्र निक्षेपपद्धति से व्याख्यान किया गया है। यह नियुक्ति स्वतन्त्र न रहकर बृहत्कल्पभाष्य में मिश्रित हो गई है। बृहत्कल्प-लधुभाष्य-बृहत्कल्प लधुभाष्य संघदासगणी की एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कृति है। इसमें बृहत्कल्पसूत्र के पदों का विस्तार के साथ विवेचन किया गया है। लघभाष्य होने पर भी इसकी गाथा संख्या 6490 है। यह छह उद्देश्यों में विभक्त है। भाष्य के प्रारम्भ में एक सविस्तृत पीठिका दी गई है। जिसकी गाथा संख्या 805 है। इस भाष्य में भारत की महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक सामग्री का संकलन-आकलन हुआ है। इस सांस्कृतिक सामग्री के कुछ अंश को लेकर डॉ. मोतीचन्द ने अपनी पुस्तक "सार्थवाह" में "यात्री और सार्थवाह" का सुन्दर प्राकलन किया है। प्राचीन भारतीय संस्कृतिक और सभ्यता का अध्ययन करने के लिए इसकी सामग्री विशेष उपयोगी है। जैन श्रमणों के आचार का हृदयग्राही, सूक्ष्म, तार्किक विवेचन इस भाष्य की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। पीठिका में मंगलवाद, ज्ञानपंचक में श्रुतज्ञान के प्रसंग पर विचार करते हुए सम्यक्त्वप्राप्ति का क्रम और प्रौपशमिक, सास्वादन, क्षायोपशमिक, वेदक और क्षायिक सम्यक्त्व के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है / अनुयोग का स्वरूप बताकर निक्षेप आदि बारह प्रकार के द्वारों से उस पर चिन्तन किया है। कल्पव्यवहार पर विविध दष्टियों से चिन्तन करते हुए यत्र-तत्र विषय को स्पष्ट करने के लिए दृष्टान्तों का भी उपयोग हुआ है। पहले उद्देशक की व्याख्या में ताल-वृक्ष से सम्बन्धित विविध प्रकार के दोष और प्रायश्चित्त, ताल-प्रलम्ब के ग्रहण सम्बन्धी अपवाद, श्रमण-श्रमणियों को देशान्तर जाने के कारण और उसकी विधि, श्रमणों की अस्वस्थता के विधि-विधान, वैषों के पाठ प्रकार बताये हैं। दुष्काल प्रभृति विशेष परिस्थिति में श्रमण-श्रमणियों के एक दूसरे [ 62 ] Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अवगहीत क्षेत्र में रहने की विधि, उसके 144 भंग और तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त आदि का वर्णन है। ग्राम, नगर, खेड, कर्बटक, मडम्ब, पत्तन, प्राकर, द्रोणमुख, निगम, राजधानी, आश्रम, निवेश, संबाध, अंशिका, पुटभेदन, शंकर प्रभृति पदों पर वियेचन किया है। नक्षत्रमास, चन्द्रमास, ऋतुमास, आदित्यमास और अभिवधितमास का वर्णन है। जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक की क्रियाएं, समवसरण, तीर्थकर, गणधर, आहारकशरीरी, अनुत्तरदेव, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि की शुभ और अशुभ कर्मप्रकृतियां, तीर्थकर की भाषा का विभिन्न भाषाओं में परिणमन, आफ्णगृह, रथ्यामुख, शृङ्गाटक, चतुष्क, चत्वर, अन्तराफ्ण आदि पदों पर प्रकाश डाला गया है और उन स्थानों पर बने हुए उपाश्रयों में रहने वाली श्रमणियों को जिन दोषों के लगने की सम्भावना है उनकी चर्चा की गई है। भाष्यकार ने द्रव्य ग्राम के बारह प्रकार बताये है (1) उत्तानकमल्लक, (2) अवाङ मुखमल्लक, (3) सम्पुटमल्लक, (4) उत्तानकखण्डमल्लक, (5) अवाङ मुखखण्डमल्लक, (6) सम्पुटखण्डमल्लक, (7) भिति, (8) पडालि, (9) वलाभि, (10) अक्षाटक, (11) रुचक, (12) काश्यपक। तीर्थकर, गणधर और केवली के समय ही जिनकल्पिक मुनि होते हैं। जिनकल्पिक मुनि की समाचारी का वर्णन सत्ताईस द्वारों से किया है- (1) श्रुत, (2) संहनन, (3) उपसर्ग, (4) आतंक, (5) वेदना, (6) कतिजन, (7) स्थंडिल, (8) वसति, (9) कियाच्चिर, (10) उच्चार, (11) प्रस्रवण, (12) अवकाश, (13) तृणफलक, (14) संरक्षणता, (15) संस्थापनता, (16) प्राभृतिका, (17) प्राग्नि, (18) दीप, (19) अवधान, (20) वत्स्यक्ष, (21) भिक्षाचर्या, (22) पानक, (23) लेपालेप, (24) लेप, (25) प्राचाम्ल (26) प्रतिमा, (27) मासकल्प / जिनकल्पिक की स्थिति पर चिन्तन करते हए क्षेत्र, काल, चारित्र, तीर्थ, पर्याय, आगम, वेद, कल्प, लिंग, लेश्या, ध्यान, गणना, अभिग्रह, प्रव्राजना, मुण्डापना, प्रायश्चित्त, कारण, निष्प्रतिकर्म और भक्त इन द्वारों से प्रकाश डाला है। इसके पश्चात् परिहारविशुद्धिक और यथालन्दिक कल्प का स्वरूप बताया है। स्थविरकल्पिक की प्रव्रज्या, शिक्षा, अर्थग्रहण, अनियतवास और निष्पत्ति ये सभी जिनकल्पिक के समान हैं। श्रमणों के विहार पर प्रकाश डालते हए विहार का समय, विहार करने से पहले गच्छ के निवास एवं निर्वाह योग्य या अयोग्य क्षेत्र, प्रत्युपेक्षकों का निर्वाचन, क्षेत्र की प्रतिलेखना के लिए किस प्रकार गमनागमन करना चाहिए, विहार मार्ग एवं स्थंडिल भूमि, जल, विश्रामस्थान, भिक्षा, वसति, उपद्रव आदि की परीक्षा, प्रतिलेखनीय क्षेत्र में प्रवेश करने की विधि, भिक्षा से वहाँ के मानवों के अन्तर्मानस की परीक्षा, भिक्षा, औषध आदि की प्राप्ति में सरलता व कठिनता का परिज्ञान, विहार करने से पूर्व वसति के अधिपति की अनुमति, विहार करने से पूर्व शुभ शकून देखना आदि का वर्णन है। स्थविरकल्पिकों की समाचारी में इन बातों पर प्रकाश डाला है१. प्रतिलेखना-वस्त्र आदि की प्रतिलेखना का समय, प्रतिलेखना के दोष और उनका प्रायश्चित / 2. निष्क्रमण- उपाश्रय से बाहर निकलने का समय / 3. प्राभृतिका- गृहस्थ के लिए जो मकान तैयार किया है, उसमें रहना चाहिए या नहीं रहना चाहिए। तत्सम्बन्धी विधि व प्रायश्चित्त / [63 ] Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. भिक्षा-भिक्षा के लेने का समय और भिक्षा सम्बन्धी प्रावश्यक वस्तुएं / 5. कल्पकरण-पात्र को स्वच्छ करने की विधि, लेपकृत और अलेपकृत पात्र, पात्र-लेप से लाभ / 6. गच्छशतिकादि-आधार्मिक, स्वगृहयतिमिश्र, स्वगृहपाषण्डमिश्र, यावदाथिकमिश्र, क्रीतकृत, पूतिकार्मिक और प्रात्मार्थकृत तथा उनके अवान्तर भेद / 7. अनुयान रथयात्रा का वर्णन और उस सम्बन्धी दोष / 8. पुर:कर्म-भिक्षा लेने से पूर्व सचित्त जल से हाथ आदि साफ करने से लगने वाले दोष / 9. ग्लान-ग्लान-रुग्ण श्रमण की सेवा से होने वाली निर्जरा, उसके लिए पथ्य की गवेषणा, चिकित्सा के लिए बैद्य के पास ले जाने की विधि, वैद्य से वार्तालाप करने का तरीका, रुग्ण श्रमण को उपाश्रय, गली आदि में छोड़कर चले जाने वाले प्राचार्य को लगने वाले दोष और उनके प्रायश्चित्त का विधान / 10. गच्छप्रतिबद्ध यथालंदिक-वाचना आदि कारणों से गच्छ से सम्बन्ध रखने वाले यथालदिक कल्पधारियों के साथ वन्दन आदि व्यवहार तथा मासकल्प की मर्यादा / 11. उपरिदोष-वर्षाऋतु के अतिरिक्त समय में एक क्षेत्र में एक मास से अधिक रहने से लगने वाले दोष / 12. अपवाद-एक क्षेत्र में एक मास से अधिक रहने के प्रापवादिक कारण, श्रमण-श्रमणियों की भिक्षाचर्या की विधि पर भी प्रकाश डाला है। साथ ही यह भी बताया है कि यदि ग्राम, नगर आदि दुर्ग के अन्दर और बाहर दो भागों में विभक्त हो तो अन्दर और बाहर श्रमणियों के प्राचारसम्बन्धी विधि-विधानों पर प्रकाश डालते हए बताया है कि निर्ग्रन्थी के मासकल्प की मर्यादा, विहार-विधि, समुदाय का प्रमुख और उसके गुण, उसके द्वारा क्षेत्र की प्रतिलेखना, बौद्ध श्रावकों द्वारा भड़ौच में श्रमणियों का अपहरण, श्रमणियों के योग्य क्षेत्र, वसति, विधर्मी से उपद्रव की रक्षा, भिक्षाहेतु जाने वाली श्रमणियों की संख्या, वर्षावास के अतिरिक्त श्रमणी को एक स्थान पर अधिक से अधिक कितना रहना, उसका विधान हैं। स्थविरकल्प और जिनकल्प इन दोनों अवस्थाओं में कौनसी अवस्था प्रमुख है, इस पर चिन्तन करते हुए भाष्यकार ने निष्पादक और निष्पन्न इन दोनों दृष्टियों से दोनों की प्रमुखता स्वीकार की है। सूत्र अर्थ आदि दृष्टियों से स्थविरकल्प जिनकल्प का निष्पादक है। जिनकल्प ज्ञान-दर्शन-चारित्र प्रभृति दृष्टियों से निष्पन्न है। विषय को स्पष्ट करने की दृष्टि से गुहासिंह, दो महिलाएं और दो वर्गों के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। ___एक प्राचौर और एक द्वार वाले ग्राम-नगर आदि में निर्गन्ध-निर्ग्रन्थियों को नहीं रहना चाहिए, इस सम्बन्ध में विस्तार से विवेचन किया है। श्रमण-श्रमणियों को किस स्थान में रहना चाहिए, इस पर विविध दृष्टियों से चिन्तन किया गया है। व्यवशमन प्रकृत सूत्र में इस बात पर चिन्तन किया है कि श्रमणों में परस्पर वैमनस्य हो जाये तो उपशमन धारण करके क्लेश को शान्त करना चाहिए। जो उपशमन धारण करता है वह पाराधक है, जो नहीं करता है वह विराधक है। प्राचार्य को श्रमण-श्रमणियों में क्लेश होने पर उसकी उपशान्ति हेतु उपेक्षा करने पर प्रायश्चित्त का विधान है। परस्पर के झगड़े को शान्त करने की विधि प्रतिपादित की गई है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार प्रकृत सूत्र में बताया है कि श्रमण-श्रमणियों को वर्षाऋतु में एक गांव से दूसरे गांव नहीं जाना चाहिए। यदि ममन करता है तो उसे प्रायश्चित्त पाता है। यदि आपवादिक कारणों से विहार करने का प्रसंग उपस्थित हो तो उसे यतना से गमन करना चाहिए। अवग्रहसूत्र में बताया है कि भिक्षा या शौचादि भूमि के लिए जाते हुए श्रमण को गृहपति वस्त्र, पात्र, कम्बल आदि ग्रहण करने की प्रार्थना करे तो उसे लेकर प्राचार्य आदि को प्रदान करे और उनकी आज्ञा प्राप्त होने पर उसका उपयोग करे। रात्रिभक्त प्रकृत सूत्र में बताया है कि रात्रि या विकाल में प्रशन पान आदि ग्रहण करना नहीं चाहिए और न वस्त्र आदि को ग्रहण करना चाहिए। रात्रि और विकाल में अध्वगमन का भी निषेध किया गया है / अध्व के दो भेद हैं—पन्थ और मार्ग / जिसके बीच में ग्राम, नगर आदि कुछ भी न पाए वह पन्थ है और जिसके बीच ग्राम नगर आये वह मार्ग है। सार्थ के भंडी, बहिलक, भारवह, प्रौदरिक, कार्पटिक ये पांच प्रकार हैं। आठ प्रकार के सार्थवाह और पाठ प्रकार के सार्थ-व्यवस्थापकों का उल्लेख है। विहार के लिए आर्यक्षेत्र ही विशेष रूप से उपयुक्त है। आर्य पद पर नाम आदि बारह निक्षेपों से विचार किया है / आर्य जातियां अम्बष्ठ, कलिन्द, वैदेह, विदक, हरित, तन्तुण ये छह हैं और आर्य कुल भी उग्र, भोग, राजन्य, क्षत्रिय, ज्ञात-कौरव और इक्ष्वाकु यह छह प्रकार के हैं। आगे उपाश्रय सम्बन्धी विवेचन में उपाश्रय के व्याघातों पर विस्तार से प्रकाश डाला है। जिसमें शालि ब्रीहि आदि सचित्त धान्य कण बिखरे हुए हों उस बीजाकीर्ण स्थान पर श्रमण को नहीं रहना चाहिए और न सुराविकट कुम्भ, शीतोदकविकटकुम्भ, ज्योति, दीपक, पिण्ड, दुग्ध, दही, नवनीत आदि पदार्थों से युक्त स्थान पर ही रहना चाहिए। सागारिक के पाहारदि के त्याग की विधि, अन्य स्थान से आई हुई भोजनसामग्री के दान की विधि, सामारिक का पिण्डग्रहण, विशिष्ट व्यक्तियों के निमित्त बनाये हुए भक्त, उपकरण आदि का ग्रहण, रजोहरण ग्रहण करने की विधि बताई है। पांच प्रकार के वस्त्र-(१) जांगिक, (2) भांगिक, (3) सानक, (4) पोतक, (5) तिरीटपट्टक, पांच प्रकार के रजोहरण-(१) औणिक, (2) प्रौष्ट्रिक, (3) सानक, (4) वक्चकचिप्पक, (5) मुजचिप्पक-इनके स्वरूप और ग्रहण करने की विधि बताई गई है। तृतीय उद्देशक में निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के परस्पर उपाश्रय में प्रवेश करने की विधि बताई है। कृत्स्न और अकृत्स्न, भिन्न और अभिन्न वस्त्रादि ग्रहण, नवदीक्षित श्रमण-श्रमणियों की उपधि पर चिन्तन किया है। उपधिग्रहण की विधि, वन्दन आदि का विधान किया है। वस्त्र फाड़ने में होने वाली हिंसा-अहिंसा पर चिन्तन करते हुए द्रव्याहिंसा और भावहिंसा पर विचार किया है। हिंसा में जितनी अधिक राग आदि की तीव्रता होगी उतना ही तीव्र कर्मबन्धन होगा। हिंसक में ज्ञान और अज्ञान के कारण कर्मबंध, अधिकरण की विविधता से कर्मबंध में वैविध्य आदि पर चिन्तन किया गया है। चतुर्थ उद्देशक में हस्तकर्म आदि के प्रायश्चित्त का विधान है। मथुनभाव रागादि से कभी भी रहित नहीं हो सकता। अत: उसका अपवाद नहीं है / पण्डक आदि को प्रव्रज्या देने का निषेध किया है। पंचम उद्देशक में गच्छ सम्बन्धी, शास्त्र स्मरण और तविषयक व्याघात, क्लेशयुक्त मन से गच्छ में रहने से अथवा स्वगच्छ का परित्याग कर अन्य गच्छ में चले जाने से लगने वाले दोष और उनका प्रायश्चित्त, निःशंक और सशंक रात्रिभोजन, उद्गार-वमन ग्रादि विषयक दोष और उसका प्रायश्चित्त, पाहार आदि के लिए प्रयत्न आदि पर प्रकाश डाला गया है। श्रमणियों के लिए विशेष रूप से विधि-विधान बताये गये हैं। षष्ठ उद्देशक में निर्दोष वचनों का प्रयोग और मिथ्या वचनों का अप्रयोग, प्राणातिपात आदि के प्रायश्चित्त, कण्टक के उद्धरण, विपर्यासजन्य दोष, प्रायश्चित्त अपवाद का वर्णन है। श्रमण-श्रमणियों को विषम [65 ] Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्ग से नहीं जाना चाहिए। जो निर्ग्रन्थी विक्षिप्तचित्त हो गई है उसके कारणों को समझकर उसके देख-रेख की व्यवस्था और चिकित्सा ग्रादि के विधि-निषेधों का विवेचन किया गया है / श्रमणों के लिए छह प्रकार के परिमन्यु व्याधात माने गये हैं—(१) कौत्कुचित (2) मौखरिक (3) चक्षुलोल (4) तितिणिक (5) इच्छालोम (6) भिज्जानिदानकरण-इनका स्वरूप, दोष और अपवाद आदि पर चिन्तन किया है। ___ कल्पस्थिति प्रकृत में छह प्रकार की कल्पस्थितियों पर विचार किया है-(१) सामायिककल्पस्थिति, (2) छेदोपस्थानीयकल्पस्थिति, (3) निविशमानकल्पस्थिति, (4) निविष्टकायिककल्पस्थिति, (5) जिनकल्पस्थिति, (6) स्थविरकल्पस्थिति | छेदोपस्थापनीयकल्पस्थिति के आचेलक्य, प्रौद्देशिक प्रादि दस कल्प हैं। उसके अधिकारी और अनधिकारी पर भी चिन्तन किया गया है। प्रस्तुत भाष्य में यत्र-तत्र सुभाषित बिखरे पड़े हैं, यथा--हे मानवो ! सदा-सर्वदा जाग्रत रहो, जाग्रत मानव की बुद्धि का विकास होता है, जो जागता है वह सदा धन्य है। "जागरह नरा णिचं, जागरमाणस्स बढ़ते बुद्धि / सो सुवति // सो धणं, जो जग्गति सो सया धण्णो // शील और लज्जा ही नारी का भूषण है। हार आदि प्राभूषणों से नारी का शरीर विभूषित नहीं हो सकता। उसका भूषण तो शील और लज्जा ही है। सभा में संस्कार रहित असाधूवादिनी वाणी प्रशस्त नहीं कही जा सकती। इस प्रकार प्रस्तुत भाष्य में श्रमणों के प्राचार-विचार का तार्किक दृष्टि से बहुत ही सूक्ष्म विवेचन किया गया है। उस युग की सामाजिक सांस्कृतिक धार्मिक राजनीतिक स्थितियों पर भी खासा अच्छा प्रकाश पड़ता है। अनेक स्थलों पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सुन्दर विश्लेषण हुआ है। जैन साहित्य के इतिहास में ही नहीं, अपितु भारतीय साहित्य में इस' ग्रन्थरत्न का अपूर्व और अनूठा स्थान है। बृहत्कल्पचूणि इस चूणि का प्राधार मूलसूत्र व लघुभाष्य है / दशाश्रुतस्कन्धचूणि का और बृहत्कल्पचूर्णि का प्रारम्भिक अंश प्रायः मिलता-जुलता है। भाषाविज्ञों का मन्तव्य है कि बृहत्कल्पचणि से दशाश्रु तस्कन्धणि प्राचीन है। यह सम्भव है कि ये दोनों ही चणियां एक ही आचार्य की हों। प्रस्तुतः चूणि में पीठिका और छह उद्देशक है / प्रारम्भ में ज्ञान के स्वरूप पर चिन्तन किया गया है / अभिधान और अभिधेय को कथंचित भिन्न और कथंचित् अभिन्न बताते हुए वक्ष शब्द के छह भाषाओं में पर्याय दिये हैं। जिसे संस्कृत में वृक्ष कहते हैं वही प्राकृत में रुक्क्ष, मगध में प्रोदण, लाट में कर, दमिल-तमिल में चोर और आन्ध्र में इडाकु कहा जाता है। चणि में तत्त्वार्थाधिगम, विशेषावश्यकभाष्य, कर्मप्रकृति, महाकल्प, गोविन्दनियंक्ति आदि ग्रन्थों का उल्लेख किया है। भाषा संस्कृतमिश्रित प्राकृत है। चणि में प्रारम्भ से अन्त तक लेखक के नाम का निर्देश नहीं हुआ है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहत्कल्पपीठिकावृत्ति प्रस्तुत वृत्ति भद्रबाहु स्वामी विरचित बृहत्कल्पनियुक्ति एवं संघदासगणी बिरचित लघुभाष्य पर है। आचार्य मलयगिरि पीठिका की भाष्य गाथा 606 पर्यन्त ही अपनी वृत्ति लिख सके। आगे उन्होंने वृत्ति नहीं लिखी है। आगे की वृत्ति प्राचार्य क्षेमकीर्ति ने पूर्ण की है। जैसा कि स्वयं क्षेमकीर्ति ने भी स्वीकार किया है।' वृत्ति के प्रारम्भ में वृत्तिकार ने जिनेश्वर देव को प्रणाम कर सद्गुरुदेव का स्मरण किया है तथा भाष्यकार और चूर्णिकार के प्रति भी कृतज्ञता व्यक्त की है। वृत्तिकार ने बृहत्कल्प एवं व्यवहारसूत्र के निर्माताओं के सम्बन्ध में लिखा है कि चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाह स्वामी ने श्रमणों के अनुग्रहार्थ कल्प और व्यवहार की रचना की जिससे कि प्रायश्चित्त का व्यवच्छेद न हो / उन्होंने सूत्र के गम्भीर रहस्यों को स्पष्ट करने के लिये नियुक्ति की ही रचना की है और जिनमें प्रतिभा की तेजस्विता का अभाव है उन अल्पबुद्धि वाले व्यक्तियों के लिए भाष्यकार ने भाष्य का निर्माण किया है। वह नियुक्ति और भाष्य सूत्र के अर्थ को प्रकट करने वाले होने से दोनों एक ग्रन्थ रूप हो गये। वत्ति में प्राकृत गाथाओं का उद्धरण के रूप में प्रयोग हआ है और विषय को सुबोध बनाने की दृष्टि से प्राकृत कथाएँ उद्धृत की गई हैं। प्रस्तुत मलयमिरि वृत्ति का ग्रन्थमान 4600 श्लोक प्रमाण है। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचार्य मलयगिरि शास्त्रों के गम्भीर ज्ञाता थे। विभिन्न दर्शनशास्त्रों का जैसा और जितना गम्भीर विवेचन एवं विश्लेषण उनकी टीकाओं में उपलब्ध है, वैसा अन्यत्र कहीं पर भी उपलब्ध नहीं है / वे अपने युग के महान् तत्त्वचिन्तक, प्रसिद्ध टीकाकार और महान् व्याख्याता थे। आगमों के गुरुगम्भीर रहस्यों को तर्कपूर्ण शैली में प्रस्तुत करने की उनकी क्षमता अद्भुत थी, अनूठी थी। सौभाग्यसागर ने बृहत्कल्प पर संस्कृत भाषा में एक टीका लिखी। बृहत्कल्पनियुक्ति, लघुभाष्य तथा मलयगिरि, क्षेमकीर्ति कृत टीका सहित सन् 1933 से 1941 तक श्री जैन प्रात्मानन्द सभा भावनगर सौराष्ट्र से प्रकाशित हुई। प्रस्तुत ग्रन्थ का सम्पादन चतुरविजयजी और पुण्यविजयजी ने किया। सम्पादन कला की दृष्टि से यह सम्पादन उत्कृष्ट कहा जा सकता है। वृहत्कल्प एक अज्ञात टीकाकार की टीका सहित सम्यकज्ञान प्रचारक मण्डल जोधपुर से प्रकाशित हा। सन 1923 में जर्मन टिप्पणी आदि के साथ W. Schubring Lepizig 1905 : मूल मात्र नागरीलिपि में-पूना, 1923 / सन् 1915 में डॉ. जीवराज घेलाभाई दोशी ने गुजराती अनुवाद सहित अहमदाबाद से प्रकाशित किया, और आचार्य अमोलकऋषिजी म. ने हिन्दी अनुवाद सहित सुखदेवसहाय ज्वालाप्रसाद जौहरी हैदराबाद से प्रकाशित किया। ई. सन् 1977 में आगम अनुयोग प्रकाशन साण्डेराव से "कप्पसुत्तं" के नाम से मूलानुस्पर्शी अनुवाद और विशेष अर्थ के साथ प्रकाशित हुआ। प्रस्तुत सम्पादन प्रस्तुत प्रागम के सम्पादक आगम अनुयोग प्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी म. 'कमल' हैं। जिनका शब्दानुलकी अनुवाद और सम्पादन मन को लुभाने वाला है। प्राचीन व्याख्या साहित्य के आधार पर अनेक निगूढ़ रहस्यों को सम्पादक मुनिवर ने स्पष्ट करने का प्रयास किया है। व्यवहारसूत्र व्याख्यासाहित्य व्यवहार श्रमण जीवन की साधना का एक जीवन्त भाष्य है। व्यवहारनियुक्ति में उत्सर्ग और अपवाद 1. श्री मलयगिरी प्रभवो, यां कत्तु मुपाक्रमन्त मतिमन्तः / सा कल्पशास्त्र टीका मयाऽनुसन्धोयतेऽल्पधिया / -बृहत्कल्पपीठिकावृत्ति, पृ. 177 [67 ] Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का विवेचन है। इस नियुक्ति पर भाष्य भी है। जो अधिक विस्तृत है। बृहत्कल्प और व्यवहार की नियुक्ति परस्पर शैली भाव-भाषा की दृष्टि से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। दोनों में साधना के तथ्य व सिद्धान्त प्रायः समान हैं / यह नियुक्ति भाष्य में विलीन हो गई है। व्यवहारभाष्य हम पूर्व में ही बता चुके हैं कि व्यवहारभाष्य के रचयिता का नाम अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है। बृहत्कल्पभाष्य के समान ही इस भाष्य में भी निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के आचार-विचार पर प्रकाश डाला है। सर्वप्रथम पीठिका में व्यवहार, व्यवहारी एवं व्यवहर्तव्य के स्वरूप की चर्चा की गई है। व्यवहार में दोष लगने की दृष्टि से प्रायश्चित्त का अर्थ, भेद, निमित्त, अध्ययन विशेष, तदह पर्षद आदि का विवेचन किया गया है और विषय को स्पष्ट करने के लिये अनेक दृष्टान्त भी दिये गये हैं। इसके पश्चात् भिक्षु, मासपरिहार, स्थानप्रतिसेवना, आलोचना आदि पदों पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन किया है। आधाकर्म से सम्बन्धित अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार के लिए पृथक-पृथक प्रायश्चित्त का विधान है। मूलगुण और उत्तरगुण इन दोनों की विशुद्धि प्रायश्चित्त से होती है। अतिक्रम के लिए मासगुरु और काललघु, अतिचार के लिए तपोगुरु और कालगुरु और अनाचार के लिये चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का विधान है। पिण्डविशुद्धि समिति भावना तप प्रतिमा और अभिग्रह ये सभी उत्तरगुण में हैं। इनके क्रमश: बयालीस, भाठ, पच्चीस, बारह, बारह और चार भेद होते हैं। प्रायश्चित्त करने वाले पुरुष के निर्गत और वर्तमान ये दो प्रकार हैं। जो तपोर्ह प्रायश्चित्त से अतिक्रान्त हो गये हैं वे निर्गत हैं और जो विद्यमान हैं वे वर्तमान हैं। उनके भी भेद-प्रभेद किये गये हैं। प्रायश्चित्त के योग्य पुरुष चार प्रकार के होते हैं१. उभयतर--जो संयम तप की साधना करता हुआ भी दूसरों की सेवा कर सकता है / 2. आत्मतर-जो केवल तप ही कर सकता है। 3. परतर-जो केवल सेवा ही कर सकता है। 4. अन्यतर-जो तप और सेवा दोनों में से किसी एक समय में एक का ही सेवन कर सकता है। मालोचना पालोचनाह और आलोचक के बिना नहीं होती। अालोचनाह स्वयं आचारवान, प्राधारवान, व्यवहारवान, अपव्रीडक, प्रकुर्वी, निर्यापक, अपायदर्शी और अपरिश्राबी, इन गुणों से युक्त होता है / आलोचक भी जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसम्पन्न, दर्शनसम्पन्न, चरणसम्पन्न, क्षान्त, दान्त, अमायी और अपश्चात्तापी इन दस गुणों से युक्त होता है। साथ ही आलोचना के दोष, तदविषयभूत द्रव्य आदि, प्रायश्चित्त देने की विधि आदि पर भी भाष्यकार ने चिन्तन किया है। परिहारतप के वर्णन में सेवा का विश्लेषण किया गया है और सुभद्रा और मुगावती के उदाहरण भी दिये गये हैं। आरोपणा के प्रस्थापनिका, स्थापिता, कृत्स्ना, अकृत्स्ना और हाडहडा ये पांच प्रकार बताये हैं तथा इन पर विस्तार से चर्चा की है। शिथिलता के कारण गच्छ का परित्याग कर पुनः गच्छ में सम्मिलित होने के लिए विविध प्रकार के प्रायश्चित्तों का वर्णन है। पार्श्वस्थ, यथाच्छन्द, कुशील, प्रवसन्न और संसक्त के स्वरूप पर प्रकाश डाला है। [ 68] Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणों के विहार की चर्चा करते हुए एकाकी विहार का निषेध किया है और उनको लगने वाले दोषों का निरूपण किया है। विविध प्रकार के तपस्वी व व्याधियों से संसक्त श्रमण की सेवा का विधान करते हए क्षिप्तचित्त और दीप्तचित्त की सेवा करने को मनोवैज्ञानिक पद्धति पर प्रकाश डाला है। क्षिप्तचित्त के राग, भय और अपमान तीन कारण है। दीप्तचित्त का कारण सम्मान है। सम्मान होने पर उसमें मद पैदा होता है। शत्रुओं को पराजित करने के कारण बह मद से उन्मत्त होकर दीप्तचित्त हो जाता है। क्षिप्तचित्त और दीप्तचित्त में मुख्य अन्तर यह है कि क्षिप्तचित्त प्रायः मौन रहता है और दीप्तचित्त बिना प्रयोजन के भी बोलता रहता है। भाष्यकार ने गणावच्छेदक, प्राचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, प्रवतिनी ग्रादि पदवियों को धारण करने वाले की योग्यतानों पर विचार किया है। जो ग्यारह अंगों के ज्ञाता हैं, नवम पूर्व के ज्ञाता हैं, कृतयोगी हैं, बहुश्रुत है, बहुत आगमों के परिज्ञाता हैं, सूत्रार्थ विशारद हैं, धीर हैं, श्रुतनिघर्ष हैं, महाजन हैं वे विशिष्ट व्यक्ति ही प्राचार्य आदि विशिष्ट पदवियों को धारण कर सकते हैं। श्रमणों के विहार सम्बन्धी नियमोपनियमों पर विचार करते हए कहा है कि आचार्य, उपाध्याय ग्रादि पदवीदारों को कम से कम कितने सन्तों के साथ रहना चाहिए, आदि विविध विधि-विधानों का निरूपण है। प्राचार्य, उपाध्याय के पांच प्रतिशय होते हैं, जिनका श्रमणों को विशेष लक्ष्य रखना चाहिए 1. उनके बाहर जाने पर पैरों को साफ करना। 2. उनके उच्चार-प्रस्रवण को निर्दोष स्थान पर परठना / 3. उनकी इच्छानुसार वैयावृत्य करना / 4. उनके साथ उपाश्रय के भीतर रहना। 5. उनके साथ उपाश्रय के बाहर जाना। श्रमण किसी महिला को दीक्षा दे सकता है और दीक्षा के बाद उसे साध्वी को सौंप देना चाहिए। साध्वी किसी भी पुरुष को दीक्षा नहीं दे सकती / उसे योग्य श्रमण के पास दीक्षा के लिए प्रेषित करना चाहिए। श्रमणी एक संघ में दीक्षा ग्रहण कर दूसरे संघ में शिष्या बनना चाहे तो उसे दीक्षा नहीं देनी चाहिए। उसे जहाँ पर रहना हो वहीं पर दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए, किन्तु श्रमण के लिए ऐसा नियम नहीं है / तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाला उपाध्याय और 5 वर्ष की दीक्षापर्याय वाला प्राचार्य बन सकता है। वर्षावास के लिए ऐसा स्थान श्रेष्ठ बताया है, जहाँ पर अधिक कीचड़ न हो, द्वीन्द्रियादि जीवों की बहुलता न हो, प्रासुक भूमि हो, रहने योग्य दो तीन बस्तियां हों, गोरस की प्रचुरता हो, बहुत कोई वैद्य हो, औषधियां सरलता से प्राप्त होती हों, धान्य की प्रचुरता हो, राजा सम्यक् प्रकार से प्रजा का पालन करता हो, पाखण्डी साधु कम रहते हों, भिक्षा सुगम हो और स्वाध्याय में किसी भी प्रकार का विघ्न न हो। जहाँ पर कुत्ते अधिक हों वहाँ पर श्रमण को विहार नहीं करना चाहिए। भाष्य में दीक्षा ग्रहण करने वाले के गुण-दोष पर चिन्तन करते हुए लिखा है कि कुछ व्यक्ति अपने देशस्वभाव से ही दोषयुक्त होते हैं। आंध्र में उत्पन्न व्यक्ति क्रूर होता है। महाराष्ट्र में उत्पन्न हुआ व्यक्ति वाचाल होता है और कोशल में उत्पन्न हया व्यक्ति स्वभाव से ही दुष्ट होता है। इस प्रकार का न होना बहत ही कम व्यक्तियों में सम्भव है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगे भाष्य में शयनादि के निमित्त सामग्री एकत्रित करने और पुनः लौटाने की विधि बतलाई है। आहार की मर्यादा पर प्रकाश डालते हुए कहा है—आठ कौर खाने वाला श्रमण अल्पाहारी, बारह, सोलह, चौबीस, इकतीस और बत्तीस ग्रास ग्रहण करने वाला श्रमण क्रमश: अपार्धाहारी, अर्धाहारी, प्राप्तावमौदर्य और प्रमाणाहारी है / नवम उद्देशक में शय्यातर के ज्ञातिक, स्वजन, मित्र प्रभति पागन्तुक व्यक्तियों से सम्बन्धित आहार को लेने और न लेने के सम्बन्ध में विचार कर श्रमणों की विविध प्रतिमानों पर प्रकाश डाला है। - दशम उद्देशक में यवमध्यप्रतिमा और वनमध्यप्रतिमा पर विशेष रूप से चिन्तन किया है। साथ ही पांच प्रकार के व्यवहार, बालदीक्षा की विधि, दस प्रकार की वैयावृत्य आदि विषयों की व्याख्या की गई है। प्रायं रक्षित, आर्य कालक, राजा सातवाहन, प्रद्योत, मुरुण्ड, चाणक्य, चिलातपुत्र, अवन्ति, सुकुमाल, रोहिणेय, प्रार्य समुद्र, आर्य मंगु आदि की कथाएं आई हैं। प्रस्तुत भाष्य अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। व्यवहार पर एक चूणि भी लिखी गई थी। चूणि के पश्चात् व्यवहार पर प्राचार्य मलयगिरि ने वृत्ति लिखी। वत्ति में आचार्य मलयगिरि का गम्भीर पाण्डित्य स्पष्ट रूप से झलकता है। विषय की गहनता, भाषा की प्रांजलता, शैली का लालित्य और विश्लेषण की स्पष्टता प्रेक्षणीय है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्राक्कथन के रूप में पीठिका है। जिसमें कल्प; व्यवहार, दोष, प्रायश्चित्त प्रभृति विषयों पर चिन्तन किया है। वृत्तिकार ने प्रारम्भ में अर्हत् अरिष्टनेमि को, अपने सद्गुरुवर्य तथा व्यवहारसूत्र के चणिकार आदि को भक्तिभावना से विभोर होकर नमन किया है। वृत्तिकार ने बृहत्कल्प और व्यवहार इन दोनों प्रागमों के अन्तर को स्पष्ट करते हुए लिखा कि कल्पाध्ययन में प्रायश्चित्त का निरूपण है किन्तु उसमें प्रायश्चित्त देने की विधि नहीं है, जबकि व्यवहार में प्रायश्चित्त देने की और पालोचना करने की ये दोनों प्रकार की विधियां हैं। यह बहत्कल्प से व्यवहार की विशेषता है। व्यवहार, व्यवहारी और व्यवहर्तव्य तीनों का विश्लेषण करते हुए लिखा है-व्यवहारी कर्तारूप है, व्यवहार कारणरूप है और व्यवहर्तव्य कार्यरूप है। कारणरूपी व्यवहार प्रागम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत रूप से पांच प्रकार का है / चूर्णिकार ने पांचों प्रकार के व्यवहार को करण कहा है। भाष्यकार ने सूत्र, अर्थ, जीतकल्प, मार्ग, न्याय, एप्सितव्य, प्राचरित और व्यवहार इनको एकार्थक माना है। जो स्वयं व्यवहार के मर्म को जानता हो, अन्य व्यक्तियों को व्यवहार के स्वरूप को समझाने की क्षमता रखता हो वह गीतार्थ है। जो गीतार्थ है उसके लिए व्यवहार का उपयोग है / प्रायश्चित्त प्रदाता और प्रायश्चित्त संग्रहण करने वाला दोनों गीतार्थ होने चाहिए। प्रायश्चित्त के प्रतिसेवना, मंयोजना, ग्रारोपणा और परिकूचना, ये चार अर्थ हैं। प्रतिसेवना रूप प्रायश्चित्त के दस भेद हैं। (1) आलोचना, (2) प्रतिक्रमणा, (3) तदुभय, (4) विवेक (5) उत्सर्ग, (6) तप, (7) छेद, (8) मूल, (9) अनवस्थाप्य और (10) पारांचिक / इन दसों प्रायश्चित्तों के सम्बन्ध में विशेष रूप से विवेचन किया गया है। यदि हम इन प्रायश्चित्त के प्रकारों की तुलना विनयपिटक' में आयी हुई प्रायश्चित्तविधि के साथ करें तो आश्चर्यजनक समानता मिलेगी। प्रायश्चित्त प्रदान करने वाला अधिकारी या प्राचार्य बहुश्रुत ब गम्भीर हो, यह आवश्यक है। प्रत्येक के सामने 1. विनयपिटक निदान [ 70 ] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालोचना का निषेध किया गया है। पालोचना और प्रायश्चित दोनों ही योग्य व्यक्ति के समक्ष होने चाहिए, जिससे कि वह गोपनीय रह सके / बौद्धपरम्परा में साधुसमुदाय के सामने प्रायश्चित्त ग्रहण का विधान है। विनयपिटक में लिखा हैप्रत्येक महीने की कृष्ण चतुर्दशी और पूर्णमासी को सभी भिक्षु उपोसथागार में एकत्रित हो तथागत बुद्ध ने अपना उत्तराधिकारी संघ को बताया है। अत: किसी प्राज्ञ भिक्षु को सभा के प्रमुख पद पर नियुक्त कर पातिमोक्ख का वाचन किया जाता है और प्रत्येक प्रकरण के उपसंहार में यह जिज्ञासा व्यक्त की जाती है कि उपस्थित सभी भिक्षु उक्त बातों में शुद्ध हैं ? यदि कोई भिक्षु तत्सम्बन्धी अपने दोष की मालोचना करना चाहता है तो संघ उस पर चिन्तन करता है और उसकी शुद्धि करवता है। द्वितीय और तृतीय बार भी उसी प्रश्न को दुहराया जाता है। सभी की स्वीकृति होने पर एक-एक प्रकरण आगे पढ़े जाते हैं। इसी तरह भिक्षुणियां भिक्खुनी पातिमोक्ख का वाचन करती हैं। यह सत्य है कि दोनों ही परम्परानों की प्रायश्चित्त विधियां पृथक्-पृथक् हैं। पर दोनों में मनोवैज्ञानिकता है। दोनों ही परम्पराओं में प्रायश्चित्त करने वाले साधक के हृदय की पवित्रता, विचारों की सरलता अपेक्षित मानी है। प्रथम उद्देशक में प्रतिसेवना के मूलप्रतिसेवना और उत्तरप्रतिसेवना ये दो प्रकार बताये हैं / मूलगुणअतिचारप्रतिसेवना प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह रूप पांच प्रकार की है। उत्तरगुणातिचार प्रतिसेवना दस प्रकार की है। उत्तरगूण अनागत, अतिक्रान्त, कोटिसहित, नियन्त्रितः साकार, अनाकार, परिमाणकृत, निरवशेष, सांकेतिक और अद्रा प्रत्याख्यान के रूप में है। ऊपर शब्दों में उत्तरगुणों के पिण्डविशुद्धि, पांच समिति, बाह्य तप, पाभ्यान्तर तप, भिक्षप्रतिमा और अभिग्रह इस तरह दस प्रकार हैं। मूलगुणातिचारप्रतिसेवना और उत्तरगुणातिचारप्रतिसेवना इनके भी दर्य और कल्प्य ये दो प्रकार हैं। बिना कारण प्रतिसेवना दपिका है और कारण युक्त प्रतिसेवना कल्पिका है। वृत्तिकार ने विषय को स्पष्ट करने के लिए स्थान-स्थान पर विवेचन प्रस्तुत किया है / प्रस्तुत वृत्ति का ग्रन्थमान 34625 श्लोक प्रमाण है। वृत्ति के पश्चात् जनभाषा में सरल और सुबोध शैली में प्रागमों के शब्दार्थ करने वाली संक्षिप्त टीकाएं लिखी गई हैं, जिनकी भाषा प्राचीन गुजराती-राजस्थानी मिश्रित है। यह बालावबोध व टब्बा के नाम से विश्रत हैं / स्थानकवासी परम्परा के धर्मसिंह मुनि ने व्यवहारसूत्र पर भी टब्बा लिखा है, पर अभी तक वह अप्रकाशित ही है। प्राचार्य अमोलकऋषिजी महाराज द्वारा कृत हिन्दी अनुवाद साहित व्यवहारसूत्र प्रकाशित हुआ है। जीवराज घेलाभाई दोशी ने गुजराती में अनुवाद भी प्रकाशित किया है। शुबिंग लिपजिग ने जर्मन टिप्पणी के साथ सन् 1918 में लिखा / जिसको जैन साहित्य समिति पूना से 1923 में प्रकाशित किया है। पूज्य घासीलालजी म. ने छेदसूत्रों का प्रकाशन केवल संस्कृत टीका के साथ करवाया है। आगम अनुयोग प्रकाशन साण्डेराव से सन् 1980 में व्यवहारसूत्र प्रकाशित हआ। जिसका सम्पादन आगममर्मज्ञ मुनि श्री कन्हैयालालजी म. “कमल" ने किया। प्रस्तुत सम्पादन-मुनि श्री कन्हैयालालजी म. "कमल" ने पहले प्रायार-दसा, कप्पसुत्तं और बहारसुत्तं इन तीनों वेदसूत्रों का सम्पादन और प्रकाशन किया था। उसी पर और अधिक विस्तार से प्रस्तुत तीन आगमों का सम्पादन कर प्रकाशन हो रहा है। इसके पूर्व निशीथ का प्रकाशन हो चुका है। चारों छेदसूत्रों पर मूल, अर्थ और विवेचन युक्त यह प्रकाशन अपने आप में गौरवपूर्ण है। इन तीन प्रागमों के प्रकाशन के साथ ही [71] Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत आगममाला से स्थानकवासी परम्परा मान्य बत्तीस पागमों का प्रकाशन कार्य भी सम्पन्न हो रहा है। स्वर्गीय श्रद्धेय युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी म. की कमनीय कल्पना को अनेक सम्पादक मुनियों, महासतियों और विद्वानों के कारण मूर्त रूप मिल गया है। यह परम पाह्लाद का विषय है। छेदसूत्रों में श्रमणों की प्राचारसंहिता का विस्तार से निरूपण हा है। छेदसूत्रों में उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का निरूपण है। मैं बहुत ही विस्तार से इन पर लिखने का सोच रहा था, पर श्रमणसंघीय व्यवस्था का दायित्व आ जाने से उस कार्य में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण और अत्यधिक भीड़ भरा वाताबरण होने के कारण नहीं लिख सका / इसका मुझे स्वयं को विचार है। बहत ही संक्षिप्त में परिचयात्मक प्रस्तावना लिखी है। आशा है, सुज्ञ पाठक आगम में रहे हुए मर्म को समझेंगे। महामहित राष्ट्रसन्त आचार्यसम्राट श्री आनन्दऋषिजी म. और परमश्रद्धेय पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. की असीम कृपा के फलस्वरूप ही मैं साहित्य के क्षेत्र में कुछ कार्य कर सका हूँ और स्वर्गीय युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी म. की प्रेरणा से आगम साहित्य पर प्रस्तावनाएं लिखकर उनकी प्रेरणा को मूर्तरूप दे सका है, इसका मन में सन्तोष है। आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि सुज्ञ पाठकगण आगमों की स्वाध्याय कर अपने जीवन को धन्य बनायेंगे। उपाचार्य देवेन्द्रमुनि कोट, पीपाड़सिटी दिनांक 22-10-91 [72 ] Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 127 129 132 133 بسم orror M النع س बृहत्कल्पसूत्र [125-258] प्रथम उद्देशक साधु-साध्वी के प्रलंब-ग्रहण करने का विधि-निषेध प्रामादि में साधु-साध्वी के रहने की कल्पमर्यादा ग्रामादि में साधु-साध्वी को एक साथ रहने का विधि-निषेध आपणगृह आदि में साधु-साध्वियों के रहने का विधि-निषेध बिना द्वार वाले स्थान में साधु-साध्वी के रहने का विधि-निषेध साधु-साध्वी को घटीमात्रक ग्रहण करने का विधि-निषेध चिलमिलिका (मच्छरदानी) ग्रहण करने का विधान पानी के किनारे खड़े रहने आदि का निषेध सचित्त उपाश्रय में ठहरने का निषेध सागारिक की निश्रा लेने का विधान गहस्थ-युक्त उपाश्रय में रहने का विधि-निषेध प्रतिबद्ध शय्या में ठहरने का विधि-निषेध प्रतिबद्ध मार्ग वाले उपाश्रय में ठहरने का विधि-निषेध स्वयं को उपशान्त करने का विधान विहार सम्बन्धी विधि-निषेध वैराज्य–विरुद्धराज्य में बारम्बार गमनागमन का निषेध गोचरी आदि में नियंत्रित वस्त्र प्रादि के ग्रहण करने की विधि रात्रि में आहारादि की गवेषणा का निषेध एवं अपवाद विधान रात्रि में गमनागमन का निषेध रात्रि में स्थंडिल एवं स्वाध्याय भूमि में अकेले जाने का निषेध पार्यक्षेत्र में विचरण करने का विधान प्रथम उद्देशक का सारांश س or 140 141 141 143 144 ~ ~ 151 xxx [ 75 ] Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 .. 162 द्वितीय उद्देशक धान्ययुक्त उपाश्रय में रहने के विधि-निषेध सुरायुक्त मकान में रहने का विधि-निषेध व प्रायश्चित्त जलयुक्त उपाश्रय में रहने का विधि-निषेध और प्रायश्चित्त अग्नि या दीपक युक्त उपाश्रय में रहने के विधि-निषेध और प्रायश्चित्त खाद्यपदार्थयुक्त मकान में रहने के विधि-निषेध और प्रायश्चित्त साधु-साध्वी के धर्मशाला आदि में ठहरने का विधि-निषेध अनेक स्वामियों वाले मकान की आज्ञा लेने के विधि-निषेध संसृष्ट-असंसृष्ट शय्यातर पिंडग्रहण के विधि-निषेध शय्यातर के घर आये या भेजे गये आहार के ग्रहण का विधि-निषेध शय्यातर के अंशयुक्त आहार-ग्रहण का विधि-निषेध शय्यातर के पूज्यजनों को दिये गये आहार के ग्रहण करने का विधि-निषेध निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी के लिये कल्पनीयवस्त्र निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी के लिये कल्पनीय रजोहरण दूसरे उद्देशक का सारांश 165 168 170 171 174 176 178 179 तृतीय उद्देशक निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी को परस्पर उपाश्रय में खडे रहने प्रादि का निषेध साधु-साध्वी द्वारा वस्त्र ग्रहण करने के विधि-निषेध साधु-साध्वी को अवग्रहानन्तक और अवग्रहपट्टक धारण करने के विधि-निषेध साध्वी को अपनी निश्रा से वस्त्र ग्रहण करने का निषेध दीक्षा के समय ग्रहण करने योग्य उपधि का विधान प्रथम द्वितीय समवसरण में वस्त्र ग्रहण करने का विधि-निषेध यथारत्नाधिक वस्त्र ग्रहण का विधान यथारत्नाधिक शय्या-संस्तारक ग्रहण का विधान यथारत्नाधिक कृतिकर्म करने का विधान गृहस्थ के घर में ठहरने आदि का निषेध गहस्थ के घर में मर्यादित वार्ता का विधान गृहस्थ के घर में मर्यादित धर्मकथा का विधान गृहस्थ का शय्या-संस्तारक लौटाने का विधान शय्यातर का शय्या-संस्तारक व्यवस्थित करके लौटाने का विधान खोये हुए शय्या-संस्तारक के अन्वेषण का विधान प्रागन्तुक श्रमणों को पूर्वाज्ञा में रहने का विधान स्वामी-रहित घर की पूर्वाज्ञा एवं पुनः आज्ञा का विधान पूर्वाज्ञा से मार्ग प्रादि में ठहरने का विधान सेना के समीपवर्ती क्षेत्र में गोचरी जाने का विधान एवं रात रहने का प्रायश्चित्त MMMMMMM Mus SI 0018 191 192 193 [76 ] Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 194 197 000 205 206 211 216 221 अवग्रहक्षेत्र का प्रमाण तीसरे उद्देशक का सारांश चौथा उद्देशक अनुद्घातिक प्रायश्चित्त के स्थान पाराञ्चिक प्रायश्चित्त के स्थान अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के स्थान वाचना देने के योग्यायोग्य के लक्षण शिक्षा-प्राप्ति के योग्यायोग्य के लक्षण ग्लान को मैथुनभाव का प्रायश्चित्त प्रथम प्रहर के आहार को चतुर्थ प्रहर में रखने का निषेध दो कोस से आगे आहार ले जाने का निषेध अनाभोग से ग्रहण किये अनेषणीय आहार की विधि औद्देशिक आहार के कल्प्याकल्प्य का विधान श्रुतग्रहण के लिये अन्य गण में जाने का विधि-निषेध सांभोगिक-व्यवहार के लिये अन्य गण में जाने की विधि प्राचार्य आदि को वाचना देने के लिये अन्य गण में जाने का विधि-निषेध कलह करने वाले भिक्षु से सम्बन्धित विधि-निषेध परिहार-कल्पस्थित भिक्षु की वैयावृत्य करने का विधान महानदी पार करने के विधि-निषेध घास से ढकी हुई छत वाले उपाश्रय में रहने के विधि-निषेध चौथे उद्देशक का सारांश पांचवा उद्देशक विकुर्वित दिव्य शरीर के स्पर्श से उत्पन्न मैथुनभाव का प्रायश्चित्त कलहकृत पागन्तुक भिक्ष के प्रति कर्तव्य रात्रिभोजन के अतिचार का विवेक एवं प्रायश्चित्त विधान उद्गाल सम्बन्धी विवेक एवं प्रायश्चित्त विधान संसक्त आहार के खाने एवं परठने का विधान सचित्त जलबिन्दु मिले आहार को खाने एवं परठने का विधान पशु-पक्षी के स्पर्शादि से उत्पन्न मैथुनभाव के प्रायश्चित्त साध्वी को एकाकी गमन करने का निषेध साध्वी को वस्त्र-पात्र रहित होने का निषेध साध्वी को प्रतिज्ञाबद्ध होकर आसनादि करने का निषेध आकुचनपट्टक के धारण करने का विधि-निषेध प्रबलंबन युक्त प्रासन के विधि-निषेध सविसाण पीठ आदि के विधि-निषेध 222 223 225 227 rrr mmmmm 20. x 237 237 238 240 241 241 [77 ] Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 242 242 243 243 245 245 246 सवृत तुम्ब-पात्र के विधि-निषेध सबूत पात्रकेसरिका के विधि-निषेध दण्डयुक्त पादपोंछन के विधि-निषेध परस्पर मोक आदान-प्रदान के विधि-निषेध आहार-औषध परिवासित रखने के विधि-निषेध परिहारिक भिक्षु का दोषसेवन एवं प्रायश्चित्त पुलाक-भक्त ग्रहण हो जाने पर गोचरी जाने का विधि-निषेध पांचवें उद्देशक का सारांश छट्ठा उद्देशक प्रकल्प्य वचनप्रयोग का निषेध असत्य आक्षेपकर्ता को उसी प्रायश्चित्त का विधान साधु-साध्वी के परस्पर कण्टक आदि निकालने का विधान साधु द्वारा साध्वी को अवलम्बन देने का विधान संयमनाशक छह स्थान छह प्रकार की कल्पस्थिति छठे उद्देशक का सारांश 249 249 251 252 254 256 257 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (कार्यकारिणी समिति) अध्यक्ष कार्यवाहक अध्यक्ष उपाध्यक्ष इन्दौर ब्यावर ब्यावर मद्रास जोधपुर मद्रास दुग महामंत्री मंत्री श्री सागरमलजी बेताला श्री रतनचन्दजी मोदी श्री धनराजजी विनायकिया श्री पारसमलजी चोरडिया श्री हुक्मीचन्दजी पारख श्री दुलीचन्दजी चोरड़िया श्री जसराजजी सा. पारख श्री जी. सायरमलजी चोरडिया श्री अमरचन्दजी मोदी श्री ज्ञानराजजी मूथा श्री ज्ञानचन्दजी विनायकिया श्री जवरीलालजी शिशोदिया श्री आर. प्रसन्नचन्द्रजी चोरडिया श्री माणकचन्दजी संचेती श्री एस. सायरमलजी चोरडिया श्री मोतीचन्दजी चोरडिया श्री मूलचन्दजी सुराणा श्री तेजराजजी भण्डारी श्री भंवरलालजी गोठी श्री प्रकाशचन्दजी चोपड़ा श्री जतनराजजी मेहता श्री भंवरलालजी श्रीश्रीमाल श्री चन्दनमलजी चोरडिया श्री सुमेरमलजी मेड़तिया श्री पासूलालजी बोहरा मद्रास ब्यावर पाली ब्यावर ब्यावर मद्रास सहमंत्री कोषाध्यक्ष जोधपुर परामर्शदाता कार्यकारिणी सदस्य मद्रास मद्रास नागौर जोधपुर मद्रास ब्यावर मेड़तासिटी दुर्ग मद्रास जोधपुर जोधपुर Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रा प्रथम उद्देशक साधु-साध्वी के प्रलंब-ग्रहण करने का विधि-निषेध 1. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा आमे ताल-पलम्बे अभिन्ने पडिग्गाहित्तए। 2. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा आमे ताल-पलम्बे भिन्ने पडिग्गाहित्तए। 3. कप्पइ निग्गंथाणं पक्के ताल-पलम्बे भिन्ने वा अभिन्ने वा पडिग्गाहित्तए। 4. नो कप्पइ निग्गंथीणं पक्के ताल-पलम्बे अभिन्ने पडिग्गाहित्तए। 5. कप्पइ निग्गंथीणं पक्के ताल-पलम्बे भिन्ने पडिग्गाहित्तए; से वि य विहिभिन्ने, नो चेव णं अविहिभिन्ने / 1. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को अभिन्न शस्त्र-अपरिणत कच्चे ताल-प्रलम्ब ग्रहण करना नहीं कल्पता है। 2. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को भिन्न-शस्त्रपरिणत कच्चा ताल-प्रलम्ब ग्रहण करना कल्पता है। 3. निर्ग्रन्थों को खण्ड-खण्ड किया हुआ या अखण्ड-पक्व (शस्त्रपरिणत) ताल-प्रलम्ब ग्रहण करना कल्पता है। 4. निर्ग्रन्थियों को अखण्ड पक्व (शस्त्रपरिणत) ताल-प्रलम्ब ग्रहण करना नहीं कल्पता है। 5. निर्ग्रन्थियों को खण्ड-खण्ड किया हुआ पक्व (शस्त्रपरिणत) ताल-प्रलम्ब ग्रहण करना कल्पता है / वह भी विधिपूर्वक भिन्न (अत्यन्त छोटे-छोटे खण्डकृत) हो तो ग्रहण करना कल्पता है, प्रविधि-भिन्न हो तो ग्रहण करना नहीं कल्पता है / विवेचन सूत्रपठित 'ताल-प्रलम्ब' पद सभी फलों का सूचक है। "एक के ग्रहण करने पर सभी सजातीय ग्रहण कर लिए जाते हैं"इस न्याय के अनुसार 'ताल-प्रलम्ब' पद से 'ताल-फल' के अतिरिक्त केला, आम, अनार आदि फल भी ग्रहण करना अभीष्ट है। इसी प्रकार 'प्रलम्ब' पद को अन्त:दीपक (अन्त के ग्रहण से आदि एवं मध्य का ग्रहण) मानकर मूल, कन्द, स्कन्ध आदि भी ग्रहण किये गये हैं। प्रथम, द्वितीय सूत्र में 'आम' पद का अपक्व अर्थ और 'अभिन्न' पद का शस्त्र-अपरिणत अर्थ एवं 'भिन्न' पद का शस्त्र-परिणत अर्थ अभीष्ट है / Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिन्न अर्थात् 128] [बहत्कल्पसूत्र तीसरे, चौथे और पांचवें सूत्र में 'अभिन्न' पद का प्रखण्ड अर्थ एवं 'पक्व' पद का शस्त्रपरिणत अर्थ अभीष्ट है। भाष्य में 'तालप्रलम्ब' पद से वृक्ष के दस विभागों को ग्रहण किया गया है, यथा-- मूले कंदे खंधे, तया य साले पवाल पत्ते य / पुप्फे फले य बीए, पलंब सुत्तम्मि दस भेया // --बृहत्कल्प उद्दे. 1, भाष्य गा. 854 इन सूत्रों का संयुक्त अर्थ यह है कि साधु और साध्वी पक्व या अपक्व और शस्त्र-अपरिणत 1. मूल, 2. कन्द, 3. स्कन्ध, 4. त्वक्, 5. शाल, 6. प्रवाल, 7. पत्र, 8. पुष्प, 9. फल और 10. बीज को ग्रहण नहीं कर सकते हैं / किन्तु ये ही यदि शस्त्र-परिणत हो जाएँ तो साधु और साध्वी ग्रहण कर सकते हैं। इन सूत्रों में प्रयुक्त 'अाम, पक्व, भिन्न एवं अभिन्न' इन चारों पदों की भाष्य में द्रव्य एवं भाव से चौभंगियाँ करके भी यही बताया गया है कि भाव से पक्व या भाव से भिन्न ; शस्त्रपरिणत तालप्रलम्ब हो तो भिक्षु को ग्रहण करना कल्पता है / __ प्रथम सूत्र में कच्चे तालप्रलम्ब शस्त्रपरिणत न हों तो अग्राह्य कहे हैं एवं दूसरे सूत्र में उन्हीं को शस्त्रपरिणत (भिन्न) होने पर ग्राह्य कहा है। जिस प्रकार दूसरे सूत्र में द्रव्य और भाव से भिन्न होने पर कच्चे तालप्रलम्ब ग्राह्य कहे हैं उसी प्रकार तीसरे सूत्र में द्रव्य और भाव से पक्व तालप्रलम्ब भिन्न या अभिन्न हों तो भिक्षु के लिये ग्राह्य कहे हैं / चौथे सूत्र में द्रव्य और भाव से पक्व तालप्रलम्ब भी अभिन्न हो तो साध्वी को ग्रहण करने का निषेध किया गया है। पांचवें सूत्र में द्रव्य और भाव से पक्व तालप्रलम्ब के बड़े-बड़े लम्बे टुकड़े लेने का साध्वी के लिये निषेध करके छोटे-छोटे टुकड़े हों तो ग्राह्य कहे हैं। अचित्त होते हुए भी अखण्ड या लम्बे खण्ड साध्वी को लेने के निषेध का कारण इस प्रकार है अभिन्न— प्रखण्ड केला आदि फल का तथा शकरकंद, मूला आदि कन्द-मूल का लम्बा आकार देखकर किसी निर्ग्रन्थी के मन में विकार भाव जागृत हो सकता है और वह उससे अनंगक्रीड़ा भी कर सकती है, जिससे उसके संयम और स्वास्थ्य की हानि होना सुनिश्चित है। अतः निर्ग्रन्थी को अभिन्न फल या कन्द आदि लेने का निषेध किया गया है। साथ ही अविधिपूर्वक भिन्न कदली आदि फलों के, मूला आदि कन्दों के, ऐसे लम्बे खण्ड जिन्हें देखकर कामवासना का जागृत होना सम्भव हो, उन्हें लेने का भी निषेध किया गया है / किन्तु विधिपूर्वक भिन्न अर्थात् इतने छोटे-छोटे खण्ड किए हुए हों कि जिन्हें देखकर पूर्वोक्त विकारभाव जागृत न हो तो ऐसा फल या कन्द आदि साध्वी ग्रहण कर सकती हैं। जो फल पककर वृक्ष से स्वयं नीचे गिर पड़ता है अथवा पक जाने पर वृक्ष से तोड़ लिया जाता है, उसे द्रव्यपक्व कहते हैं। वह द्रव्यपक्व फल भी सचित्त-सजीव बीज, गुठली आदि से संयुक्त होता है। अतः उसे जब शस्त्र से विदारित कर, गुठली आदि को दूरकर या जिसमें अनेक बीज हैं Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयम उद्देशक] [129 उसे अग्नि प्रादि में पकाकर उबालकर या भूनकर सर्वथा असंदिग्ध रूप से अचित्त-निर्जीव कर लिया गया हो, तब वह भावपक्व-शस्त्र-परिणत कहा जाता है एवं ग्राह्य होता है। इससे विपरीत-अर्थात् छेदन-भेदन किये जाने पर या अग्नि आदि में पकाने पर भी अर्द्धपक्व होने की दशा में उसके सचित्त रहने की सम्भावना हो तो वह भाव से अपक्व-शस्त्र-अपरिणत कहा जाता है एवं अग्राह्य होता है / विस्तृत विवेचन एवं चौभंगियों के लिये भाष्य एवं वृत्ति का अवलोकन करना चाहिए। ग्रामादि में साधु-साध्वी के रहने की कल्पमर्यादा 6. से 1. गामंसि वा, 2. नगरंसि वा, 3. खेडंसि वा, 4. कम्बडंसि वा, 5. मडंबंसि वा, 6. पट्टणंसि वा, 7. आगरंसि वा, 8. दोणमुहंसि वा, 9. निगमंसि वा, 10. आसमंसि वा, 11. सन्निवेसंसि वा, 12. संवाहंसि वा, 13. घोसंसि वा, 14. अंसियंसि वा, 15. पुडभेयणंसि वा, 16. रायहाणिसि वा, सपरिक्खेवंसि अबाहिरियंसि, कप्पइ निग्गंथाणं हेमन्त-गिम्हासु एगं मासं वत्थए / 7. से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा, सपरिक्खेवंसि सबाहिरियंसि, कप्पह निग्गंथाणं हेमन्त-गिम्हासु दो मासे वत्थए। अन्तो एगं मासं, बाहिं एगं मासं / अन्तो वसमाणाणं अन्तो भिक्खायरिया, बाहि वसमाणाणं बाहि भिक्खायरिया। 8. से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा, सपरिक्खेवंसि अबाहिरियंसि, कप्पइ निग्गंथीणं हेमन्तगिम्हासु दो मासे वत्थए। 9. से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा सपरिक्खेवंसि सबाहिरियंसि, कप्पइ निग्गंथीणं हेमन्त-गिम्हासु चत्तारि मासे वत्थए / अन्तो दो मासे, बाहिं दो मासे / अन्तो वसमाणोणं अन्तो भिक्खायरिया, बाहिं वसमाणीणं बाहिं भिक्खायरिया। 6. निर्ग्रन्थों को सपरिक्षेप और अबाहिरिक 1. ग्राम, 2. नगर, 3. खेट, 4. कर्बट, 5. मडंब, 6. पत्तन, 7. प्राकर, 8. द्रोणमुख, 9. निगम, 10. पाश्रम, 11. सन्निवेश, 12. सम्बाध, 13. घोष, 14. अंशिका, 15. पुटभेदन और 16. राजधानी में हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में एक मास तक रहना कल्पता है / 7. निर्ग्रन्थों को सपरिक्षेप (प्राकार या वाड-युक्त) और सबाहिरिक (प्राकार के बाहर की बस्ती युक्त) ग्राम यावत् राजधानी में हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में दो मास तक रहना कल्पता है। एक मास ग्राम आदि के अन्दर और एक मास ग्रामादि के बाहर। ग्राम आदि के अन्दर रहते हुए अन्दर ही भिक्षाचर्या करना कल्पता है। ग्राम आदि के बाहर रहते हुए बाहर ही भिक्षाचर्या करना कल्पता है। 8. निर्गन्थियों को सपरिक्षेप और अबाहिरिक ग्राम यावत् राजधानी में हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में दो मास तक रहना कल्पता है / Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130] [बृहत्कल्पसूत्र 9. निर्ग्रन्थियों को सपरिक्षेप और सबाहिरिक ग्राम यावत् राजधानी में हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में चार मास तक रहना कल्पता है। दो मास ग्राम आदि के अन्दर और दो मास ग्राम आदि के बाहर / ग्राम आदि के अन्दर रहते हुए अन्दर ही भिक्षाचर्या करना कल्पता है। ग्राम आदि के बाहर रहते हुए बाहर ही भिक्षाचर्या करना कल्पता है। विवेचन--प्रत्येक जनपद में ग्राम आदि सूत्रोक्त अनेक बस्तियां होती हैं। ये बस्तियां दो प्रकार की होती हैं 1. जिस ग्राम आदि के चारों ओर पाषाण, ईंट, मिट्टी, काष्ठ, बांस या कांटों आदि का तथा खाई, तालाब, नदी, गर्त, पर्वत का प्राकार हो और उस प्राकार के अन्दर ही घर बसे हुए हों, बाहर न हों तो उस ग्राम प्रादि को 'सपरिक्षेप' और 'अबाहिरिक' कहा जाता है। 2. जिस ग्राम आदि के चारों ओर पूर्वोक्त प्रकार के प्राकारों में से किसी प्रकार का प्राकार हो और उस प्राकार के बाहर भो घर बसे हुए हों, उस ग्राम आदि को 'सपरिक्षेप' और 'सबाहिरिक' कहा जाता है। साधु-साध्वियाँ उक्त दोनों प्रकार की बस्तियों में ठहरते हैं / वर्षाकाल में उनके लिए सर्वत्र चार मास तक रहने का विधान है किन्तु वर्षाकाल के अतिरिक्त पाठ मास तक वे कहाँ कितने ठहरें? इसका विधान उल्लिखित चार सूत्रों में है। सूत्र में सपरिक्षेप सबाहिरिक ग्रामादि में दुगुने कल्प तक रहने के लिये भिक्षाचर्या सम्बन्धी जो कथन है, उसका तात्पर्य यह है कि भिक्षु ग्रामादि के जिस विभाग में रहे उसी विभाग में गोचरी करे तो उसे प्रत्येक विभाग में अलग-अलग कल्प काल तक रहना कल्पता है। किन्तु एक विभाग में रहते हुए अन्य विभागों में भी गोचरी करे तो उन विभागों में अलग मासकल्प काल रहना नहीं कल्पता है। सूत्र में प्रयुक्त ग्रामादि शब्दों की व्याख्या नत्थेत्थ करो नगरं, खेडं पुणं होई धूलिपागारं / कम्बडगं तु कुनगरं, मडंबगं सव्वतो छिन्नं // जलपट्टणं च यलपट्टणं च, इति पट्टणं भवे दुविहं। अयमाइ प्रागरा खलु, दोणमुहं जल-थलपहेणं / निगम नेगमवग्गो, वसइ रायहाणि जहि राया। तावसमाई आसम, निवेसो सत्थाइजत्ता वा // संवाहो संवोढु, वसति जहिं पव्वयाइविसमेसु / घोसो उ गोउलं, अंसिया उ गामद्धमाईया / / णाणादिसागयाणं, भिज्जति पुडा उ जत्थ भंडाणं / पुडभेयणं तगं संकरो य, केसिंचि कायव्यो। -बह. भाष्य गाथा 1089-1093 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक] 1. ग्राम-जहां अठारह प्रकार का कर लिया जाता है अथवा जहां रहने वालों की बुद्धि मंद होती है उसे 'ग्राम' कहा जाता है। 2. नगर-जहां अठारह प्रकार के कर नहीं लिए जाते हैं वह 'नगर' कहा जाता है। 3. खेड--जहां मिट्टी का प्राकार हो वह खेड या 'खेडा' कहा जाता है / 4. कर्बट–जहां अनेक प्रकार के कर लिये जाते हैं ऐसा छोटा नगर कर्बट (कस्बा) कहा जाता है। 5. मडंब---जिस ग्राम के चारों ओर अढ़ाई कोश तक अन्य कोई ग्राम न हो-वह मडम्ब कहा जाता है। 6. पट्टण-दो प्रकार के हैं-जहां जल मार्ग पार करके माल आता हो वह 'जलपत्तन' कहा जाता है / जहां स्थल मार्ग से माल आता हो वह 'स्थलपत्तन' कहा जाता है / 7. आकर---लोहा आदि धातुरों की खानों में काम करने वालों के लिये वहीं पर बसा हुवा ग्राम आकर कहा जाता है। 8. द्रोणमुख-जहां जलमार्ग और स्थलमार्ग से माल आता हो ऐसा नगर दो मुह वाला होने से द्रोणमुख कहा जाता है। 9. निगम-जहां व्यापारियों का समूह रहता हो वह निगम कहा जाता है। 10. प्राश्रम-जहां संन्यासी तपश्चर्या करते हों वह आश्रम कहा जाता है एवं उसके आसपास बसा हुआ ग्राम भी आश्रम कहा जाता है। 11. निवेश-व्यापार हेतु विदेश जाने के लिए यात्रा करता हुआ सार्थवाह (अनेक व्यापारियों का समूह) जहां पड़ाव डाले वह स्थान निवेश कहा जाता है / अथवा एक ग्राम के निवासी कुछ समय के लिए दूसरी जगह ग्राम बसावें-वह ग्राम भी निवेश कहा जाता है / अथवा सभी प्रकार के यात्री जहां-जहां विश्राम लें वे सब स्थान निवेश कहे जाते हैं। इसे ही आगम में अनेक जगह सन्निवेश कहा है। 12. सम्बाध-खेती करने वाले कृषक दूसरी जगह खेती करके पर्वत आदि विषम स्थानों पर रहते हों वह ग्राम सम्बाध कहा जाता है। अथवा व्यापारी दूसरी जगह व्यापार करके पर्वत आदि विषम स्थानों पर रहते हों, वह ग्राम सम्बाध कहा जाता है। अथवा जहां धान्य आदि के कोठार हों वहां बसे हुए ग्राम को भी सम्बाध कहा जाता है / 13. घोष-जहां गायों का यूथ रहता हो वहां बसे हुए ग्राम को घोष (गोकुल) कहा जाता है। 14. अंशिका-ग्राम का प्राधा भाग, तीसरा भाग या चौथा भाग जहां आकर बसे वह वसति 'अंशिका' कही जाती है / 15. पुटभेदन–अनेक दिशाओं से आए हुए माल की पेटियों का जहां भेदन (खोलना) होता है वह 'पुटभेदन' कहा जाता है / Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132] [बृहत्कल्पसूत्र 16. राजधानी–जहां रहकर राजा शासन करता हो वह राजधानी कही जाती है। 17. संकर-जो ग्राम भी हो, खेड भी हो, पाश्रम भी हो ऐसा मिश्रित लक्षण वाला स्थान 'संकर' कहा जाता है / वह शब्द मूल में नहीं है भाष्य में है। ग्रामादि में साधु-साध्वी को एक साथ रहने का विधि-निषेध 10. से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा, एगवगडाए, एगदुवाराए, एग-निक्खमण-पवेसाए, नो कप्पइ निग्गंथाण य निग्गंथीण य एगयओ वत्थए / 11. से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा, अभिनिव्वगडाए, अभिनिन्दुवाराए अभिनिक्खमणपवेसाए, कप्पइ निग्गंथाण य निग्गंथीण य एगयनो वत्थए / 10. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को एक वगड़ा, एक द्वार और एक निष्क्रमण-प्रवेश वाले ग्राम यावत् राजधानी में (भिन्न-भिन्न उपाश्रयों में भी) समकाल बसना नहीं कल्पता है / 11. निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को अनेक वगड़ा, अनेक द्वार और अनेक निष्क्रमण-प्रवेश वाले ग्राम यावत् राजधानी में समकाल बसना कल्पता है। विवेचन–ग्रामादि की रचना अनेक प्रकार की होती है, यथा१. एक विभाग वाले 2. अनेक विभाग वाले 3. एक द्वार वाले 4. अनेक द्वार वाले 5. एक मार्ग वाले 6. अनेक मार्ग वाले। द्वार एवं मार्ग में यह अन्तर समझना चाहिये कि 'द्वार' समय-समय पर बन्द किये जा सकते हैं एवं खोले जा सकते हैं / किन्तु 'मार्ग' सदा खुले ही रहते हैं और उन पर कोई द्वार बने हुए नहीं होते हैं। जो ग्राम केवल एक ही विभाग वाला हो और उसमें जाने आने का मार्ग भी केवल एक ही हो और ऐसे ग्रामादि में पहले भिक्षु ठहर चुके हों तो वहां साध्वियों को नहीं ठहरना चाहिये अथवा साध्वियां ठहरी हुई हों तो वहां साधुओं को नहीं ठहरना चाहिये। जिस ग्रामादि में अनेक विभाग हों एवं अनेक मार्ग हों तो वहां साधु-साध्वी दोनों एक साथ अलग-अलग उपाश्रयों में रह सकते हैं। कदाचित् एक विभाग या एक मार्ग वाले ग्रामादि में साधुसाध्वी दोनों विहार करते हुए पहुँच जाएं तो वहां पर आहारादि करके विहार कर देना चाहिये अर्थात् अधिक समय वहां दोनों को निवास नहीं करना चाहिये। ऐसे ग्राम यावत् राजधानी में दोनों के ठहरने पर जिन दोषों के लगने की सम्भावना रहती है उनका वर्णन भाष्यकार ने विस्तारपूर्वक किया है। वह संक्षेप में इस प्रकार है Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक] [133 1. उच्चार-प्रस्रवणभूमि में और स्वाध्यायभूमि में आते-जाते समय तथा भिक्षा के समय गलियों में या ग्राम के द्वार पर निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों का बार-बार मिलन होने से एक-दूसरे के साथ संसर्ग बढ़ता है और उससे रागभाव की वद्धि होती है। अथवा उन्हें एक ही दिशा में एक ही मार्ग से जाते-आते देखकर जनसाधारण को अनेक आशंकाएं उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है। "संसर्गजा दोष-गुणा भवन्ति" इस सूक्ति के अनुसार संयम की हानि सुनिश्चित है। एक वगड़ा में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के उपाश्रयों के द्वार एक-दूसरे के आमने-सामने हों। एक उपाश्रय के द्वार के पार्श्वभाग में दूसरे उपाश्रय का द्वार हो / एक उपाश्रय के पृष्ठभाग में दूसरे उपाश्रय का द्वार हो। एक उपाश्रय का द्वार ऊपर हो और दूसरे उपाश्रय का द्वार नीचे हो। तथा निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के उपाश्रय समपंक्ति में हों तो भी जन-साधारण में अनेक आशंकाएं उत्पन्न होती हैं तथा उनके संयम की हानि होने की सम्भावना रहती है। सूत्रांक 11 में अनेक वगडा अनेक द्वार और अनेक आने-जाने के मार्ग वाले ग्राम आदि के विभिन्न उपाश्रयों में निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों के समकाल में रहने का विधान है। क्योंकि अनेक आने-जाने के मार्ग वाले ग्राम प्रादि में निर्ग्रन्थों तथा निर्ग्रन्थियों का बार-बार मिलन न होने से न सम्पर्क बढ़ेगा और न रागभाव बढ़ेगा, न जन-साधारण को किसी प्रकार की आशंका उत्पन्न होगी। अतः ऐसे ग्रामादि में यथावसर साधु-साध्वी का समकाल में रहना दोषरहित समझना चाहिये / आपणगृह आदि में साधु-साध्वियों के रहने का विधि-निषेध 12. नो कप्पइ निग्गंथीणं 1. आवणगिहंसि वा, 2. रत्थामुहंसि वा, 3. सिंघाडगंसि वा, 4. तियंसि वा, 5. चउक्कंसि वा, 6. चच्चरंसि वा, 7. अन्तरावणंसि वा बत्थए। 13. कप्पइ निम्गंथाणं प्रावणगिहंसि वा जाव अन्तरावर्णसि वा वत्थए / 12. निर्ग्रन्थियों को 1. आपणगह, 2. रथ्यामुख, 3. शृगाटक, 4. त्रिक, 5. चतुष्क, 6. चत्वर अथवा 7. अन्तरापण में रहना नहीं कल्पता है। 13. निर्ग्रन्थों को आपणगृह यावत् अन्तरापण में रहना कल्पता है / विवेचन-१. हाट-बाजार को 'आपण' कहते हैं, उसके बीच में विद्यमान गृह या उपाश्रय 'आपणगृह' कहा जाता है। 2. रथ्या का अर्थ गली या मोहल्ला है, जिस उपाश्रय या घर का मुख (द्वार) गली या मोहल्ले की ओर हो, वह 'रथ्यामुख' कहलाता है अथवा जिस घर के आगे से गली प्रारम्भ होती हो, उसे भी 'रथ्यामुख' कहते हैं। 3. सिंघाड़े के समान त्रिकोण स्थान को 'शृगाटक' कहते हैं / 4. तीन गली या तीन रास्तों के मिलने के स्थान को 'त्रिक' कहते हैं / Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134] [बृहत्कल्पसूत्र 5. चार मार्गों के समागम को (चौराहे को) 'चतुष्क' कहते हैं। 6. जहां पर छह या अनेक रास्ते आकर मिलें, अथवा जहां से छह या अनेक ओर रास्ते जाते हों, ऐसे स्थान को 'चत्वर' कहते हैं। 7. अन्तरापण का अर्थ हाट-बाजार का मार्ग है / जिस उपाश्रय के एक अोर अथवा दोनों ओर बाजार का मार्ग हो, उसे 'अन्तरापण' कहते हैं / अथवा जिस घर के एक तरफ दुकान हो और दूसरी तरफ निवास हो उसे भी 'अन्तरापण' कहते हैं। ऐसे उपाश्रयों या घरों में साध्वियों को नहीं रहना चाहिये। क्योंकि इन स्थानों में अनेक मनुष्यों का पावागमन रहता है। सहज ही उनकी दृष्टि साध्वियों पर पड़ती रहती है जिससे उनकी शीलरक्षा में कई बाधायें उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है। अतः राजमार्ग या चौराहे आदि सूत्रोक्त स्थानों को छोड़कर गली के अन्दर या सुरक्षित स्थानों में साध्वियों का रहना निरापद होता है / साधु को ऐसे स्थानों में रहने में आपत्ति न होने से सूत्र में विधान किया गया है। स्वाध्याय ध्यान आदि संयम योगों में रुकावट आती हो तो साधु को भी ऐसे स्थानों में नहीं ठहरना चाहिये। बिना द्वार वाले स्थान में साधु-साध्वी के रहने का विधि-निषेध 14. नो कम्पइ निग्गंथीणं अवंगुयदुवारिए उवस्सए वत्थए / एग पत्थारं अन्तो किच्चा, एग पत्यारं बाहिं किच्चा, पोहाडिय चिलिमिलियागंसि एवं णं कप्पइ वत्थए। 15. कप्पइ निग्गंथाणं अवंगुयदुवारिए उवस्सए वत्थए। 14. निर्ग्रन्थियों को अपावृत (खुले) द्वार वाले उपाश्रय में रहना नहीं कल्पता है / किन्तु निर्ग्रन्थियों को अपावृतद्वार वाले उपाश्रय में द्वार पर एक प्रस्तार (पर्दा) भीतर करके और एक प्रस्तार बाहर करके इस प्रकार चिलिमिलिका (जिसके बीच में मार्ग रहे) बांधकर उसमें रहना कल्पता है। 15. निग्रन्थों को अपावृत्त द्वार वाले उपाश्रय में रहना कल्पता है। ___ विवेचन-जिस उपाश्रय या गृह आदि का द्वार कपाट-युक्त न हो, ऐसे स्थान पर साध्वियों को ठहरने का जो निषेध किया है, उसका कारण यह है कि खुला द्वार देखकर रात्रि के समय चोर आदि पाकर साध्वियों के वस्त्र-पात्रादि को ले जा सकते हैं। कामी पुरुष भी पा सकते हैं, वे अनेक प्रकार से साध्वियों को परेशान कर सकते हैं एवं उनके साथ बलात्कार भी कर सकते हैं। कुत्ते आदि भी घुस सकते हैं, इत्यादि कारणों से कपाट-रहित द्वार वाले उपाश्रय या घर में साध्वियों को ठहरने निषेध किया गया है। किन्त यदि अन्वेषण करने पर भी किसी ग्रामादि में किवाडों वाला घर ठहरने को नहीं मिले और खुले द्वार वाले घर में ठहरने का अवसर आवे तो उसके लिए प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि अन्दर बाहर इस तरह वस्त्र का पर्दा कर दें कि सहज किसी की दृष्टि न पड़े और जाने-आने का मार्ग भी रहे। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक] [135 भाष्य में द्वार को ढंकने की विधि इस तरह बताई गई है कि बांस या खजूर की छिद्ररहित चटाई या सन-टाट आदि के परदे से द्वार को बाहरी अोर से मोर भीतरी ओर से भी बन्द करके ठहरना चाहिए। रात्रि के समय उन दोनों परदों को किसी खूटी आदि से आर, बीच में और नीचे इस प्रकार बांधे कि बाहर से कोई पुरुष प्रवेश न कर सके। फिर भी सुरक्षा के लिए बताया गया है कि उस द्वार पर सशक्त साध्वी बारी-बारी से रात भर पहरा देवे तथा रूपवती युवती साध्वियों को गीतार्थ और वृद्ध साध्वियों के मध्य-मध्य में चक्रवाल रूप से स्थान देकर सोने की व्यवस्था गणिनी या प्रवर्तिनी को करनी चाहिए / गणिनी को सबके मध्य में सोना चाहिए और बीच-बीच में सबकी संभाल करते रहना चाहिए / खुले द्वार वाले स्थान में साधुओं को ठहरने का जो विधान किया गया है उसका कारण स्पष्ट है कि उनके उक्त प्रकार की आशंका की सम्भावना नहीं है। यदि कहीं कुत्ते या चोर ग्रादि को आशंका हो तो साधु को भी यथायोग्य सुरक्षा कर लेनी चाहिये / साधु-साध्वी को घटीमात्रक ग्रहण करने का विधि-निषेध 16. कप्पइ निग्गंथीणं अन्तोलित्तं घडिमत्तयं धारित्तए वा परिहरित्तए वा / 17. नो कप्पइ निग्गंथाणं अन्तोलित्तं घडिमत्तयं धारित्तए वा परिहरित्तए वा। 16. निर्ग्रन्थियों को अन्दर की ओर लेपयुक्त घटीमात्रक रखना और उसका उपयोग करना कल्पता है। 17. निर्ग्रन्थों को अन्दर की ओर लेपयुक्त घटीमात्रक रखना और उसका उपयोग करना नहीं कल्पता है। विवेचन-आगम में तीन प्रकार के मात्रक रखने की आज्ञा है, यथा१. उच्चारमात्रक, 2. प्रश्रवणमात्रक, 3. खेलमात्रक / यहां भी एक प्रकार के मात्रक का वर्णन है। पूर्व के अनेक सूत्रों में साध्वी के शीलरक्षा हेतु निषेध किये गये हैं और यहां भिक्षु के ब्रह्मचर्यरक्षा हेतु निषेध है / घटीमात्रक एक प्रकार का प्रश्रवणमात्रक ही है। यद्यपि प्रश्रवणमात्रक तो साधु-साध्वी दोनों को रखना कल्पता है तथापि इस मात्रक का कुछ विशेष आकार होता है, उस आकार को बताने वाला "घटी" शब्द है जिसका टीकाकार ने इस प्रकार अर्थ किया है "घटीमात्र" ---घटीसंस्थानं मृन्मयभाजन विशेष, घटिका (घडिगा) के प्राकार वाला एक प्रकार का मिट्टी का पात्र, घटीमात्रक का अर्थ है। जिस प्रकार तालप्रलम्ब के लम्बे टुकड़ों में पुरुष चिह्न का आभास होने के कारण साध्वी को उनका निषेध किया गया है, उसी प्रकार घटी आकार वाले मात्रक के मुख से स्त्री-चिह्न का आभास Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [बृहत्कल्पसूत्र होने के कारण साधु के लिये इसका निषेध किया गया है और साध्वी के लिये बाधक न होने से विधान किया गया है। ____ "घट" शब्द का अर्थ "मिट्टी का घड़ा" होता है और "घटी" या "घटिका" शब्द से छोटा घड़ा या छोटो सुराही अर्थ होता है / यथा"घडिगा" घटिका-मृन्मयकुल्लडिका / -सूय. पत्र 118 अल्पपरिचित सैद्धांतिक शब्दकोष, पृ. 381 भाष्य तथा टीका में कपड़े से मुख बंधा होने का तथा मिट्टी के होने का जो कथन है उससे भी सुराही जैसा होना सम्भव है क्योंकि सुराही जैसे छोटे मुख वाले पात्र के ही कपड़ा बांधा जाता है / अन्यथा तो पात्र या मात्रक कपड़े से ढंक कर ही रखे जाते हैं। __ मिट्टी का होने से खुरदरा हो सकता है जो जल्दी न सूखने के कारण प्रश्रवण के उपयोगी नहीं होता है अतः अन्दर चिकना बना करके ही साध्वी को रखना कल्पता है। वही पात्र अन्दर चिकना होने के कारण साधु के लिये आकार और स्पर्श दोनों से विकारजन्य हो जाता है। ऐसे ही मात्रक का यह विधि-निषेध समझना चाहिये। ___ भाष्य-टीका में इसे सामान्य प्रश्रवणमात्रक बताकर साधु को रखना अनावश्यक ही कहा है। किन्तु सामान्य प्रश्रवणमात्रक के ग्रहण करने का आगम में अनेक जगह उल्लेख है। अतः यहां ब्रह्मचर्यबाधक आकृतिविशेष वाला प्रश्रवणमात्रक ही समझना प्रसंगसंगत है। चिलमिलिका (मच्छरदानी) ग्रहण करने का विधान 18. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा चलचिलिमिलियं धारित्तए वा परिहरित्तए वा। 18. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को चेल-चिलिमिलिका रखना और उसका उपयोग करना कल्पता है। विवेचन–चिलमिलिका यह देशी शब्द है, यह छोलदारी के आकार वाली एक प्रकार की वस्त्र-कुटी है / यह पांच प्रकार की होती है 1. सूत्रमयी--कपास आदि के धागों से बनी हुई, 2. रज्जुमयी-ऊन आदि के मोटे धागों से बनी हुई, 3. वल्कलमयी-सन-पटसन आदि की छाल से बनी हुई, 4. दण्डकमयी-बांस-वेंत से बनी हुई, 5. कटमयी-चटाई से बनी हुई। प्रकृत सूत्र में वस्त्र से बनी चिलमिली को रखने का विधान किया गया है, अन्य का नहीं। क्योंकि उनके भारी होने से विहार के समय साथ में ले जाना सम्भव नहीं होता है या बहुश्रम-साध्य होता है। चिलमिलिका का प्रमाण पाँच हाथ लम्बी, तीन हाथ चौड़ी और तीन हाथ ऊँची बताया गया है। इसके भीतर एक साधु या साध्वी का संरक्षण भलीभांति हो सकता है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक] [137 निशीथसूत्र उ. 1 में सूत्र (धागों) से स्वयं चिलमिलिका बनाने का प्रायश्चित्त कहा है और यहां पर वस्त्र की चिलमिलिका रखना कल्पनीय कहा है अतः तैयार मिलने वाले वस्त्र से भिक्षु चिलमिलिका बनाकर रख सकता है अथवा वस्त्र की तैयार चिलमिलिका मिले तो भी भिक्षु ग्रहण करके रख सकता है। इस सूत्र में धारण करने के लिये कही गई चिलमिलिका से मच्छरदानी का कथन किया गया है और सूत्र 14 में एक प्रस्तार (चद्दर या पर्दा) द्वार के अन्दर एवं एक बाहर बांधकर बीच में मार्ग रखने रूप चिलमिलिका बनाना कहा गया है। वह दो पदों (चद्दरों) से बनाई गई चिलमिलिका प्रस्तुत सूत्र की चिलमिलिका (मच्छरदानी) से भिन्न है। भाष्यकार ने प्रत्येक साधु और साध्वी को एक-एक चिलिमिलिका रखने का निर्देश किया है, जिसका अभिप्राय यह है कि वर्षा आदि ऋतुओं में जबकि डांस, मच्छर, मक्खो, पतंगे आदि क्षुद्र जन्तु आदि उत्पन्न होते हैं, तब रात्रि के समय चिलिमिलिका के अन्दर सोने से उनकी रक्षा होती है। इसी प्रकार पानी के बरसने पर अनेक प्रकार के जीवों से या विहार काल में वनादि प्रदेशों में ठहरने पर जंगली जानवरों से आत्मरक्षा भी होती है। रोगी साधु की परिचर्या भी उसके लगाने से सहज में होती है। मक्खी, मच्छर आदि के अधिक हो जाने पर आहार-पानी भी चिलमिलिका लगाकर करने से उन जीवों की रक्षा होती है। पानी के किनारे खड़े रहने आदि का निषेध 19. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा दगतीरंसि, 1. चिट्ठित्तए वा, 2. निसीइत्तए वा, 3. तुयट्टित्तए वा, 4. निदाइत्तए वा, 5. पयलाइत्तए वा, 6. असणं वा, 7. पाणं बा, 8. खाइमं वा, 9. साइमं वा आहरित्तए, 10. उच्चारं वा, 11. पासवणं वा, 12. खेलं वा, 13. सिंघाणं वा परिवेत्तए, 14. सज्झायं वा करित्तए, 15. धम्मजागरियं वा जागरित्तए, 16. काउसग्गं वा ठाइत्तए / 19. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को दकतोर (जल के किनारे) पर 1. खड़ा होना, 2. बैठना, 3. शयन करना, 4. निद्रा लेना, 5. ऊंघना, 6. अशन, 7. पान, 8. खादिम और 9. स्वादिम आहार का खाना-पीना, 10.-11. मल-मूत्र, 12. श्लेष्म, 13. नासामल आदि का परित्याग करना, 14. स्वाध्याय करना, 15. धर्मजागरिका (धर्मध्यान) करना तथा 16. कायोत्सर्ग कर स्थित होना नहीं कल्पता है। विवेचन-नदी या सरोवर आदि जलाशय के जिस स्थान से ग्रामवासी या वनवासी लोग पानी भर के ले जाते हैं और जहां पर गाय भैसें अादि पशु या जंगली जानवर पानी पीने को पाते हैं, ऐसे स्थान को 'दकतीर' कहते हैं। अथवा किसी भी जलयुक्त जलाशय के किनारे को 'दकतीर' कहते हैं। ऐसे स्थान पर साधू या साध्वी का उठना-बैठना, खाना-पीना, मल-मूत्रादि करना, धर्मजागरण करना और ध्यानावस्थित होकर कायोत्सर्ग आदि करने का जो निषेध किया गया है, उसके अनेक कारण नियुक्तिकार, भाष्यकार और टीकाकार ने बताये हैं, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं 1. जल भरने को आने वाली स्त्रियों को साधु के चरित्र में शंका हो सकती है। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138] बहत्कल्पसूत्र 2. पानी पीने को आने वाले जानवर डरकर बिना पानी पिये ही वापस लौट सकते हैं, उनके पानी पीने में अन्तराय होती है। 3. इधर-उधर भागने से 'जीवधात' की भी सम्भावना रहती है। 4. दुष्ट जानवर साधु को मार सकते हैं। 5. जल में रहे जलचर जीव साधु को देखकर त्रस्त होते हैं। 6. वे जल में इधर-उधर दौड़ते हैं, जिससे पानी के जीवों की विराधना होती है। 7. जल के किनारे पृथ्वो सचित्त होती है अतः पृथ्वीकाय के जीवों को विराधना होती है। 8. साधु के कच्चा पानी पीने की या ग्रहण करने की लोगों को अाशंका होती है। इत्यादि कारणों से सूत्र में जलस्थान के किनारे ठहरने का निषेध किया गया है / सचित्र उपाश्रय में ठहरने का निषेध .. 20. नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा सचित्तकम्मे उवस्सए वत्थए / 21. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अचित्तकम्मे उवस्सए वत्थए / 20. निर्ग्रन्थों और निर्गन्धियों को सचित्र उपाश्रय में रहना नहीं कल्पता है / 21. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को चित्र-रहित उपाश्रय में रहना कल्पता है। विवेचन-जिन उपाश्रयों की भित्तियों पर देव-देवियों, स्त्री-पुरुषों और पशु-पक्षियों के जोड़ों के अनेक प्रकार से क्रीड़ा करते हुए चित्र हों अथवा अन्य भी मनोरंजक चित्र चित्रित हों, वहां साधु या साध्वी को नहीं ठहरना चाहिये, क्योंकि उन्हें देखकर उनके मन में विकारभाव जागृत हो सकता है तथा बारंबार उधर दृष्टि जाने से स्वाध्याय, ध्यान, प्रतिलेखन आदि संयम क्रियाओं में एकाग्रता नहीं रहती है। अतः सचित्र उपाश्रयों में ठहरने का साधु-साध्वियों को निषेध किया गया है। सागारिक की निश्रा लेने का विधान 22. नो कप्पइ निग्गंथोणं सागारिय-अनिस्साए वत्थए / 23. कप्पइ निग्गंथीणं सागारिय-निस्साए बथए / 24. कप्पइ निग्गंथाणं सागारिय-निस्साए वा अनिस्साए वा वत्थए / 22. निर्ग्रन्थियों को सागारिक को अनिश्रा से रहना नहीं कल्पता है / 23. निर्ग्रन्थियों को सागारिक की निश्रा से रहना कल्पता है / 24. निर्ग्रन्थों को सागारिक की निश्रा या अनिश्रा से रहना कल्पता है / विवेचन-जैसे वृक्षादि के आश्रय के विना लता पवन से प्रेरित होकर कम्पित और अस्थिर हो जाती है, उसी प्रकार शय्यातर की निश्रा अर्थात् सुरक्षा का उत्तरदायित्व मिले बिना श्रमणी भी Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक] [139 क्षुभित एवं भयभीत हो सकती है, उसके शील की रक्षा पुरुष की निश्रा से भलीभांति हो सकती है। क्योंकि क्षुद्र पुरुषों के द्वारा बलात्कार करने की आशंका बनी रहती है। अतः गुरुणी-प्रवर्तिनी से रक्षित होने पर भी श्रमणी को शय्यातर की निश्रा में रहना प्रावश्यक बताया गया है। किन्तु साधुवर्ग प्रायः सशक्त, दृढचित्त एवं निर्भय मनोवृत्ति वाला होता है तथा उसके ब्रह्मचर्य भंग के विषय में बलात्कार होना भी सम्भव नहीं रहता है। अतः वह शय्यातर की निश्रा के बिना भी उपाश्रय में रह सकता है / यदि चोर या हिंसक जीवों का या अन्य कोई उपद्रव हो तो साधु भी कभी शय्यातर से सुरक्षा का आश्वासन प्राप्त करके ठहर सकता है। गृहस्थ-युक्त उपाश्रय में रहने का विधि-निषेध 25. नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा सागारिए उवस्सए वत्थए / 26. नो कप्पइ निग्गंथाणं इत्थि-सागारिए उवस्सए वत्थए / 27. कप्पइ निग्गंथाणं पुरिस-सागारिए उवस्सए वत्थए। 28. नो कप्पइ निग्गंथोणं पुरिस-सागारिए उवस्सए वत्थए / 29. कप्पइ निग्गंथीणं इस्थि-सागारिए उवस्सए वत्थए / 25. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को सागारिक (गृहस्थ के निवास वाले) उपाश्रय में रहना नहीं कल्पता है। 26. निग्रंन्थों को स्त्री-सागारिक (केवल स्त्रियों के निवास वाले) उपाश्रय में रहना नहीं कल्पता है। 27. निग्रन्थों को पुरुष-सागारिक (केवल पुरुषों के निवास वाले) उपाश्रय में रहना कल्पता है। 28. निर्ग्रन्थियों को पुरुष-सागारिक (केवल पुरुषों के निवास वाले) उपाश्रय में रहना नहीं कल्पता है। 29. निर्ग्रन्थियों को स्त्री-सागारिक (केवल स्त्रियों के निवास वाले) उपाश्रय में रहना कल्पता है। ___ विवेचन-सागारिक उपाश्रय दो प्रकार के होते हैं-द्रव्य-सागारिक और भाव-सागारिक / जिस उपाश्रय में स्त्री पुरुष रहते हों अथवा स्त्री-पुरुषों के रूप भित्ति आदि पर चित्रित हों, काष्ठ, पाषाणादिकी मूर्तियां स्त्री-पुरुषादि की हों, उनके शृगार के साधन वस्त्र, आभूषण, गन्ध, माला, अलंकार आदि रखे हों, जहां पर भोजन-पान की सामग्री रखी हुई हो, गीत, नृत्य, नाटक आदि होते हों, या वीणा, बांसुरी, मृदंगादि बाजे बजते हों, वह उपाश्रय स्वस्थान में द्रव्य-सागारिक है और परस्थान में भाव-सागारिक है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140] [वृहत्कल्पसूत्र स्वस्थान और परस्थान का अर्थ यह है कि यदि उस उपाश्रय में पुरुषों के चित्र, मतियां हों और पुरुषों के ही गीत, नृत्य, नाटकादि होते हों तो वह साधुनों के लिए द्रव्य-सागारिक है और साध्वियों के लिए भाव-सागारिक है। इसी प्रकार जिस उपाश्रय में स्त्रियों के चित्र, मूर्ति आदि हों और उनके गीत, नृत्य, नाटकादि होते हों तो वह उपाश्रय पुरुषों के लिए भाव-सागारिक है और स्त्रियों के लिए द्रव्य-सागारिक है। साधु और साध्वियों को इन दोनों ही प्रकार के (द्रव्य-सागारिक और भाव-सागारिक) उपाश्रयों में रहना योग्य नहीं है। यद्यपि प्रथम सूत्र में द्रव्य और भावसागारिक उपाश्रयों में रहने का जो स्पष्ट निषेध किया है वह उत्सर्गमार्ग है, किन्तु विचरते हुए साधु-साध्वियों को उक्त दोष-रहित निर्दोष उपाश्रय ठहरने को न मिले तो ऐसी दशा में द्रव्य-सागारिक उपाश्रय में साधु या साध्वी ठहर सकते हैं। किन्तु भावसागारिक उपाश्रय में नहीं ठहर सकते, यह सूत्रचतुष्क में बताया गया है। सारांश यह है कि उत्सर्गमार्ग से साधु-साध्वी को द्रव्य एवं भावसागारिक उपाश्रय में नहीं ठहरना चाहिये किन्तु अपवादमार्ग से द्रव्य-सागारिक उपाश्रय में ठहर सकते हैं। प्रतिबद्धशय्या में ठहरने का विधि-निषेध 30. नो कप्पइ निग्गंथाणं पडिबद्ध-सेज्जाए वत्थए / 31. कप्पइ निग्गंथीणं पडिबद्ध-सेज्जाए वत्थए / 30. निर्ग्रन्थों को प्रतिबद्धशय्या में रहना नहीं कल्पता है / 31. निर्ग्रन्थियों को प्रतिबद्धशय्या में रहना कल्पता है। विवेचन-प्रतिबद्ध उपाश्रय दो प्रकार का होता है-१. द्रव्य-प्रतिबद्ध, 2. भाव-प्रतिबद्ध 1. जिस उपाश्रय में छत के बलधारण अर्थात् छत के पाट गृहस्थ के घर से सम्बद्ध हों, उसे द्रव्यप्रतिबद्ध उपाश्रय कहा गया है। 2. भावप्रतिबद्ध उपाश्रय चार प्रकार का होता है 1. जहां पर स्त्री और साधुओं के मूत्रादि करने का स्थान एक ही हो / 2. जहां स्त्री एवं साधुओं के बैठने का स्थान एक ही हो।। 3. जहां पर सहज ही स्त्री का रूप दिखाई देता हो। 4. जहां पर बैठने से स्त्री के भाषा, प्राभूषण एवं मैथुन सम्बन्धी शब्द सुनाई देते हों। द्रव्य-प्रतिबद्ध उपाश्रय में स्वाध्याय आदि की ध्वनि गृहस्थ को एवं गृहस्थ के कार्यों की ध्वनि साधु को बाधक हो सकती है तथा एक दूसरे के कार्यों में व्याघात भी हो सकता है। भाव-प्रतिबद्ध उपाश्रय संयम एवं ब्रह्मचर्य के भावों में बाधक बन सकता है। अतः द्रव्य-भावप्रतिबद्धशय्या में ठहरना योग्य नहीं है / Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक] [141 यद्यपि उक्त दोष साधु-साध्वी दोनों के लिये समान हैं, फिर भी साध्वी के लिये सूत्र में जो विधान किया है वह अपवाद स्वरूप है। क्योंकि उन्हें गृहस्थ की निश्रायुक्त उपाश्रय में ही ठहरना होता है। निश्रायुक्त उपाश्रय कभी अप्रतिबद्ध न मिले तो प्रतिबद्ध स्थान में ठहरना उनको आवश्यक हो जाता है। ऐसे समय में उन्हें किस विवेक से रहना चाहिए, इसकी विस्तृत जानकारी भाष्य से करनी चाहिये। विशेष परिस्थिति में कदाचित् साधु को भी ऐसे स्थान में ठहरना पड़ जाए तो उसकी विधि भी भाष्य में बताई गई है। उत्सर्ग विधि से तो साध-साध्वी को अप्रतिबद्ध शय्या में ही ठहरना चाहिये। प्रतिबद्ध मार्ग वाले उपाश्रय में ठहरने का विधि-निषेध 32. नो कप्पइ निग्गंथाणं गाहावइ-कुलस्स मज्झमशेणं गंतु वत्थए / 33. कप्पइ निग्गंथीणं गाहावइ-कुलस्स मसंमज्झेणं गंतु वत्थए / 32. गृह के मध्य में होकर जिस उपाश्रय में जाने-माने का मार्ग हो उस उपाश्रय में निर्ग्रन्थों को रहना नहीं कल्पता है। 33. गृह के मध्य में होकर जिस उपाश्रय में जाने-माने का मार्ग हो उस उपाश्रय में निर्ग्रन्थियों को रहना कल्पता है / विवेचन- यदि कोई उपाश्रय ऐसे स्थान पर हो जहां कि गहस्थ के घर के बीचोबीच होकर जाना-पाना पड़े और अन्य मार्ग नहीं हो, ऐसे उपाश्रय में साधुओं को नहीं ठहरना चाहिए, क्योंकि गृहस्थ के घर के बीच में होकर जाने-माने पर उसकी स्त्री, बहिन आदि के रूप देखने, शब्द सुनने एवं गृहस्थी के अनेक प्रकार के कार्यकलापों के देखने से साधुओं का चित्त विक्षोभ को प्राप्त हो सकता है। अथवा घर में रहने वाली स्त्रियां क्षोभ को प्राप्त हो सकती हैं। फिर भी साध्वियों को ठहरने का जो विधान सूत्र में है, उसका अभिप्राय यह है कि निर्दोष निश्रा युक्त उपाश्रय न मिले तो ऐसे उपाश्रय में साध्वियां ठहर सकती हैं। पूर्व सूत्रद्वय में प्रतिबद्ध स्थान का कथन किया है। प्रस्तुत सूत्रद्वय में स्थान अप्रतिबद्ध होते हुए भी उसका मार्ग प्रतिबद्ध हो सकता है यह बताया गया है। साधु को ऐसे प्रतिबद्ध स्थानों का वर्जन करना अत्यन्त आवश्यक है और साध्वी को इतना आवश्यक नहीं है। इन सभी सूत्रों के विधिनिषेधों में ब्रह्मचर्य की रक्षा का हेतु ही प्रमुख है। स्वयं को उपशान्त करने का विधान 34. भिक्षु य अहिगरणं कटु, तं अहिगरणं विनोसवित्ता, विओसवियपाहुडे 1. इच्छाए परो प्राढाएज्जा, इच्छाए परो णो प्राढाएज्जा। 2. इच्छाए परो अब्भुट्ठज्जा, इच्छाए परो णो अब्भुठेज्जा / 3. इच्छाए परो वन्देज्जा, इच्छाए परो नो वन्देज्जा। 4. इच्छाए परो संभुजेज्जा, इच्छाए परो नो संभुजेज्जा। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142] [वृहत्कल्पसूत्र 5. इच्छाए परो संवसेज्जा, इच्छाए परो नो संबसेज्जा। 6. इच्छाए परो उवसमेज्जा, इच्छाए परो नो उखसमेज्जा। जो उवसमइ तस्स अस्थि आराहणा, जो न उवसमइ तस्स नस्थि आराहणा; तम्हा अप्पणा चेव उवसमियवं। प०-से किमाहु भंते ! उ.--"उवसमसारं खु सामण्णं / " 34. भिक्षु किसी के साथ कलह हो जाने पर उस कलह को उपशान्त करके स्वयं सर्वथा कलहरहित हो जाए / जिसके साथ कलह हुआ है-- 1. वह भिक्षु इच्छा हो तो आदर करे, इच्छा न हो तो अादर न करे / 2. वह इच्छा हो तो उसके सन्मान में उठे, इच्छा न हो तो न उठे। 3. वह इच्छा हो तो वन्दना करे, इच्छा न हो तो वन्दना न करे / 4. वह इच्छा हो तो उसके साथ भोजन करे, इच्छा न हो तो न करे / 5. वह इच्छा हो तो उसके साथ रहे, इच्छा न हो तो न रहे। 6. वह इच्छा हो तो उपशान्त हो, इच्छा न हो तो उपशान्त न हो। जो उपशान्त होता है उसके संयम की आराधना होती है। जो उपशान्त नहीं होता है उसके संयम की आराधना नहीं होती है / इसलिए अपने आपको तो उपशान्त कर ही लेना चाहिए। प्र०---भन्ते ! ऐसा क्यों कहा? उ०—(हे शिष्य) उपशम ही श्रमण-जीवन का सार है। विवेचन--यद्यपि भिक्षु अात्मसाधना के लिये संयम स्वीकार कर प्रतिक्षण स्वाध्याय, ध्यान आदि संयम-क्रियायों में अप्रमत्त भाव से विचरण करता है तथापि शरीर, आहार, शिष्य, गुरु, वस्त्र, पात्र, शय्या-संस्तारक आदि कई प्रमाद एवं कषाय के निमित्त संयमी जीवन में रहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव, क्षयोपशम, विवेक भी भिन्न-भिन्न होता है। क्रोध मान आदि कषायों की उपशान्ति भी सभी की भिन्न-भिन्न होती है। परिग्रहत्यागी होते हुए भी द्रव्यों एवं क्षेत्रों के प्रति ममत्व के प्रभाव में (अममत्व भाव में) भिन्नता रहती है। विनय, सरलता, क्षमा, शान्ति प्रादि गुणों के विकास में सभी को एक समान सफलता नहीं मिल पाती है। अनुशासन करने में एवं अनुशासन पालने में भी सभी की शान्ति बराबर नहीं रहती है। भाषा-प्रयोग का विवेक भी प्रत्येक का भिन्न-भिन्न होता है। इत्यादि कारणों से साधना की अपूर्ण अवस्था में प्रमादवश उदयभाव से भिक्षुत्रों के आपस में कभी कषाय या क्लेश उत्पन्न हो सकता है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक] [143 ___ भाष्यकार ने कलह उत्पत्ति के कुछ निमित्तकारण इस प्रकार बताये हैं 1. शिष्यों के लिये, 2. उपकरणों के लिये, 3. कटु वचन के उच्चारण से, 4. भूल सुधारने को प्रेरणा करने के निमित्त से, 5. परस्पर संयमनिरपेक्ष चर्चा-वार्ता एवं विकथाओं के निमित्त से, 6. श्रद्धासम्पन्न विशिष्ट स्थापना कुलों में गोचरी करने या नहीं करने के निमित्त से / कलह उत्पन्न होने के बाद भी संयमशील मुनि के संज्वलन कषाय के कारण अशान्त अवस्था अधिक समय नहीं रहती है। वह सम्भल कर आलोचना प्रायश्चित्त कर शुद्ध हो जाता है / किन्तु प्रस्तुत सूत्र में एक विशिष्ट सम्भावना बताकर उसका समाधान किया गया है किकभी कोई भिक्षु तीव्र कषायोदय में आकर स्वेच्छावश उपशान्त न होना चाहे तब दूसरे उपशान्त होने वाले भिक्षु को यह सोचना चाहिये कि क्षमापणा, शान्ति, उपशान्ति आत्मनिर्भर है, परवश नहीं। यदि योग्य उपाय करने पर भी दूसरा उपशान्त न हो और व्यवहार में शान्ति भी न लावे तो उसके किसी भी प्रकार के व्यवहार से पुनः प्रशान्त नहीं होना चाहिये। क्योंकि स्वयं के पूर्ण उपशान्त एवं कषायरहित हो जाने से स्वयं की आराधना हो सकती है और दूसरे के अनुपशान्त रहने पर उसकी ही विराधना होती है, दोनों की नहीं। अतः भिक्षु के लिए यही जिनाज्ञा है कि वह स्वयं पूर्ण उपशान्त हो जाए। इस विषय में प्रश्न उपस्थित किया गया है कि यदि अन्य भिक्षु उपशान्त न होवे और उक्त व्यवहार भी शुद्ध न करे तो अकेले को उपशान्त होना क्यों आवश्यक है ? इसके उत्तर में समझाया गया है कि कषायों को उपशान्ति करना यही संयम का मुख्य लक्ष्य है। इससे ही वीतरागभाव की प्राप्ति हो सकती है / प्रत्येक स्थिति में शान्त रहना यही संयमधारण करने का एवं पालन करने का सार है / अतः अपने संयम की धाराधना के लिये स्वयं को सर्वथा उपशांत होना अत्यंत आवश्यक समझना चाहिए। विहार सम्बन्धी विधि-निषेध 35. नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथोण वा वासावासासु चारए / 36. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंयोण वा हेमन्त-गिम्हास चारए। 35. निर्ग्रन्थों और निर्गन्थियों को वर्षावास में विहार करना नहीं कल्पता है / 36. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में विहार करना कल्पता है / विवेचन-वर्षाकाल में पानी बरसने से भूमि सर्वत्र हरित तृणांकुरादि से व्याप्त हो जाती है / घास में रहने वाले छोटे जन्तु एवं भूमि में रहनेवाले केंचुआ, गिजाई आदि जीवों से एवं अन्य भी छोटे-बड़े त्रसजीवों से पृथ्वी व्याप्त हो जाती है, अतः सावधानीपूर्वक विहार करने पर भी उनकी विराधना सम्भव है / इसके अतिरिक्त पानी के बरसने से मार्ग में पड़ने वाले नदी-नाले भी जल-पूर से प्रवाहित रहते हैं, अत: साधु-साध्वियों को उनके पार करने में बाधा हो सकती है। विहारकाल में पानी बरसने से उनके वस्त्र एवं अन्य उपधि के भीगने की भी सम्भावना रहती है, जिससे अप्काय की Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144] [बृहत्कल्पसूत्र विराधना सुनिश्चित है, अतः वर्षाकाल में चार मास तक एक स्थान पर ही साधु-साध्वियों के रहने का विधान प्रथम सूत्र में किया गया है। द्वितीय सूत्र में चातुर्मास पश्चात् पाठ मास तक विचरण करने का कथन है। विचरण करने से संयम को उन्नति, धर्मप्रभावना, ब्रह्मचर्यसमाधि एवं स्वास्थ्यलाभ होता है तथा जिनाज्ञा का पालन होता है। जिस क्षेत्र में चातुर्मास या मासकल्प व्यतीत किया हो, वहां उसके बाद स्वस्थ अवस्था में भी रहना या दुगुना समय अन्यत्र विचरण किये बिना पाकर रहना निषिद्ध है और उसका प्रायश्चित्तविधान भी है। अतः ग्रीष्म एवं हेमन्त ऋतु में शक्ति के अनुसार विचरण करना आवश्यक है / वैराज्य-विरुद्धराज्य में बारंबार गमनागमन का निषेध 37. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निरगंथीण वा वेरज्ज-विरुद्धरज्जसि सज्ज गमणं, सज्ज प्रागमणं, सज्जं गमणागमणं करित्तए / जो खलु निग्गंथो वा निग्गंथी वा वेरज्ज-विरुद्धरज्जंसि सज्जं गमणं, सज्ज प्रागमणं सज्ज गमणागमणं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ, से दुहनो वि अइक्कममाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं / 37. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को वैराज्य और विरोधी राज्य में शीघ्र जाना, शीघ्र आना, और शीघ्र जाना-पाना नहीं कल्पता है। जो निर्ग्रन्थ या निग्रन्थी वैराज्य और विरोधी राज्य में शीघ्र जाना, शीघ्र पाना और शीघ्र जाना-माना करते हैं तथा शीघ्र जाना-पाना करने वालों का अनुमोदन करते हैं, वे दोनों (तीर्थंकर और राजा) की आज्ञा का अतिक्रमण करते हुए अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्तस्थान के पात्र होते हैं। विवेचननियुक्तिकार ने और तदनुसार टीकाकार ने राज्य के अनेक व्युत्पत्तिपरक अर्थ किये हैं--- 1. जिस राज्य में रहने वाले लोगों में पूर्व-पुरुष-परम्परागत वैर चल रहा हो। 2. जिन दो राज्यों में वैर उत्पन्न हो गया हो। 3. दूसरे राज्य के ग्राम-नगरादि को जलाने वाले जहां के राजा लोग हों। 4. जहां के मंत्री सेनापति आदि प्रधान पुरुष राजा से विरक्त हो रहे हों, उसे पदच्युत करने के षड्यन्त्र में संलग्न हों। 5. जहां का राजा मर गया हो या हटा दिया गया हो ऐसे अराजक राज्य को 'वैराज्य' कहते हैं। जहां पर दो राजाओं के राज्य में परस्पर गमनागमन प्रतिषिद्ध हो, ऐसे राज्यों को 'विरुद्धराज्य' कहते हैं। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक] [145 इस प्रकार के वैराज्य और विरुद्ध राज्य में साधु-साध्वियों को विचरने का एवं कार्यवशात् जाने-आने का निषेध किया है, क्योंकि ऐसे राज्यों में जल्दी-जल्दी आने-जाने से अधिकारी लोग साधु को चोर, गुप्तचर या षड्यन्त्रकारी जानकर वध, बन्धन आदि नाना प्रकार के दुःख दे सकते हैं / अतः ऐसे 'वैराज्य' और 'विरुद्धराज्य' में गमनागमन करने वाला साधु राजा की मर्यादा का उल्लंघन तो करता ही है, साथ ही वह जिनेश्वर की प्राज्ञा का भी उल्लंघन करता है और इसी कारण वह चातुर्मासिक अनुद्घातिक प्रायश्चित्त का पात्र होता है। नियुक्तिकार सूत्र के 'गमन', 'पागमन' और 'गमनागमन' इन अंशों की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि विशेष कारणों से उक्त प्रकार के 'वैराज्य' 'विरुद्ध राज्य' में जाना-माना भी पड़े तो पहले सीमावर्ती 'पारक्षक' से पूछे कि हम अमुक कार्य से आपके राज्य के भीतर जाना चाहते हैं, अतः जाने की स्वीकृति दीजिए। यदि वह स्वीकृति देने में अपनी असमर्थता बतलावे तो उस राज्य के नगर-सेठ के पास संदेश भेजकर स्वीकृति मंगावे / उसके भी असमर्थता प्रकट करने पर सेनापति से, उसके भी असामर्थ्य प्रकट करने पर मंत्री से, उसके भी असामर्थ्य बताने पर राजा के पास संदेश भेजे कि-"हम अमुक कारण-विशेष से आपके राज्य में प्रवेश करना चाहते हैं, अत: जाने की स्वीकृति दीजिए और 'प्रारक्षक जनों को आज्ञा दीजिए कि वे हमें राज्य में प्रवेश करने दें।" इसी प्रकार पाते समय भी उक्त क्रम से ही स्वीकृति लेकर वापस पाना चाहिए / नियुक्तिकार ने गमनागमन के विशेष कारण इस प्रकार बताये हैं 1. यदि किसी साधु के माता-पिता दीक्षा के लिए उद्यत हों तो उनको दीक्षा देने के लिए। 2. यदि शोक से विह्वल हों तो उनको सान्त्वना देने के लिए। 3. भक्तपान प्रत्याख्यान (समाधिमरण) का इच्छुक साधु अपने गुरु या गीतार्थ के पास आलोचना के लिए। 4. रोगी साधु की वैयावृत्य के लिए, 5. अपने पर क्रुद्ध साधु को उपशान्त करने के लिए, 6. वादियों द्वारा शास्त्रार्थ के लिए आह्वान करने पर शासन-प्रभावना के लिए, 7. प्राचार्य का अपहरण कर लिए जाने पर उनको मुक्त कराने के लिए तथा इसी प्रकार के अन्य कारण उपस्थित होने पर उक्त प्रकार से स्वीकृति लेकर साधु 'वैराज्य' एवं 'विरुद्धराज्य' में जा आ सकते हैं। सूत्र में "सज्ज" शब्द के द्वारा जो शीघ्र-शीघ्र जाने का निषेध किया गया है, उसका तात्पर्य यह है कि पुनः-पुनः इस प्रकार प्राज्ञा लेकर जाने पर राजा या राजकर्मचारी रुष्ट या शंकित हो सकते हैं / क्योंकि आवश्यक कार्य से एक-दो बार जाना तो क्षम्य हो सकता है किन्तु बारम्बार जाना आपत्तिजनक होता है। ऐसे समय में अनेक कार्य करने आवश्यक हों तो पूर्ण विचार कर एक ही बार में उन सभी कार्यों को सम्पन्न कर लेने का विवेक रखना चाहिये और सम्भव हो तो उस दिशा, राज्य या राजधानी में जाना ही नहीं चाहिये, यही उत्सर्गमार्ग है। अपवाद से जाना पड़े तो बारम्बार नहीं जाना चाहिये, यह इस सूत्र का तात्पर्य है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146] [बृहत्कल्पसूत्र गोचरी आदि में निमन्त्रित वस्त्र आदि के ग्रहण करने की विधि 38. निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविळं केइ वत्थेण वा, पडिग्गहेण वा, कंबलेण वा, पायपुंछणेण वा उवनिमंतेज्जा, कप्पइ से सागारकडं गहाय आयरियपायमूले ठवेत्ता, दोच्चपि उग्गहं अणुण्णवित्ता परिहारं परिहरित्तए। 39. निग्गथं च ण बहिया वियारभूमि वा, बिहारभूमि वा, निक्वंतं समाणं केइ वत्येण वा, पडिग्गहेण वा, कंबलेण वा, पायछणेण वा उवनिमंतेज्जा, कप्पइ से सागारकडं गहाय आयरियपायमूले ठवित्ता दोच्च पि उग्गहं अणुण्णवित्ता परिहारं परिहरित्तए। 40. निम्नथि च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठे केइ वत्येण वा, पडिग्गहेण वा, कंबलेण वा, पायपुछणेण वा उवनिमंतेज्जा, कप्पइ से सागारकडं गहाय पवत्तिणीपायमूले ठवित्ता, दोच्चं पि उग्गहं अणुण्णवित्ता परिहारं परिहरित्तए। 41. निर्गथि च णं बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा णिक्खंति समाणि केइ वत्थेण वा, पडिग्गहेण वा, कंबलेण वा, पायछणेण वा उवनिमंतेज्जा, कप्पइ से सागारकडं गहाय पवित्तिणि. पायमूले ठवेत्ता, दोच्चंपि उग्गहमणुण्णवित्ता परिहारं परिहरित्तए / 38. गहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट निर्ग्रन्थ को यदि कोई वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादप्रोंछन लेने के लिए कहे तो उन्हें “साकारकृत" ग्रहण कर, प्राचार्य के चरणों में रखकर पुन: उनकी प्राज्ञा लेकर उसे अपने पास रखना और उनका उपयोग करना कल्पता है। 39. विचारभूमि (मल-मूत्र विसर्जन-स्थान) या विहारभूमि (स्वाध्यायभूमि) के लिए (उपाश्रय से) बाहर निकले हुए निर्ग्रन्थ को यदि कोई वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन लेने के लिए कहे तो वस्त्रादि को "साकारकृत" ग्रहण कर उन्हें प्राचार्य के चरणों में रखकर पुनः उनकी आज्ञा लेकर उसे अपने पास रखना और उनका उपयोग करना कल्पता है। 40. गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट निर्ग्रन्थी को यदि कोई वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन लेने के लिए कहे तो उन्हें “साकारकृत" ग्रहण कर, प्रवर्तिनी के चरणों में रखकर उनसे पुनः अाज्ञा लेकर उसे अपने पास रखना और उनका उपयोग करना कल्पता है / 41. विचारभूमि या स्वाध्याय भूमि के लिए (उपाश्रय से) बाहर जाती हई निम्रन्थी को यदि कोई वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन लेने के लिए कहे तो उन्हें “साकारकृत" ग्रहण कर, प्रतिनी के चरणों में रखकर पून: आज्ञा लेकर उसे अपने पास रखना और उनका उपयोग करना कल्पता है। विवेचन-यदि आचार्य से गोचरी की अनुज्ञा लेकर साधु भिक्षार्थ किसी गृहस्थ के घर में जावे और गृहस्वामिनी भक्त-पान देकर सूत्रोक्त वस्त्र, पात्रादि लेने के लिए कहे और भिक्षु को उनकी आवश्यकता हो तो यह कहकर लेना चाहिए कि “यदि हमारे आचार्य प्राज्ञा देंगे तो इसे रखेंगे अन्यथा 28. गह Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक] [147 तुम्हारे ये वस्त्र-पात्रादि तुम्हें वापस लौटा दिए जायेंगे", इस प्रकार से कहकर ग्रहण करने को "साकारकृत" ग्रहण करना कहा जाता है। यदि वह साधु "साकारकृत" न कहकर उसे ग्रहण करता है और अपने उपयोग में लेता है तो गृहस्थ के द्वारा दिये जाने पर भी वह चोरी का भागी होता है और प्रायश्चित्त का पात्र बनता है। इसका कारण यह है कि गोचरी के लिये प्राचार्यादि से आज्ञा लेकर जाने पर आहार ग्रहण की ही आज्ञा होती है, अतः वस्त्रादि के लिये स्पष्ट कह कर अलग से आज्ञा लेना आवश्यक है। साधु जिस वस्तु की आज्ञा लेकर जाता है वही वस्तु ग्रहण कर सकता है। अन्य वस्तु लेने के लिए गृहस्थ द्वारा कहने पर या आवश्यकता ज्ञात हो जाने पर आचार्यादि की स्वीकृति के प्रागार से ही ले सकता है। यदि वस्त्र आदि की आज्ञा लेकर गया हो तो 'साकारकृत' लेना आवश्यक नहीं होता है। / सूत्र-पठित "उवनिमंतेज्जा" पद की निरुक्ति करते हुए कहा गया है कि "उप-समीपे मागत्य निमंत्रयेत् / " अर्थात् भिक्षा के लिये आये हुए साधु को दाता कहे कि "आप इस वस्त्र या पात्रादि को स्वीकार करें।" तब साधु उससे (खासकर गृहस्वामिनी से) पूछे कि-'यह वस्त्रादि किसका है और कैसा है अर्थात् कहां से और क्यों लाया गया है ?' ___ इन दो प्रश्नों का सन्तोषकारक उत्तर मिलने पर पुनः तीसरा प्रश्न करे कि----"मुझे क्यों दिया जा रहा है ?" यदि उत्तर मिले कि--"आपके शरीर पर अति जीर्ण वस्त्र है, या पात्रादि टूटे-फूटे दिख रहे हैं, अतः आपको धर्मभावना या कर्तव्य से प्रेरित होकर दिया जा रहा है।" तब उसे “साकारकृत" (आगार के साथ) ले लेवे / यदि सन्तोषकारक उत्तर न मिले तो न लेवे। नियुक्तिकार ने उक्त तीनों बातों को पूछने का अभिप्राय यह बताया है कि पहले दो प्रश्नों से तो उसकी कल्पनीयता ज्ञात हो जाती है और तीसरे प्रश्न से दातार के भाव ज्ञात हो जाते हैं। यदि साधु बिना पूछे ही उस दिये जाने वाले वस्त्रादि को ग्रहण करता है और घर का पति, देवर या अन्य दासी-दास आदि चुपचाप दिये और लिये जाने को देखता है तो देने और लेने वाले के विषय में वह अनेक प्रकार की आशंकाएं कर सकता है कि-"हमारे घर की इस स्त्री का और साधु का कोई पारस्परिक आकर्षण प्रतीत होता है अथवा इसके सन्तान नहीं है, अतः यह साधु से सन्तानोत्पत्ति के विषय में कोई मन्त्र, तन्त्र या भेषज प्रयोग चाहती है / " इस प्रकार की नाना शंकाओं से आक्रान्त होकर वह स्त्री की, साधु की या दोनों की हो निन्दा, मारपीट आदि कर सकता है। यदि घर के किसी व्यक्ति ने ऐसी कोई बात नहीं देखी-सुनी है और देने वाली स्त्री सन्तानादि से हीन होने के कारण साधु से किसी विद्या, मन्त्रादि को चाहती है तो उस दी गयी वस्तु को लेकर चले जाने पर वह उपाश्रय में जाकर पूछ सकती है कि-"मुझे अमुक कार्य की सिद्धि का उपाय बताओ।" अथवा वह स्त्री यदि प्रोषितभर्तृका है या कामातुरा है या उपाश्रय में जाकर अपनी दूषित भावना को पूर्ण करने के लिए भी कह सकती है / उसके ऐसा कहने पर साधु मन्त्रादि के विषय में तो यह उत्तर दे कि-"गृहस्थों के लिए निमित्त (मन्त्रादि) का प्रयोग करना हमें नहीं कल्पता है।" Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140] [बुहत्कल्पसूत्र कामाभिलाषा प्रकट करने पर कुशीलसेवन के दोष बताकर कहे कि-"हम संयमी हैं, ऐसा पापाचरण करके अपने संयम का नाश नहीं करना चाहते हैं।" ऐसा कहने पर वह क्षुब्ध होकर साधु की अपकीति भी कर सकती है, अपनी दी गई वस्तु वापस भी मांग सकती है और इसी प्रकार के अन्य अनेक उपद्रव भी कर सकती है / इन सब कारणों से साधु को उक्त तीन प्रश्न पूछकर और दिये जाने वाले वस्त्र-पात्रादि के पूर्ण शुद्ध ज्ञात होने पर तथा दातार के विशुद्ध भावों को यथार्थ जानकर ही आगार के साथ लेना उचित है, अन्यथा नहीं। साध्वी को भी इसी विधि का पालन करना चाहिए किन्तु यहां इतना विशेष ज्ञातव्य है कि प्रवर्तिनी उस साध्वी के द्वारा लाये गये वस्त्रादि को सात दिन तक अपने पास रखती है और उसकी यतना से परीक्षा करती है कि-"यह विद्या, संमोहन-चूर्ण, मन्त्र आदि से तो मन्त्रित नहीं है ?" यदि उसे वह निर्दोष प्रतीत हो तो वह लाने वाली साध्वी को या उसे आवश्यकता न होने पर अन्य साध्वी को दे देती है / वह यह भी देखती है कि देने वाला व्यक्ति युवा, विधुर, व्यभिचारी या दुराचारी तो नहीं है और जिसे दिया गया है, वह युवती और नवदीक्षिता तो नहीं है। यदि इनमें से कोई भी कारण दृष्टिगोचर हो तो प्रवर्तिनी उसे वापस करा देती है / यदि ऐसा कोई कारण नहीं हो तो उसे अन्य साध्वी को दे देती है। इतनी परीक्षा का कारण नियुक्तिकार ने यह बताया है कि-"स्त्रियां प्रकृति से ही अल्पधैर्यवाली होती हैं और दूसरे के प्रलोभन से शीघ्र लुब्ध हो जाती हैं।" यद्यपि सूत्र में साध्वी को श्रावक से “साकारकृत" वस्त्रादि लेने का विधान है, पर भाष्यकार ने इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि-"उत्सर्गमार्ग तो यही है कि साध्वी किसी भी गृहस्थ से स्वयं वस्त्रादि नहीं ले / जब भी उसे वस्त्रादि की आवश्यकता हो, वह अपनी प्रवर्तिनी से कहे अथवा गणधर या प्राचार्य से कहे / आचार्य गृहस्थ के यहां से वस्त्र लावे और सात दिन तक अपने पास रखे। तत्पश्चात् उसे धोकर किसी साधु को प्रोढ़ावे / इस प्रकार परीक्षा करने पर यदि वह निर्दोष ज्ञात हो तो प्रवर्तिनी को दे और वह उसे लेकर उस साध्वी को दे जिसे उसकी आवश्यकता है। यदि कदाचित् गणधर या प्राचार्य समीप न हों तो प्रवर्तिनी गृहस्थ के यहां से वस्त्र लावे और उक्त विधि से परीक्षा कर साध्वी को देवे / यदि कदाचित् गोचरी, विचारभूमि या विहारभूमि को जाते पाते समय कोई गृहस्थ वस्त्र लेने के लिए निमंत्रित करे और साध्वी को वस्त्र लेना आवश्यक ही हो तो, उसे 'साकारकृत' लेकर प्रवर्तिनी को लाकर देना चाहिए और वह परीक्षा करके उस साध्वी को देवे। यह विधि अपरिचित या अल्पपरिचित दाता की अपेक्षा से समझनी चाहिए। सुपरिचित एवं विश्वस्त श्रावक-श्राविका से वस्त्रादि ग्रहण करने में सूत्रोक्त विधि ही पर्याप्त होती है। भाष्योक्त विधि उसके लिये आवश्यक नहीं है ऐसा समझना चाहिए / रात्रि में आहारादि की गवेषणा का निषेध एवं अपवाद विधान 42. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा राओ वा वियाले वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्तए। नऽन्नत्थ एगेणं पुन्वपडिलेहिएणं सेज्जासंथारएणं / 43. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा राओ वा चियाले वा वत्थं वा, पडिग्गहं वा, कम्बलं वा, पायपुछणं वा पडिगाहेत्तए। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक] [149 मन्नत्थ एगाए हरियाहडियाए, सा वि य परिभुत्ता वा, धोया वा, रत्ता वा, घट्ठा वा, मट्ठा वा, संपधूमिया वा। 42. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को रात्रि में या विकाल में प्रशन, पान, खादिम और स्वादिम लेना नहीं कल्पता है। केवल एक पूर्वप्रतिलेखित शय्यासंस्तारक को छोड़कर / 43. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को रात्रि में या विकाल में वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादप्रोंछन लेना नहीं कल्पता है / केवल एक 'हृताहृतिका' को छोड़कर / वह परिभुक्त, धौत, रक्त, घृष्ट, मृष्ट या सम्प्रधूमित भी कर दी गयी हो तो भी रात्रि में लेना कल्पता है। विवेचन-कुछ प्राचार्य रात्रि का अर्थ सन्ध्याकाल करते हैं और कुछ आचार्य विकाल का अर्थ सन्ध्याकाल करते हैं। टीकाकार ने निरुक्तिकार के दोनों ही अर्थ संगत कहे हैं। अतः पूर्व प्रतिलेखित शय्यासंस्तारक के अतिरिक्त रात्रि में या सन्ध्या के समय भक्त-पान ग्रहण करना नहीं कल्पता है। यद्यपि 42 दोषों में "रात्रिभोजन" का निषेध नहीं है, तथापि दशवकालिकसूत्र के छज्जीवनिकाय नामक अध्ययन में "राइभोयणवेरमण" नामक छठे व्रत का स्पष्ट विधान है। अतएव साधु को किसी भी प्रकार का भक्त-पान रात्रि में लेना नहीं कल्पता है / इसके अतिरिक्त दिन के समय भी जिस स्थान पर अन्धकार हो वहां पर भी जब साधु को भोजन ग्रहण करना नहीं कल्पता है तो अन्धकार से परिपूर्ण रात्रि में तो उसे ग्रहण करना कैसे कल्प सकता है ? कभी नहीं। शंका–उक्त छठे रात्रि-भक्त व्रत में रात में खाने-पीने का निषेध किया है, पर रात में भक्तपान को लाने में क्या दोष है ? ___समाधान-रात्रि में गोचरी के लिए गमनागमन करने पर षट्कायिक जीवों की विराधना होती है, उनकी विराधना से संयम की विराधना होती है और संयम की विराधना से प्रात्म-विराधना होती है। इसके अतिरिक्त रात में आते-जाते हुए को कोई चोर समझकर पकड़ ले, गृहस्थ के घर जाने पर वहां अनेक प्रकार की आशंकाएं हो जाएँ, इत्यादि कारणों से रात्रि में गोचरी के लिए गमनागमन करने पर अनेक दोष सम्भव हैं। अतः रात्रि में भक्त-पान लाना भी नहीं चाहिए / दशवै. अ.६ में रात्रि में आहार ग्रहण करने के दोष बताये हैं एवं निशीथ उ. 10 में उनके प्रायश्चित्त भी कहे हैं। शंका-जब रात्रि में प्रशनादि ग्रहण करने का सर्वथा निषेध है तो पूर्वप्रतिलेखित शय्यासंस्तारक को छोड़कर ऐसा विधान सूत्र में क्यों किया गया? समाधान-उत्सर्गमार्ग तो यही है कि रात में किसी भी पदार्थ को ग्रहण नहीं करना चाहिए। किन्तु यह सूत्र अपवादमार्ग का प्ररूपक है / इसका अभिप्राय यह है कि मार्ग भूलने या मार्ग अधिक लम्बा निकल जाने आदि कारणों से स्थविरकल्पी भिक्षु सूर्यास्त बाद भी योग्य स्थान पर पहुंच Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150] [बृहत्कल्पसूत्र कर ठहरते हैं तब उन्हें ठहरने के लिये मकान एवं जीवरक्षा आदि कारणों से पाट संस्तारक आदि रात्रि एवं विकाल में ग्रहण करना आवश्यक हो जाता है। सूर्यास्त-पूर्व मकान मिल जाने पर भी कभी आवश्यक पाट गृहस्थ की दुकान आदि से रात्रि के एक दो घंटे बाद भी मिलना सम्भव हो तो वह भी रात्रि में ग्रहण किया जा सकता है। __ऐसी परिस्थितियों की अपेक्षा से ही यह विधान समझना चाहिए। दूसरे सूत्र से रात्रि में वस्त्रादि ग्रहण करने का निषेध किया गया है किन्तु ग्रामानुग्राम विचरते समय कोई चोर आदि किसी साधु या साध्वी के किसी वस्त्र आदि को छीन ले जावे या उपाश्रय से चुरा ले जावे / कुछ समय बाद ले जाने वाले को यह सद्बुद्धि पैदा हो कि-"मुझे साधु या साध्वी का यह वस्त्र प्रादि चुराना या छीनना नहीं चाहिए था।" तदनन्तर वह सन्ध्या या रात के समय पाकर दे या साधु को दिखाई देने योग्य स्थान पर रख दे तो ऐसे वस्त्र आदि के ग्रहण करने को "हृताहृतिका" कहते हैं / पहले हरी गयो, पीछे पाहृत की गयी वस्तु "हृताहृतिका" कही जाती है। वह हृताहृतिक वस्त्र आदि कैसा हो, इसका स्पष्टीकरण सूत्र में परिभुक्त आदि पदों से किया गया है, जिनका अर्थ इस प्रकार है परिभुक्त-उस वस्त्र आदि को ले जाने वाले ने यदि उसे प्रोढ़ने आदि के उपयोग में ले लिया हो। धौत-जल से धो लिया हो। रक्त-पांच प्रकार के रंगों में से किसी रंग में रंग लिया हो / घृष्ट-वस्त्र आदि पर के चिह्न-विशेषों को घिसकर मिटा दिया हो। मृष्ट-मोटे या खुरदरे कपड़े आदि को द्रव्य-विशेष से युक्त कर कोमल बना दिया हो। सम्प्रधूमित–सुगन्धित धूप आदि से सुवासित कर दिया हो / इन उक्त प्रकारों में से किसी भी प्रकार का वस्त्र आदि यदि ले जाने वाला व्यक्ति रात में लाकर भी वापस दे तो साधु और साध्वी उसे ग्रहण कर सकते हैं। अपने अपहृत वस्त्र आदि के अतिरिक्त यदि कोई नवीन वस्त्र, पात्र, पादपोंछन आदि सन्ध्याकाल या रात्रि में लाकर दे तो उसे लेना साधु या साध्वी को नहीं कल्पता है। सूत्र में "हरियाहडियाए" ऐसा पाठ है, जिसका नियुक्तिकार ने "हरिऊण य प्राहडिया, छूढा हरिएसु वाऽऽहटु" इस प्रकार से उसके दो अर्थ किये हैं। प्रथम अर्थ के अनुसार वह स्वयं आकर दे और दूसरे अर्थ के अनुसार वह यदि "हरितकाय" (वृक्ष-झाड़ी आदि) पर डाल जाए और जिसका वह वस्त्रादि हो उसे चन्द्र के प्रकाश आदि में दिख जाए तो साधु या साध्वी सन्ध्या या रात के समय जाकर उसे ला सकता है। __अथवा उसे कोई अन्य पुरुष उठाकर और यह अमुक साधु या साध्वी का है, ऐसा समझ करके दे तो जिसका वह वस्त्रादि है, वह उसे ग्रहण कर सकता है। "हताहतिका" शब्द स्त्रीलिंग है इसलिए सूत्र में “सा वि य परिभुत्ता" आदि स्त्रीलिंग वाची पाठ है। इसका अर्थ है "चोरी में गई हुई वस्तु / " Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक] [151 रात्रि में गमनागमन का निषेध 44. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा राम्रो वा वियाले वा प्रद्धाणगमणं एत्तए। 45. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा राओ वा बियाले वा संआंड वा संखडिपडियाए एत्तए। 44. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को रात्रि में या विकाल में मार्ग-गमन करना नहीं कल्पता है / 45. निम्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को रात्रि में या विकाल में संखडि के लिये संखडी-स्थल पर (अन्यत्र) जाना भी नहीं कल्पता है। विवेचन--प्रथम सूत्र में रात्रि या सन्ध्याकाल में साधु और साध्वियों को विहार करने का सर्वथा निषेध किया गया है, क्योंकि उस समय गमन करने पर मार्ग पर चलने वालेज व दष्टिगोचर नहीं होते हैं। अत: ईर्यासमिति का पालन नहीं हो सकता है और उसके पालन न होने से संयम की विराधना होती है तथा उत्तरा. अ. 26 में ईर्यासमिति का काल दिन का ही कहा है, रात्रि का नहीं, इस मर्यादा का उल्लंघन भी होता है / इसके अतिरिक्त पैरों में कांटे आदि लगने से, ठोकर खाकर गिरने से या गड्ढे में पड़ जाने से प्रात्म-विराधना भी होती है, सांप आदि के द्वारा इंसने की या शेर-चीते आदि के द्वारा खाये जाने की भी सम्भावना रहती है, इसलिए रात्रि में गमन करने का सर्वथा निषेध किया गया है / दूसरे सूत्र में संखडी में जाने का निषेध किया है। भोज या जीमनवार-विशेष को संखडी कहते हैं, जो एक दिन का या अनेक दिन का भी होता है। उसमें मुख्य दिन आसपास के सभी ग्रामवासियों को पाने के लिए निमन्त्रण दिया जाता है। ऐसे क्षेत्र में रहे हुए भिक्षु को उस दिन अन्यत्र कहीं भिक्षा प्राप्त नहीं होती है। ऐसी परिस्थिति में दो कोस के भीतर की संखडी में से जनसमूह के आने के पूर्व भिक्षु गोचरी ला सकता है। आचारांग श्रु. 2, अ. 1, उ. 2 में दो कोस उपरान्त संखडी में जाने का निषेध है तथा निमन्त्रण देने पर भी संखडियों में जाने का एवं वहां ठहरने का भी निषेध है / अतः उक्त परिस्थिति के कारण दो कोस के भीतर की संखडी में से भिक्षा लाने के संकल्प से कोई भिक्षु सूर्योदय पूर्व अपने स्थान से निकलकर वहां सूर्योदय बाद भिक्षा ग्रहण करने हेतु जाना चाहे तो उसका प्रस्तुत सूत्र में निषेध किया गया है। अतः उक्त संखडी में कभी जाना आवश्यक हो तो भिक्षु दिन में ही विवेकपूर्वक जा सकता है। सूत्र में रात्रि शब्द के साथ विकाल शब्द के प्रयोग से यह बताया गया है कि सूर्योदय पूर्व उषाकाल में एवं सूर्यास्त बाद सन्ध्याकाल में भी भिक्षु को विहार एवं संखडी के लिये गमनागमन नहीं करना चाहिए। रात्रि में स्थंडिल एवं स्वाध्याय-भूमि में अकेले जाने का निषेध 46. नो कप्पइ निग्गंथस्स एगाणियस्स राओ वा वियाले वा बहिया बियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152] [बहत्कल्पसूत्र कप्पइ से अप्पबिइयस्स वा अप्पतइयस्स वा राओ वा वियाले वा बहिया बियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा। 47. नो कप्पई निग्गंथीए एगाणियाए राओ वा वियाले वा बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा। कप्पइ से अप्पबिइयाए वा अप्पतइयाए वा अप्पचउत्थीए वा राओ वा वियाले वा बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा। 46. अकेले निर्ग्रन्थ को रात्रि में या विकाल में उपाश्रय से बाहर की विचारभूमि या विहारभूमि में जाना-माना नहीं कल्पता है / उसे एक या दो निर्ग्रन्थों को साथ लेकर रात्रि में या विकाल में उपाश्रय की सीमा से बाहर की विचारभूमि या विहारभूमि में जाना-माना कल्पता है। 47. अकेली निर्ग्रन्थी को रात्रि में या विकाल में उपाश्रय से बाहर की विचारभूमि या विहारभूमि में जाना-माना नहीं कल्पता है / एक, दो या तीन निर्ग्रन्थियों को साथ लेकर रात्रि में या विकाल में उपाश्रय से बाहर की विचारभूमि या विहारभूमि में जाना-माना कल्पता है / विवेचन-मल-मूत्र त्यागने के स्थान को–'विचारभूमि' कहते हैं और स्वाध्याय के स्थान को 'विहारभूमि' कहते हैं। रात्रि के समय या सन्ध्याकाल में यदि किसी साधु को मल-मूत्र-विसर्जन के लिए जाना आवश्यक हो तो उसे अपने स्थान से बाहर विचारभूमि में अकेला नहीं जाना चाहिए। इसी प्रकार उक्त काल में यदि स्वाध्यायार्थ विहारभूमि में जाना हो तो उपाश्रय से बाहर अकेले नहीं जाना चाहिए। किन्तु वह एक या दो साधुओं के साथ जा सकता है। उपाश्रय का भीतरी भाग एवं उपाश्रय के बाहर सौ हाथ का क्षेत्र उपाश्रय की सीमा में गिना गया है, उससे दूर (आगे) जाने की अपेक्षा से सूत्र में 'बहिया' शब्द का प्रयोग किया गया है। स्वाध्याय के लिये या मल-विसर्जन के लिये दूर जाकर पुनः पाने में समय अधिक लगता है। इस कारण से अकेले जाने में अनेक आपत्तियों एवं आशंकाओं की सम्भावना रहती है / यथा 1. प्रबल मोह के उदय से या स्त्रीउपसर्ग से पराजित होकर अकेला भिक्षु ब्रह्मचर्य खंडित कर सकता है / 2. सर्प आदि जानवर के काटने से, मूर्छा आने से या कोई टक्कर लगने से कहीं गिरकर पड़ सकता है / 3. चोर, ग्रामरक्षक आदि पकड़ सकते हैं एवं मारपीट कर सकते हैं। 4. स्वयं भी कहीं भाग सकता है / 5. अथवा आयु समाप्त हो जाए तो उसके मरने की बहुत समय तक किसी को जानकारी भी नहीं हो पातो है इत्यादि कारणों से रात्रि में अकेले भिक्षु को मल त्यागने एवं स्वाध्याय करने के लिए उपाश्रय की सीमा से बाहर नहीं जाना चाहिये / उपाश्रय की सीमा में जाने पर उक्त Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयम उद्देशक] [153 दोषों की सम्भावना प्रायः नहीं रहती है / क्योंकि वहां तो अन्य साधुओं का जाना-पाना बना रहता है एवं कोई आवाज होने पर भी सुनी जा सकती है। साधुओं की संख्या अधिक हो और मकान छोटा हो अथवा उपाश्रय में अस्वाध्याय का कोई कारण हो जाए तो रात्रि में स्वाध्याय के लिये अन्यत्र गमनागमन किया जाता है, अन्यथा रात्रि में ईर्या का काल न होने से गमनागमन करने का निषेध ही है। उपाश्रय की याचना करते समय ही उसके मल-मूत्र त्यागने की भूमि से सम्पन्न होने का अवश्य ध्यान रखना चाहिए, ऐसा आचा. श्र. 2, अ. 2, उ. 2. में तथा दशव. अ.८, गा. 52 में विधान है। मल-मूत्र आदि शरीर के स्वाभाविक वेगों को रोका नहीं जा सकता है इसलिए रात्रि में भी किसी साधु को बाहर जाना पड़ता है / भाष्यकार ने बताया है कि यदि साधु भयभीत होने वाला न हो एवं उपर्युक्त दोषों की सम्भावना न हो तो साथ के साधुओं को सूचित करके सावधानी रखते हुए अकेला भी जा सकता है। दो साधु हैं और एक बीमार है अथवा तीन साधु हैं, एक बीमार है और एक को उसकी सेवा में बैठना आवश्यक है तो उसे सूचित करके सावधानी रखते हुए अकेला भी जा सकता है। अनेक कारणों से अथवा अभिग्रह, पडिमा आदि धारण करने से एकाकी विचरण करने वाले भी कभी रात्रि में बाहर जाना आवश्यक हो तो सावधानी रखकर जा सकते हैं। किन्तु उत्सर्गविधि से सूत्र में कहे अनुसार एक या दो साधुओं को साथ में लेकर ही जाना चाहिए / एक से अधिक साधुओं को साथ ले जाने का कारण यह है कि कहीं अत्यधिक भयजनक स्थान होते हैं। साध्वी को तो दिन में भी गोचरी आदि कहीं भी अकेले जाने का निषेध ही है। अत: रात्रि में तो इसका ध्यान रखना अधिक आवश्यक है। दो से अधिक साध्वियों के जाने का अर्थात् तीन या चार के जाने का कारण केवल भयजनक स्थिति या भयभीत होने की प्रकृति ही समझना चाहिये। शेष विवेचन भिक्षु सम्बन्धी विवेचन के समान ही समझना चाहिए। किन्तु साध्वियों को किसी प्रकार के अपवाद में भी अकेले जाना उचित नहीं है, अतः कोई विशेष परिस्थिति हो तो श्राविका या श्रावक को साथ में लेकर जाना ही श्रेयस्कर होता है। अन्य किसी विशेष परिस्थिति में साधु-साध्वी उच्चारमात्रक में मलविसर्जन कर प्रातःकाल भी परठ सकते हैं एवं यथायोग्य प्रायश्चित्त ग्रहण कर सकते हैं। आर्यक्षेत्र में विचरण करने का विधान 48. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गथीण वा-पुरस्थिमेणं जाव अंगमगहाओ एत्तए, दक्खिणेणं जाव कोसम्बीनो एत्तए, पच्चत्थिमेणं जाव थूणाविसयाओ एत्तए, उत्तरेणं जाव कुणालाविसयाओ एत्तए। एयावयाव कप्पइ, एयावयाव पारिए खेत्ते / नो से कप्पइ एतो बहि, तेण परं जत्य नाण-दसण-चरित्ताई उस्सप्पन्ति / त्ति बेमि। 48. निर्ग्रन्थों को और निर्ग्रन्थियों को पूर्व दिशा में अंग-मगध तक, दक्षिण दिशा में कोशाम्बी तक, पश्चिम दिशा में स्थूणा देश तक और उत्तर दिशा में कुणाल देश तक जाना कल्पता है / इतना ही प्रार्यक्षेत्र है। इससे बाहर जाना नहीं कल्पता है। तदुपरान्त जहां ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की वृद्धि होती हो वहां विचरण करे / Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154] [बृहत्कल्पसूत्र विवेचन-इस भरतक्षेत्र के साढे पच्चीस प्रार्यदेश प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पद में बताये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं 1. मगध, 2. अंग, 3. बंग, 4. कलिंग, 5. काशी, 6. कौशल, 7. कुरु, 8. सौर्य, 9. पांचाल, 10. जांगल, 11. सौराष्ट्र, 12. विदेह, 13. वत्स, 14. संडिब्भ, 15. मलय, 16. वच्छ, 17. अच्छ, 18. दशार्ण, 19. चेदि, 20. सिन्धु-सौवीर, 21. सूरसेन, 22. भृग 23. कुणाल, 24. कोटिवर्ष, 25. लाढ और केकय अर्ध / प्रकृत सूत्र में इनकी सीमा रूप से, पूर्व दिशा में- अंगदेश (जिसकी राजधानी चम्पा नगरी रही है) से मगधदेश (जिसकी राजधानी राजगृह रही है) तक। दक्षिण दिशा में वत्सदेश (जिसकी राजधानी कोशाम्बी रही है) तक / पश्चिम दिशा मेंस्थूणादेश तक। उत्तर दिशा में कुणाल देश (जिसकी राजधानी श्रावस्ती नगरी रही है) तक जाने का विधान साधु-साध्वियों के लिए किया गया है / इसका कारण यह बतलाया गया है कि इन चारों दिशाओं की सीमा के भीतर ही तीर्थंकरों के जन्म निष्क्रमण आदि की महिमा होती है, यहीं पर केवलज्ञान दर्शन को उत्पन्न करने वाले सर्वज्ञ-सर्वदर्शी तीर्थंकरादि महापुरुष धर्म का उपदेश देते हैं, यहीं पर भव्यजीव प्रतिबोध को प्राप्त होते हैं और यहीं पर जिनवरों से धर्मश्रवण कर अपना संशय दूर करते हैं। इसके अतिरिक्त यहां पर साधु-साध्वियों को भक्त-पान एवं उपधि सुलभता से प्राप्त होती है और यहां के श्रावक जन या अन्य लोग साधु-साध्वियों के प्राचार-विचार के ज्ञाता होते हैं / अत: उन्हें इन पार्यक्षेत्रों में ही विहार करना चाहिए। सूत्र में निश्चित शब्दों में कहा गया है कि 'इतना ही आर्य क्षेत्र है और इतना ही विचरना कल्पता है, इनके बाहर विचरना नहीं कल्पता है।' इसका तात्पर्य यह है कि यह शाश्वत पार्यक्षेत्र है / ___ कदाचित् कोई राजा आदि की सत् प्रेरणा से अनार्यक्षेत्र का जनसमुदाय आर्य स्वभाव में परिणत हो भी जाए तो अल्पकालीन परिवर्तन आ सकता है। उसी तरह आर्यक्षेत्र में भी अल्पकालीन परिवर्तन होकर जनसमदाय अनार्य स्वभाव में परिणत हो सकता है, इसी कारण से अन्तिम सत्रांश में यह कहा गया है कि-'क्षेत्रमर्यादा एवं कल्पमर्यादा इस प्रकार से होते हुए भी जब जहां विचरण करने से संयम गुणों का विकास हो वहीं विचरण करना चाहिए।' क्योंकि कभी अनार्यक्षेत्र में किसी के संयमगुणों की वृद्धि एवं जिनशासन को प्रभावना हो सकती है और कभी कहीं प्रार्यक्षेत्र में भी संयमगुणों की हानि हो सकती है। इसलिए सूत्र में क्षेत्रसीमा का कथन करके संयमवद्धि का लक्ष्य रखकर विचरने का विशेष विधान किया है। भाष्य और टीका में बताया गया है कि संप्रति राजा की प्रेरणा एवं प्रयत्नों से अनार्यक्षेत्र में भी साधु-साध्वी विचरने लगे थे। आर्यक्षेत्र में भी जहां लम्बे मार्ग हों, लम्बी अटवी हो, जिनको पार करने में अनेक दिन लगते हों तो उन क्षेत्रों में विचरण करने का आचा. श्रु. 2, अ. 3 में निषेध किया गया है और उनमें विचरण करने से होने वाले दोषों का स्पष्टीकरण भी किया है, अतः प्रार्यक्षेत्र के भी ऐसे विभागों में साधुसाध्वी को नहीं जाना चाहिए। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक] 155 इस सूत्र से एवं प्राचारांगसूत्र से यह निर्णय हो जाता है कि संयमोन्नति का मुख्य लक्ष्य रखते हुए एवं अपनी क्षमता का ध्यान रखते हुए किसी भी क्षेत्र में विचरण किया जा सकता है, किन्तु सामान्यतया आर्यक्षेत्र से बाहर विचरण करने का निषेध ही समझना चाहिए। __ सूत्र में प्रार्यक्षेत्र के चारों दिशाओं के किनारे पर आए देशों के नाम कहे गए हैं, किन्तु दक्षिण दिशा में कच्छ देश न कहकर वहां की प्रसिद्ध नगरी 'कोसम्बी' का कथन किया गया है / थूणा देश का नाम एवं उसकी मुख्य नगरी का नाम उपर्युक्त पच्चीस प्रार्यक्षेत्रों में नहीं है, इसका कारण नामों की अनेकता या भिन्नता होना ही है। प्रथम उद्देशक का सारांश वनस्पति के मूल से लेकर बीज पर्यन्त दस विभागों में जितने खाने योग्य विभाग हैं वे अचित्त होने पर ग्रहण किये जा सकते हैं, किन्तु साध्वी कन्द, मूल, फल आदि के प्रविधि से किए गए बड़े-बड़े टुकड़े अचित्त होने पर भी ग्रहण नहीं कर सकती है। ग्राम, नगर आदि में एक मास रहना कल्पता है। यदि उसके उपनगर आदि हों तो उनमें अलग-अलग अनेक मासकल्प तक ठहरा जा सकता है, किन्तु जहां रहे वहीं भिक्षा के लिये भ्रमण करना चाहिए, अन्य उपनगरों में नहीं। 10-11 एक परिक्षेप एवं एक गमनागमन के मार्ग वाले प्रामादि में साधु-साध्वी को एक काल में नहीं रहना चाहिए, किन्तु उसमें अनेक मार्ग या द्वार हों तो वे एक काल में भी रह सकते हैं। 12-13 पुरुषों के अत्यधिक गमनागमन वाले तिराहे, चौराहे या बाजार आदि में बने हुए उपाश्रयों में साध्वियों को नहीं रहना चाहिए, किन्तु साघु उन उपाश्रयों में ठहर सकते हैं। 14-15 द्वार-रहित स्थान में साध्वियों को नहीं ठहरना चाहिए, परिस्थितिवश यदि ठहरना पड़े तो पर्दा लगाकर द्वार को बन्द कर लेना चाहिए। किन्तु ऐसे स्थानों पर भिक्षु ठहर सकते हैं। 16-17 सुराही के आकार का प्रश्रवण-मात्रक साध्वी रख सकती है, किन्तु साधु नहीं रख सकता है। साधु-साध्वी को वस्त्र की चिलमिलिका (मच्छरदानी) रखना कल्पता है। पानी के किनारे साधु-साध्वी को बैठना आदि क्रियाएं नहीं करनी चाहिए। 20-21 चित्रों से युक्त मकान में नहीं ठहरना चाहिए। साध्वियों को शय्यातर के संरक्षण में ही ठहरना चाहिए, किन्तु भिक्षु बिना संरक्षण के भी ठहर सकता है। 22-24 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156] [बृहत्कल्पसूत्र सूत्र 25-29 30-31 32-33 38.41 स्त्री-पुरुषों के निवास से रहित मकान में ही साधु-साध्वियों को ठहरना चाहिए / केवल पुरुषों के निवास वाले मकान में भिक्षु और केवल स्त्रियों के निवास वाले मकान में साध्वियां ठहर सकती हैं। द्रव्य या भावप्रतिबद्ध उपाश्रय में भिक्षु को रहना नहीं कल्पता है, कदाचित् साध्वियां रह सकती हैं। प्रतिबद्धमार्ग वाले उपाश्रय में भिक्षु को रहना नहीं कल्पता है, साध्वियां कदाचित् रह सकती हैं। किसी के साथ क्लेश हो जाए तो उसके उपशान्त न होने पर भी स्वयं को सर्वथा उपशान्त होना अत्यन्त आवश्यक है। अन्यथा संयम की आराधना नहीं होती है। साधु-साध्वियों को चातुर्मास में एक स्थान पर ही रहना चाहिये तथा हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में शक्ति के अनुसार विचरण करते रहना चाहिए। जिन राज्यों में परस्पर विरोध चल रहा हो वहां बारम्बार गमनागमन नहीं करना चाहिए। साधु या साध्वियां गोचरी आदि के लिये गये हों और वहां कोई वस्त्रादि लेने के लिए कहे तो प्राचार्यादि की स्वीकृति की शर्त रखकर ही ग्रहण करे। यदि वे स्वीकृति दें तो रखें, अन्यथा लौटा देवें / साधु-साध्वियां रात्रि में आहार, वस्त्र, पात्र, शय्या-संस्तारक ग्रहण न करें। कभी विशेष परिस्थिति में शय्या-संस्तारक ग्रहण किया जा सकता है तथा चुराये गये वस्त्र, पात्रादि कोई पुनः लाकर दे तो उन्हें रात्रि में भी ग्रहण किया जा सकता है। रात्रि में या विकाल में साधु-साध्वियों को विहार नहीं करना चाहिए तथा दूर क्षेत्र में होने वाला संखडी में आहार ग्रहण करने के लिये भी रात्रि में नहीं जाना चाहिये। साधु-साध्वियों को रात्रि में उच्चार-प्रश्रवण या स्वाध्याय के लिये उपाश्रय से कुछ दूर अकेले नहीं जाना चाहिए, किन्तु दो या तीन-चार को साथ लेकर जा सकते हैं / चारों दिशाओं में जो प्रार्यक्षेत्रों की सीमा सूत्र में बताई गई है, उसके भीतर ही साधु-साध्वियों को विचरना चाहिए। किन्तु संयम की उन्नति के लिए विवेकपूर्वक किसी भी योग्य क्षेत्र में विचरण किया जा सकता है / 42-43 44-45 46-47 48 उपसंहार सूत्र 1-5 इस उद्देशक मेंवनस्पति विभागों के (ताल-प्रलम्ब के) अनेक खाद्य पदार्थों के कल्प्याकल्प्य का, कल्पकाल की मर्यादा का, एक काल में साधु-साध्वियों के रहने के योग्यायोग्य प्रामादि का, 10-11 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक] [157 34 सूत्र 12-15, 20, 21, 25-33 अनेक प्रकार के कल्प्याकल्प्य उपाश्रयों का, 16-17 घटीमात्रक के (मिट्टी की घटिका की आकृति वाले मात्रक के) कल्प्याकल्प्य का, 18 चिलमिलिका (मच्छरदानी) रखने का, जल के किनारे खड़े रहना आदि का, 22-24 शय्यातर का संरक्षण ग्रहण करने–न करने का, क्लेश को पूर्णतः उपशान्त करने का, 35-36, 48 विचरण काल का एवं विचरण के क्षेत्रों की मर्यादा का, 37 विरोधी राज्यों के बीच गमनागमन न करने का, 38-41 गोचरी आदि के लिये गये हुए साधु-साध्वियों को वस्त्रादि लेने की विधि का, 42-43 रात्रि में आहारादि ग्रहण न करने का, 44 रात्रि में विहार न करने का, 45 रात्रि में दूरवर्ती संखडि (जीमनवार) के लिये न जाने का, रात्रि में उपाश्रय की सीमा के बाहर अकेले न जाने, इत्यादि भिन्न-भिन्न विषयों का वर्णन किया गया है। ॥प्रथम उद्देशक समाप्त / Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक धान्ययुक्त उपाश्रय में रहने के विधि-निषेध 1. उवस्सयस्स अंतोवगडाए 1. सालीणि वा, 2. वीहीणि वा, 3. मुग्गाणि वा, 4. मासाणि वा, 5. तिलाणि वा, 6. कुलत्थाणि वा, 7. गोधूमाणि वा, 8. जवाणि वा, 9. जवजवाणि वा, उक्खित्ताणि वा, विक्खित्ताणि वा, विइगिण्णाणि वा, विप्पाण्णाणि वा नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए। 2. अह पुण एवं जाणेज्जा-नो उक्खित्ताई, नो विक्खिताई, नो विइकिण्णाई, नो विप्पइण्णाई। रासिकडाणि वा, पुंजकडाणि वा, भित्तिकाणि वा, कुलियाकडाणि वा, लंछियाणि वा, मुद्दियाणि वा, पिहियाणि वा।। कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा हेमन्त-गिम्हासु वत्थए / 3. अह पुण एवं जाणेज्जा--नो रासिकडाई, नो पुंजकडाई, नो भित्तिकडाई, नो कुलियाकडाई। कोट्टाउत्ताणि वा, पल्लाउत्ताणि वा, मंचाउत्ताणि वा, मालाउत्ताणि वा, ओलित्ताणि वा, विलित्ताणि वा, पिहियाणि वा, लंछियाणि वा, मुद्दियाणि वा। कप्पा निग्गंधाण वा, निग्गंथोण वा वासावासं वत्थए / 1. उपाश्रय के भीतरी भाग (सीमा) में 1. शालि, 2. व्रीहि, 3. मूग, 4. उड़द, 5. तिल, 6. कुलथ, 7. गेहूं, 8. जो या 9. ज्वार अव्यवस्थित रखे हों या जगह-जगह रखे हों, या बिखरे हुए हों या अत्यधिक बिखरे हुए हों तो निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को वहां 'यथालन्दकाल' तक भी रहना नहीं कल्पता है। 2. यदि यह जाने कि (उपाश्रय में शालि यावत् ज्वार) उत्क्षिप्त, विक्षिप्त, व्यतिकीर्ण और विप्रकीर्ण नहीं हैं, ___किन्तु राशीकृत, पुजकृत, भित्तिकृत, कुलिकाकृत, लांछित, मुद्रित या पिहित हैं तो इन्हें हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में वहां रहना कल्पता है। 3. यदि यह जाने कि (उपाश्रय के भीतर शालि यावत् ज्वार) राशिकृत, पुजीकृत, भित्तिकृत या कुलिकाकृत नहीं हैं, किन्तु कोठे में या पल्य में भरे हुए हैं, मंच पर या माले पर सुरक्षित हैं, मिट्टी या गोबर से लिपे हुए हैं, ढंके हुए, चिह्न किये हुए या मुहर लगे हुए हैं तो उन्हें वहां वर्षावास में रहना कल्पता है / विवेचन–प्रस्तुत सूत्रों में धान्य रखे हुए मकानों की तीन स्थितियों का कथन किया गया है। प्रथम स्थिति है--जिस मकान में सर्वत्र धान्य बिखरा हुआ हो, वह मकान पूर्णतया अकल्पनीय होता Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक [159 है / दूसरी स्थिति है--जिस मकान में धान्य व्यवस्थित रखा हुआ है उसमें हेमन्त या ग्रीष्म ऋतु में विचरण करते हुए ठहरा जा सकता है। तीसरी स्थिति है-जिस मकान में धान्य सर्वथा व्यवस्थित रखा हुआ हो वहां चातुर्मास किया जा सकता है / प्रथम सूत्र में प्रयुक्त 'यथालंदकाल' की व्याख्या इस प्रकार है-- गाहा-तिविहं च प्रहालंदं, जहन्नयं मज्झिमं च उक्कोसं / उदउल्लं च जहण्णं, पणगं पुण होइ उक्कोसं // —बृह. भाष्य 3303 यथालन्द नाम काल विशेष का है। वह तीन प्रकार का होता है--१. जघन्य, 2. मध्यम, 3. उत्कृष्ट / गीले हाथ की रेखा के सूखने में जितना समय लगता है, उतने समय को जघन्य यथालन्दकाल कहते हैं। पांच दिन-रात को उत्कृष्ट यथालन्दकाल कहते हैं। बृहत्कल्प सूत्र उद्दे. 3 में तथा उववाईसूत्र में इससे 29 दिन ग्रहण किये गये हैं और इन दोनों के मध्यवर्ती काल को मध्यम यथालन्दकाल कहते हैं। जिस उपाश्रय में पूर्वोक्त प्रकार से कोई भी धान्य बिखरे हुए पड़े हों वहां पर जघन्य यथालन्दकाल भी रहना नहीं कल्पता है। क्योंकि उनके ऊपर से जाने-आने में सचित्त बीजों की विराधना होती है और धान्यों पर चलते हुए कभी फिसलकर गिरने से आत्म-विराधना भी सम्भव है, अतः साधुसाध्वियों को वहां क्षणभर भी नहीं ठहरना चाहिए। कदाचित् प्रयत्न करने पर भी अन्य उपाश्रय न मिले तो रजोहरणादि से प्रमार्जन करके यतनापूर्वक वहां पर ठहरा जा सकता है। फिर उसका यथायोग्य प्रायश्चित्त स्वीकार कर लेना चाहिए। __ मकान के जिस विभाग में साधु को ठहरना हो या गमनागमन करना हो उसके लिये यहां 'अंतोवगडाए' शब्द का प्रयोग किया गया है। दूसरे सूत्र में निर्दिष्ट शालि, व्रीहि आदि धान्य मकान में बिखरे हुए नहीं हैं, किन्तु उनकी गोलाकार राशि बनी हुई है, लम्बी राशि बनी हुई है, भित्ति के सहारे रखे हुए हैं, कुलिका–मिट्टी से बने गोल या चौकोर पात्र में रखे हुए हैं, एकत्र करके भस्म (राख) आदि से लांछित (चिह्नित) किये हुए हैं, गोबर आदि से मुद्रित (लिम्पित) हैं, बांस से बनी चटाई, टोकरी या थाली वस्त्र आदि से पिहित-ढंके हुए हैं तो शीत एवं ग्रीष्मकाल में अपने कल्प के अनुसार वैसे मकान में साधु और साध्वियों को ठहरना कल्पता है, किन्तु वर्षाकाल में वैसे मकान में ठहरना नहीं कल्पता है / तीसरे सूत्र में निर्दिष्ट शालि, व्रीहि आदि धान्य मकान की सीमा के भीतर राशि रूप में या भित्ति आदि के सहारे नहीं रखे हैं, किन्तु किसी कोठा या कोठी के भीतर अच्छी तरह से सुरक्षित रखे हुए हैं / यथा--- पल्यागुप्त-काठ, वंश-दल आदि से निर्मित और गोबर-मिट्टी आदि से लिपे हुए गोलाकार Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160] [बृहत्कल्पसूत्र बनाये गये धान्य रखने के पात्र-विशेष को पल्य कहते हैं। ऐसे पल्य के भीतर सुरक्षित रखे हुए धान्य को 'पल्यागुप्त' कहते हैं। मंचागुप्त-तीन या चार खम्भों के ऊपर बनाये गये मचान पर बांस की खपच्चियों से निर्मित गोलाकार और चारों ओर से गोबर-मिट्टी से लिप्त ऐसे मंच में सुरक्षित रखे गये धान्य को ‘मंचागुप्त' कहते हैं। मालागुप्त--मकान के ऊपर को मंजिल के द्वार आदि को अच्छी तरह बन्द करके रखे गये धान्य को 'मालागुप्त' कहते हैं। इन स्थानों में धान्य को रख कर उसे मिट्टी से छाब दिया गया है, गोबर से लीपा गया है, ढंका हुआ है, चिह्नित किया गया है और मूद दिया गया है, जिसके भीतर रखा गया धान्य स्वयं बाहर नहीं निकल सकता है और वर्षाकाल में जिसके बाहर निकाले जाने की संभावना भी नहीं है, ऐसे मकान में साधु या साध्वियां चौमासे में ठहर सकते हैं; किन्तु भाष्यकार कहते हैं कि उक्त प्रकार के मकानों में ठहरने का विधान केवल गीतार्थ साधु और साध्वियों के लिए ही है, अगीतार्थ साधुसाध्वियों के लिये नहीं है तथा अन्य स्थान न मिलने पर ही ऐसे स्थान में ठहरने का विधान है। अगीतार्थ साधु गीतार्थ साधु के नेतृत्व में रह सकते हैं, ऐसा समझना चाहिए। सुरायुक्त मकान में रहने का विधि-निषेध व प्रायश्चित्त 4. उवस्सयस्स अंतोवगडाए सुरा-वियड-कुम्भे वा सोवीर-वियड-कुम्भे वा उवनिक्खित्ते सिया, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए। हरस्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए / नो से कप्पइ परं एगरायानो वा दुरायानो वा यत्थए।। जे तत्थ एगरायाो वा दुरायाओ वा परं वसइ, से सन्तरा छए वा परिहारे वा। 4. उपाश्रय के भीतर सुरा और सौवीर से भरे कुम्भ रखे हुए हों तो निर्ग्रन्थों और निम्रन्थियों को वहां 'यथालन्दकाल' भी रहना नहीं कल्पता है / कदाचित् गवेषणा करने पर अन्य उपाश्रय न मिले तो उक्त उपाश्रय में एक या दो रात रहना कल्पता है, किन्तु एक या दो रात्रि से अधिक रहना नहीं कल्पता है। जो वहां एक या दो रात से अधिक रहता है, वह मर्यादा-उल्लंघन के कारण दीक्षा-छेद या तप रूप प्रायश्चित्त का पात्र होता है। विवेचन-चावल प्रादि की पीठी से जो मदिरा बनायी जाती है वह 'सुरा' कही जाती है और दाख-खजूर आदि से जो मद्य बनाया जाता है वह 'सौवीर मद्य' कहा जाता है। ये दोनों ही प्रकार के मद्य जिस स्थान पर घड़ों में रखे हुए हों, ऐसे स्थान पर अगीतार्थ साधु-साध्वी को यथालन्दकाल भी नहीं रहना चाहिए। यदि रहता है तो वह लघुचौमासी प्रायश्चित्त का पात्र होता है / क्योंकि ऐसे स्थान में ठहरने पर कभी कोई साधु सुरापान कर सकता है, जिससे अनेक दोष होना सम्भव हैं और वहां ठहरने पर जनसाधारण को शंका भी उत्पन्न हो सकती है। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक] [161 आयश्चित्त अन्य स्थान के न मिलने पर वहां एक रात विश्राम किया जा सकता है। अधिक आवश्यक हो तो दो रात्रि भी विश्राम किया जा सकता है / यह प्रापवादिक विधान गीतार्थों के लिये है अथवा गीतार्थ के नेतृत्व में अगीतार्थों के लिये भी है। दो रात्रि से अधिक रहने पर सूत्रोक्त मर्यादा का उल्लंघन होता है और उसका तप या छेद रूप प्रायश्चित्त आता है। 'से संतरा छेए वा परिहारे वा' इस सूत्रांश की टीका इस प्रकार है 'से-तस्य संयतस्य, 'स्वांतरात्' स्वस्वकृतं यदन्तरं-त्रिरात्र-चतुःरात्रादि कालं प्रवस्थानरूपं, तस्मात्, 'छेदो वा'-पंच रात्रि विवादिः, 'परिहारो वा'-मासलघुकादितपोविशेषो भवति इति सूत्रार्थः। इस टीका का भावार्थ यह है कि उस संयत के द्वारा तीन चार आदि दिनों के अवस्थान रूप किए हुए अपने दोष के कारण उसे तप रूप या छेद रूप यथोचित प्रायश्चित्त प्राता है। किन्तु से संतरा' शब्द का जितने दिन रहे उतने ही दिन का प्रायश्चित्त आवे ऐसा अर्थ करना उचित नहीं है। क्योंकि टीकाकार ने ऐसा अर्थ कहीं भी नहीं किया है। अतः टीकाकारसम्मत अर्थ ही करना चाहिए। जलयुक्त उपाश्रय में रहने का विधि-निषेध और प्रायश्चित्त 5. उवस्सयस्स अंतोवगडाए सोनोवग-वियडकुम्भे वा उसिणोदग-वियडकुम्भे वा उवनिक्खित्ते सिया, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए। हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए / नो से कप्पा परं एगरायानो वा दुरायाओ वा वत्थए / जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं बसइ, से सन्तरा छेए या परिहारे था। 5. उपाश्रय के भीतर अचित्त शीतल जल या उष्ण जल के भरे हुए कुम्भ रखे हों तो निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को वहां 'यथालन्दकाल' भी रहना नहीं कल्पता है। कदाचित् गवेषणा करने पर भी अन्य उपाश्रय न मिले तो उक्त उपाश्रय में एक या दो रात रहना कल्पता है, किन्तु एक या दो रात्रि से अधिक रहना नहीं कल्पता है / जो वहां एक या दो रात से अधिक रहता है वह मर्यादा-उल्लंघन के कारण दीक्षा-छेद या तप रूप प्रायश्चित्त का पात्र होता है। _ विवेचन-अग्नि पर उबालने से या क्षार आदि पदार्थों से जिसके वर्णादि का परिवर्तन हो गया है ऐसे प्रासुक ठण्डे जल के भरे हुए घड़े को शीतोदकविकृतकुम्भ कहते हैं। इसी प्रकार प्रासुक उष्ण जल के भरे हुए घड़े को उष्णोदकविकृतकुम्भ कहते हैं। जिस उपाश्रय में ऐसे (एक या दोनों ही प्रकार के) जल से भरे घड़े रखे हों, वहां पर साधु और साध्वियों को 'यथालन्दकाल' भी नहीं रहना चाहिए / विशेष विवेचन पूर्व सूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिए। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162] [बहत्कल्पसूत्र प्रस्तुत सूत्र में सचित्त पानी का कथन न होकर अचित्त पानो का कथन है। इसका तात्पर्य यही है कि साधु के द्वारा अचित्त पानी का सहज ही उपयोग किया जा सकता है। सचित्त पानी का साधु द्वारा पीना सहज सम्भव नहीं है / अचित्त जल युक्त स्थान में ठहरने पर किसी भिक्ष को रात्रि में प्यास लग जाए, उस समय वह यदि उस जल को पी ले तो उसका रात्रिभोजनविरमणवत खंडित हो जाता है, अतः ऐसे शंका के स्थानों में ठहरने का निषेध किया है। सूत्र में शीतल एवं उष्ण जल के साथ 'वियड' शब्द का प्रयोग है, अन्य आगमों में यह भिन्नभिन्न अर्थ में एवं विशेषण के रूप में प्रयुक्त है। इस विषय की विशेष जानकारी के लिये निशीथ उ. 19 सूत्र 1-7 का विवेचन देखें। अग्नि या दीपक युक्त उपाश्रय में रहने के विधि-निषेध और प्रायश्चित्त 6. उवस्सयस्स अंतोवगडाए, सम्बराइए जोई शियाएज्जा, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा प्रहालंदमवि वत्थए। हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए / नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए / जे तत्थ एगरायानो वा दुरायानो वा परं वसइ, से सन्तरा छेए वा परिहारे वा। 7. उबस्सयस्स अंतोयगडाए, सव्वराइए पईवे दिपज्जा, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए। हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए / नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वथए / जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं क्सइ, से सन्तरा छेए वा परिहारे वा। 6. उपाश्रय के भीतर सारी रात अग्नि जले तो निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को वहां 'यथालन्दकाल' भी रहना नहीं कल्पता है। कदाचित् गवेषणा करने पर भी अन्य उपाश्रय न मिले तो उक्त उपाश्रय में एक या दो रात रहना कल्पता है, किन्तु एक या दो रात्रि से अधिक रहना नहीं कल्पता है / जो वहां एक या दो रात से अधिक रहता है, वह मर्यादा-उल्लंघन के कारण दीक्षा-छेद या तप रूप प्रायश्चित्त का पात्र होता है / 7. उपाश्रय के भीतर सारी रात दीपक जले तो निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को वहां 'यथालन्दकाल' भी रहना नहीं कल्पता है / कदाचित् गवेषणा करने पर भी अन्य उपाश्रय न मिले तो उक्त उपाश्रय में एक या दो रात रहना कल्पता है, किन्तु एक या दो रात्रि से अधिक रहना नहीं कल्पता है। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक] [163 जो वहां एक या दो रात से अधिक रहता है वह मर्मादा उल्लंघन के कारण दीक्षा-छेद या तप रूप प्रायश्चित्त का पात्र होता है। विवेचन-जिस मकान में सारी रात या दिन-रात अग्नि जलती है, उस (कुम्भकारशाला या लोहारशाला आदि) में भिक्षु को ठहरना नहीं कल्पता है। यदि ठहरने के स्थान में एवं गमनागमन के मार्ग में अग्नि नहीं जलती हो, किन्तु अन्यत्र कहीं भी जलती हो तो वहां ठहरना कल्पता है / इसी प्रकार सम्पूर्ण रात्रि या दिन-रात जहां दीपक जलता है, वह स्थान भी अकल्पनीय है। अग्नि या दीपक युक्त स्थान में ठहरने के दोष-- 1. अग्नि के या दीपक के निकट से गमनागमन करने में अग्निकाय के जीवों की विराधना होती है। 2. हवा से कोई उपकरण अग्नि में पड़कर जल सकता है। 3. दीपक के कारण आने वाले त्रस जीवों की विराधना होती है। 4. शीतनिवारण करने का संकल्प उत्पन्न हो सकता है। आचा. श्रु. 2, अ. 2, उ. 3 में भी अग्नियुक्त स्थान में ठहरने का निषेध है एवं निशीथ उ. 16 में इसका प्रायश्चित्त विधान है। इन प्रागमस्थलों में अल्पकालीन अग्नि या दीपक का निषेध नहीं किया है, किन्तु इसी सूत्र के प्रथम उद्देशक में पुरुष सागारिक उपाश्रय में साधु को एवं स्त्री सागारिक उपाश्रय में साध्वी को ठहरने का विधान है। जहां अग्नि या दीपक जलने की सम्भावना भी रहती है / अतः इन सूत्रों से सम्पूर्ण रात्रि अग्नि जलने वाले स्थानों का निषेध समझना चाहिए। अन्य विवेचन पूर्व सूत्र के समान समझना चाहिए / खाद्यपदार्थयुक्त मकान में रहने के विधि-निषेध और प्रायश्चित्त 8. उवस्सयस्स अंतोवगडाए पिण्डए वा, लोयए था, खीरं वा, दहि वा, नवणीयं वा, सप्पि वा, तेल्ले वा, फाणियं वा, पूर्व वा, सक्कुली वा, सिहरिणी वा उक्खित्ताणि वा, विक्खित्ताणि वा, विइगिण्णाणि वा, विप्पइण्णाणि वा, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निगंथीण वा अहालंदमवि वत्थए। 9. अह पुण एवं जाणेज्जा–नो उक्खित्ताई, नो विक्खिताई, नो विइकिण्णाई, नो विप्पइण्णाई। रासिकडाणि वा, पुंजकडाणि बा, भितिकडाणि वा, कुलियाकडाणि वा, लंछियाणि वा, मुद्दियाणि वा, पिहियाणि वा कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथोणं वा हेमंत-गिम्हासु वत्थए / 10. अह पुण एवं जाणेज्जा-नो रासिकडाइ जाव नो कुलियाकडायं, कोट्टाउत्ताणि वा, पल्लाउत्ताणि वा, मंचाउत्ताणि वा, मालाउत्ताणि वा, कुभिउत्ताणि वा, करभि-उत्ताणि वा, ओलित्ताणि वा, विलित्ताणि वा, पिहियाणि वा, लंछियाणि वा, मुद्दियाणि वा कप्पइ निम्गंथाण बा निग्गंथोण वा वासावासं वत्थए। 8. उपाश्रय के भीतर में पिण्डरूप खाद्य, लोचक-मावा आदि, दूध, दही, नवनीत, घृत, तेल, Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164] [बृहत्कल्पसूत्र गुड़, मालपुए, पूड़ी और श्रीखण्ड-उत्क्षिप्त, विक्षिप्त, व्यतिकीर्ण और विप्रकीर्ण हो तो निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को वहां 'यथालन्दकाल' रहना भी नहीं कल्पता है / 9. यदि यह जाने कि (उपाश्रय में पिण्डरूप खाद्य यावत् श्रीखण्ड) उत्क्षिप्त, विक्षिप्त, व्यतिकीर्ण या विप्रकीर्ण नहीं है / किन्तु राशीकृत, पुजकृत, भित्तिकृत, कुलिकाकृत तथा लांछित मुद्रित या पिहित है तो निग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को वहां हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में रहना कल्पता है। 10. यदि यह जाने कि (उपाश्रय के भीतर पिण्डरूप खाद्य यावत् श्रीखण्ड) राशीकृत यावत् कुलिकाकृत नहीं है। किन्तु कोठे में या पल्य में भरे हुए हैं, मंच पर या माले पर सुरक्षित हैं, कुम्भी या बोधी में धरे हुए हैं, मिट्टी या गोबर से लिप्त हैं, ढंके हुए, चिह्न किये हुए हैं या मुहर लगे हुए हैं तो उन्हें वहां वर्षावास रहना कल्पता है / विवेचन-सूत्र 1-3 में धान्ययुक्त उपाश्रय मकान का वर्णन है और इन तीन सूत्रों में खाद्यपदार्थयुक्त मकान का वर्णन है / धान्य तो भूमि पर बिखरे हुए हो सकते हैं, किन्तु ये खाद्यपदार्थ बर्तन आदि में इधर-उधर अव्यवस्थित पड़े होते हैं। खाद्यपदार्थयुक्त उपाश्रय में ठहरने पर लगने वाले दोष 1. खाद्य पदार्थों वाले मकान में कीड़ियों की उत्पत्ति ज्यादा होती है। 2. चूहे बिल्ली आदि भी भ्रमण करते हैं। 3. असावधानी से पशु-पक्षी पाकर खा सकते हैं। 4. उन्हें खाते हुए रोकने एवं हटाने में अन्तराय दोष लगता है एवं न हटाने पर मकान का स्वामी रुष्ट हो सकता है अथवा साधु के ही खाने की आशंका कर सकता है। 5. कभी कोई क्षुधातुर या रसासक्त भिक्षु का मन खाने के लिये चलित हो सकता है एवं खा लेने पर अदत्त दोष लगता है। 6. खाद्य पदार्थों की सुगन्ध या दुर्गन्ध से अनेक शुभाशुभ संकल्प हो सकते हैं, जिससे कर्मबन्ध होता है। अन्य विवेचन सूत्र 1-3 के समान समझना चाहिये / साधु-साध्वी के धर्मशाला आदि में ठहरने का विधि-निषेध 11. नो कप्पइ निग्गंथोणं अहे प्रागमणगिहंसि वा, वियडगिहंसि वा, वंसीमूलंसि वा, रुक्खमूलंसि वा, अभावगासियंसि वा वत्थए। 12. कप्पइ निग्गंथाणं अहे प्रागमणगिहंसि बा, वियडगिहंसि वा, वसीमूलंसि वा, रुक्खमूलंसि वा, अब्भावगासियंसि वा वस्थए / 11. निर्ग्रन्थियों को प्रागमनगृह में, चारों ओर से खुले घर में, छप्पर के नीचे अथवा बांस को जालो युक्त गृह में, वृक्ष के नीचे या आकाश के नीचे (खुले स्थानों में) रहना नहीं कल्पता है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक [165 12. निर्ग्रन्थों को आगमनगृह (धर्मशाला) में, चारों ओर से खुले घर में, छप्पर के नीचे अथवा बांस को जाली युक्त गृह में, वृक्ष के नीचे या आकाश के नीचे (खुले स्थानों में) रहना कल्पता है। विवेचन--१. आगमनगृह-जहां पर पथिकों का आना-जाना हो ऐसे देवालय, सभा, धर्मशाला, सराय या मुसाफिरखाना आदि को 'पागमनगृह' कहते हैं। ___2. विवृतगृह-केवल ऊपर से ढंके हुए और दो, तीन या चारों ओर से खुले स्थान को 'विवृतगृह' कहते हैं। 3. वंशीमूल-बांस की चटाई प्रादि से ऊपर की ओर से ढंके और आगे की ओर से खले ऐसे दालान, प्रोसारा, छपरी आदि को वंशीमूल कहते हैं। अथवा चौतरफ बांस की जाली से युक्त स्थान को 'वंशीमूल' कहते हैं। 4. वृक्षमूल-वृक्ष के तल भाग को 'वृक्षमूल' कहते हैं। 5. अभ्रावकाश खुले आकाश को या जिसका अधिकांश ऊपरी भाग खुला हो ऐसे स्थान को 'प्रभावकाश' कहते हैं। ऐसे स्थान पर साध्वियों को किसी भी ऋतु में नहीं ठहरना चाहिए क्योंकि ये पूर्णतः असुरक्षित स्थान हैं। ऐसे स्थानों पर ठहरने से ब्रह्मचर्य व्रत भंग होने की सम्भावना रहती है। विहार करते समय कभी सूर्यास्त का समय आ जाए और योग्य स्थान न मिले तो साध्वी को सूर्यास्त के बाद भी योग्य स्थान में पहुँचना अत्यन्त आवश्यक होता है। साधुओं को ऐसे स्थान में ठहरने का सूत्र में जो विधान किया गया है, उसका कारण यह है कि पुरुषों में स्वाभाविक ही भयसंज्ञा अल्प होती है तथा ब्रह्मचर्य रक्षा के लिये भी उन्हें सुरक्षित स्थान की इतनी आवश्यकता नहीं होती है। सामान्य स्थिति में तो स्थविरकल्पी भिक्षु को सूत्रोक्त स्थानों के अतिरिक्त अन्य ऐसे स्थानों में ही ठहरना चाहिए; जहां ठहरने पर बाल, ग्लान आदि सभी भिक्षुओं के संयम, स्वाध्याय, आहार आदि का भलीभांति निर्वाह हो सके। पूर्व सूत्र में 'वियड' शब्द अचित्त अर्थ में प्रयुक्त है और प्रस्तुत सूत्र में गृह के एक या अनेक दिशा में खुले होने के अर्थ में प्रयुक्त है / आगमों में शब्दप्रयोग की यह विलक्षण शैली है। अनेक स्वामियों वाले मकान को आज्ञा लेने की विधि 13. एगं सागारिए पारिहारिए। दो, तिण्णि, चत्तारि, पंच सागारिया पारिहारिया। एग तत्थ कप्पागं ठवइत्ता अवसेसे निव्विसेज्जा / 13. मकान का एक स्वामी पारिहारिक होता है। जिस मकान के दो, तीन, चार या पांच स्वामी हों, वहां एक को कल्पाक= शय्यातर मान Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [बृहत्कल्पसूत्र करके शेष को शय्यातर नहीं मानना चाहिए अर्थात् उनके घरों में आहारादि लेने के लिए जा सकते हैं। विवेचन--अगार घर का पर्यायवाची है। घर या वसति के स्वामी को 'सागारिक' कहते हैं / सागारिक मनुष्य को ही शय्यातर, शय्याकर, शय्यादाता और शय्याधर भी कहते हैं। जो साधु-साध्वियों को शय्या अर्थात् ठहरने का स्थान, वसति या उपाश्रय देकर अपनी आत्मा को संसार-सागर से तारता है, उसे शय्यातर कहते हैं। शय्या-वसति आदि को जो बनवाता है, उसे शय्याकर कहते हैं। जो साधुओं को ठहरने का स्थान रूप शय्या देता है, उसे शय्यादाता कहते हैं। जो वसति या उपाश्रय की छान-छप्पर आदि के द्वारा उसका धारण या संरक्षण करता है अथवा साधुओं को दी गई शय्या के द्वारा नरक में जाने से अपनी आत्मा को धारण करता है, अर्थात् बचाता है, उसे शय्याधर कहते हैं / यह शय्यातर सागारिक जिस साधु या साध्वी को ठहरने के लिए वसति या उपाश्रय रूप शय्या दे, साधु को उसके घर का भक्त-पान ग्रहण करने का आगम में निषेध किया गया है, अतः उसे पारिहारिक कहते हैं। यदि किसी स्थानक या मकान के अनेक (मनुष्य) स्वामी हों तो वे सभी पारिहारिक होते हैं, अतः उस स्थान के सभी स्वामियों में से किसी एक को 'कल्पाक' (शय्यातर) स्थापित करके जिससे प्राज्ञा प्राप्त करे उसके घर का भक्त-पान आदि ग्रहण नहीं करे। उसके सिवाय जितने भी स्वामी उस स्थानक या मकान के भागीदार या हिस्सेदार हैं, उनको शय्यातर रूप से न माने अर्थात् उनके घरों से आहार-पानी ग्रहण किया जा सकता है। सूत्रोक्त निव्विसेज्जा' इस प्राकृत पद के टीकाकार ने दो प्रकार से अर्थ किये हैं 1. निविशेत-विसर्जयेत्-शय्यातरत्वेन न गणयेत् / अथवा--२. निविशेत्-प्रविशेत् आहारार्थ तेषां (शेषाणां) गृहेषु अनुविशेत् / / इसके अतिरिक्त भाष्यकार ने शय्या कितने प्रकार की होती है, कौन-कौन सागारिक माने जाएँ, सागारिक के पिण्ड से भक्त-पान, वस्त्र, पात्रादि का भी ग्रहण अभीष्ट है इत्यादि अनेक ज्ञातव्य बातों की विस्तृत व्याख्या की है, जिसका सारांश निशीथ उद्देशक 2, सूत्र 46 में दिया गया है। जिज्ञासु पाठक वहीं देखें। अनेक स्वामियों में से एक को शय्यातर करके फिर कुछ दिन बाद दूसरे को भी शय्यातरकल्पाक बनाया जा सकता है। जिससे अनेक को शय्यादान का एवं आहारादि दान का लाभ प्राप्त हो सकता है / यह भी इस सूत्र से फलित होता है। संसृष्ट असंसृष्ट शय्यातरपिंडग्रहण के विधि-निषेध 14. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गथीण वा सागारियपिण्डं बहिया अनीहडं, असंसर्ट्स वा संसद्धं वा पडिगाहित्तए। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक] [167 15. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंयोण वा सागारियपिण्डं बहिया नोहडं असंसट्ठ पडिगाहित्तए। 16. कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिण्डं बहिया नोहडं संसद्रं पडिगाहित्तए / 17. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिण्डं बहिया नोहडं-असंसठ्ठ संसट्ठे कारित्तए। 18. जे खलु निग्गंथो वा निग्गंथी वा सागारियपिण्डं बहिया नीहडं असंसट्ठ संसट्ठ कारेइ कारंतं वा साइज्जइ / से दुहओ विइक्कममाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं / 14. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को सागारिकपिण्ड (शय्यातरपिण्ड) जो कि बाहर नहीं निकाला गया है, वह चाहे अन्य किसी के आहार में मिश्रित किया हो या नहीं किया हो तो भी लेना नहीं कल्पता है। 15. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को सागारिकपिण्ड जो बाहर तो निकाला गया है, किन्तु अन्य के आहार में मिश्रित नहीं किया गया है तो लेना नहीं कल्पता है। 16. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को सागारिकपिण्ड जो घर के बाहर भी ले जाया गया है और अन्य के आहार में मिश्रित भी कर लिया गया है तो ग्रहण करना कल्पता है। 17. निर्ग्रन्थों और निर्गन्थियों को घर से बाहर ले जाया गया सागारिकपिण्ड जो अन्य के आहार में मिश्रित नहीं किया गया है, उसे मिश्रित कराना नहीं कल्पता है। 18. जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी घर के बाहर ले जाये गये एवं अन्य के आहार में अमिश्रित सागारिकपिण्ड को मिश्रित करवाता है या करवाने वाले का अनुमोदन करता है, वह लौकिक और लोकोत्तर दोनों मर्यादा का अतिक्रमण करता हुआ चातुर्मासिक अनुद्घातिक प्रायश्चित्त का पात्र होता है। विवेचन-पूर्व सूत्र में अनेक स्वामियों वाले मकान की प्राज्ञा लेने के सम्बन्ध में एवं शय्या के आज्ञादाता का आहार आदि न लेने का तथा अन्य स्वामियों के घरों से आहारादि लेने का विधान किया गया है। इन सूत्रों में अनेक व्यक्तियों का आहार एक स्थान पर एकत्रित हो एवं उनमें शय्यातर का भी आहारादि हो तो वह प्राहार कहां किस स्थिति में अग्राह्य होता है और कैसा ग्राह्य होता है इत्यादि विधान किया गया है। ___ अनेक व्यक्तियों का संयुक्त आहारस्थान यदि शय्यातर के घर की सीमा में हो और वहां शय्यातर का आहार अलग पड़ा हो अथवा सब के आहार में मिला दिया गया हो तो भी साधु को ग्रहण करना नहीं कल्पता है / यह प्रथम सूत्र का प्राशय है। अनेक व्यक्तियों का सम्मिलित आहार शय्यातर के घर की सीमा से बाहर हो एवं वहां शय्यातर का पाहार अलग रखा हो तो उसमें से लेना नहीं कल्पता है / यह दूसरे सूत्र का आशय है। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168] [बृहत्कल्पसूत्र किन्तु अन्य सभी के सम्मिलित आहार में शय्यातर का अाहार मिश्रित कर दिया गया हो और जिस हेतु से आहार सम्मिलित किया गया हो उन देवताओं का नैवेद्य निकाल दिया गया हो, ब्राह्मण आदि को जितना देना है उतना दे दिया गया हो, उसके बाद भिक्षु लेना चाहे तो ले सकता है। क्योंकि अब उस आहार में शय्यातर के आहार का अलग अस्तित्व भी नहीं है एवं उसका स्वामित्व भी नहीं रहा है अतः उस मिश्रित एवं परिशेष आहार में से भिक्षु को ग्रहण करने में शय्यातरपिण्डग्रहण का दोष नहीं लगता है / यह तीसरे सूत्र का आशय है / विहार प्रादि किसी भी कारण से उक्त असंसृष्ट आहार को ग्रहण करने हेतु संसृष्ट करवाना भिक्षु को नहीं कल्पता है / यह चौथे सूत्र का प्राशय है / उक्त असंसृष्ट आहार आदि को संसृष्ट करवाना संयम-मर्यादा से विपरीत है एवं लोगों को भी अप्रोतिकारक होता है। अतः ऐसा करने पर भिक्षु लौकिक व्यवहार एवं संयम-मर्यादा का उल्लंघन करने वाला होता है / इसलिए उसे प्रायश्चित्त अाता है / यह पांचवें सूत्र का प्राशय है / शय्यातर के असंसृष्ट आहार को या उसके घर की सीमा में रहे आहार को ग्रहण करने पर यदि वह भद्रप्रकृति वाला हो तो पुनः पुनः इस निमित्त से आहार देने का प्रयास कर सकता है। यदि वह तुच्छ प्रकृति वाला हो तो रुष्ट हो सकता है, जिससे वध-बंधन या शय्या देने का निषेध कर सकता है / घर की सीमा से बाहर रहे हुए संसृष्ट आहार में उक्त दोष की सम्भावना नहीं होती है / अतः ग्राह्य कहा गया है। शय्यातर के घर आये या भेजे गये आहार के ग्रहण का विधि-निषेध 19. सागारियस्स आहडिया सागारिएण पडिग्गहिया, तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 20. सागारियस्स आहडिया सागारिएण अपडिग्गहिया, तम्हा दावए, एवं से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 21. सागारियस्स नीहडिया परेण अपडिग्गहिया, तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए / 22. सागारियस्स नोहडिया परेण पडिग्गहिया, तम्हा दावए, एवं से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 19. अन्य घर से आये हुए आहार को सागारिक ने अपने घर पर ग्रहण कर लिया है और वह उसमें से साधु को दे तो लेना नहीं कल्पता है। 20. अन्य घर से पाये हुए आहार को सागारिक ने अपने घर पर ग्रहण नहीं किया है और यदि प्राहार लाने वाला उस आहार में से साधु को दे तो लेना कल्पता है / 21. सागारिक के घर से अन्य घर पर ले जाये गये पाहार को उस गृहस्वामी ने यदि स्वीकार नहीं किया है तो उस आहार में साधु को दे तो लेना नहीं कल्पता है / Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [169 दूसरा उद्देशक] 22. सागारिक के घर से अन्य घर ले जाये गये आहार को उस गृहस्वामी ने स्वीकार कर लिया है / यदि वह उस आहार में में साधु को दे तो लेना कल्पता है। विवेचन--दूसरों के घर से शय्यातर के घर पर लाई जा रही खाद्यसामग्री 'पाहतिका' कही गई है और शय्यातर की जो खाद्यसामग्री अन्य के घर ले जाई जा रही हो वह 'निहतिका' कही गई है। ऐसी शय्यातर सम्बन्धी प्राहृतिका एवं निहृतिका सामग्री साधु किस स्थिति में ग्रहण कर सकता है, यह इन चार सूत्रों में बताया गया है / ये आहृतिका निहतिका किसी त्यौहार या महोत्सव के निमित्त से हो सकती है / यदि ग्राहृतिका या निहृतिका सामग्री में से कोई व्यक्ति साधु को ग्रहण करने के लिए कहे तो शय्यातर की ग्राहृतिका का प्राहार जब तक शय्यातर के स्वामित्व में नहीं हुआ है, तब तक ग्रहण किया जा सकता है। शय्यातर की निहृतिका का आहार दूसरे के ग्रहण करने के बाद उससे लिया जा सकता है। शय्यातर की निहतिका बांटने वाले से पाहार नहीं लिया जा सकता है, किन्तु शय्यातर की प्राहृतिका बांटने वाले से उसका आहार लिया जा सकता है।। पूर्व सूत्र में शय्यातर का पाहार अन्य अनेक लोगों के आहार के साथ अलग या मिश्रित शय्यातर के घर की सीमा में या अन्यत्र कहीं हो, उसी का कथन है और इन सूत्रों में शय्यातर के घर में हो या अन्यत्र हो, शय्यातर का हो या अन्य का हो, दिया जाने वाला हो या लिया जाने वाला हो, वह आहार जब तक शय्यातर के स्वामित्व में नहीं हुआ है या अन्य ने अपने स्वामित्व में ले लिया है तो उस पाहार को ग्रहण किया जा सकता है और वह आहार जब तक शय्यातर के स्वामित्व में है या अन्य का लाया गया आहार उसने स्वीकार कर लिया है तो वह आहार साध ग्रहण नहीं कर सकता है इत्यादि कथन है। दोनों प्रकरणों में यह अन्तर समझना चाहिये। आहृतिका एवं निहृतिका बांटने वाला जहां हो उस समय भिक्षु भी सहजरूप में वहां गोचरी के लिये भ्रमण करते हुए पहुंच जाये और बांटने वाला या लेने वाला निमन्त्रण करे इस अपेक्षा से यह सूत्रोक्त कथन है, ऐसा समझना चाहिये। शय्यातर के अंशयुक्त आहार-ग्रहण का विधि-निषेध 23. सागारियस्स अंसियानो--१. अविभत्तानो, 2. अन्वोछिन्नानो, 3. अन्वोगडाओ, 4. अनिज्जूढाओ, तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिगाहित्तए। 24. सागारियस्स अंसियानो विभत्तामो, बोच्छिन्नाओ, बोगडाओ, निज्जढाओ तम्हा दावए. एवं से कप्पह पडिगाहेत्तए / 23. सागारिक तथा अन्य व्यक्तियों के संयुक्त आहारादि का यदि-१. विभाग निश्चित नहीं किया गया हो, 2. विभाग न किया गया हो, 3. सागारिक का विभाग अलग निश्चित न किया गया हो, 4. विभाग बाहर निकालकर अलग न कर दिया हो, ऐसे आहार में से साधु को कोई दे तो लेना नहीं कल्पता है। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170] [महत्कल्पसूत्र 24. सागारिक के अंश युक्त आहारादि का यदि-१. विभाग निश्चित हो, 2. विभाग कर दिया हो, 3. सागारिक का विभाग निश्चित कर दिया हो, 4. उस विभाग को बाहर निकाल दिया गया हो तो शेष पाहार में से साधु को कोई दे तो लेना कल्पता है / विवेचन-सूत्र में प्रयुक्त पदों का अर्थ इस प्रकार है 1. अविभक्त-विभक्त का अर्थ पृथक्करण या विभाजन है, जब तक सागारिक का भाग उस सम्मिलित भोज्यसामग्री में से पृथक रूप से निश्चित नहीं किया जाय, तब तक वह 'अविभक्त' है। 2. अव्यवच्छिन्न-व्युच्छिन्न या व्यवच्छिन्न का अर्थ सम्बन्धविच्छेद है। जब तक सागारिक के अंश का सम्बन्ध-विच्छेद न हो जाय, तब तक वह 'अव्यवच्छिन्न' है। 3. अव्याकृत-व्याकृत का अर्थ भाग के स्पष्टीकरण का है कि इतना अंश तुम्हारा है और इतना अंश मेरा है, जब तक ऐसा निर्धारण नहीं हो जाय तब तक वह 'अव्याकृत' कहलाता हैं। 4. अनि! ढ--नियूंढ का अर्थ 'पृथक् निर्धारित अंश से अलग करना' है / जब तक सागारिक का अंश उस सम्मिलित भोजन में से निकाल न दिया जाय, तब तक वह 'अनि'ढ' कहलाता है। इस प्रकार पूरे सूत्र का समुच्चय अर्थ यह होता है कि शय्यातर सहित अनेक व्यक्तियों की खाद्यसामग्री में से सागारिक का अंश जब तक अविभाजित है, अव्यवच्छिन्न है, अनिर्णीत है और अनिष्कासित है, तब तक उस भोजन के आयोजकों में से यदि कोई व्यक्ति साधु को कुछ अंश देता है तो वह उनके लिए ग्राह्य नहीं है। किन्तु जब सागारिक का अंश विभाजित, व्यवच्छिन्न, निर्धारित और निष्कासित हो जाता है, तब उस सम्मिलित भोज्य-सामग्री में से दिया गया भक्त-पिण्ड साधु के लिये ग्राह्य है और वह उसे ले सकता है। यहां यह भी बताया गया है कि अनेक जनों के द्वारा सम्मिलित बनाये गये भोजन के अतिरिक्त सम्मिलित तैयार किया गया गुड़, तेल, घी आदि सभी इसी के अन्तर्गत हैं। उनमें से भी जब तक सागारिक का भाग निकाल कर सर्वथा पृथक् न कर दिया जावे तब तक बे पदार्थ भी साधु के लिए अग्राह्य ही हैं। पूर्व सूत्रों में वर्णित संसृष्ट असंसृष्ट आहार में किसी का स्वामित्व नहीं रहता है और न वह विभक्त होता है। किन्तु प्रस्तुत सूत्रकथित आहार में स्वामित्व भी होता है, वह विभक्त होकर शय्यातर को मिलने वाला भी होता है / यह इन दोनों प्रकरणों में अन्तर है / शय्यातर के पूज्यजनों को दिये गये आहार के ग्रहण करने का विधि-निषेध 25. सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए चेइए पाहुडियाए सागारियस्स उषगरणजाए निदिए निसट्टे पाडिहारिए, तं सागारिओ देइ, सागारियस्स परिजणो देइ तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए। 26. सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए चेइए पाहुडियाए, सागारियस्स उवगरणजाए निढ़िए निसट्टे पाडिहारिए, तं नो सागारिओ देइ, नो सागारियस्स परिजणो देइ, सागारियस्स पूया देइ, तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए / Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक] [171 27. सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए चेइए पाहुडियाए सागारियस्स उवगरणजाए निढ़िए निसट्टे अपाडिहारिए, तं सागारिओ देइ, सागारियस्स परिजणो देइ, तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए। 28. सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए चेइए पाहुडियाए, सागारियस्स उवगरणजाए निट्ठिए, निसट्टे अपाडिहारिए, तं नो सागारिओ देइ, नो सागारियस्स परिजणो देइ, सागारियस्स पूया देइ, तम्हा दावए, एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए / 25. सागरिक ने अपने पूज्य पुरुषों को सम्मानार्थ भोजन दिया हो, पूज्य पुरुषों द्वारा वह आहार सागारिक के उपकरणों में बनाया गया हो और प्रातिहारिक हो, ऐसे आहार में से यदि सागारिक दे या उसके परिजन दें तो साधु को लेना नहीं कल्पता है। 26. सागारिक ने अपने पूज्य पुरुषों को सम्मानार्थ भोजन दिया हो, पूज्य पुरुषों द्वारा वह आहार सागारिक के उपकरणों में बनाया गया हो और प्रातिहारिक हो, ऐसे आहार में से न सागारिक दे और न सागारिक के परिजन दें, किन्तु सागारिक के पूज्य पुरुष दें तो भी साधु को लेना नहीं कल्पता है। 27. सागारिक ने अपने पूज्य पुरुषों को सम्मानार्थ भोजन दिया हो, पूज्य पुरुषों द्वारा वह आहार सागारिक के उपकरणों में बनाया गया हो और अप्रतिहारिक हो, ऐसे आहार में से सागारिक दे या उसके परिजन दें तो साधु को लेना नहीं कल्पता है। 28. सागारिक ने अपने पूज्य पुरुषों को सम्मानार्थ भोजन दिया हो, पूज्य पुरुषों द्वारा वह आहार सागारिक के उपकरणों में बनवाया गया हो और अप्रतिहारिक हो, ऐसे आहार में से न सागारिक दे और न सागारिक के परिजन दें किन्तु सागारिक के पूज्य पुरुष दें तो लेना कल्पता है। विवेचन-शय्यातर के नाना, मामा, बहनोई, जमाई, विद्यागुरु, कलाचार्य, स्वामी या मेहमान आदि पूज्य जनो के निमित्त से जो भक्त-पान बनाया जाता है, उसे पूज्य-भक्त कहते हैं / वह शय्यातर के घर से लाकर जहां पूज्य जन ठहरे हों वहां उन्हें भोजनार्थ समर्पण किया गया हो, बाजार आदि से मंगाकर पूज्य जनों के पास भेंट रूप भेजा गया हो, शय्यातर के भाजनों में (बर्तनों में) पकाया गया हो, उसके पात्र से निकाला गया हो और प्रातिहारिक हो अर्थात् पूज्य जनों को खिलाने के पश्चात् जो भोजन बचे, वह वापस लाकर सोंपना, ऐसा कहकर सेवक या कुटुम्बीजन द्वारा भेजा गया हो, ऐसे सभी आहार पूज्य-भक्त कहे जाते हैं। इसी प्रकार सागारिक के पूज्य जनों के लिए बनाये गये या लाये गये वस्त्र-पात्र, कम्बलादि भी पूज्य उपकरण कहलाते हैं। ऐसे पूज्य जन-निमित्त वाले भक्त-पिण्ड और उपकरण को चाहे शय्यातर स्वयं साधु के लिए दे, उसके स्वजन-परिजन दें या उक्त पूज्य जन दें तो भी साधु-साध्वी को वह आहार आदि लेना नहीं कल्पता है / क्योंकि शेष आहार पुनः शय्यातर को लौटाने का होने से उसमें शय्यातर के स्वामित्व का सम्बन्ध रहता है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172] [बृहत्कल्पसूत्र यदि वह आहार पूज्य जनों को अप्रातिहारिक दे दिया गया हो अर्थात् खाने के बाद शेष रहा आहार शय्यातर को पुनः नहीं लौटाना हो तो वैसे आहार को ग्रहण किया जा सकता है / यदि उस आहार को शय्यातर या उसके परिजन दें तो नहीं लिया जा सकता है, किन्तु अन्य पूज्य जन आदि दें तो लिया जा सकता है। इन सूत्रों से यह भी फलित होता है कि शय्यातर के स्वामित्व से रहित आहार भी शय्यातर के हाथ से या उसके पुत्र, पौत्र, स्त्री, पुत्रवधू आदि के हाथ से नहीं लिया जा सकता है, किन्तु विवाहित लड़कियों के हाथ से वह पाहार लिया जा सकता है / निर्ग्रन्थ-निर्गन्थी के लिए कल्पनीय वस्त्र 29. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा-इमाइं पंच वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा, तं जहा-१. जंगिए, 2. भंगिए, 3. साणए, 4. पोत्तए, 5. तिरोडपट्टे नामं पंचमे। 29. निर्ग्रन्थों और निम्रन्थयों को पांच प्रकार के वस्त्रों को रखना और उनका उपयोग करना कल्पता है / यथा 1. जांगमिक, 2. भांगिक, 3. सानक, 4. पोतक, 5. तिरीटपट्टक / विवेचन-१. जांगमिक-भेड़ आदि के बालों से बने वस्त्र को 'जांगमिक' कहते हैं। 2. भांगिक-अलसी आदि की छाल से बने वस्त्र को 'भांगिक' कहते हैं। 3. शाणक-सन (जूट) से बने वस्त्रों को 'शाणक' कहते हैं। 4. पोतक-कपास से बने वस्त्र को 'पोतक' कहते हैं। 5. तिरीटपट्टक-तिरीट (तिमिर) वृक्ष की छाल से बने वस्त्र को 'तिरीटपट्टक' कहते हैं / ये पांच प्रकार के वस्त्र साधु के लिए कल्पनीय हैं / ऐसा सूत्र-निर्देश होने पर भी भाष्यकार ने इनमें से साधु-साध्वी के लिए दो सूती और एक ऊनी ऐसे तीन वस्त्रों को रखने का ही निर्देश किया है। जंगम का अर्थ त्रसजीव है / असजीव दो प्रकार के होते हैं-विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय / कोशा, रेशम और मखमल विकलेन्द्रियप्राणिज वस्त्र हैं। इनका उपयोग साधु के लिए सर्वथा वजित है, क्योंकि ये उन प्राणियों का घात करके निकाले गये धागों से बनते हैं। पंचेन्द्रियजीवों के चर्म से निर्मित वस्त्र भी साधु-साध्वी के लिये निषिद्ध हैं। किन्तु उनके केशों से निर्मित ऊनी वस्त्रों का उपयोग साधु-साध्वी कर सकते हैं। क्योंकि भेड़ आदि के केश काटने में उन प्राणियों का घात नहीं होता है / अपितु ऊन काटने के बाद उनको हल्केपन का ही अनुभव होता है। प्राचा. श्रु. 2, अ. 5, उ. 1 में तथा ठाणांग अ. 5, उ. 3 में भी ये वस्त्र कल्पनीय बताये हैं। आचारांगसूत्र में यह भी कहा गया है कि-'जो भिक्षु तरुण स्वस्थ एवं समर्थ हो वह इनमें से एक ही जाति के वस्त्र रखे, अनेक जाति के नहीं रखे / अन्य सामान्य भिक्षु एक या अनेक जाति के वस्त्र रख सकते हैं। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक] [173 इन पांच जाति के वस्त्रों में से जब जहां जो सुलभ एवं कल्पनीय प्राप्त हो उसे ग्रहण किया जा सकता है / प्राथमिकता सूती एवं ऊनी इन दो को ही दी जानी चाहिए। निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी के लिए कल्पनीय रजोहरण 30. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाइं पंच रयहरणाई धारित्तए वा परिहारित्तए वा, तं जहा–१. ओण्णिए, 2. उट्टिए, 3. साणए, 4. बच्चाचिप्पए, 5. मुजचिप्पए नामं पंचमे। त्ति बेमि। 30. निर्ग्रन्थों और निग्रंथियों को इन पांच प्रकार के रजोहरणों को रखना और उनका उपयोग करना कल्पता है / यथा 1. औणिक, 2. प्रौष्ट्रिक, 3. सानक, 4. वच्चाचिप्पक, 5. मुजचिप्पक / विवेचन--जिसके द्वारा धूलि आदि द्रव्य-रज और कर्म-मलरूप भाव-रज दूर की जाए उसे 'रजोहरण' कहते हैं। द्रव्यरजोहरण-गमनागमन करते हुए पैरों पर लगी रज या मकान में आई रज इससे प्रमार्जन करके दूर को जाती है, अतः यह 'द्रव्यरजोहरण' है। भावरजोहरण-भूमिगत, शरीर या वस्त्र-शय्यादि पर चढ़े हुए कीड़े-मकोड़े आदि को कष्ट पहुंचाए बिना रजोहरण से दूर किया जा सकता है, अत: जीवरक्षा का साधन होने से यह 'भावरजोहरण' है। यह रजोहरण पांच प्रकार का होता है१. औणिक-जो भेड़ आदि की ऊन से बनाया जाए वह 'पौणिक" है / 2. पौष्ट्रिक---जो ऊँट के केशों से बनाया जाय वह 'पौष्ट्रिक' है। 3. शानक- जो सन के वल्कल से बनाया जाय वह 'शानक' है। 4. वच्चाचिप्पक वच्चा का अर्थ डाभ या घास है, उसे कूटकर और कर्कश भाग दूरकर बनाये गये रजोहरण को 'बच्चाचिप्पक' कहते हैं / / 5. मुजचिप्पक-मुंज को कूटकर तथा उसके कठोर भाग को दूर करके बनाए गए रजोहरण ___को 'मुजचिप्पक' कहते हैं। स्थानांग अ. 5, उ. 3 में भी रजोरहण के ये पांच प्रकार कहे हैं। इन पांचों में पूर्व-पूर्व के कोमल होते हैं और उत्तर-उत्तर के कर्कश / अतः सबसे कोमल होने से औणिक रजोहरण ही प्रशस्त या उत्तम माना गया है। उसके अभाव में औष्ट्रिक और उसके प्रभाव में शानक रजोहरण का भाष्यकार ने स्पष्ट निर्देश किया है। यदि किसी देश-विशेष में उक्त तीनों ही प्रकार के रजोहरण उपलब्ध न हों तो वैसी दशा में ही वच्चाचिप्पक और उसके भी अभाव में मुजचिप्पक रजोहरण ग्रहण करने का विधान है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174] [बृहत्कल्पसूत्र विपरीत क्रम से रजोहरण के ग्रहण करने पर लघुमासिक प्रायश्चित्त का निर्देश किया है। साधु-साध्वी के संयम की रक्षा के लिए तथा शारीरिक रज को दूर करने के लिए एक रजोहरण रखना आवश्यक होता है। दूसरे उद्देशक का सारांश सूत्र 1-3 4-7 8-10 11-12 जिस मकान में धान्य बिखरा हुआ हो उसमें नहीं ठहरना किन्तु व्यवस्थित राशीकृत हो तो मासकल्प एवं मुहरबन्द हो तो पूरे चातुर्मास भी रहा जा सकता है। जिस मकान की सीमा में मद्य के घड़े या अचित्त शीत या उष्ण जल के घड़े भरे हुए पड़े हों अथवा अग्नि या दीपक सम्पूर्ण रात्रि जलते हों तो वहां साधु-साध्वी को नहीं ठहरना चाहिए, किन्तु अन्य मकान के अभाव में एक या दो रात्रि ठहरा जा सकता है। जिस मकान की सीमा में खाद्य पदार्थ के बर्तन यत्र-तत्र पड़े हों वहां नहीं ठहरना चाहिए किन्तु एक किनारे पर व्यवस्थित रखे हों तो मासकल्प एवं मुहरबन्द हों तो पूरे चातुर्मास भी रहा जा सकता है / धर्मशाला एवं असुरक्षित स्थानों में साध्वियों को नहीं ठहरना चाहिए, किन्तु अन्य स्थान के अभाव में साधु वहाँ ठहर सकते हैं। शय्या के अनेक स्वामी हों तो एक की प्राज्ञा लेकर उसे शय्यातर मानना एवं अन्य के घरों से पाहारादि ग्रहण करना। शय्यादाता एवं अन्य का ग्राहार किसी स्थान पर संग्रहीत किया गया हो तो शय्यातर के घर की सीमा में और सीमा से बाहर अलग रखे हुए शय्यातर के आहार में से ग्रहण करना नहीं कल्पता है / किन्तु शय्यादाता के घर की सीमा के बाहर एवं अन्य संगृहीत आहार में शय्यातर का हार मिला दिया गया हो तो ग्रहण किया जा सकता है। साधु-साध्वी को शय्यादाता के अलग रखे हुए आहार को अन्य आहार में मिलवाना नहीं कल्पता है एवं ऐसा करने पर उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त पाता है / शय्यादाता की प्राहृतिका एवं निहतिका का आहार उसके आधीन हो तब तक ग्रहण नहीं किया जा सकता है। अन्य के आधीन हो तब ग्रहण किया जा सकता है। शय्यातर के स्वामित्व वाले अाहारादि पदार्थों में से जब शय्यातर के स्वामित्व का अंश पूर्ण विभक्त होकर अलग कर दिया जावे तब शेष आहार में से ग्रहण करना कल्पता है, किन्तु शय्यातर का अंश पूर्णतः अलग न किया हो तो उसमें से ग्रहण करना नहीं कल्पता है। 14-16 17-18 19-22 23-24 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक] [175 सूत्र 25-28 शय्यादाता के पूज्य पुरुषों को सर्वथा समर्पित किए गए आहार में से ग्रहण करना कल्पता है, किन्तु 'प्रातिहारिक' दिया गया हो तो उसमें से लेना नहीं कल्पता है तथा वह आहार शय्यादाता के या उसके पारिवारिक सदस्यों के हाथ से लेना नहीं कल्पता है। साधु-सध्वियां पांच जाति के वस्त्र एवं पांच जाति के रजोहरण में से किसी भी जाति का वस्त्र या रजोहरण ग्रहण कर सकते हैं। 29-30 उपसंहार 11-12 इस उद्देशक मेंधान्य, सुरा, जल, अग्नि, दीपक एवं खाद्य पदार्थ युक्त मकान के कल्प्याकल्प्य का, / स्थानों के कल्प्याकल्प्य का, एक शय्या स्वामी की आज्ञा लेने का, शय्यातर के स्वामित्व वाले आहार के कल्प्याकल्प्य का, कल्पनीय वस्त्र एवं रजोहरण की जातियों का, इत्यादि विषयों का वर्णन किया गया है / // द्वितीय उद्देशक समाप्त // 14-28 29-30 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक निम्रन्थ-निर्ग्रन्थी को परस्पर उपाश्रय में खड़े रहने आदि का निषेध 1. नो कप्पइ निम्गंथाणं, निग्गंथोणं उवस्सयंसि-१. चिट्टित्तए वा, 2. निसीइत्तए वा, 3. तुयट्टित्तए वा, 4. निदाइत्तए वा, 5. पयलाइत्तए वा, 6. असणं वा, 7. पाणं वा, 8. खाइमं वा, 9. साइमं वा पाहारं पाहारित्तए, 10. उच्चारं वा, 11. पासवणं वा, 12. खेलं वा, 13. सिंघाणं वा परिदृवित्तए, 14. सज्झायं वा करित्तए, 15. साणं वा झाइत्तए, 16. काउसग्गं वा (करित्तए) ठाइत्तए। 2. नो कम्पइ निग्गंथीणं निग्गंथाणं उवस्सयंसि चिट्ठित्तए वा जाव काउस्सग्गं वा ठाइत्तए / 1. निर्ग्रन्थों को निर्ग्रन्थियों के उपाश्रय में---१. खड़े रहना, 2. बैठना, 3. लेटना, 4. निद्रा लेना, 5. ऊंघ लेना, 6. अशन, 7. पान, 8. खादिम, 9. स्वादिम का आहार करना, 10. मल, 11. मूत्र, 12. कफ और, 13. नाक का मैल परठना, 14. स्वाध्याय करना, 15. ध्यान करना तथा 16. कायोत्सर्ग कर स्थित होना नहीं कल्पता है। 2. निर्ग्रन्थियों को निर्ग्रन्थों के उपाश्रय में खड़े रहना यावत् कायोत्सर्ग कर स्थित होना नहीं कल्पता है। विवेचन-सामान्यतः साधुनों को साध्वियों के उपाश्रय में तथा साध्वियों को साधुओं के उपाश्रय में नहीं जाना चाहिए। यदि कारणवश जाना पड़े तो उन्हें खड़े-खड़े ही कार्य करके शीघ्र वापस लौट पाना चाहिए और वहां पर सूत्रोक्त कार्य नहीं करने चाहिए। क्योंकि अधिक समय तक ठहरने पर लोगों में नाना प्रकार की आशंकाएं उत्पन्न होती हैं, अधिक परिचय बढ़ने से ब्रह्मचर्य में भी दूषण लगना सम्भव है और साधु-साध्वियों का एक-दूसरे के उपाश्रय में खान-पान या मल-मूत्रादि का विसर्जन लोक-निन्दित है। साध्वियों को साधु के पास स्वाध्याय सुनाने एवं परस्पर वाचना देने का व्यव. उ. 7 में कथन है, अतः उस हेतु साध्वियों का साधुओं के उपाश्रय में आना-जाना आगमसम्मत है तथा सेवा आदि कार्यों से भी एक-दूसरे के उपाश्रय में आने-जाने का ठाणांग सूत्र में कथन किया गया है। साधु-साध्वी को चर्म ग्रहण के विधि-निषेध 3. नो कप्पइ निग्गंथीणं सलोमाई चम्माई अहिद्वित्तए। 4. कप्पइ निग्गंथाणं सलोमाइं चम्माइं अहिद्वित्तए, से वि य परिभुत्ते, नो चेव णं अपरिभुत्ते, से वि य पाडिहारिए, नो चेव णं अपाडिहारिए, से वि य एगराइए, नो चेव णं अणेगराइए। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक] [177 5. नो कप्पइ निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा कसिणाई चम्माइं धारेत्तए वा, परिहरित्तए वा। 6. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथोण वा अकसिणाई चम्माइं धारेत्तए वा, परिहरित्तए था। 3. निर्ग्रन्थियों को रोम-सहित चर्म का उपयोग करना नहीं कल्पता है / 4. निर्ग्रन्थों को रोम-सहित चर्म का उपयोग करना कल्पता है। वह भी काम में लिया हा हो, नया न हो। लौटाया जाने वाला हो, न लौटाया जाने वाला नहीं हो। केवल एक रात्रि में उपयोग करने के लिए लाया जाय पर अनेक रात्रियों में उपयोग करने के लिए न लाया जाय / 5. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को अखण्ड चर्म रखना या उसका उपयोग करना नहीं कल्पता है। 6. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को चर्मखण्ड रखना या उसका उपयोग करना कल्पता है / विवेचन-साधु-साध्वी की सामान्य उपधि में वस्त्र, पात्र, कम्बल आदि का कथन मिलता है। चर्म के उपकरण सामान्य रूप से तो साधु-साध्वी को रखना नहीं कल्पता है, किन्तु रोग आदि के कारण चर्म रखना आवश्यक हो तो रोमरहित चर्मखण्ड रखना कल्पता है। इसका कारण यह है कि खुन या मल आदि के कपडे बारम्बार धोने की परिस्थिति में चर्मखण्ड के उपयोग से सुविधा रहती है। रोगी को भी कष्ट कम होता है / अखण्ड चर्म का निषेध इसलिये है कि हाथ पांव आदि के विभाग से युक्त अधिक लम्बा चौड़ा चमड़ा अनावश्यक होता है / मर्यादित कटा हुवा चर्म ही उपयुक्त रहता है। सरोमचर्म में तो जीवोत्पत्ति की आशंका रहती है, अतः वह साधु-साध्वियों के लिये अग्राह्य होता है / सूत्र में जो साधु के लिये अनेक मर्यादाओं से युक्त सरोमचर्म ग्रहण करने का विधान है, इससे भी सरोमचर्म का अग्राह्य होना ध्वनित होता है / किसी साधु के चर्मरोग या अर्श आदि के कारण बैठने में या सोने में भी अत्यन्त पीड़ा होती हो तो रोमरहित चर्म की अपेक्षा रोमसहित चर्म अधिक उपयोगी होता है, इसलिये विशेष कारण से उसके ग्रहण करने का विधान किया गया है। साथ ही जीवोत्पत्ति से होने वाली विराधना से बचने के लिए कुछ मर्यादाएं कही गई हैं, जिनका तात्पर्य इस प्रकार है लुहार, सुनार आदि जो दिन भर चर्म पर बैठकर अग्नि के पास काम करते हैं, उस सरोमचर्म में कुछ समय तक जीवोत्पत्ति की सम्भावना नहीं रहती है / अतः सदा काम पाने वाले, सरोमचर्म को प्रातिहारिक रूप में ग्रहण करने की प्राज्ञा दी गई है। ज्यादा दिन रखने पर अग्नि की गर्मी न मिलने से उस सरोमचर्म में जोवोत्पत्ति होने की सम्भावना रहती है। अतः अधिक रखने का निषेध किया गया है। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178] [बहत्कल्पसूत्र साध्वी को सरोमचर्म ग्रहण करने का जो निषेध किया गया है उसका कारण यह है कि उनको ऐसे चर्म की गवेषणा करना एवं इतनी मर्यादाओं का पालन करना कठिन है तथा सरोमचर्म में पुरुष जैसे स्पर्श का अनुभव होने की सम्भावना से वह उनके ब्रह्मचर्य में भी बाधक हो सकता है। रोमरहित चर्मखण्ड रखने के अनेक कारण भाष्य में कहे हैं / वे इस प्रकार हैं--संधिवात में, अतिशीत काल एवं अति उष्ण काल में न चल सकने पर, दृष्टि मन्द हो जाय या पैरों में छाले पड़ जाएँ इत्यादि कारणों से चर्मखण्ड रखे जा सकते हैं / भाष्य में कृत्स्न अकृत्स्न चर्म के अनेक प्रकार से उनके उपयोग एवं परिस्थितियों का वर्णन किया है। इसकी जानकारी के लिये भाष्य का अध्ययन करना आवश्यक है। साधु-साध्वी द्वारा वस्त्र ग्रहण करने के विधि-निषेध 7. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा-कसिणाई वत्थाई धारेत्तए वा, परिहरित्तए वा। 8. कप्पइ निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा अकसिणाई वत्थाई धारेतए वा, परिहरित्तए वा। 9. नो कप्पइ निग्गंधाण वा, निग्गंथीण वा-अभिन्नाई वत्थाई धारेत्तए वा, परिहरित्तए वा। 10. कप्पइ निग्गथाण वा, निग्गंथीण वा--भिन्नाई वत्थाई धारेत्तए वा, परिहरित्तए वा। 7. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को कृत्स्न वस्त्रों का रखना या उपयोग करना नहीं कल्पता है। 8. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को अकृत्स्न वस्त्रों का रखना या उपयोग करना कल्पता है / 9. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को अभिन्न वस्त्रों का रखना या उपयोग करना नहीं कल्पता है। 10. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को भिन्न वस्त्रों का रखना या उपयोग करना कल्पता है। विवेचन--इन सूत्रों में कृत्स्न-अकृत्स्न एवं अभिन्न-भिन्न दोनों ही पद शब्द की अपेक्षा एकार्थक हैं। इनके पृथक्-पृथक् सूत्र कहने का कारण यह है कि कृत्स्न सूत्रों में वस्त्र के वर्ण एवं मूल्य आदि रूप भावकृत्स्न का वर्णन है एवं अभिन्न सूत्रों में प्रखण्ड थान या अति लम्बे-चौड़े वस्त्र रूप द्रव्यकृत्स्न का कथन है। भाष्यकार ने इस कृत्स्न अर्थात् अखण्ड वस्त्र की विस्तृत व्याख्या करते हुए कहा है कि कृत्स्न वस्त्र द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार प्रकार का होता है। उनमें से द्रव्य कृत्स्न के भी दो भेद हैं-सकल-द्रव्यकृत्स्न और प्रमाण-द्रव्यकृत्स्न / जो वस्त्र अपने आदि और अन्त भाग से युक्त हो, किनारीवाला हो, कोमल स्पर्शयुक्त हो और काजल, काले-पीले धब्बे आदि से रहित हो, उसे द्रव्य की अपेक्षा सकलकृत्स्न कहते हैं / इसके भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट की अपेक्षा तीन भेद हैं। मुखवस्त्रिकादि जघन्य द्रव्यकृत्स्न है, चोलपट्टादि मध्यम और चादर उत्कृष्ट द्रव्यकृत्स्न है। जो वस्त्र मर्यादित लम्बाई-चौड़ाई के प्रमाण से अधिक लम्बे-चौड़े होते हैं, उन्हें द्रव्य की अपेक्षा प्रमाण-कृत्स्न कहते हैं / Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक [179 जो वस्त्र जिस क्षेत्र में दुर्लभ हो, उसे क्षेत्रकृत्स्न कहते हैं। एक देश का बना वस्त्र दूसरे देश में प्रायः बहुमूल्य एवं दुर्लभ होता है। जो वस्त्र जिस काल में महंगा मिले उसे काल कृत्स्न कहते हैं। जैसे ग्रीष्मकाल में सूती, रेशमी आदि पतले वस्त्र और शीतकाल में मोटे ऊनी गरम वस्त्र तथा वर्षाकाल में रंगीन वस्त्र बहुमूल्य हो जाते हैं। ___ भावकृत्स्न के दो भेद हैं---वर्णयुत और मूल्ययुत। इनमें वर्णयुत वस्त्र के कृष्ण, नील आदि वर्णों की अपेक्षा पांच भेद होते हैं। मूल्ययुत वस्त्र भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार का होता है। जहां पर जिसका मूल्य कम हो वहां वह जघन्य और जहां उसी का मूल्य अधिक हो, वहां वही उत्कृष्ट मूल्य का जानना चाहिए। जो वस्त्र सर्वत्र समान मूल्य से उपलब्ध हो वह मध्यम मूल्य वाला कहलाता है। अथवा जिस वस्त्र के धारण करने से रागभाव उत्पन्न हो उसे भावकृत्स्न कहते हैं / अर्थात् अति चमक-दमक वाले रमणीय वस्त्र / उक्त चारों ही प्रकार के कृत्स्नवस्त्र साधु या साध्वियों के लिए रखना या पहरना अयोग्य है। इनके रखने या पहरने के दोषों का निर्देश करते हुए भाष्यकार ने कहा है कि प्रमाणातिरिक्त वस्त्रों के रखने पर मार्ग-गमनकाल में भार वहन करना पड़ता है। अखण्ड, बहूमूल्य सूक्ष्म वस्त्रों को चोर-डाकू चुरा सकते हैं या अन्य कोई भी असंयमी छीन सकता है। एक राज्य से दूसरे राज्य में प्रवेश करने पर चुंगी वाले कर मांग सकते हैं या वस्त्र छीन सकते हैं। श्रावक ऐसे वस्त्रों को साधु के समीप देखकर उनसे घृणा या निन्दा कर सकता हैं / इत्यादि कारणों से चारों ही प्रकार के कृत्स्नवस्त्र साधु-साध्वी को नहीं कल्पते हैं / किन्तु जो द्रव्य से अल्प या प्रमाणोपेत हो, क्षेत्र और काल से सर्वत्र सुलभ हो और भाव से जो बहुमूल्य न हो, ऐसा वस्त्र ही उनको धारण करना चाहिए। साधु-साध्वी को अवग्रहानन्तक और अवग्रहपट्टफ धारण करने के विधि-निषेध 11. नो कप्पइ निग्गंथाणं उग्गहणन्तगं वा, उग्गहपट्टगं वा धारित्तए वा, परिहरित्तए वा। 12. कप्पइ निग्गंथोणं उग्गहणन्तर्ग वा, उग्गहपट्टगं वा धारित्तए वा, परिहरित्तए वा। 11. निर्ग्रन्थों को अवग्रहानन्तक और अवग्रहपट्टक रखना या उसका उपयोग करना नहीं कल्पता है। 12. निर्ग्रन्थियों को अवग्रहानन्तक और अवग्रहपट्टक रखना या उसका उपयोग करना कल्पता है। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180] [गृहत्कल्पसूत्र विवेचन--गुप्त अंग के ढकने वाले लंगोट या कौपीन को अवग्रहानन्तक कहते हैं और उसके भी ऊपर उसे आच्छादन करने वाले वस्त्र को अवग्रहपट्टक कहते हैं। प्रथम सूत्र में साधुओं के लिए इन दोनों का निषेध किया गया है और दूसरे सूत्र में साध्वियों के लिए इन दोनों के रखने और पहिनने का विधान किया गया है। यद्यपि सूत्र में उक्त दोनों उपकरण भिक्षु को रखने का स्पष्ट निषेध है, तथापि भाष्यकार ने लिखा है कि यदि किसी साधु को भगन्दर, अर्श प्रादि रोग हो जाए तो उस अवस्था में अन्य वस्त्रों को रक्त-पीप से बचाने के लिए वह अवग्रहपट्टक रख सकता है। साध्वियों को दोनों उपकरण रखने का और पहिनने का कारण यह है कि ऋतुकाल में साध्वियों को प्रोढ़ने-पहिनने के वस्त्र रक्त-रंजित न हों, अतः उस समय उक्त दोनों वस्त्रों को उपयोग में लाने और शेष काल में समीप रखने का विधान किया गया है। विहार आदि में शीलरक्षा के लिये भी इन उपकरणों का पहनना आवश्यक होता है। प्रश्न-साध्वियों के लिए कितने वस्त्र-पात्रादि रखने का विधान है ? उत्तर-नियुक्ति और भाष्यकार ने 25 प्रकार की उपधि रखने का निर्देश किया है-- उनके नाम इस प्रकार हैं--१. पात्र, 2. पात्रबन्ध, 3. पात्रस्थापन, 4. पात्रकेसरिका, 5. पटलक, 6. रजस्त्राण, 7. गोच्छक, 8-10. तीन चादर (प्रच्छादक वस्त्र), 11. रजोहरण, 12. मुखवस्त्रिका, 13. मात्रक, 14. कमढक (चोलपट्टकस्थानीय वस्त्र, शाटिका), 15. अवग्रहानन्तक (गुह्यस्थानाच्छदक-लंगोटी), 16. अवग्रहपट्टक (लंगोटी के ऊपर कमर पर लपेटने का वस्त्र), 17. अोसक (ग्राधी जांघों को ढकने वाला जांघिया जैसा वस्त्र), १८.चलनिका (अर्धासक से बड़ा, घुटनों को भी ढंकने वाला वस्त्र), 19. अभ्यन्तर निवसिनी (प्राधे घुटनों को ढकने वाली), 20. बहिर्निवसनी (पैर की एड़ियों को ढकने वाली), 21. कंचुक (चोली), 22. औपकक्षिकी . (चोली के ऊपर बांधी जाने वाली), 23. वैकक्षिको (कंचुक और प्रौपकक्षिकी को ढकने वाली), 24. संघाटी (वसति में पहने जाने वाली), 25. स्कन्धकरणी (कन्धे पर डालने का वस्त्र)। इस प्रकार आर्यिकायों के 25 उपधि या उपकरण होते हैं। भाष्यकार ने स्कन्धकरणी के साथ रूपवती साध्वियों को कुब्ज-करणी रखने या बांधने का भी विधान किया है। इसका अभिप्राय यह है कि रूपवती साध्वी को देखकर कामुक पुरुष चल-चित्त हो सकते हैं, अत: रूपवती साध्वी को विकृतरूपा बनाने के लिए पीठ पर वस्त्रों की पोटली रखकर बांध देते है, जिससे कि वह कुबड़ी-सी दिखने लगे / इसी कारण इस उपधि का नाम कुब्ज-करणी रखा गया है। ___ इसके अतिरिक्त साधु और साध्वी कम से कम और अधिक से अधिक कितने वस्त्र-उपधि रख सकते हैं, भाष्यकार ने इसका तथा अन्य अनेक ज्ञातव्य विषयों का और करणीय कार्यों का भी वर्णन किया है / वह सब विशेष जिज्ञासु जनों को सभाष्य बृहत्कल्पसूत्र से जानना चाहिए / साध्वी को अपनी निश्रा से वस्त्र ग्रहण करने का निषेध 13. निग्गंथीए य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविटाए चेलठे समुप्पज्जेज्जा नो से कप्पइ अप्पणो निस्साए चेलं पडिग्गाहेत्तए / Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक] [181 कप्पइ से पवत्तिणी-निस्साए चेलं पडिग्गाहित्तए। नो य से तत्थ पत्तिणो सामाणा सिया, जे से तत्थ सामाणे आयरिए वा, उवज्झाए वा, पवत्तए वा, थेरे वा, गणी वा, गणहरे वा, गणावच्छेइए वा, जं च अन्न पुरओ कटु विहरइ / कप्पइ से तन्नीसाए चेलं पडिग्गाहेत्तए / .13. गृहस्थ के घर में आहार के लिए गई हुई निर्ग्रन्थियों को यदि वस्त्र की आवश्यकता हो तो अपनी निश्रा से वस्त्र लेना नहीं कल्पता है / किन्तु प्रवर्तिनी की निश्रा से वस्त्र लेना कल्पता है / यदि वहां प्रवर्तिनी विद्यमान न हो तो जो प्राचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर या गणावच्छेदक हो अथवा जिनकी प्रमुखता से विचरण कर रही हो, उनकी निश्रा से वस्त्र लेना कल्पता है। विवेचन यदि कोई साध्वियां भक्त-पान लेने के लिए गृहस्थ के धर गई हों और उनमें से किसी एक को वस्त्र की आवश्यकता हो तो उसे अपनी निश्रा से अर्थात् 'यह वस्त्र मैं मेरे लिए ग्रहण कर रही हूं' इस प्रकार कहकर गृहस्थ से वस्त्र लेना नहीं कल्पता है। किन्तु वह प्रतिनी की निश्रा से ग्रहण कर सकती है, अर्थात् वह गृहस्थ से वस्त्र लेते समय स्पष्ट शब्दों में कहे कि--'मैं प्रवर्तिनी को निश्रा से इसे ग्रहण करती हूं, वे इसे स्वीकार कर किसी साध्वी को देंगी तो रखा जाएगा अन्यथा आपको वापस लौटा दिया जाएगा।' ऐसा कहकर ही वह गहस्थ से वस्त्र को ग्रहण कर सकती है, अन्यथा नहीं। यदि उसकी प्रतिनी उपाश्रय में या उस ग्राम में न हो तो जो प्राचार्य या उपाध्याय आदि सूत्रोक्त साधुजन समीप में हों, उनकी निश्रा से वह वस्त्र को ग्रहण कर सकती है। सूत्रोक्त प्राचार्य आदि का स्वरूप इस प्रकार है 1. आचार्य जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य-इन पांच प्राचारों का स्वयं पालन करे और आज्ञानुवर्ती शिष्यों से पालन करावे, जो साधुसंघ का स्वामी और संघ के अनुग्रह-निग्रह, सारण-वारण और धारण में कुशल हो, लोक-स्थिति का वेत्ता हो, आचारसम्पदा आदि पाठ सम्पदाओं से युक्त हो / व्यव. उ. 3, सूत्र. 5 कथित गुणों का एवं सूत्रों का धारक हो / 2. उपाध्याय--जो स्वयं द्वादशांगश्रुत का विशेषज्ञ हो, अध्ययनार्थ पाने वाले शिष्यों को प्रागमों का अभ्यास करानेवाला हो और व्यव. उ. 3, सू. 3 में कहे गये गुणों का एवं सूत्रों का धारक हो। 3. प्रवर्तक---जो साधुओं की योग्यता या रुचि देखकर उनको प्राचार्य-निर्दिष्ट कार्यों में तथा तप, संयम, योग, वैयावृत्य, सेवा, शुश्रूषा, अध्ययन-अध्यापन आदि में नियुक्त करे। 4. स्थविर–जो साधुनों के संयम में शैथिल्य देखकर या उन्हें संयम से विचलित देखकर इस लोक और परलोक सम्बन्धी अपायों (अनिष्ट या दोषों) का उपदेश करे और उन्हें अपने कर्तव्यों में स्थिर करे। 5. गणी-जो कुछ साधुनों के गण का स्वामी हो और साध्वियों की देख-रेख एवं व्यवस्था Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182] [बृहत्कल्पसूत्र करने वाला हो। अथवा जो मुख्य प्राचार्य की निश्रा में अनेक प्राचार्य होते हैं, उन्हें गणो कहा जाता है। 6. गणधर जो कुछ साधुओं का प्रमुख बनकर विचरण करता हो / 7. गणावच्छेदक-जो साधुजनों के भक्त-पान, स्थान, औषधोपचार, प्रायश्चित्त आदि की व्यवस्था करने वाला हो। उक्त सातों पदवीधारकों के क्रम का निरूपण करते हुए बताया गया है कि साध्वी को स्वयं की निश्रा से वस्त्र नहीं लेना चाहिए, किन्तु अपनी प्रवर्तिनी की निश्रा से लेना चाहिए। यदि वह न हो तो संघ के प्राचार्य की निश्रा से लेवे। उनके अभाव में उपाध्याय की निश्रा से लेवे। इस प्रकार पर्व-पर्व पदधारकों के अभाव में उत्तर-उत्तर पदधारकों की निश्रा से वस्त्र को लेवे। यदि उ पदधारकों में से कोई भी समीप न हो तो जो और कोई भी गीतार्थ साधु या साध्वी हो, उसको निश्रा से वस्त्र लेवे। किन्तु साध्वी को स्वयं की निश्रा से वस्त्र नहीं लेना चाहिए। दीक्षा के समय ग्रहण करने योग्य उपधि का विधान 14. निग्गंथस्स णं तप्पढमयाए संपन्वयमाणस्स कप्पइ रयहरण-गोच्छग-पडिग्गहमायाए तिहि कसिणेहि बत्थेहि आयाए संपन्वइत्तए / से य पुवोवट्ठिए सिया, एवं से नो कप्पइ रयहरण-गोच्छग-पडिग्गहमायाए तिहिं कसिहि वत्थेहिं आयाए संपन्यइत्तए / कप्पइ से अहापरिग्गहिएहि वत्यहिं आयाए संपन्वइत्तए। 15. निग्गंथोए य तप्पढमयाए संपन्वयमाणोए कप्पइ रयहरण-गोच्छग-पडिग्गहमायाए चहि कसिणेहिं वत्थेहि आयाए संपव्वइत्तए / सा य पुचोवटिया सिया एवं से नो कप्पइ रयहरण-गोच्छग-पडिग्गहमायाए चउहि कसिणेहि वत्थेहि आयाए संपव्वइत्तए / कप्पइ से अहापरिग्गहिएहि वत्थेहिं प्रायाए संपन्वइत्तए। 14. गहवास त्यागकर सर्वप्रथम प्रवजित होने वाले निर्ग्रन्थ को रजोहरण, गोच्छक, पात्र तथा तीन अखण्ड वस्त्र लेकर प्रव्रजित होना कल्पता है। यदि वह पहले दीक्षित हो चुका हो तो उसे रजोहरण, गोच्छक, पात्र तथा तीन प्रखण्ड वस्त्र लेकर प्रवजित होना नहीं कल्पता है।। किन्तु पूर्वगृहीत वस्त्रों को लेकर प्रवजित होना कल्पता है / 15. गहवास त्यागकर सर्वप्रथम प्रवजित होने वाली निर्ग्रन्थी को रजोहरण, गोच्छक, पात्र तथा चार अखण्ड वस्त्र लेकर प्रवजित होना कल्पता है। यदि वह पहले दीक्षित हो चुकी हो तो उसे रजोहरण, गोच्छक, पात्र तथा चार अखण्ड वस्त्र लेकर प्रवजित होना नहीं कल्पता है / Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक] [183 किन्तु पूर्वग्रहीत वस्त्रों को लेकर प्रवजित होना कल्पता है / विवेचन सामायिकचारित्र एवं छेदोपस्थापनीयचारित्र ग्रहण करने वाला भिक्षु किन-किन उपधियों को लेकर दीक्षा ले, यह इस सूत्र में बताया गया है। जो सर्वप्रथम दीक्षित हो रहा है उसे अपने अभिभावकों द्वारा या सगे-सम्बन्धियों द्वारा दिये हुए रजोहरण, गोच्छक (प्रमार्जनिका), पात्र और तीन कृत्स्नवस्त्र लेकर दीक्षा लेना चाहिए। एक हाथ चौड़े और चौबीस हाथ लम्बे थान को कृत्स्नवस्त्र माना जाता है / इसका अर्थ यह है कि वह रजोहरण आदि उपकरणों के साथ कुल बहत्तर हाथ लम्बे हों, ऐसे तीन थान लेकर के दीक्षित होवे / इसके पश्चात् जब उसकी बड़ी दीक्षा हो या किसी व्रत-विशेष में दूषण लग जाने पर या किसी महाव्रत को विराधना हो जाने पर पुनः दीक्षा के लिए प्राचार्य के सम्मुख उपस्थित हो तो वह अपने पूर्वगृहीत वस्त्र-पात्रादि के साथ ही दीक्षा ले सकता है, अर्थात् पहले के वस्त्र-पात्रादि को छोड़कर नवीन वस्त्र-पात्रादि के लेने की उसे आवश्यकता नहीं है / उपधि सम्बन्धी विस्तृत जानकारी के लिए निशीथ उ. 16, सू. 39 का विवेचन देखें। दीक्षा लेने वाली साध्वी के उपकरणों का वर्णन भी इसी प्रकार है किन्तु तीन कृत्स्नवस्त्र के स्थान पर उनके चार कृत्स्नवस्त्र होते हैं। क्योंकि उनके वस्त्र सम्बन्धी उपकरण कुछ अधिक होते हैं। तीन या चार अखण्ड वस्त्र का स्पष्टार्थ भाष्य टीका में उपलब्ध नहीं है। अत: भिन्न-भिन्न अर्थों की परम्पराएँ प्रचलित हैं। 72 हाथ वस्त्र माप की कल्पना भी अधिक प्राचीन नहीं है तथापि आगम-आशय के अधिक निकट है ऐसा प्रतीत होता है। प्रथम द्वितीय समवसरण में वस्त्र ग्रहण करने का विधि निषेध 16. नो कप्पह निग्गंथाण या निग्गंथीण वा--पढमसमोसरणुद्देसपत्ताई चेलाई पडिगाहेत्तए / 17. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा-दोच्चसमोसरणुद्देसपत्ताई चेलाई पडिगाहेत्तए। 16. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को प्रथम समवसरण में वस्त्र ग्रहण करना नहीं कल्पता है। 17. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को द्वितीय समवसरण में वस्त्र ग्रहण करना कल्पता है / विवेचन-समवसरण शब्द का अर्थ है-सर्व अोर से पाना। चातुर्मास करने के लिए साधुसाध्वियां किसी एक योग्य स्थान पर पाकर स्थित होते हैं, अतः उसे प्रथम समवसरण कहा जाता है और वर्षाकाल या चातुर्मास की समाप्ति के पश्चात् के काल को द्वितीय समवसरण कहा जाता है। जिस स्थान पर साधु और साध्वियों को चातुर्मास करना है उस स्थान पर आने के पश्चात् पूरे वर्षाकाल तक अर्थात् प्राषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा से लेकर कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा तक गृहस्थों से वस्त्र लेना नहीं कल्पता है। किन्तु वर्षाकाल के बाद दूसरे समवसरण में अर्थात् मार्गशीर्ष कृष्णा प्रतिपदा से लेकर आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा पर्यन्त पाठ मास तक जिस देश और जिस काल में उन्हें यदि वस्त्रों की आवश्यकता हो तो गृहस्थों से ले सकते हैं / चातुर्मास सम्बन्धी अन्य सभी ज्ञातव्य बातों का विशद वर्णन नियुक्तिकार और भाष्यकार ने किया है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184] [बृहत्कल्पसूत्र यथारत्नाधिक वस्त्र ग्रहण का विधान 18. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथोण वा--अहाराइणियाए चेलाई पडिग्गाहित्तए / 18. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को चारित्रपर्याय के क्रम से वस्त्र-ग्रहण करना कल्पता है / विवेचन-जिस साधु या साध्वी की चारित्रपर्याय अधिक हो उसे रात्तिक या रत्नाधिक कहते हैं। जब कभी साधु या साध्वी वस्त्रों को गहस्थ से लेवें तो उन्हें चारित्रपर्याय की हीनाधिकता के क्रमानुसार ही ग्रहण करना चाहिए। अर्थात् जो साधु या साध्वी सबसे अधिक चारित्रपर्याय वाले हैं, उन्हें सर्वप्रथम वस्त्र प्रदान करना चाहिए। तत्पश्चात् उनसे कम चारित्रपर्याय वाले को और तदनन्तर उनसे कम चारित्रपर्याय वाले को देना चाहिए। यहां पर वस्त्र पद देशामर्शक है, अत: पात्रादि अन्य उपधियों को भी चारित्रपर्याय की हीनाधिकता से लेना और देना चाहिए। क्योंकि व्युत्क्रम से देने या लेने में रत्नाधिकों का अविनय, आशातना आदि होती है, जो साधु-मर्यादा के प्रतिकूल है / व्युत्क्रम से देने और लेने वाले साधु-साध्वियों के लिए भाष्यकार ने प्रायश्चित्त का विधान किया है। यथारत्नाधिक शय्या-संस्तारक ग्रहण का विधान 19. कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा अहारायणियाए सेज्जा-संथारए पडिग्गाहित्तए / 19. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को चारित्रपर्याय के क्रम से शय्या-संस्तारक ग्रहण करना कल्पता है। विवेचन शय्या का अर्थ वसति या उपाश्रय है। उसमें ठहरने पर साधुओं या साध्वियों के वैठने योग्य स्थान एवं पाट, धास आदि को संस्तारक कहते हैं / इन्हें भी चारित्रपर्याय की हीनाधिकता के क्रम से ग्रहण करना चाहिए / नियुक्तिकार और भाष्यकार ने यथारानिक शय्या-संस्तारक का विधान करते हुए इतना और स्पष्ट किया है कि प्राचार्य, उपाध्याय और प्रवर्तक इन तीन गुरुजनों की क्रमशः शय्या-संस्तारक के पश्चात् ज्ञानादि सम्पदा को प्राप्त करने के लिए जो अन्य गण से साधु आया हुआ है, उसके शय्यासंस्तारक को स्थान देना चाहिए। उसके बाद ग्लान (रुग्ण) साधु को, तत्पश्चात् अल्प उपधि (वस्त्र) वाले साधु को, उसके बाद कर्मक्षयार्थ उद्यत साधु को, तदनन्तर जिसने रातभर वस्त्र नहीं प्रोढ़ने का अभिग्रह लिया है ऐसे साधु को, तदनन्तर स्थविर को, तदनन्तर गणी, गणधर, गणावच्छेदक और अन्य साधुओं को शय्या-संस्तारक के लिए स्थान ग्रहण करना चाहिए / __ यहां इतना और विशेष बताया गया है कि नवदीक्षित या अल्प आयु वाले साधु को रत्नाधिक साधु के समीप सोने का स्थान देना चाहिए, जो रात में उसकी सार-सम्भाल कर सके। इसी प्रकार वैयावृत्य करने वाले साधु को ग्लान साधु के समीप स्थान देना चाहिए, जिससे वह रोगी साधु की यथासमय परिचर्या कर सके। तथा शास्त्राभ्यास करने वाले शैक्ष साधु को उपाध्याय प्रादि, जिसके समीप वह अध्ययन करता हो, के पास स्थान देना चाहिए जिससे कि वह जागरणकाल में अपने पाठ-परिवर्तनादि करते ममय उनसे सहयोग प्राप्त कर सके / Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक] [185 यथारलाधिक कृतिकर्म करने का विधान 20. कप्पइ निग्गंथाण या निग्गंथीण वा-अहाराइणियाए किइकम्मं करेत्तए / 20. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को चारित्रपर्याय के क्रम से वन्दन करना कल्पता है / विवेचन-प्रातः सायंकाल आदि समयों में प्रतिक्रमण आदि प्रारम्भ करने के पूर्व गुरु एवं रत्नाधिकों का जो विनय, वन्दन आदि किया जाता है, उसे 'कृतिकर्म' कहते हैं / इसके दो भेद हैंअभ्युत्थान और वन्दनक / __ प्राचार्य, उपाध्याय आदि गुरुजनों के एवं जो दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ हैं, उनके गमन-आगमन काल में उठकर खड़े होना 'अभ्युत्थान कृतिकर्म' है। प्रात:काल, सायंकाल एवं प्रतिक्रमण करते समय तथा किसी प्रश्न आदि के पूछते समय गुरुजनों को वन्दना करना, हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि लगाकर नमस्कार आदि करना 'वन्दनक कृतिकर्म' है। भाष्यकार ने कहा है कि यथाजात बालक के समान सरल भाव से प्रत्येक दिशा में तीन-तीन पावर्त करते हुए मस्तक से पंचांग नमस्कार करना चाहिए। प्रदक्षिणा देने की तरह दोनों हाथ संयुक्त करके घुमाने को 'पावर्त' कहते हैं / शुद्ध मन, वचन, काया से भक्ति प्रकट करने के लिये ये आवर्त किये जाते हैं। चारों दिशाओं में आवर्त करने का अभिप्राय यह है कि उस-उस दिशा में जहां पर जो भी पंच परमेष्ठी, गुरुजन एवं रत्नाधिक साधु विद्यमान हैं, उन्हें भी मैं त्रियोग की शुद्धि एवं भक्ति से वन्दन एवं नमस्कार करता हूँ। इसी प्रकार गुरुजनों के समीप आने पर भी साधु और साध्वियों को दीक्षापर्याय के अनुसार उन्हें वन्दन करना चाहिए। इस कृतिकर्म के विषय में सम्प्रदाय-भेद से अनेक प्रकार की व्याख्याएं उपलब्ध हैं। उन्हें जानकर सम्प्रदाय के अनुसार यथारत्नाधिक का कृतिकर्म करना आवश्यक बताया गया है। भाष्यकार ने कृतिकर्म के 32 दोषों का भी विशद वर्णन किया है और अन्त में लिखा है कि इन सब दोषों से रहित कृतिकर्म करना चाहिए, अन्यथा वह प्रायश्चित्त का पात्र होता है। गृहस्थ के घर में ठहरने आदि का निषेध 21. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा-अंतरगिहंसि 1. चिद्वत्तए वा, 2. निसीइत्तए वा, 3. तुयट्टित्तए वा, 4. निदाइत्तए वा, 5. पयलाइत्तए वा, 6. असणं वा, 7. पाणं वा, 8. खाइमं वा, 9. साइमं वा प्राहारमाहरित्तए, 10. उच्चारं वा, 11. पासवणं वा, 12. खेलं वा, 13. सिंघाणं वा परिवेत्तए, 14. सज्झायं वा करित्तए, 15. झाणं वा झाइत्तए, 16. काउसग्गं वा ठाइत्तए। अह पुण एवं जाणेज्जा वाहिए, जराजुण्णे, तवस्सी, दुम्बले, किलंते, मुच्छेज्ज वा, पवडेज्ज वा एवं से कप्पइ अंतरगिहंसि चिट्ठित्तए वा जाव काउसग्गं वा ठाइत्तए। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186] [बृहत्कल्पसूत्र 21. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को गृहस्थ के घर के भीतर 1. ठहरना , 2. बैठना, 3. सोना, 4. निद्रा लेना, 5. ऊंघ लेना, 6. अशन, 7. पान, 8. खादिम, 9. स्वादिम-आहार करना, 10. मल, 11. मूत्र, 12. खेंकार, 13. श्लेष्म परिष्ठापन करना, 14. स्वाध्याय करना, 15. ध्यान करना, 16. कायोत्सर्ग कर स्थित होना नहीं कल्पता है / यहां यह विशेष जानें कि जो भिक्षु व्याधिग्रस्त हो, वृद्ध हो, तपस्वी हो, दुर्बल हो, थकान या घबराहट से युक्त हो, वह यदि मच्छित होकर गिर पड़े तो उसे गृहस्थ के घर में ठहरना यावत् कायोत्सर्ग करके स्थित होना कल्पता है / विवेचन-भिक्षार्थ निकले हुए साधु को गृहस्थ के घर में ठहरना, बैठना आदि सूत्रोक्त कार्य नहीं करना चाहिए, क्योंकि वहां पर उक्त कार्य करने से गहस्थों को नाना प्रकार की शंकाएं उत्पन्न हो सकती हैं / यह उत्सर्गमार्ग है। ___अपवाद रूप में बताया गया है कि यदि कोई साधु रोगी हो, अतिवृद्ध हो, तपस्या से जर्जरित या दुर्बल हो, या मूर्छा आ जाए, गिर पड़ने की सम्भावना हो तो वह कुछ क्षणों के लिए गृहस्थ के घर में ठहर सकता है। भाष्यकार ने कुछ और भी कारण ठहरने के बताये हैं। जैसे किसी रोगी के लिए औषधि लेने के लिए किसी घर में कोई साधु जावे और औषधदाता घर से बाहर हो, उस समय घर वाले कहें'कुछ समय ठहरिए, औषधदाता आने ही वाले हैं,' अथवा घर में प्रवेश करने के पश्चात् पानी बरसने लगे या उसी मार्ग से राजा आदि की सवारी या किसी की बारात आदि निकलने लगे तो साधु वहां ठहर सकता है। गृहस्थ के घर में मर्यादित वार्ता का विधान 22. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अंतरगिहंसि जाव चउगाहं वा पंचगाहं वा आइक्खित्तए वा, विभावित्तए वा, किट्टत्तए वा, पवेइत्तए वा। नन्नत्थ एगनाएणं वा, एगवागरणेण वा, एगगाहाए बा, एगसिलोएण वा; से वि य ठिच्चा, नो चेवणं अठिच्चा। 22. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को गृहस्थ के घर में चार या पांच गाथाओं द्वारा कथन करना, उनका अर्थ करना, धर्माचरण का फल कहना एवं विस्तृत विवेचन करना नहीं कल्पता है / किन्तु आवश्यक होने पर केवल एक उदाहरण, एक प्रश्नोत्तर, एक गाथा या एक श्लोक द्वारा कथन करना कल्पता है। वह भी खड़े रहकर कथन करे, बैठकर नहीं। विवेचन-गोचरी के लिए गये हुए साधु या साध्वियां गृहस्थ के घर में खड़े होकर गाथा, श्लोक श्रादि का उच्चारण ही न करें। यह उत्सर्गमार्ग है। भाष्यकार ने इसका कारण बताया है कि जहां पर साधु खड़ा होगा वहां से यदि किसी की Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक] [187 कोई वस्तु चोरी चली जायेगी तो उसका स्वामी यह लांछन लगा सकता है कि यहां पर अमुक साधु या साध्वियां खड़े रहे थे / अतः वे ही मेरी अमुक वस्तु ले गये हैं, इत्यादि / इसके अतिरिक्त किसी गृहस्थ के विवादास्पद प्रश्न के उत्तर में वहां आक्षेप-व्याक्षेप में समय व्यतीत होगा। उससे उसके साथी साधू, जो कि एक मण्डली में बैठकर भोजन करते हैं, प्रतीक्षा करते रहेंगे, अतः उनके यथासमय भोजन न कर सकने से वह अन्तराय का भागी होगा। दूसरे, यदि वह किसी रोगी साधु से यह कहकर पाया है कि--"अाज मैं तुम्हारे लिए शीघ्र योग्य भक्त-पान लाऊंगा", फिर वाद-विवाद में पड़कर समय पर वापस नहीं पहुँच सकने से वह भूखप्यास से पीड़ित होकर और अधिक संताप को प्राप्त होगा, इत्यादि कारणों से गोचरी को गये हुए साधु और साध्वियों को कहीं भी अधिक वार्तालाप नहीं करना चाहिए अन्यथा वह चतुर्लघु से लेकर यथासम्भव अनेक प्रायश्चित्तों का पात्र होता है। __ अपवाद रूप में यह बताया गया है कि गोचरी को गये साधु या साध्वी से यदि कोई जिज्ञासु पूछे कि 'धर्म का लक्षण क्या है ?' तब वह "अहिंसा परमो धर्मः" इतना मात्र संक्षिप्त उत्तर देवे / यदि कोई पुनः पूछे कि धर्म की कुछ व्याख्या कीजिए, तब इतना मात्र कहे कि "अपने लिए जो तुम इष्ट या अनिष्ट मानते हो वह दूसरे के लिए भी वैसा ही समझो", बस इतना ही जैनशासन का सार है। यदि जिज्ञासु उक्त कथन की पुष्टि में कोई प्रमाण पूछे तो उक्त अर्थ-द्योतक एक गाथा कहे / यथा-- "सव्वभूयप्पभूयस्स, सम्मं भूयाई पासो / पिहियासवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधइ॥ -दशवै. अ. 4, गा. 9 वह भी खड़ा-खड़ा ही कहे, बैठकर नहीं। अन्यथा उपर्युक्त दोषों के कारण वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। गहस्थ के घर में मर्यादित धर्मकथा का विधान 23. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अंतरगिहंसि, इमाई पंच महव्वयाई सभावणाई आइक्खित्तए वा, विभावित्तए वा, किट्टित्तए वा, पवेइत्तए वा। नन्नत्य एगनाएण वा जाव एगसिलोएण वा; से वि य ठिच्चा, नो चेव णं अठिच्चा। 23. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को गृहस्थ के घर में भावना सहित पांचों महाव्रतों का कथन, अर्थ-विस्तार या महाव्रताचरण के फल का कथन करना एवं विस्तृत विवेचन करना नहीं कल्पता है / किन्तु आवश्यक होने पर केवल एक उदाहरण यावत् एक श्लोक से कथन करना कल्पता है। वह भी खड़े रहकर किन्तु बैठकर नहीं। विवेचन-पूर्व सूत्र में किसी के द्वारा पूछे जाने पर वार्तालाप करने का विधि-निषेध किया गया है / प्रस्तुत सूत्र में महावतों के कथन का विधि-निषेध किया गया है / Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188] [बृहत्कल्पसूत्र साधु और साध्वियों को गृहस्थ के घर में पांचों महाव्रतों का उनकी भावनाओं के साथ आख्यान-मूल पाठ का उच्चारण, विभावन-अर्थ का प्रतिपादन, कीर्तन --लौकिक लाभों का वर्णन और प्रवेदन स्वर्ग-मोक्षादि पारलौकिक फल को प्रकट करना नहीं कल्पता है। भाष्यकार ने इसका कारण बताते हुए कहा है कि यदि साधु महाव्रतों का विस्तार से उपदेश करने लग जाए और उसे सुनने वाली गर्भिणी स्त्री जब तक वहां बैठी रहती है तब तक गर्भस्थ जीव के आहार-पान के निरोध से यदि कुछ अनिष्ट हो जाए तो वह उपदेष्टा उसकी हिंसा का भागी होता है। अथवा उसी समय कोई घर की स्त्री दीर्घशंका-निवारणार्थ चली जाए और उससे द्वेष रखने वाली उसको सौत या अन्य विद्वेषिणी स्त्री उसके बच्चे को मार कर साधु या साध्वी के सम्मुख लाकर पटक दे और चिल्लाने लगे कि इस साधु ने इसको मार डाला है। ऐसे अवसर पर लोगों को साधु के विषय में प्राणघात करने की आशंका हो सकती है। इसी प्रकार कभी किसी के पूछने पर साधु ने कहा हो कि उसे गृहस्थ के घर पर उपदेश देना नहीं कल्पता है, पीछे किसी के यहां उपदेश दे तो मृषावाद का भी दोष लगता है। साधु के उपदेश-काल में घर की दासी अवसर पाकर किसी आभूषणादि को चुरा ले जाए, पीछे साधु के चले जाने पर गृहस्वामी उस साधु पर चोरी का दोष लगा दे / ___ किसी स्त्री का पति विदेश गया हो और वह उपदेश सुनने के छल से कुछ देर साधु को ठहरा करके मैथुन-सेवन की प्रार्थना करे और साधु विचलित हो जाए अथवा वह स्त्री अच्छे वस्त्र-पात्रादि देने का प्रलोभन देकर साधु को प्रलोभित करे, इत्यादि कारणों से साधु के महाव्रतों में ही दोष लगता है। अतः सूत्र में गृहस्थ के घर पर पांचों महाव्रतों के आख्यान, विभावनादि विस्तृत प्रवचन का निषेध किया है। यदि कभी कोई रुग्ण-जिज्ञासु महाव्रतों के स्वरूप आदि के विषय में पूछे तो उसे विवेकपूर्वक एक गाथा से या एक श्लोक से अर्थात् संक्षिप्त रूप में कथन करे, वह भी खड़े रहकर ही करना चाहिए बैठकर नहीं। क्योंकि गोचरी गया हुआ भिक्षु खड़ा तो रहता ही है। वहां बैठना ही अनेक शंकाओं का स्थान होता है / अतः बैठने का सर्वथा निषेध किया गया है। गृहस्थ का शय्या-संस्तारक लौटाने का विधान 24. नो कप्पइ निरगंथाण वा निग्गंथोण वा पाडिहारियं सेज्जासंथारयं प्रायाए अपडिहट्ट संपवइत्तए। 24. प्रातिहारिक शय्या-संस्तारक जो ग्रहण किया है उसे उसके स्वामी को सौंपे विना ग्रामान्तर गमन करना निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को नहीं कल्पता है / विवेचन-साधु के पूर्ण शरीर-प्रमाण पीठ-फलक-तृण आदि को 'शय्या' कहते हैं और अढाई हाथ प्रमाण वाले पीठ-फलक-तृण आदि को "संस्तारक" कहते हैं / जो शय्या-संस्तारक गृहस्थ के घर से वापस लौटाने को कहकर लाये जाते हैं, उन्हें "प्रातिहारिक" कहते हैं / साधु जब किसी ग्राम में पहुंचता है तो अपने योग्य शय्या-संस्तारक सागा Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक] [189 रिक के अतिरिक्त अन्य किसी गृहस्थ के घर से वापस सौंपने को कहकर लाता है। वह शय्या-संस्तारक उस गृहस्थ को सौंपे विना ग्रामान्तर जाना साधु या साध्वी के लिए उचित नहीं है / यदि वह विना लौटाए जाता है तो प्रायश्चित्त का पात्र होता है। विना सौंपे ही विहार कर जाने पर साधु की अप्रतीति एवं निन्दा होती है, जिससे पुनः वहां शय्या-संस्तारक मिलना दुर्लभ होता है। यहां शय्या-संस्तारक पद उपलक्षण रूप है। अतः वापस सौंपने को कहकर जो भी वस्तु गृहस्थ के घर से साधु या साध्वी लावें, उसे वापस सौंप करके ही अन्यत्र विहार करना चाहिए। शय्यातर का शय्या-संस्तारक व्यवस्थित करके लौटाने का विधान 25. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा-सागारियसंतियं सेज्जासंथारयं आयाए अविकरणं कटु संपन्वइत्तए। 26. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा-सागारियसंतियं सेज्जासंथारयं आयाए विकरणं कटु संपव्वइत्तए। 25. सागारिक का शय्या-संस्तारक जो ग्रहण किया गया है, उसे यथावस्थित किये विना ग्रामान्तर गमन करना निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को नहीं कल्पता है। 26. सागारिक का शय्या-संस्तारक जो ग्रहण किया है, उसे व्यवस्थित करके ग्रामान्तर गमन करना निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को कल्पता है / विवेचन-शय्यातर के शय्या-संस्तारक जहां पर जिस प्रकार से थे, उन्हें उसी प्रकार से करके सौंपने को "विकरण" कहते हैं। __ यदि उसी स्थान पर न रखे और उसी प्रकार से व्यवस्थित करके न सौंपे तो इसे "अविकरण" कहते हैं। इस सूत्र द्वारा यह निर्देश किया गया है कि शय्यातर के शय्या-संस्तारक जहां जैसे रखे हुए थे, जाते समय उन्हें उसी स्थान पर और उसी प्रकार से व्यवस्थित करके ग्रामान्तर के लिए विहार करना चाहिए / अन्यथा वे साधु-साध्वी प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं / प्राचा. श्रु. 2, अ. 2, उ. 3 में शय्या-संस्तारक लौटाने की विधि बताई है। उसका तात्पर्य यह है कि उनकी अच्छी तरह ऊपर नीचे प्रतिलेखन कर लेना चाहिए। आवश्यक हो तो खंखेरना या धूप में प्रातापित करना चाहिए। इस प्रकार सर्वथा जीवरहित होने पर लौटाना चाहिए। पाट आदि उपयोग लेने से मलीन हो जाएँ तो उन्हें धोकर एवं पोंछकर साफ करके देना द वे कुछ टूट-फट जाएँ या खराब हो जाएँ तो उन्हें विवेकपूर्वक सूचना करते हए लौटाना चाहिए। भाष्य में बताया गया है--जिस बांस की कंबिया आदि को बांधा हो अथवा बंधे हुए को खोला हो तो उन्हें पुनः पूर्व अवस्था में करके लौटाना चाहिए। ___इन सभी विधानों का आशय यह है कि व्यवस्थित लौटाने से साधु-साध्वी की प्रतीति रहती है एवं शय्या-संस्तारक की सुलभता रहती है तथा तीसरे महाव्रत का शुद्ध रूप से पालन होता है। चाहिए। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 [बहत्कल्पसूत्र खोए हुए शय्या-संस्तारक के अन्वेषण करने का विधान 27. इस खलु निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पाडिहारिए वा सागारियसंतिए वा सेज्जासंथारए विप्पणसेज्जा, से य अणुगवेसियव्वे सिया। से य अणुगवेसमाणे लभेज्जा तस्सेव पडिदायब्वे सिया। से य अणुगवेसमाणे नो लभेज्जा, एवं से कप्पइ दोच्चंपि उग्गहं अणुण्णवेत्ता परिहार परिहरित्तए। 27. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों का प्रातिहारिक या सागारिक शय्या-संस्तारक यदि गुम हो जाए तो उसका उन्हें अन्वेषण करना चाहिए। अन्वेषण करने पर यदि मिल जाए तो उसी को दे देना चाहिए। अन्वेषण करने पर कदाचित् न मिले तो पुनः प्राज्ञा लेकर अन्य शय्या-संस्तारक ग्रहण करके उपयोग में लेना कल्पता है। विवेचन-नियुक्तिकार ने बताया है कि साधु गृहस्थ के घर से जो भी शय्या-संस्तारक आदि मांग कर लावे उसकी रक्षा के लिए सावधानी रखनी चाहिए और उपाश्रय को सूना नहीं छोड़ना चाहिए। गोचरी आदि के लिए बाहर जाना हो तो किसी न किसी को उपाश्रय की रक्षा के लिए नियुक्त करके जाना चाहिए। यदि कायिकी बाधा के निवारणार्थ इधर-उधर जाने पर या पठन-पाठनादि में चित्त लगा रहने पर कोई चुराकर ले जाए, अथवा गृहस्थ के घर से लाते समय या वापस देते समय 1 लात समय या वापस देते समय हाथ से छीनकर कोई भाग जाए या बाहर हाथ से छीनकर कोई भाग जाए या बाहर धूप में रखने पर कोई उठा ले जाए इत्यादि किसी भी कारण से शय्या-संस्तारक खो जाए तो साधु उसकी गवेषणा तत्काल करे / अन्वेषण करते हुए यदि ले जाने वाला मिल जावे तो उससे उसे देने के लिए कहे-'हे भद्र ! यह मैं किसी गृहस्थ से मांग कर लाया हूँ, आप यदि ले आये हैं तो हमें वापस देवें।" यदि उसके भाव नहीं देने के हों तो उसे धार्मिक वाक्य कहकर दे देने के लिए उत्साहित करे। यदि फिर भी न देना चाहे तो उसे पारितोषिक आदि दिलाने का आश्वासन दे / यदि वह राज्याधिकारी हो और मांगने पर भी न दे तो उसके लिए साधु यथोचित उपायों से जहां तक सम्भव हो उसे वापस लाने का प्रयत्न करे। यदि फिर भी वह न दे तो ऊपर के अधिकारियों तक सूचना भिजवाकर वापस मांगने का प्रयत्न करे। फिर भी न मिले या ले जाने वाले का पता न लगे तो जिस गहस्थ के र / के यहां से वह शय्यासंस्तारकादि लाया है उसको उसके अपहरण की बात कहे। यदि वह किसी प्रकार से उसे वापस ले आवे तो उसको दूसरी बार प्राज्ञा लेकर उपयोग में ले / यदि उसे भी वह न मिले तो दूसरे शय्या-संस्तारक की याचना करे / यदि वह साधु ऐसा यथोचित विवेक-अन्वेषण नहीं करता है तो प्रायश्चित्त का पात्र होता है। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक [191 अन्त में भाष्यकार ने यह भी लिखा है कि शय्या-संस्तारक का स्वामी राजा के द्वारा देश से निकाल दिया गया हो या वह अपने कुटुम्ब परिवार को लेकर अन्यत्र चला गया हो, अथवा कालधर्म को प्राप्त हो गया हो, अथवा रोग, वृद्धावस्था प्रादि के कारण साधु स्वयं गवेषणा करने में असमर्थ हो या इसी प्रकार का और कोई कारण हो जाए तो वैसी अवस्था में खोए गए शय्या-संस्तारक की गवेषणा नहीं करता हुआ भी साधु प्रायश्चित्त का भागी नहीं होता है। आगन्तुक श्रमणों को पूर्वाज्ञा में रहने का विधान 28. जद्दिवसं च णं समणा निग्गंथा सेज्जासंथारयं विप्पजहंति, तदिवसं च णं अवरे समणा निग्गंथा हव्वमागच्छेज्जा, सच्चेव ओग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिट्ठइ अहालंदमवि उग्गहे / 29. अत्थि या इत्थ केइ उवस्सयपरियावन्नय अचित्ते परिहरणारिहे, सच्चेव' उग्गहस्स पुवाणुण्णवणा चिट्ठइ, अहालंदमवि उग्गहे / 28. जिस दिन श्रमण-निर्ग्रन्थ शय्या-संस्तारक छोड़कर विहार कर रहे हों उसी दिन या उसी समय दूसरे श्रमण-निर्ग्रन्थ आ जावें तो उसी पूर्व ग्रहीत आज्ञा से जितने भी समय रहना हो, शय्या-संस्तारक को ग्रहण करके रह सकते हैं / 29. यदि उपयोग में आने योग्य कोई अचित्त उपकरण उपाश्रय में हो तो उसका भी उसी पूर्व की आज्ञा से जितने काल रहना हो, उपयोग किया जा सकता है / विवेचन—जिस उपाश्रय में साधु मासकल्प या वर्षाकल्प तक की आज्ञा लेकर रहे हैं, वहां से वे जिस दिन विहार करें उसी दिन अन्य साधु उस उपाश्रय में ठहरने के लिए आ जावें तो वे 'यथालन्दकाल' तक उपाश्रय के स्वामी की आज्ञा लिए बिना ठहर सकते हैं, उनके लिए उतने काल तक पूर्व में रहने वाले साधुओं के द्वारा गृहीत अवग्रह ही माना जाएगा। पहले ठहरे हुए साधुओं के द्वारा ली गई आज्ञा में उनके सार्मिक साधुओं के ठहरने की आज्ञा निहित रहती है / अतः उनके साथ कोई भी साधु कभी भी आकर ठहर सकते हैं। उनके लिये पुनः आज्ञा लेने की आवश्यकता नहीं होती है। उनके आने के बाद पहले ठहरे हुए साधु विहार कर जाएँ तो वे अपने कल्पानुसार वहां रुक सकते हैं। यथालन्दकाल का यहां 'यथायोग्य कल्पानुसार समय ऐसा अर्थ होता है। यदि पहले ठहरे हुए साधुओं ने विहार कर मालिक को मकान सुपुर्द कर दिया हो, उसके बाद कोई साधु पावें तो उन्हें पुनः आज्ञा लेना आवश्यक होता है। यदि मकान मालिक ने साधू-संख्या या मकान की सीमा बताकर ही आज्ञा दी हो तो उससे ज्यादा साधु आवें या मकान की सीमा से अधिक जगह का उपयोग करना हो तो पुनः प्राज्ञा लेना आवश्यक होता है। यदि पूर्वस्थित साधुओं की आज्ञा में ही ठहरा जाए तो उपाश्रय में रहे अतिरिक्त शय्या-संस्तारक आदि भी उसी पूर्वस्थितों की आज्ञा से ग्रहण किये जा सकते हैं और यथायोग्य समय तक उनका उपयोग कर सकते हैं। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192] [बृहत्कल्पसूत्र सूत्र में 'अचित्त' शब्द का प्रयोग इसलिये किया गया है कि उपाश्रय में तो कई सचित्त पदार्थ भी हो सकते हैं। भिक्षु को सचित्त अथवा जीवयुक्त उपकरण लेना नहीं कल्पता है, अतः अचित्त और उपयोग में आने योग्य उपकरण हों तो ही भिक्षों की पूर्वगृहीत आज्ञा से ग्रहण किये जा सकते हैं। यदि यह ज्ञात हो जाए कि इन उपकरणों की पूर्व भिक्षुत्रों ने स्वामी से प्राज्ञा नहीं ली है तो आगन्तुक भिक्षु को उनकी आज्ञा लेना आवश्यक होता है। सूत्र का प्राशय यह है कि पूर्व भिक्षुओं ने जिस मकान की एवं जिन उपकरणों की आज्ञा ले रखी है उनकी पुनः आज्ञा लेने की आवश्यकता नहीं होती है। स्वामी-रहित घर की पूर्वाज्ञा एवं पुनः आज्ञा का विधान ___30. से वत्थूसु-अव्वावडेसु, अव्योगडेसु, अपरपरिग्गहिएसु, अमरपरिग्गहिएसु सच्चेव उग्गहस्स पुवाणुण्णवणा चिट्ठइ अहालंदमवि उग्गहे। 31. से वत्थूसु–वावडेसु, बोगडेसु, परपरिग्गहिएसु, भिक्खुभावस्स अट्ठाए दोच्चपि उग्गहे अणुनवेयव्वे सिया अहालन्दमवि उग्गहे। 30. जो घर काम में न आ रहा हो, कुटुम्ब द्वारा विभाजित न हो, जिस पर किसी अन्य का प्रभुत्व न हो अथवा किसी देव द्वारा अधिकृत हो तो उसमें भी उसी पूर्वस्थित साधुनों की आज्ञा से जितने काल रहना हो, ठहरा जा सकता है। 31. वही घर आगन्तुक भिक्षुत्रों के ठहरने के बाद में काम में आने लगा हो, कुटुम्ब द्वारा विभाजित हो गया हो या अन्य से परिगहीत हो गया हो तो भिक्षु भाव अर्थात् संयममर्यादा के लिये जितने समय रहना हो उसकी दूसरी बार आज्ञा ले लेनी चाहिये / विवेचन-१. अव्यापृत-जो घर जीर्ण-शीर्ण होने से या गिर जाने से किसी के द्वारा उपयोग में नहीं पा रहा है, उसे 'अव्यापृत' कहते हैं / 2. अव्याकृत--जो घर अनेक स्वामियों का होने से किसी के द्वारा अपने अधीन नहीं किया गया है, उसे 'अव्याकृत' कहते हैं। 3. अपरपरिगृहीत-जो घर गृहस्वामी ने छोड़ दिया हो और अन्य किसी व्यक्ति के द्वारा परिगृहीत नहीं है, किन्तु बिना स्वामी का है, उसे 'अपरपरिगृहीत' कहते हैं। 4. अमरपरिगृहीत--जो घर किसी कारण-विशेष से निर्माता के द्वारा छोड़ दिया गया है और जिसमें किसी यक्ष आदि देव ने अपना निवास कर लिया है, उसे 'अमरपरिगृहीत' कहते हैं। उक्त स्थान से साधु विहार कर अन्यत्र जाने वाले हैं। उस समय आने वाले साधुनों को उसमें ठहरने के लिए पुनः आज्ञा लेने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि पूर्व स्थित साधुओं के द्वारा ली गई अनुज्ञा ही आज्ञा मानी जाती है / आगन्तुक साधुनों के ठहरने पर देवता ने उस मकान को छोड़ दिया हो और उसके बाद उस मकान का कोई वास्तविक मालिक आ जावे तो वास्तविक मालिक को पुनः प्राज्ञा लेना आवश्यक Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक] [193 है। संयममर्यादा में सूक्ष्म अदत्त का भी सेवन करना उचित नहीं होता है, अज्ञात मालिक के समय ली गई आज्ञा से ज्ञात मालिक के समय ठहरने पर अदत्त का सेवन होता है। अतः वास्तविक मालिक के आ जाने पर उसकी आज्ञा ले लेना चाहिए। पूर्वाज्ञा से मार्ग आदि में ठहरने का विधान 32. से अणुकुड्डेसु वा, अणुभित्तीसु वा, अणुचरियासु वा, अणुफरिहासु वा, अणुपंथेसु वा, अणुमेरासु वा, सच्चेव उग्गहस्स पुन्वाणुण्णवणा चिट्ठइ / प्रहालंदमवि उग्गहे / 32. मिट्टी आदि से निर्मित दीवाल के पास, ईंट आदि से निर्मित दीवाल के पास, चरिका (कोट और नगर के बीच के मार्ग) के पास, खाई के पास, सामान्य पथ के पास, बाड़ या कोट के पास भी उसी पूर्वस्थित साधुओं की आज्ञा से जितने काल रहना हो, ठहरा जा सकता है। विवेचन—मार्ग में कोट आदि के किनारे या किसी के मकान की दीवार के पास ठहरना हो तो उसके मालिक की, राहगीर की अथवा शक्रेन्द्र की आज्ञा लेनी चाहिये / वहां बैठे साधुओं के उठने के पूर्व अन्य साधु आ जाएँ तो वे उसी आज्ञा में ठहर सकते हैं। उनको पुनः किसी की आज्ञा लेना आवश्यक सहीं है / यहां भाष्य में मकान की दीवाल के पास कितनी जगह का स्वामित्व किसका होता है, उसका अनेक विभागों से अलग-अलग माप बताया है। शेष भूमि राजा के स्वामित्व की होना बताया है। सेना के समीपवर्ती क्षेत्र में गोचरी जाने का विधान एवं रात रहने का प्रायश्चित्त ____33. से गामस्स वा जाव रायहाणीए वा बहिया सेण्णं सन्निविट्ठ पेहाए कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तद्दिवसं भिक्खायरियाए गंतूण पडिनियत्तए नो से कप्पइ तं रणि तत्येव उवाइणावेत्तए। जो खलु निग्गंथे वा निग्गंथी वा तं रणि तत्थेव उवाइणावेइ, उवाइणावेतं वा साइज्जइ / से दुहओ वि अइक्कममाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं / 33. ग्राम यावत् राजधानी के बाहर शत्रुसेना का पडाव हो तो निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को भिक्षाचर्या के लिये बस्ती में जाकर उसी दिन लौटकर आना कल्पता है किन्तु उन्हें वहां रात रहना नहीं कल्पता है। जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी वहां रात रहते हैं या रात रहने वाले का अनुमोदन करते हैं, वे जिनाज्ञा और राजाज्ञा दोनों का अतिक्रमण करते हुए चातुर्मासिक अनुद्घातिक प्रायश्चित्त को प्राप्त होते हैं। विवेचन–सेना के पड़ाव के निकट से साधु को गमनागमन करने का प्राचा. श्रु. 2, अ. 3 में निषेध किया है और यहां विहारादि में अत्यन्त आवश्यक होने पर सेना के पडाव को पार कर ग्रामादि के भीतर गोचरी जाने का विधान है। __ इसका तात्पर्य यह है कि सेना के पडाव के समय में जहां भिक्षाचरों को केवल भिक्षा लेकर आने की ही छूट हो और अन्यों के लिये प्रवेश बन्द हो तब भिक्षु को भिक्षा लेकर के शीघ्र ही लौट Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194] [बहत्कल्पसूत्र जाना चाहिये, अन्दर नहीं ठहरना चाहिये / अन्दर ठहरने पर राजाज्ञा एवं जिनाज्ञा का उल्लंघन होने से वह प्रायश्चित्त का पात्र होता है। अवग्रहक्षेत्र का प्रमाण 34. से गामंसि वा जाव सन्निवेसंसि वा कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सव्वानो समंता सक्कोसं जायेणं उग्गहं ओपिहिताणं चिट्ठित्तए। 34. निर्ग्रन्थों और निर्गन्थियों को ग्राम यावत् सन्निवेश में चारों ओर से एक कोस सहित एक योजना का अवग्रह ग्रहण करके रहना कल्पता है अर्थात् एक दिशा में ढाई कोस जाना-माना कल्पता है। विवेचन-उपाश्रय से किसी भी एक दिशा में भिक्षु को अढ़ाई कोस तक जाना-पाना कल्पता है, इससे अधिक क्षेत्र में जाना-माना नहीं कल्पता है। यद्यपि गोचरी के लिये भिक्षु को दो कोस तक ही जाना कल्पता है तथापि ढाई कोस कहने का आशय यह है कि दो कोस गोचरी के लिये गये हुए भिक्षु को वहां कभी मल-मूत्र की बाधा हो जाए तो बाधा निवारण के लिये वहां से वह आधा कोस और आगे जा सकता है / तब कुल अढ़ाई कोस एक दिशा में गमनागमन होता है। पूर्व-पश्चिम या उत्तर-दक्षिण यों दो-दो दिशाओं के क्षेत्र का योग करने पर पांच कोश अर्थात् सवा योजन का अवग्रहक्षेत्र होता है। उसे ही सूत्र में सकोस योजन अवग्रहक्षेत्र कहा है। सूत्र 1-2 तीसरे उद्देशक का सारांश साधु को साध्वी के उपाश्रय में और साध्वी को साधु के उपाश्रय में बैठना, सोना प्रादि प्रवृत्तियां नहीं करनी चाहिये। रोमरहित चर्मखण्ड आवश्यक होने पर साधु-साध्वी ग्रहण कर सकते हैं, किन्तु सरोमचर्म उन्हें नहीं कल्पता है / आगाढ़ परिस्थितिवश गृहस्थ के सदा उपयोग में आने वाला सरोमचर्म एक रात्रि के लिये साधु ग्रहण कर सकता है किन्तु साध्वी के लिये तो उसका सर्वथा निषेध है। बहुमूल्य वस्त्र एवं अखण्ड थान या आवश्यकता से अधिक लम्बा वस्त्र साधु-साध्वी को नहीं रखना चाहिये। गुप्तांग के निकट पहने जाने वाले लंगोट जांघिया आदि उपकरण साधु को नहीं रखना चाहिये किन्तु साध्वी को ये उपकरण रखना आवश्यक है। साध्वी को अपनी निश्रा से वस्त्र ग्रहण नहीं करना चाहिये किन्तु अन्य प्रवर्तिनी प्रादि की निश्रा से वह वस्त्र की याचना कर सकती है। 7-10 11-12 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोसरा उद्देशक] [195 सूत्र 14-15 दीक्षा लेते समय साधु-साध्वी को रजोहरण गोच्छग (प्रमार्जनिका) एवं आवश्यक पात्र ग्रहण करने चाहिये तथा मुहपत्ति चद्दर चोलपट्टक आदि के लिये भिक्षु अधिकतम तीन थान के माप जितने वस्त्र ले सकता है एवं साध्वी चार थान के माप जितने वस्त्र ले सकती है / 16-17 साधु-साध्वी को चातुर्मास में वस्त्र ग्रहण नहीं करना चाहिये किन्तु हेमन्त ग्रीष्म ऋतु में वे वस्त्र ले सकते हैं। 18-19-20 स्वस्थ साधु-साध्वी को वस्त्र एवं शय्या-संस्तारक दीक्षापर्याय के अनुक्रम से ग्रहण करने चाहिये एवं वन्दना भी दीक्षापर्याय के क्रम से करनी चाहिये। 21-23 स्वस्थ साधु-साध्वी को गृहस्थ के घर में बैठना आदि सूत्रोक्त कार्य नहीं करने चाहिये तथा वहां अमर्यादित वार्तालाप या उपदेश भी नहीं देना चाहिये / आवश्यक हो तो खड़े-खड़े ही मर्यादित कथन किया जा सकता है। 24-26 शय्यातर एवं अन्य गृहस्थ के शय्या-संस्तारक को विहार करने के पूर्व अवश्य लौटा देना चाहिये तथा जिस अवस्था में ग्रहण किया हो, वैसा ही व्यवस्थित करके लौटाना चाहिये। शय्या-संस्तारक खो जाने पर उसकी खोज करना एवं न मिलने पर उसके स्वामी को खो जाने की सूचना देकर अन्य शय्या-संस्तारक ग्रहण करना। यदि खोज करने पर मिल जाए तो आवश्यकता न रहने पर लौटा देना चाहिये / 28-32 साधु-साध्वी उपाश्रय में, शून्य गृह में या मार्ग आदि में कहीं पर भी आज्ञा लेकर ठहरे हों और उनके विहार करने के पूर्व ही दूसरे साधु विहार करके आ जाएं तो वे उसी पूर्वगृहीत आज्ञा से वहां ठहर सकते हैं किन्तु नवीन आज्ञा लेने की आवश्यकता नहीं होती। __ यदि शून्य गृह का कोई स्वामी प्रकट हो जाए तो पुन: उसकी आज्ञा लेना आवश्यक होता है। ग्रामादि के बाहर सेना का पड़ाव हो तो भिक्षा के लिये साधु-साध्वी अन्दर जा सकते हैं, किन्तु उन्हें वहां रात्रिनिवास करना नहीं कल्पता है। रात्रिनिवास करने पर गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। साधु-साध्वी जिस उपाश्रय में ठहरे हों, वहां से किसी भी एक दिशा में अढ़ाई कोस तक गमनागमन कर सकते हैं, उससे अधिक नहीं। उपसंहार इस उद्देशक मेंसाधु-साध्वियों को एक-दूसरे के उपाश्रय में बैठने आदि के निषेध का, चर्म ग्रहण के कल्प्याकल्प्य का, Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196] [बहत्कल्पसूत्र सूत्र 7-10,13, वस्त्र-ग्रहण के कल्प्याकल्प्य का, 11-12 गुप्तांग पावरक वस्त्रों के कल्प्याकल्प्य का, . 14-15 दीक्षा-समय ग्रहण करने के कल्पनीय उपकरणों का, 18-20 दीक्षापर्याय के क्रम से वन्दन आदि का, गृहस्थ के घर बैठने या वार्तालाप आदि के कल्प्याकल्प्य का, 24-27 शय्या-संस्तारक सम्बन्धी विधियों का, 28-32 नये आये साधुओं को पूर्वाज्ञा में ठहरने का, सेना के पड़ाव वाले ग्रामादि से भिक्षा लाने का, उपाश्रय से गमनागमन के क्षेत्रावग्रह का, इत्यादि विभिन्न विषयों का वर्णन है। 21-23 34 // तीसरा उद्देशक समाप्त // Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक अनुद्घातिक प्रायश्चित्त के स्थान 1. तओ अणुग्घाइया पण्णत्ता, तं जहा--- 1. हत्थफम्म करेमाणे, 2. मेहुणं पडिसेवमाणे, 3. राइभोयणं भुजमाणे। 1. अनुद्घातिक प्रायश्चित्त के योग्य ये तीन कहे गये हैं, यथा--- 1. हस्तकर्म करने वाला, 2. मैथुन सेवन करने वाला, 3. रात्रिभोजन करने वाला। विवेचन-जिस दोष की सामान्य तप से शुद्धि की जा सके, उसे उद्घातिक प्रायश्चित्त कहते हैं और जिस दोष की विशेष तप से ही शुद्धि की जा सके, उसे अनुद्घातिक प्रायश्चित्त कहते हैं। हस्तकर्म करने वाला, स्त्री के साथ संभोग करने वाला और रात्रिभोजन करने वाला भिक्षु महापाप करने वाला होता है, क्योंकि इनमें से दो ब्रह्मचर्य महाव्रत को भंग करने वाले हैं और अन्तिम रात्रिभक्तविरमण नामक छठे व्रत को भंग करने वाला है। अतः ये तीनों ही अनुदातिक प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। भगवतीसूत्र श. 25, उ. 6, सू. 195 में तथा उववाईसूत्र 30 में प्रायश्चित्त के दस भेद बताये गये हैं 1. आलोचना, 2. प्रतिक्रमण, 3. तदुभय, 4. विवेक, 5. व्युत्सर्ग, 6. तप, 7. छेद, 8. मूल, 9. अनवस्थाप्य, 10. पाराञ्चिक / इनका स्वरूप इस प्रकार है 1. आलोचना- स्वीकृत व्रतों को यथाविधि पालन करते हुए भी छद्मस्थ होने के कारण व्रतों में जो अतिक्रम आदि दोष लगा हो, उसे गुरु के सम्मुख निवेदन करना। 2. प्रतिक्रमण-अपने कर्तव्य का पालन करते हुए भी जो भूलें होती हैं उनका "मिच्छा मे दुक्कडं होज्जा" उच्चारण कर अपने दोष से निवृत्त होना। . 3. तदुभय-मूलगुण या उत्तरगुणों में लगे अतिचारों की निवृत्ति के लिए आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों करना। 4. विवेक-गृहीत भक्त-पान आदि के सदोष ज्ञात होने पर उसे परठना / 5. व्युत्सर्ग-गमनागमन करने पर, निद्रावस्था में बुरा स्वप्न पाने पर, नौका आदि से नदी पार करने पर इत्यादि प्रवृत्तियों के बाद निर्धारित श्वासोच्छ्वास काल-प्रमाण काया का उत्सर्ग करना अर्थात् खड़े होकर ध्यान करना। 6. तप-प्रमाद-विशेष से अनाचार के सेवन करने पर गुरु द्वारा दिये गये तप का आचरण करना। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198] इसके दो भेद हैं-उद्घातिम अर्थात् लघुप्रायश्चित्त और अनुद्धातिम अर्थात् गुरुप्रायश्चित्त / इन दोनों के भी मासिक और चातुर्मासिक के भेद से दो-दो भेद होते हैं। यदि राजसत्ता या प्रेतबाधा आदि से परवश होने पर वत-विराधना हो तो--- 1. लघुमासतप (उद्घातिम) प्रायश्चित्त में जघन्य 4, मध्यम 15 और उत्कृष्ट 27 एकासन करना प्रावश्यक है। 2. गुरुमासतप (अनुद्घातिम) प्रायश्चित्त में क्रमशः 4 नीवी, 15 नीवी और 30 नीवी करना आवश्यक है। 3. लघुचातुर्मासिक तप में क्रमशः 4 आयंबिल, 60 नीवी और 108 उपवास करना आवश्यक है। . 4. गुरुचातुर्मासिक तप में क्रमशः 4 उपवास, 4 बेले और 120 उपवास या 4 मास का दीक्षाछेद आवश्यक है। यदि आतुरता से जानबूझ कर व्रत-विराधना हो तो... 1. लघुमास में जघन्य 4, मध्यम 15 और उत्कृष्ट 27 आयंबिल करना आवश्यक है। 2. गुरुमास में जघन्य 4, मध्यम 15 और उत्कृष्ट 30 आयंबिल करना आवश्यक है। 3. लघुचातुर्मासिक में जघन्य 4 उपवास, मध्यम 4 बेले और उत्कृष्ट 108 उपवास करना प्रावश्यक है। 4. गुरुचातुर्मासिक में जघन्य 4 बेले, 4 दिन का दीक्षा-छेद, मध्यम में 4 तेले तथा 6 दिन का दीक्षा-छेद और उत्कृष्ट में 120 उपवास तथा 4 मास का दीक्षा-छेद आवश्यक है। यदि मोहनीयकर्म के प्रबल उदय से व्रत की विराधना हुई है तो-- 1. लघुमासप्रायश्चित्त में जघन्य 4 उपवास, मध्यम 15 उपवास और उत्कृष्ट 27 उपवास करना आवश्यक है। 2. गुरुमासप्रायश्चित्त में जघन्य 4 उपवास, मध्यम 15 उपवास और उत्कृष्ट 30 उपवास करना आवश्यक है। __3. लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त में जघन्य 4 बेले, पारणे में आयंबिल, मध्यम में 4 तेले, पारणे में आयंबिल और उत्कृष्ट 108 उपवास और पारणे में आयंबिल करना आवश्यक है। 4. गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त में जघन्य 4 तेले, पारणे में आयंबिल या 40 दिन का दीक्षाछेद, मध्यम 15 तेले, पारणे में आयंबिल या 60 दिन का दीक्षा-छेद और उत्कृष्ट 120 उपवास और पारणे में आयंबिल या मूल (नई दीक्षा) या 120 दिन का छेद प्रायश्चित्त आवश्यक है। भगवान महावीर के शासन में उत्कृष्ट प्रायश्चित्त छह मास का होता है, इससे अधिक प्रायश्चित्त देना आवश्यक हो तो दीक्षा-छेद का प्रायश्चित्त दिया जाता है। लघु छह मास में 165 उपवास और गुरु छह मास में 180 उपवासों का विधान है। प्रायश्चित्त देने वाले आचार्यादि शिष्य की शक्ति और व्रत-भंग की परिस्थिति को देखकर यथायोग्य हीनाधिक प्रायश्चित्त भी देते हैं। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक] [199 7. छेद-अनेक व्रतों की विराधना करने वाले और बिना कारण अपवादमार्ग का सेवन करने वाले साधु की दीक्षा का छेदन करना 'छेद प्रायश्चित्त' है। यह प्रायश्चित्त भी छह मास का होता है। इससे अधिक प्रायश्चित्त देना आवश्यक होने पर मूल (नई दीक्षा का) प्रायश्चित्त दिया जाता है। ___8. मूल-जो साधु-साध्वी जानबूझ कर द्वेषभाव से किसी पंचेन्द्रिय प्राणी का घात कर. इसी प्रकार मृषावाद आदि पापों का अनेक बार सेवन करे और स्वतः पालोचना न करे तो उसकी पूर्वगृहीत दीक्षा का समूल छेदन करना 'मूल प्रायश्चित्त' है। ऐसे प्रायश्चित्त वाले को पुनः दीक्षा ग्रहण करना आवश्यक होता है। 9. अनवस्थाप्य-हिंसा, चोरी आदि पाप करने पर जिसकी शुद्धि मूल प्रायश्चित्त से भी सम्भव न हो, उसे गहस्थवेष धारण कराये बिना पूनः दीक्षित न करना 'अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त' है। इसमें अल्प समय के लिये भी गहस्थवेष धारण कराना आवश्यक होता है। 10. पाराञ्चिक-अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त से भी जिसकी शुद्धि सम्भव न हो, ऐसे विषय कषाय या प्रमाद की तीव्रता से दोष सेवन करने वाले को जघन्य एक वर्ष और उत्कृष्ट बारह वर्ष तक गृहस्थवेश धारण कराया जाता है एवं साधु के सब व्रत-नियमों का पालन कराया जाता है / उसके पश्चात् नवीन दीक्षा दी जाती है, उसे पाराञ्चिक प्रायश्चित्त कहते हैं। पाराञ्चिक प्रायश्चित्त के स्थान 2. तओ पारंचिया पण्णता, तं जहा 1. दुठे पारंचिए, 2. पमते पारंचिए, 3. अन्नमन करेमाणे पारंचिए। पाराञ्चिक प्रायश्चित्त के योग्य ये तीन कहे गए हैं, यथा-- 1. दुष्ट पाराञ्चिक, 2. प्रमत्त पाराञ्चिक, 3. परस्पर मैथुनसेवी पाराञ्चिक / विवेचन-पाराञ्चिक शब्द का निरुक्त है—जिस प्रायश्चित्त के द्वारा शुद्ध किया हुआ साधु संसार-समुद्र को पार कर सके / अथवा प्रायश्चित्त के दस भेदों में जो अन्तिम प्रायश्चित्त है और सबसे उत्कृष्ट है-उसे पाराञ्चिक प्रायश्चित्त कहते हैं / इस सूत्र में पाराञ्चिक प्रायश्चित्त के तीन स्थान कहे गये हैं। उनमें प्रथम दुष्ट पाराञ्चिक है / इसके दो भेद हैं-कषायदुष्ट और विषयदुष्ट / 1. कवायतुष्ट-जो क्रोधादि कषायों की प्रबलतावश किसी साधु आदि का घात कर दे वह कषायदुष्ट है। 2. विषयदुष्ट-जो इन्द्रियों की विषयासक्ति से साध्वी आदि स्त्रियों में आसक्त हो जाय और उनके साथ विषयसेवन करे, उसे विषयदुष्ट कहते हैं। प्रमत्त पाराञ्चिक पांच प्रकार के होते हैं१. मद्य-प्रमत्त-मदिरा आदि नशीली वस्तुओं के सेवन करने वाले मद्य-प्रमत्त कहे गए हैं / 2. विषय-प्रमत्त-इन्द्रियों के विषय-लोलुपी विषय-प्रमत्त कहे गए हैं / 3. कषाय-प्रमत्त-कषायों की प्रबलता वाले कषाय-प्रमत्त कहे गए हैं। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200] [बहत्कल्पसूत्र 4. विकथा-प्रमत्त-स्त्रीकथा, राजकथा आदि क्रियाएँ करने वाले विकथा-प्रमत्त कहे गए हैं / 5. निद्रा-प्रमत्त-स्त्यानद्धि-निद्रा वाले निद्रा-प्रमत्त कहे गए हैं। __ जो व्यक्ति घोर निद्रा में से उठकर नहीं करने योग्य भयंकर कार्यों को करके पुनः सो जाता है और जागने पर उसे अपने द्वारा किये गये दुष्कर कार्यों को कुछ भी स्मृति नहीं रहती है, ऐसे व्यक्ति को निद्रा-प्रमत्त कहते हैं। जो साधु किसी दूसरे साधु के साथ अनंग-क्रीड़ा रूप मैथुन करता है, वे दोनों ही पाराञ्चिक प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। इस प्रकार दुष्ट, प्रमत्त और परस्पर मैथुनसेवी की शुद्धि पाराञ्चिक प्रायश्चित्त से होती है / अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के स्थान 3. तओ अणवटुप्पा पण्णत्ता, तं जहा 1. साहम्मियाणं तेण्णं करेमाणे, 2. अन्नधम्मियाणं तेण्णं करेमाणे, 3. हत्थावालं दलमाणे। अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त योग्य ये तीन कहे गये हैं, यथा--- 1. सार्मिकों की चोरी करने वाला, 2. अन्यधामिकों की चोरी करने वाला, 3. अपसे हाथों से प्रहार करने वाला। विवेचन-इस सूत्र में बताया गया है 1. जो साधु अपने समान धर्म वाले साधर्मीजनों के वस्त्र, पात्र, पुस्तक आदि की चोरी करता है। 2. जो अन्यधार्मिक जनों के अर्थात् बौद्ध, सांख्य आदि मतों के मानने वाले साधु आदि के वस्त्र, पात्र, पुस्तक आदि की चोरी करता है। 3. जो अपने हाथ से दूसरे को ताडनादि करता है, मुट्ठी, लकड़ी आदि से मारता है या मन्त्र-तन्त्र आदि से किसी को पीड़ित करता है / इन तीनों को अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त पाता है। दीक्षा आदि के अयोग्य तीन प्रकार के नपुंसक 4-9. तओ नो कप्पंति पवावेत्तए, तं जहा 1. पण्डए, 2. वाइए, 3. कोवे / एवं मुण्डावेत्तए, सिक्खावेत्तए, उवट्ठावेत्तए, संभु जित्तए, संवासित्तए। इन तीन को प्रवजित करना नहीं कल्पता है, यथा१. पण्डक-महिला सदृश स्वभाव वाला जन्म-नपुसक, 2. वातिक-कामवासना का दमन न कर सकने वाला 3. क्लीब-असमर्थ। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक] [201 इसी प्रकार मुण्डित करना, शिक्षित करना, उपस्थापित करना, एक मण्डली में साथ बिठाकर आहार करना तथा साथ रखना नहीं कल्पता है। विवेचन-१. पण्डक-जो जन्म से नपुंसक होता है, उसे 'पण्डक' कहते हैं। 2. वातिक-जो वातरोगी है अर्थात् कामवासना का निग्रह करने में असमर्थ होता है, उसे 'वातिक' कहते हैं। 3. क्लीब-असमर्थ या पुरुषत्वहीन कायर पुरुष को 'क्लीब' कहते हैं। ये तीनों ही प्रकार के नपुसक दीक्षा देने के योग्य नहीं हैं, क्योंकि ऐसे व्यक्तियों को दीक्षित करने से प्रवचन का उपहास और निर्ग्रन्थ धर्म की निन्दा आदि अनेक दोष होते हैं। यदि पूरी जानकारी किए बिना उक्त प्रकार के नपुसकों को दीक्षा दे दी गई हो और बाद में उनका नपुंसकपन ज्ञात हो तो उसे मुण्डित नहीं करे अर्थात् उनके केशों का लुचन नहीं करे / यदि केशलुचन के पश्चात् नपुंसकपन ज्ञात हो तो उन्हें महाव्रतों में उपस्थापित न करे अर्थात् बड़ी दीक्षा न दे। यदि बड़ी दीक्षा के पश्चात् उनका नपुसकपन ज्ञात हो तो उनके साथ एक मण्डली में बैठकर खान-पान न करे। यदि इसके पश्चात् उनका नपुंसकपन ज्ञात हो तो उन्हें सोने-बैठने के स्थान पर एक साथ न सुलावे-बिठावे। अभिप्राय यह है कि उक्त तीनों प्रकार के नपुंसक किसी भी प्रकार से दीक्षा देने योग्य नहीं हैं। कदाचित् दीक्षित हो भी जाय तो ज्ञात होने पर संघ में रखने योग्य नहीं होते हैं / वाचना देने के योग्यायोग्य के लक्षण 10. तओ नो कप्पंति वाइत्तए, तं जहा--- 1. अविणीए, 2. विगइ-पडिबद्ध, 3. अविओसवियपाहडे / 11. तओ कप्पंति वाइत्तए, तं जहा 1. विणीए, 2. नो विगइ-पडिबद्ध, 3. विओसवियपाहुडे / 10. तीन को वाचना देना नहीं कल्पता है, यथा 1. प्रविनीत-विनयभाव न करने वाले को, 2. विकृति-प्रतिबद्ध-विकृतियों में प्रासक्त रहने वाले को, 3. अनुपशांतप्राभृत-अनुपशान्त क्रोध वाले को। 11. इन तीनों को वाचना देना कल्पता है, यथा 1. विनीत-सूत्रार्थदाता के प्रति वन्दनादि विनय करने वाले को, 2. विकृति-अप्रतिबद्ध-विकृतियों में प्रासक्त न रहने वाले को, 3. उपशान्तप्राभृत-उपशान्त क्रोध वाले को / Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202] [बृहत्कल्पसूत्र विवेचन-१. अविनीत-जो विनय-रहित है, आचार्य या दीक्षाज्येष्ठ साधु आदि के आनेजाने पर अभ्युत्थान, सत्कार-सम्मान आदि यथोचित विनय को नहीं करता है, वह 'अविनीत' कहा गया है। 2. विकृति-प्रतिबद्ध--जो दूध, दही आदि रसों में गद्ध है, उन रसों के नहीं मिलने पर सूत्रार्थ आदि के ग्रहण करने में मन्द उद्यमी रहता है, वह 'विकृति-प्रतिबद्ध' कहा गया है। 3. अव्यवश मितप्राभूत-अल्प अपराध करने पर जो अपराधी पर प्रचण्ड क्रोध करता है और क्षमा-याचना कर लेने पर भी बार-बार उस पर क्रोध प्रकट करता रहता है, उसे 'अव्यवशमितप्राभृत' कहते हैं। ये तीन प्रकार के साधु सूत्र-वाचना और उभय-वाचना के अयोग्य हैं, क्योंकि विनय से ही विद्या की प्राप्ति होती है, अविनयी शिष्य को विद्या पढ़ाना व्यर्थ या निष्फल तो जाता है, प्रत्युत कभी-कभी दुष्फल भी देता है। जो दूध-दही आदि विकृतियों में प्रासक्त है, उसके हृदय में दी गई वाचना स्थिर नहीं रह सकती है अतः उसे भी वाचना देना व्यर्थ है। जिसके स्वभाव में उग्रता है, जरा-सा भी अपराध हो जाने पर जो अपराधी पर भारी रोष प्रकट करता है, क्षमा मांग लेने पर भी बार-बार दोहराता है, ऐसे व्यक्ति को भी वाचना देना व्यर्थ होता है। ऐसे व्यक्ति से लोग इस जन्म में भी स्नेह करना छोड़ देते हैं और परभव के लिए भी वह तीव्र वैरानुबन्ध करता है, इसलिए उक्त तीनों ही प्रकार के शिष्य सूत्र, अर्थ या दोनों की वाचना के लिए अयोग्य कहे गये हैं। किन्तु जो विनय-सम्पन्न हैं, दूध, दही आदि विगयों के सेवन में जिनकी आसक्ति नहीं है और जो क्षमाशील हैं, ऐसे शिष्यों को ही सूत्र की, उसके अर्थ की तथा दोनों की वाचना देना चाहिए, क्योंकि उनको दी गई वाचना श्रुत का विस्तार करती है, ग्रहण करने वाले का इहलोक और परलोक सुधारती है और जिनशासन की प्रभावना करती है। सूत्रोक्त दोष वाला भिक्षु संयम आराधना के भी अयोग्य होता है / उसे दीक्षा भी नहीं दी जा सकती है। दीक्षा देने के बाद इन अवगुणों के ज्ञात होने पर उसे वाचना के लिए उपाध्याय के पास नहीं रखना चाहिए किन्तु प्रवर्तक एवं स्थविर के नेतृत्व में अन्य अध्ययन शिक्षाएं एवं आचारविधि का ज्ञान कराना चाहिए। ऐसा करने पर यदि उक्त योग्यता प्राप्त हो जाए तो वाचना के लिए उपाध्याय के पास रखा जा सकता है। योग्य न बनने पर सदा अगीतार्थ रहता है और दूसरों के अनुशासन में रहते हुए संयम पालन करता है। जो गच्छप्रमुख सूत्रोक्त विधि का पालन न करते हुए योग्य-अयोग्य के निर्णय किए बिना सभी को इच्छित वाचना देते हैं-उपाध्याय आदि वाचना देने वाले की नियुक्ति नहीं करते हैं अथवा उनके प्रति विनय-प्रतिपत्ति आदि के पालन की व्यवस्था भी नहीं करते हैं। इस प्रकार वाचना सम्बन्धी सूत्र-विधानों का यथार्थ पालन नहीं करने से वे गच्छप्रमुख निशीथ उ. 19 के अनुसार प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं / ये प्रायश्चित्त इस प्रकार हैं 1. प्रागमनिर्दिष्ट क्रम से वाचना न दे किन्तु स्वेच्छानुसार किसी भी सूत्र की वाचना दे या दिलवाए। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धौया उद्देशक] [203 2. प्राचारांग सूत्र की वाचना दिए बिना छेदसूत्रों की वाचना दे या दिलवावे / 3. अविनीत या अयोग्य साधुओं को कालिकश्रुत की वाचना दे। 4. विनयवान् योग्य साधुओं को यथासमय वाचना देने का ध्यान न रखे। 5. विगयों का त्याग नहीं करने वाले एवं कलह को उपशान्त नहीं करने वाले को वाचना दे। 6. सोलह वर्ष से कम उम्र वाले को कालिकश्रुत (अंगसूत्र या छेदसूत्र) की बाचना दे। 7. समान योग्यता वाले साधुओं में से किसी को वाचना दे, किसी को न दे। 8. स्वगच्छ के या अन्यगच्छ के शिथिलाचारी साधु को वाचना दे। 9. मिथ्यामत वाले गृहस्थ को वाचना दे या उसे वाचना लेने वालों में बिठावे तो इनको लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है। --निशीथ उ. 19, सूत्र 16-35 शिक्षा-प्राप्ति के योग्यायोग्य के लक्षण 12. तओ दुस्सन्नप्पा पण्णत्ता, तं जहा 1. दुछे, 2. मूढे, 3. बुग्गाहिए। 13. तओ सुसन्नप्पा पण्णता, तं जहा 1. प्रवुठे, 2. अमूढे, 3. अग्गाहिए। 12. ये तीन दुःसंज्ञाप्य (दुर्बोध्य) कहे गये हैं, यथा१. दुष्ट---तत्वोपदेष्टा के प्रति द्वेष रखने वाला, 2. मूढ---गुण और दोषों से अनभिज्ञ, 3. व्युद्ग्राहित-अंधश्रद्धा वाला दुराग्रही / 13. ये तीन सुसंज्ञाप्य (सुबोध्य) कहे गए हैं, यथा१. अदुष्ट-तत्त्वोपदेष्टा के प्रति द्वेष न रखने वाला, 2. अमूढ---गुण और दोषों का ज्ञाता, 3. अव्युद्ग्राहित–सम्यक् श्रद्धा वाला / विवेचन–१. 'दुष्ट' जो शास्त्र की प्ररूपणा करने वाले गुरु आदि से द्वेष रखे अथवा यथार्थ प्रतिपादन किये जाने वाले तत्त्व के प्रति द्वेष रखे, उसे 'दुष्ट' कहते हैं। 2. मूढ–गुण और अवगुण के विवेक से रहित व्यक्ति को 'मूढ' कहते हैं / 3. व्युग्राहित-विपरीत श्रद्धा वाले अत्यन्त कदाग्रही पुरुष को 'व्युद्ग्राहित' कहते हैं। ये तीनों ही प्रकार के साधु दुःसंज्ञाप्य हैं अर्थात् इनको समझाना बहुत कठिन है, समझाने पर भी ये नहीं समझते हैं, इन्हें शिक्षा देने या समझाने से भी कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है। अतः ये सूत्रवाचना के पूर्ण अयोग्य होते हैं। किन्तु जो द्वेषभाव से रहित हैं, हित-अहित के विवेक से युक्त हैं और विपरीत श्रद्धा वाले या कदाग्रही नहीं हैं, वे शिक्षा देने के योग्य होते हैं / ऐसे व्यक्तियों को ही Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204] [बृहत्कल्पसूत्र श्रुत एवं अर्थ की वाचना देनी चाहिए। क्योंकि ये प्रतिपादित तत्त्व को सरलता से या सुगमता से ग्रहण करते है। ग्लान को मैथुनभाव का प्रायश्चित्त 14. निग्गथि च णं गिलायमाणि पिया वा भाया वा पुत्तो वा पलिस्सएज्जा, तं च निगायी साइज्जेज्जा मेहुणपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं / 15. निगंथं च गिलायमाणं माया वा भगिणी या धूया वा पलिस्सएज्जा, तं च निग्गथे साइज्जेज्जा मेहुणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्धाइयं / 14. ग्लान निर्ग्रन्थी के पिता, भ्राता या पुत्र गिरती हुई निर्ग्रन्थी को हाथ का सहारा दें, गिरी हुई को उठावें, स्वतः उठने-बैठने में असमर्थ को उठावें बिठावें, उस समय वह निर्ग्रन्थी मैथुनसेवन के परिणामों से पुरुषस्पर्श का अनुमोदन करे तो वह अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त की पात्र होती है। 15. ग्लान निर्ग्रन्थ की माता, बहिन या बेटी गिरते हुए निर्ग्रन्थ को हाथ का सहारा दें, गिरे हुए को उठाएँ, स्वतः बैठने-उठने में असमर्थ को उठाएँ, बिठाएँ, उस समय वह निर्ग्रन्थ मैथुनसेवन के परिणामों से स्त्रीस्पर्श का अनुमोदन करे तो वह अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का पात्र होता है। विवेचन-साध्वी के लिए पुरुष के शरीर का स्पर्श और साधु के लिए स्त्री के शरीर का स्पर्श ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए सर्वथा वजित है। बीमारी आदि के समय भी साध्वी की साध्वी और साधु की साधु ही परिचर्या करें, यही जिन-प्राज्ञा है। किन्तु कदाचित् ऐसा अवसर प्रा जाय कि कोई साध्वी शरीर-बल के क्षीण होने से कहीं पर आते या जाते हुए गिर जाय और उसे देखकर उस साध्वी का पिता, भाई या पुत्रादि कोई भी पुरुष उसे उठाए, बिठाए या अन्य शरीर-परिचर्या करे तब उसके शरीर के स्पर्श से यदि साध्वी के मन में काम-वासना जागृत हो जाय तो उसके लिए चातुर्मासिक अनुद्घातिक प्रायश्चित्त कहा गया है। इसी प्रकार बीमारी आदि से क्षीणबल कोई साधु कहीं गिर जाय और उसकी माता, बहिन या पुत्री आदि कोई भी स्त्री उसे उठाए, तब उसके स्पर्श से यदि साधु के मन में काम-वासना जग जाय तो वह साधु गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त का पात्र कहा गया है। यहां प्रायश्चित्त कहने का तात्पर्य यह है कि वह रुग्ण साधु या साध्वी स्पर्शपरिचारणा का अनुभव करे तो वे उक्त प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। प्रथम प्रहर के आहार को चतुर्थ प्रहर में रखने का निषेध 16. नो कप्पइ निग्गंथाण वा, निग्गंथोण वा असणं वा जाव साइमं वा, पढमाए पोरिसीए पडिग्गाहेत्ता, पच्छिमं पोरिसि उवाइणावेत्तए। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [205 चौया उद्देशक से य पाहच्च उवाइणाविए सिया तं नो अप्पणा भुजेज्जा, नो अन्नेसि अणुप्पदेज्जा, एगन्ते बहुफासुए थेडिले पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिद्ववेयवे सिया। तं अप्पणा भुजमाणे, अन्नेसि वा दलमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्धाइयं / निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को प्रथम पौरुषी में ग्रहण किए हुए प्रशन यावत् स्वादिम को अन्तिम पौरुषी तक अपने पास रखना नहीं कल्पता है। कदाचित् वह प्राहार रह जाय तो उसे स्वयं न खाए और न अन्य को दे किन्तु एकान्त और सर्वथा अचित्त स्थंडिलभूमि का प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन कर उस आहार को परठ देना चाहिए। यदि उस आहार को स्वयं खाए या अन्य को दे तो वह उद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का पात्र होता है। विवेचन -पौरुषी का अर्थ है प्रहर। दिन के प्रथम प्रहर में लाया गया आहार चतुर्थ प्रहर तक रखना योग्य नहीं है / इसके पूर्व ही साधु और साध्वियों को उसे काम में ले लेना चाहिए। यदि भूल आदि से कभी रह जाय तो कालातिक्रम हो जाने पर साधु-साध्वी न स्वयं उसे खाएँ, न दूसरों को खिलाएँ, किन्तु किसी एकान्त, प्रासुक भूमि पर प्रतिलेखन और प्रमार्जन करके यथाविधि परठ दें। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं और उसे स्वयं खाते हैं या दूसरे साधु-साध्वियों को देते हैं तो वे लघु-चातुर्मासिक प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। भाष्यकार ने इस सूत्र की व्याख्या में इतना और स्पष्ट किया है कि जिनकल्पी साधु को तो जिस प्रहर में वह गोचरी लावे उसी प्रहर में उसे खा लेना चाहिए। अन्यथा वह संग्रहादि दोष का भागी होता है। किन्तु जो गच्छवासी (स्थविरकल्पी) साधु हैं, वे प्रथम प्रहर में लायी गई गोचरी को तीसरे प्रहर तक सेवन कर सकते हैं। उसके पश्चात् सेवन करने पर वे सूत्रोक्त प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। सूत्र में चारों प्रकार के आहार का कथन है, इसलिए भिक्षु आहार के सिवाय पानी, फल, मेवे एवं मुखवास भी चौथे प्रहर में नहीं रख सकते हैं / यदि चारों प्रकार के आहार दूसरे प्रहर में लाये गये हों तो उन्हें चतुर्थ प्रहर तक रख सकते हैं और उपयोग में ले सकते हैं। प्रौषध-भेषज भी तीन प्रहर से अधिक नहीं रख सकते हैं। ऐसा भी इस सूत्र के विधान से समझना चाहिए / लेप्य पदार्थों के लिए पांचवें उद्देशक में निषेध एवं अपवाद बताया गया है। दो कोस से आगे आहार ले जाने का निषेध / 17. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथोण वा असणं वा जाव साइमं वा, परं अजोयणमेराए उवाइणावेत्तए। से य आहच्च उवाइणालिए सिया, तं नो अप्पणा भुजेज्जा, नो अग्नेसि अणुप्पदेज्जा, एगन्ते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिढुवेयध्वे सिया। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206] [बृहत्कल्पसूत्र तं अप्पणा भुजमाणे, अन्नेसि वा दलमाणे, आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं / 17. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को प्रशन यावत् स्वादिम आहार अर्धयोजन की मर्यादा से आगे रखना नहीं कल्पता है / कदाचित् वह प्राहार रह जाय तो उस आहार को स्वयं न खाए और न अन्य को दे, किन्तु एकान्त और सर्वथा अचित्त भूमि का प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन कर उस आहार को यथाविधि परठ देना चाहिए। यदि उस आहार को स्वयं खाए या अन्य निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को दे तो उसे उद्घातिकचातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन-भिक्ष अपने उपाश्रय से दो कोस दूर के क्षेत्र से प्रशनादि ला सकता है एवं विहार करके किसी भी दिशा में दो कोस तक आहार-पानी आदि ले जा सकता है। उसके आगे भूल से ले भी जाए तो जानकारी होने पर उसे खाना या पीना नहीं कल्पता है, किन्तु परठना कल्पता है / आगे ले जाने पर आहारादि सचित्त या दूषित तो नहीं हो जाते हैं, किन्तु यह आगमोक्त क्षेत्र-सीमा होने से इसका पालन करना आवश्यक है। दो कोस के चार हजार धनुष होते हैं, जिसके चार माइल या सात किलोमीटर लगभग क्षेत्र होता है / इतने क्षेत्र से आगे आहार-पानी एवं औषध-भेषज कोई भी खाद्यसामग्री नहीं ले जानी चाहिए। अनाभोग से ग्रहण किये अनेषणीय आहार की विधि 15. निग्गंथेण य गाहावइकुलं पिण्डवायपडियाए अणुप्पविद्रेणं अन्नयरे प्रचित्ते अणेसणिज्जे पाणभोयणे पडिगाहिए सिया। अस्थि य इत्थ केइ सेहतराए अणुवट्ठावियए, कप्पइ से तस्स दाउं वा अणुप्पदाउं वा। नत्थि य इत्य केइ सेहतराए अणुवट्ठावियए, तं नो अप्पणा भुजेज्जा, नो अन्नेसि दावए, एगन्ते बहुफासए पएसे पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिट्टवेयवे सिया। 18. आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट निर्ग्रन्थ के द्वारा कोई दोषयुक्त अचित्त आहारपानी ग्रहण हो जाय तो-- ___ वह अाहार यदि कोई वहाँ अनुपस्थापित शिष्य हो तो उसे देना या एषणीय प्राहार देने के बाद में देना कल्पता है। यदि कोई अनुपस्थापित शिष्य न हो तो उस अनेषणीय आहार को न स्वयं खाए और न अन्य को दे किन्तु एकान्त और अचित्त प्रदेश का प्रतिलेखन और प्रमार्जन कर यथाविधि परठ देना चाहिए। विवेचन-इत्वरिक दीक्षा देने के पश्चात् जब तक यावज्जीवन की दीक्षा नहीं दी जाता है, तब तक उस नवदीक्षित साधु को 'अनुपस्थापित शैक्षतर' कहा जाता है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौया उद्देशक] [207 छोटी दीक्षा के पश्चात् बड़ी दीक्षा देकर महाव्रतों में उपस्थापित करने का जघन्य काल सात दिन है और उत्कृष्ट काल छह मास है / ऐसे अनुपस्थापित नवदीक्षित साधु को असावधानी से आया हुमा अनेषणीय अचित्त प्राहार सेवन करने के लिए दिया जा सकता है। यहाँ अनेषणीय से एषणा सम्बन्धी दोष से युक्त पाहार समझना चाहिए। यद्यपि नवदीक्षित अनुपस्थापित शिष्य भी संयमी गिना जाता है। तथापि पुनः उपस्थापन करना निश्चित होने से उसे उस आहार के खाने पर अलग से कोई प्रायश्चित्त नहीं पाता है। अतः परठने योग्य आहार को उसे देने का सूत्र में विधान किया गया है। यदि साधु-मण्डली में ऐसा कोई नवदीक्षित अनुपस्थापित शिष्य न हो तो उस दोषयुक्त आहार को न स्वयं खाए और न दूसरों को दे, किन्तु प्रासुक अचित्त स्थान पर सूत्रोक्तविधि से परठ देना चाहिए। सूत्र में 'दाउं' पद है, उसका अभिप्राय है एक बार देना और 'अणुप्पदाउं' पद का अभिप्राय है-निमन्त्रण करना या अनेक बार थोड़ा-थोड़ा करके देना / औद्देशिक आहार के कल्प्याकल्प्य का विधान 19. जे कडे कप्पट्ठियाणं, कप्पइ से अकप्पट्ठियाणं नो से कप्पइ कप्पट्टियाणं / जे कडे प्रकप्पटियाणं नो से कप्पइ कप्पट्ठियाणं, कप्पइ से अकप्पट्ठियाणं / कप्पे ठिया कप्पट्ठिया, अकप्पे ठिया प्रकप्पट्टिया। 19. जो आहार कल्पस्थितों के लिए बनाया गया है, वह अकल्पस्थितों को लेना कल्पता है किन्तु कल्पस्थितों को लेना नहीं कल्पता है / __ जो आहार अकल्पस्थितों के लिए बनाया गया है, वह कल्पस्थितों को नहीं कल्पता है किन्तु अन्य अकल्पस्थितों को कल्पता है। जो कल्प में स्थित हैं वे कल्पस्थित कहे जाते हैं और जो कल्प में स्थित नहीं हैं वे अकल्पस्थित कहे जाते हैं। विवेचन-- जो साधु आचेलक्य आदि दस प्रकार के कल्प में स्थित होते हैं और पंचयाम रूप धर्म का पालन करते हैं, ऐसे प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के साधुओं को कल्पस्थित कहते हैं / ___ जो आचेलक्यादि दश प्रकार के कल्प में स्थित नहीं हैं किन्तु कुछ ही कल्पों में स्थित हैं और चातुर्याम रूप धर्म का पालन करते हैं, ऐसे मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के साधु अकल्पस्थित कहे जाते हैं। जो आहार गृहस्थों ने कल्पस्थित साधुओं के लिए बनाया है, उसे वे नहीं ग्रहण कर सकते हैं, किन्तु अकल्पस्थित साधु ग्रहण कर सकते हैं। इसी प्रकार जो आहार अकल्पस्थित जिन साधुओं के लिए बनाया गया है, उसे अकल्पस्थित अन्य साधु तो ग्रहण कर सकते हैं किन्तु कल्पस्थित साधु ग्रहण नहीं कर सकते हैं। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208] [बृहत्कल्पसूत्र 10 कल्प (साधु के प्राचार) इस प्रकार हैं--- 1. अचेलकल्प-अमर्यादित वस्त्र न रखना, किन्तु मर्यादित वस्त्र रखना, रंगीन वस्त्र न रखना, किन्तु स्वाभाविक रंग का अर्थात् सफेद रंग का वस्त्र रखना और मूल्यवान् चमकीले वस्त्र न रखना किन्तु अल्पमूल्य के सामान्य वस्त्र रखना। 2. औद्देशिककल्प- अन्य किसी भी सार्मिक या सांभोगिक साधुओं के उद्देश्य से बनाया गया आहार आदि प्रौद्देशिक दोष वाला होता है / ऐसे आहार आदि को ग्रहण नहीं करना / 3. शय्यातरपिंडकल्प-शय्यादाता का आहारादि ग्रहण नहीं करना। 4. राजपिडकल्प--मूर्धाभिषिक्त राजाओं का आहारादि नहीं लेना। 5. कृतिकर्मकल्प-रत्नाधिक को वंदन आदि विनय-व्यवहार करना / 6. व्रतकल्प-पांच महाव्रतों का पालन करना अथवा चार याम का पालन करना / चार याम में चौथे और पांचवें महाव्रत का सम्मिलित नाम "बहिद्धादाण" है। 7. ज्येष्ठकल्प-जिसकी बड़ी दीक्षा पहले हई हो वह ज्येष्ठ कहा जाता है और साध्वियों के लिये सभी साधु ज्येष्ठ होते हैं / अतः उन्हें ज्येष्ठ मानकर व्यवहार करना। 8. प्रतिक्रमणकल्प-नित्य नियमित रूप से देवसिक एवं रात्रिक प्रतिक्रमण करना। 9. मासकल्प-हेमंत-ग्रीष्म ऋतु में विचरण करते हुए किसी भी प्रामादि में एक मास से अधिक नहीं ठहरना तथा एक मास ठहरने के बाद वहाँ दो मास तक पुन: प्राकर नहीं ठहरना / साध्वी के लिए एक मास के स्थान पर दो मास का कल्प समझना / 10. चातुर्मासकल्प-वर्षाऋतु में चार मास तक एक ही ग्रामादि में स्थित रहना किन्तु विहार नहीं करना / चातुर्मास के बाद उस ग्राम में नहीं रहना एवं आठ मास [बाद में चातुर्मास काल मा जाने से बारह मास] तक पुनः वहाँ आकर नहीं रहना। ये दस कल्प प्रथम एवं अंतिम तीर्थंकर के साधु-साध्वियों को पालन करना आवश्यक होता है। मध्यम तीर्थंकरों के साधु-साध्वियों को चार कल्प का पालन करना आवश्यक होता है, शेष छह कल्पों का पालन करना आवश्यक नहीं होता। चार आवश्यक कल्प-१. शय्यातरपिंडकल्प, 2. कृतिकर्मकल्प, 3. व्रतकल्प, 4. ज्येष्ठकल्प / छह ऐच्छिक कल्प १.अचेल-अल्प मूल्य या बहुमूल्य, रंगीन या स्वाभाविक, किसी भी प्रकार के वस्त्र अल्प या अधिक परिमाण में इच्छानुसार या मिलें जैसे ही रखना। 2. प्रौद्देशिक-स्वयं के निमित्त बना हुया आहारादि नहीं लेना किन्तु अन्य किसी भी सार्मिक साधु के लिये बने आहारादि इच्छानुसार लेना। 3. राजपिंड -मूर्धाभिषिक्त राजाओं का आहार ग्रहण करने में इच्छानुसार करना / 4. प्रतिक्रमण नियमित प्रतिक्रमण इच्छा हो तो करना किन्तु पक्खी चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण अवश्य करना। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक] 5. मासकल्प-किसी भी ग्रामादि में एक मास या उससे अधिक इच्छानुसार रहना या कभी भी वापिस वहां आकर ठहरना। 6. चातुर्मासकल्प-इच्छा हो तो चार मास एक जगह ठहरना किन्तु संवत्सरी के बाद कार्तिक सुदी पूनम तक एक जगह ही स्थिर रहना / उसके बाद इच्छा हो तो विहार करना, इच्छा न हो तो न करना। श्रुतग्रहण के लिये अन्यगण में जाने का विधि-निषेध 20. भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अन्नं गणं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता 1. आयरियं वा, 2. उवज्झायं वा 3, पवत्तयं वा, 4. थेरं वा, 5. गणि वा 6. गणहरं वा, 7, गणावच्छेइयं वा अन्नं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। कप्पइ से प्रापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अन्नं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ते य से वियरेज्जा, एवं से कप्पड अन्नं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए / ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अन्नं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए / 21. गणावच्छेयए य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अन्नं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तएनो से कप्पड गणावच्छेयत्तं अनिक्खिवित्ता अन्नं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। कप्पइ से गणावच्छेइयत्तं निक्खिवित्ता अन्नं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अन्नं गणं उवसंपज्जिताणं विहरित्तए। कप्पइ से आपुच्छित्ता पायरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अन्नं गणं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ते य से वियरेज्जा, एवं से कप्पइ अन्नं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए / ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अन्नं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। 22. पायरिय-उवज्झाए य गणाओ प्रवक्कम्म इच्छेज्जा अन्नं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए नो से कप्पइ आयरिय-उवज्झायत्तं अनिक्खिवित्ता अन्नं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। कप्पइ से आयरिय-उवज्झायत्तं निक्खिवित्ता अन्नं गणं उपसंपज्जिताणं विहरित्तए / नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अन्नं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए / Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210] [बहत्कल्पसूत्र कप्पइ से प्रापुच्छित्ता प्रायरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अन्नं गणं उबसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ते य से वियरेज्जा, एवं से कप्पइ अन्नं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अन्नं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरितए। 20. यदि कोई भिक्षु स्वगण को छोड़कर अन्यगण को (श्रुतग्रहण करने के लिये) स्वीकार करना चाहे तो उसे 1. आचार्य, 2. उपाध्याय, 3. प्रवर्तक, 4. स्थविर, 5. गणी, 6. गणधर या 7. गणावच्छेदक को पूछे बिना अन्य गण को स्वीकार करना नहीं कल्पता है। किन्तु प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक को पूछकर अन्यगण को स्वीकार करना कल्पता है / यदि वे आज्ञा दें तो अन्यगण को स्वीकार करना कल्पता है। यदि वे आज्ञा न दें तो अन्यगण को श्रुत ग्रहण के लिये स्वीकार करना नहीं कल्पता है / 21. यदि गणावच्छेदक स्वगण को छोड़कर श्रुतग्रहण के लिये अन्य गण को स्वीकार करना चाहे तो ___ उसे अपने पद का त्याग किए विना अन्यगण को श्रुतग्रहण के लिये स्वीकार करना नहीं कल्पता है। उसे अपने पद को त्याग करके अन्यगण को श्रुतग्रहण के लिये स्वीकार करना कल्पता है। प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक को पूछे विना उसे अन्यगण को श्रुतग्रण के लिये स्वीकार करना नहीं कल्पता है। किन्तु प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक को पूछकर अन्यगण को श्रुतग्रहण के लिये स्वीकार करना कल्पता है। यदि वे आज्ञा दें तो उसे अन्यगण को श्रुतग्रहण के लिये स्वीकार करना कल्पता है। यदि वे आज्ञा न दें तो उसे अन्यगण को श्रुतग्रहण के लिये स्वीकार करना नहीं कल्पता है / 22. प्राचार्य या उपाध्याय यदि स्वगण को छोड़कर अन्यगण को श्रुतग्रहण के लिये स्वीकार करना चाहें तो उन्हें अपने पद को त्याग किए विना अन्यगण को श्रुतग्रहण के लिये स्वीकार करना नहीं कल्पता है। अपने पद को त्याग करके अन्यगण को श्रुतग्रहण के लिये स्वीकार करना कल्पता है / प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक को पूछे विना उन्हें अन्यगण को श्रुतग्रहण के लिये स्वीकार करना नहीं कल्पता है। किन्तु प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक को पूछकर अन्यगण को श्रुतग्रहण के लिये स्वीकार करना कल्पता है। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौया उद्देशक] [211 यदि वे आज्ञा दें तो उन्हें अन्यगण को श्रुतग्रहण के लिये स्वीकार करना कल्पता है / यदि वे आज्ञा न दें तो उन्हें अन्यगण को श्रुतग्रहण के लिये स्वीकार करना नहीं कल्पता है। विवेचन--इस सूत्र में यह विधान है कि यदि कोई साधु ज्ञानादि की प्राप्ति या विशेष संयम की साधना हेतु अल्पकाल के लिये किसी अन्यगण के आचार्य या उपाध्याय की उपसंपदा स्वीकार करना चाहे तो उसके लिए यह आवश्यक है कि वह अपने प्राचार्य की स्वीकृति ले। प्राचार्य समीप में न हों तो उपाध्याय की, उनके अभाव में प्रवर्तक की, उनके अभाव में स्थविर की, उनके अभाव में गणी की, उनके अभाव में गणधर की और उनके अभाव में गणावच्छेदक की स्वीकृति लेकर के ही अन्यगण में जाना चाहिए / अन्यथा वह प्रायश्चित्त का पात्र होता है। अध्ययन आदि की समाप्ति के बाद पुनः वह भिक्षु स्वगच्छ के प्राचार्य के पास प्रा जाता है। क्योंकि वह सदा के लिये नहीं गया है। सदा के लिये जाने का विधान आगे के सूत्रों में किया गया है। आचार्य, उपाध्याय या गणावच्छेदक आदि पदवीधर भी विशिष्ट अध्ययन हेतु अन्य प्राचार्य या उपाध्याय के पास जाना चाहें तो वे भी जा सकते हैं किन्तु गच्छ की व्यवस्था बराबर चल सके, ऐसी व्यवस्था करके अन्य योग्य भिक्षु को अपना पद सौंप कर और फिर उनकी प्राज्ञा लेकर के ही जा सकते हैं किन्तु आज्ञा लिये बिना वे भी नहीं जा सकते हैं। पद सौंपने एवं प्राज्ञा लेने के कारण इस प्रकार हैं१. अध्ययन करने में समय अधिक भी लग सकता है। 2. गच्छ की चिंता से मुक्त होने पर ही अध्ययन हो सकता है। 3. गच्छ की व्यवस्था के लिये, विनयप्रतिपत्ति के लिये एवं कार्य की सफलता के लिये आज्ञा लेना आवश्यक होता है। अध्ययन समाप्त होने पर पुनः स्वगच्छ में पाकर पद ग्रहण कर सकते हैं। यहां इतना विशेष ज्ञातव्य है कि प्राचार्यादि की स्वीकृति मिलने पर साधु तो अकेला भी विहार कर अन्यगण में जा सकता है, किन्तु साध्वी अकेली नहीं जा सकती है। उसे स्वीकृति मिलने पर भी कम से कम एक अन्य साध्वी के साथ ही अन्यगण में जाना चाहिए। प्राचार्य आदि की प्राज्ञा लेना या अन्य आवश्यक विधि का पालन करना साधु के समान ही जानना चाहिए / विशेष यह है कि प्रवर्तिनी की आज्ञा भी लेना आवश्यक होता है। सांभोगिक-व्यवहार के लिए अन्यगण में जाने की विधि 23. भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। नो से कप्प त्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेहयं वा अन्नं गणं संभोगपडियाए उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212] (बृहरकल्पसूत्र कप्पड से प्रापुच्छित्ता पायरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए। ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए / जत्थुत्तरियं धम्मविणयं लभेज्जा एवं से कप्पइ अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। जत्थुत्तरियं धम्मविणयं नो लभेज्जा, एवं से नो कप्पइ अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्तागं विहरित्तए। ___ 24. गणावच्छेइए य गणाओ अवक्कम इच्छेज्जा अन्नं गणं संभोगपडियाए उक्संपज्जित्ताणं विहरित्तए / नो से कप्पइ गणावच्छेइयत्तं अनिक्खिवित्ता अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता गं विहरित्तए। कप्पइ से गणावच्छेइयत्तं निक्खिवित्ता अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए। नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता पायरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अन्नं गणं संभोगपडियाए उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए / ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। जत्युत्तरियं धम्मविणयं लभेज्जा, एवं से कप्पइ अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए / जत्थुत्तरियं धम्मविणयं नो लभेज्जा एवं से नो कप्पइ अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। 25. आयरिय-उवज्झाए य गणाओ अवकम्म इच्छेज्जा अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जिताणं विहरित्तए। नो से कप्पइ आयरिय-उवज्झायत्तं अनिक्खिबित्ता अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरितए। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक 212 कप्पइ से प्रायरिय-उवज्ञायत्तं निक्खिवित्ताणं अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अन्नं गणं संभोगपडियाए उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ते य से वियरेज्जा, एवं से कप्पइ अन्नं गणं संभोगपडियाए उधसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। जत्थुत्तरिय धम्मविणयं लभेज्जा, एवं से कप्पइ अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरितए। जत्युत्तरियं धम्मविणयं नो लभेज्जा, एवं से नो कप्पइ अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। 23. भिक्षु यदि स्वगण से निकलकर अन्यगण के साथ साम्भोगिक व्यवहार स्वीकार करना चाहे तो प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक को पूछे विना अन्यगण के साथ साम्भोगिक व्यवहार करना नहीं कल्पता है। किन्तु प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक को पूछ कर अन्य गण के साथ साम्भोगिक व्यवहार करना कल्पता है। यदि वे आज्ञा दें तो अन्यगण के साथ साम्भोगिक व्यवहार करना कल्पता है। यदि वे आज्ञा न दें तो अन्यगण के साथ साम्भोगिक व्यवहार करना नहीं कल्पता है। यदि वहां संयमधर्म की उन्नति होती हो तो अन्यगण के साथ साम्भोगिक व्यवहार करना कल्पता है। किन्तु जहां संयमधर्म की उन्नति न होती हो, वहाँ अन्यगण के साथ साम्भोगिक व्यवहार करना नहीं कल्पता है। 24. गणावच्छेदक यदि स्वगण से निकलकर अन्यगण के साथ साम्भोगिक व्यवहार स्वीकार करना चाहे तो गणावच्छेदक पद का त्याग किये बिना अन्यगण के साथ साम्भोगिक व्यवहार करना नहीं कल्पता है। किन्तु गणावच्छेदक का पद छोड़कर अन्यगण के साथ साम्भोगिक व्यवहार करना कल्पता है। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214] [बृहत्कल्पसूत्र आचार्य यावत् गणावच्छेदक को पूछे बिना अन्यगण के साथ साम्भोगिक व्यवहार करना नहीं कल्पता है। किन्तु प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक को पूछकर अन्यगण के साथ साम्भोगिक व्यवहार करना कल्पता है। यदि वे आज्ञा दें तो अन्यगण के साथ साम्भोगिक व्यवहार करना कल्पता है / यदि वे प्राज्ञा न दें तो अन्यगण के साथ साम्भोगिक व्यवहार करना नहीं कल्पता है। यदि वहाँ संयमधर्म की उन्नति होती हो तो अन्यगण के साथ साम्भोगिक व्यवहार करना कल्पता है। किन्तु जहां संयम-धर्म की उन्नति न होती हो तो अन्यगण के साथ साम्भोगिक व्यवहार करना नहीं कल्पता है। 25. प्राचार्य या उपाध्याय यदि स्वगण से निकलकर अन्यगण के साथ साम्भोगिक व्यवहार करना चाहे तो--- प्राचार्य, उपाध्याय पद का त्याग किये विना अन्यगण के साथ साम्भोगिक व्यवहार करना नहीं कल्पता है। किन्तु उन्हें अपने पदों का त्याग करके अन्यगण के साथ साम्भोगिक व्यवहार करना कल्पता है। __ प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक को पूछे विना अन्यगण के साथ साम्भोगिक व्यवहार करना नहीं कल्पता है। किन्तु आचार्य यावत् गणावच्छेदक को पूछकर अन्यगण के साथ साम्भोगिक व्यवहार करना कल्पता है। यदि वे प्राज्ञा दें तो अन्यगण के साथ साम्भोगिक व्यवहार करना कल्पता है। यदि वे प्राज्ञा न दें तो अन्यगण के साथ साम्भोगिक व्यवहार करना नहीं कल्पता है। यदि वहां संयमधर्म की उन्नति होती हो तो अन्यगण के साथ साम्भोगिक व्यवहार करना कल्पता है। किन्तु जहां संयमधर्म की उन्नति न होती हो तो अन्यगण के साथ साम्भोगिक व्यवहार करना नहीं कल्पता है। विवेचन–साधु मण्डली में एक साथ बैठना-उठना, खाना-पीना तथा अन्य दैनिक कर्तव्यों का एक साथ पालन करना "संभोग" कहलाता है। समवायांगसूत्र के समवाय 12 में संभोग के बारह भेद बतलाये गये हैं, वे इस प्रकार हैं१. उपधि-वस्त्र-पात्र आदि उपकरणों को परस्पर देना-लेना। 2. श्रुत-शास्त्र की वाचना देना-लेना। 3. भक्त-पान-परस्पर आहार-पानी या औषध का लेन-देन करना। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक] [215 4. अञ्जलिप्रग्रह-संयमपर्याय में ज्येष्ठ साधुनों के पास हाथ जोड़कर खड़े रहना या उनके सामने मिलने पर मस्तक झुका कर हाथ जोड़ना / 5. दान-शिष्य का देना-लेना। 6. निमन्त्रणशय्या, उपधि, आहार, शिष्य एवं स्वाध्याय आदि के लिए निमंत्रण देना / 7. अभ्युत्थान-दीक्षापर्याय में किसी ज्येष्ठ साधु के आने पर खड़े होना / 8. कृतिकर्म-अंजलिग्रहण, आवर्तन, मस्तक झुका कर हाथ जोड़ना एवं सूत्रोच्चारण कर विधिपूर्वक वन्दन करना। 9. वैयावृत्य-अंग-मर्दन आदि शारीरिक सेवा करना, आहार आदि लाकर के देना, वस्त्रादि सीना या धोना, मल-मूत्र आदि परठना एवं ये सेवाकार्य अन्य भिक्षु से करवाना। 10. समवसरण-एक ही उपाश्रय में बैठना सोना रहना प्रादि प्रवृतियां करना। 11. सन्निषद्या-एक आसन पर बैठना अथवा बैठने के लिए प्रासन देना। 12. कथा-प्रबन्ध-सभा में एक साथ बैठकर या खड़े रहकर प्रवचन देना। एक गण के या अनेक गणों के साधुअों में ये बारह ही प्रकार के परस्पर व्यवहार विहित होते हैं, वे परस्पर “साम्भोगिक" साधु कहे जाते हैं। जिन साधुओं में "भक्त-पान" के अतिरिक्त ग्यारह व्यवहार होते हैं, वे परस्पर अन्य-साम्भोगिक साधु कहे जाते हैं। प्राचार-विचार लगभग समान होने से वे समनोज्ञ साधु भी कहे जाते हैं / ___ समनोज्ञ साधुओं के साथ ही ये ग्यारह या बारह प्रकार के व्यवहार किये जाते हैं किन्तु असमनोज्ञ अर्थात् पार्श्वस्थादि एवं स्वच्छंदाचारी के साथ ये बारह प्रकार के व्यवहार नहीं किये जाते हैं / लोकव्यवहार या अपवाद रूप में गीतार्थ के निर्णय से उनके साथ कुछ व्यवहार किये जा सकते हैं। उनका कोई प्रायश्चित्त नहीं है। अकारण या गीतार्थ के अभाव में ये व्यवहार करने पर प्रायश्चित्त आता है। गृहस्थ के साथ ये सभी व्यवहार नहीं किये जाते हैं। साध्वियों के साथ उत्सर्गविधि से छह व्यवहार ही होते हैं एवं छह व्यवहार आपवादिक स्थिति में किये जा सकते हैं। उत्सर्ग व्यवहार अपवाद व्यवहार 1. श्रुत (दूसरा) 1. उपधि (पहला) 2. अंजलिप्रग्रह (चौथा) 2. भक्त-पान (तीसरा) 3. शिष्यदान (पांचवां) 3. निमन्त्रण (छठा) 4. अभ्युत्थान (सातवां) 4. वैयावृत्य (नवमा) 5. कृतिकर्म (आठवां) 5. समवसरण (दसवां) 6. कथा-प्रबन्ध (बारहवां) 6. सन्निषद्या (ग्यारहवां) ये बारह व्यवहार गृहस्थ के साथ करने पर गुरु चौमासी प्रायश्चित आता है। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216] [बृहत्कल्पसूत्र स्वच्छंदाचारी के साथ ये व्यवहार करने पर गुरुचौमासी और पार्श्वस्थादि के साथ करने पर लघुचौमासी या लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। साध्वियों के साथ अकारण आपवादिक व्यवहार करने पर लघुचौमासी और गीतार्थ की आज्ञा के विना करने पर गुरुचौमासी प्रायश्चित्त अाता है / _ अन्य साम्भौगिक समनोज्ञ भिक्षुओं के साथ भक्त-पान का व्यवहार करने से लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है। भाष्यकार ने यह भी कहा है कि लोक-व्यवहार या आपवादिक स्थिति में गीतार्थ की निश्रा से भी जो आवश्यक व्यवहार (अंजलिप्रग्रह आदि) पावस्थादि के साथ नहीं करता है, वह भी प्रायश्चित्त का भागी होता है एवं ऐसा करने से जिनशासन की अभक्ति और अपयश होता है / पूर्व सूत्रात्रिक में अध्ययन करने के लिये अल्पकालीन उपसंपदा हेतु अन्य गच्छ में जाने का कथन है और इन सूत्रों में सदा के लिये एक मांडलिक आहार आदि सम्भोग स्वीकार करके अन्य गच्छ में रहने के लिये जाने का वर्णन है। आज्ञा प्राप्त करना और अन्य योग्य भिक्ष को पदवी देना यह पूर्व सूत्रों के समान ही इनमें भी आवश्यक है। इन सूत्रों में प्राज्ञाप्राप्ति के बाद भी एक विकल्प अधिक रखा गया हैयथा--"जत्थुत्तरियं धम्म-विणयं लभेज्जा एवं से कम्पइ / सूत्र-पठित इस वाक्य से यह सूचित किया गया है कि जब कोई साधु यह देखे कि इस संघ में रहते हुए, एक मण्डली में खान-पान एवं अन्य कृतिकर्म करते हुए भाव-विशुद्धि के स्थान पर संक्लेशवृद्धि हो रही है और इस कारण से मेरे ज्ञान दर्शन चारित्र आदि की समुचित साधना नहीं हो रही है, तब वह अपने को संक्लेश से बचाने के लिए तथा ज्ञान-चारित्रादि की वृद्धि के लिए अन्यगण में, जहां पर कि अधिक धर्मलाभ की सम्भावना हो, जाने की इच्छा करे तो वह जिसकी निश्रा में रह रहा है, उसको अनुज्ञा लेकर जा सकता है। किन्तु जिस गच्छ में जाने से वर्तमान अवस्था से संयम की हानि हो, वैसे गच्छ में जाने की जिनाज्ञा नहीं है एवं जाने पर-निशीथ उ. 16 में कथित प्रायश्चित्त आता है। अतः संयमधर्म की उन्नति हो वैसे गच्छ में जाने का ही संकल्प करना चाहिए / आचार्य आदि को वाचना देने के लिये अन्यगण में जाने का विधि-निषेध 26. भिक्खू य इच्छज्जा अन्नं पायरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए, नो से कप्पड अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अन्नं पायरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए। कप्पइ से आपुच्छित्ता प्रायरियं वाजाव गणावच्छेइयं वा अन्नंआयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए। ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अन्नं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए। ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ अन्न आयरिय-उवज्शायं उद्दिसावेत्तए / नो से कप्पइ तेसि कारणं अदीवेत्ता अन्नं आयरिय-उवज्झायं उहिसावेत्तए। कप्पइ से तेसि कारणं दीवेत्ता अन्न आयरिय-उवज्झायं उदिसावेत्तए। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक] [217 27. गणावच्छेइए य इच्छेज्जा अन्नं आयरिय-उवमायं उद्दिसावेत्तए, नो से कप्पइ गणावच्छेइयत्तं अनिक्खिवित्ता अन्नं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए / __कप्पइ से गणावच्छेइयत्तं निक्खिवित्ता अन्नं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए। नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अन्न आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए। कप्पइ से प्रापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अन्नं पायरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए। ते य से वियरेज्जा, एवं से कप्पइ अन्नं आयरिय-उवमायं उद्दिसावेत्तए / ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अन्नं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए। नो से कप्पइ तेसि कारणं अदीवेत्ता अन्न आयरिय-उवज्शायं उद्दिसावेत्तए। कप्पड़ से तेसि कारणं दीवेत्ता अन्नं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए / 28. आयरिय-उवज्माए य इच्छेज्जा अन्नं आयरिय-उवज्झायं उदिसावेत्तए, नो से कप्पड़ आयरिय-उवझायत्तं अनिक्खवित्ता अन्नं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए। कप्पइ से आयरिय-उवज्शायत्तं निक्खिवित्ता अन्नं आयरिय-उवझायं उद्दिसावेत्तए / नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अन्नं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए। कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वाअन्नं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए। ते य से वियरेज्जा, एवं से कप्पइ आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए। ते य से वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अन्नं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए / नो से कप्पइ तेसि कारणं अदीवेत्ता अन्नं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए। कप्पइ से तेसि कारणं दीवेत्ता अन्नं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए / 26. भिक्षु यदि अन्य गण के आचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिए (या उनका नेतृत्व करने के लिए) जाना चाहे तो-- अपने प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक को पूछे बिना अन्य प्राचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिए जाना नहीं कल्पता है। किन्तु अपने प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक को पूछकर अन्य प्राचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना कल्पता है / यदि वे प्राज्ञा दें तो अन्य प्राचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना कल्पता है। यदि वे आज्ञा न दें तो अन्य प्राचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना नहीं कल्पता है। - उन्हें कारण बताये बिना अन्य आचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना नहीं कल्पता है। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218] [बृहत्कल्पसूत्र किन्तु उन्हें कारण बताकर ही अन्य प्राचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना कल्पता है / 27. गणावच्छेदक यदि अन्यगण के प्राचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये (या उनका नेतृत्व करने के लिये) जाना चाहे तो उसे अपना पद छोड़े बिना अन्य प्राचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना नहीं कल्पता है। किन्तु अपना पद छोड़कर अन्य आचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना कल्पता है / अपने आचार्य यावत् गणावच्छेदक को पूछे बिना अन्य प्राचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना नहीं कल्पता है / किन्तु अपने प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक को पूछ कर अन्य आचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना कल्पता है। यदि वे आज्ञा दें तो अन्य आचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना कल्पता है। यदि वे आज्ञा न दें तो अन्य प्राचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना नहीं कल्पता है। उन्हें कारण बताए बिना अन्य प्राचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना नहीं कल्पता है। किन्तु उन्हें कारण बताकर ही अन्य प्राचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना कल्पता है। 28. प्राचार्य या उपाध्याय अन्य प्राचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये (या उनका नेतृत्व करने के लिये) जाना चाहें तो उन्हें अपना पद छोड़े बिना अन्य प्राचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना नहीं कल्पता है। किन्तु अपना पद छोड़कर अन्य आचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना कल्पता है। उन्हें अपने प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक को पूछे बिना अन्य प्राचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना नहीं कल्पता है / किन्तु आचार्य यावत् गणावच्छेदक को पूछकर अन्य प्राचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना कल्पता है। यदि वे आज्ञा दें तो अन्य प्राचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना कल्पता है। यदि वे आज्ञा न दें तो अन्य प्राचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना नहीं कल्पता है। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक] [219 उन्हें कारण बताए बिना अन्य आचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना नहीं कल्पता है। किन्तु उन्हें कारण बताकर ही अन्य प्राचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना कल्पता है। विवेचन-प्रथम सूत्रत्रिक में अध्ययन हेतु कुछ समय के लिये अन्य गण में जाने की विधि कही है। द्वितीय सूत्रत्रिक में संयम-समाधि एवं चित्त-समाधि हेतु संभोग के लिये अन्य गण में जाने की विधि कही है। तृतीय सूत्रत्रिक में 'उद्दिसावित्तए' क्रिया का प्रयोग करके अन्य प्राचार्य, उपाध्याय को अपनी उपसंपदा धारण करवाने के लिये जाने का कथन किया गया है / इस तृतीय सूत्रत्रिक में 'जत्युत्तरियं धम्मविणयं लभेज्जा' यह विकल्प न होने से अन्यगण में सदा के लिए सर्वथा जाने का कथन नहीं है। सदा के लिए जाने का कथन दूसरे त्रिक में किया गया है और अध्ययन करने के लिए उपसंपदा धारण करना प्रथम त्रिक में कहा गया है। अत: इस तृतीय त्रिक में अध्ययन करवाने (आदि) के लिये अन्य गण में जाने का अर्थ करना हो प्रसंगसंगत है / सूत्र में अंतिम विकल्प है 'कप्पइ तेसि कारणं दीवेत्ता' इसका तात्पर्य यह है कि अध्ययन कराने के लिये जाने में ऐसा क्या विशिष्ट कारण है, इसका स्पष्टीकरण करना आवश्यक होता है / क्योंकि विशिष्ट कारणयुक्त परिस्थिति न हो तो अध्ययन कराने वाले का जाना व्यावहारिक रूप से शोभाजनक नहीं है किन्तु अध्ययन करने वाले का पाना ही उचित होता है। अध्ययन कराने हेतु जाने के कुछ कारण-- 1. किसी गच्छ के नये बनाये गये प्राचार्य को श्रुत-अध्ययन करना आवश्यक हो एवं गच्छ का भार अन्य को सौंप कर पाना संभव न हो। 2. किसी गच्छ का नया बनाया गया प्राचार्य किसी का पुत्र-पौत्र-दुहित्र आदि हो एवं उसके अध्ययनार्थ आने की परिस्थिति न हो / 3. किसी गच्छ का प्राचार्य किसी विकट या उलझनभरी परिस्थिति में हो और वह किसी साधु का पूर्व उपकारी हो। इत्यादि परिस्थितियों में किसी का जाना आवश्यक हो सकता है। इसी प्राशय से इस तृतीय सूत्रत्रिक का कथन किया गया है, ऐसा समझना उचित है। फाल-गत भिक्षु के शरीर को परठने की विधि 29. भिक्खू या राओ वा वियाले वा आहच्च वीसुभेज्जा, तं च सरीरगं केइ वेयावच्चकरे भिक्खू इच्छेज्जा एगते बहुफासुए पएसे परिद्ववेत्तए। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220] [बृहत्कल्पसूत्र अस्थि य इत्य केइ सागारियसंतिए उवगरणजाए अचित्ते परिहरणारिहे कम्पइ से सागारिकडं गहाय तं सरीरगं एगते बहुफासुए पएसे परिट्ठवेत्ता तत्थेव उवनिक्खिवियव्वे सिया। 29. यदि किसी भिक्षु का रात्रि में या विकाल में निधन हो जाय तो उस मृत भिक्षु के शरीर को कोई वैयावृत्य करने वाला साधु एकान्त में सर्वथा अचित्त प्रदेश पर परठना चाहे तब-- यदि वहां उपयोग में पाने योग्य गृहस्थ का अचित्त उपकरण अर्थात् वहन योग्य काष्ठ हो तो उसे प्रातिहारिक (पुनः लौटाने का कहकर) ग्रहण करे और उससे मृत भिक्षु के शरीर को एकान्त में सर्वथा अचित्त प्रदेश पर परठ कर उस वहन-काष्ठ को यथास्थान रख देना चाहिए। विवेचन-भिक्षु जहां पर मासकल्प आदि रहा हो वहां उस निवासकाल में यदि भक्तप्रत्याख्यानी साधु का, रुग्ण साधु का अथवा सांप आदि के काटने से किसी अन्य साधु का मरण हो जाय तो उस शव को वसति या उपाश्रय में अधिक समय रखना उचित नहीं है, क्योंकि भाष्यकार कहते हैं कि जिस समय मरण हो उसी समय उस शव को बाहर कर देना चाहिए / अतः वहां वयावृत्य करने वाले साधु यदि चाहें तो वे रात्रि में भी परठने योग्य भूमि पर ले जाकर परठ सकते हैं / परठने के लिये प्रातिहारिक उपकरण की याचना करने का सूत्र में विधान किया गया है / अत: उस नामादि में या उपाश्रय में वहनकाष्ठ या बांस अथवा डोलो अथवा आदि जो भी मिल जाए उसका उपयोग किया जा सकता है एवं पुन: उस उपकरण को लौटाया जा सकता है। पादपोपगमन संथारा वाले के शरीर का दाहसंस्कार तो किया ही नहीं जाता है। किन्तु भक्तप्रत्याख्यान संथारे में दाहसंस्कार का विकल्प भी है। जहां कोई भी दाहसंस्कार करने वाले न हों वहां साधु द्वारा इस सूत्रोक्त विधि के अनुसार किया जाता है, ऐसा समझना चाहिए / क्योंकि भिक्षु तो दाहसंस्कार की प्रारंभजन्य प्रवृति का संकल्प भी नहीं कर सकते। किन्तु जहां श्रावकसंघ हो या अन्य श्रद्धालु गृहस्थ हों वहां वे सांसारिक कृत्य समझकर कुछ लौकिक क्रियाएँ करें तो भिक्षु उससे निरपेक्ष रहते हैं। तीर्थकर एवं अन्य अनेक कालधर्मप्राप्त भिक्षुओं के दाहसंस्कार किये जाने का वर्णन आगमों में भी है / अतः भक्तप्रत्याख्यानमरण वाले भिक्षुत्रों की अन्तिम क्रियाओं के दोनों ही विकल्प हो सकते हैं, यथा 1. साधु के द्वारा परठना या 2. गृहस्थ द्वारा दाहसंस्कार करना। भाष्यकार ने शव को परठने योग्य दिशांत्रों का भी वर्णन किया है / साधुओं के निवासस्थान से दक्षिण-पश्चिमदिशा (नैऋत्यकोण) शव के परठने के योग्य शुभ बतलायी है। इस दिशा में परठने पर संघ में समाधि रहती है / यदि उक्त दिशा में परठने योग्य स्थान न मिले तो दक्षिण दिशा में शव को परठे और उसमें योग्य स्थान न मिलने पर दक्षिण-पूर्व दिशा में परठे। शेष सब दिशाएं शवपरित्याग करने के लिए अशुभ बतलायी गई हैं। उन दिशाओं में शव परठने पर संघ में कलह, भेद और रोगादि की उत्पत्ति सूचित की गई है। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोथा उद्देशक] [221 यदि शव को रात्रि में रखना पड़े तो संघ के साधु रात्रि भर जागरण करते हैं, शव में कोई भूत-प्रेत प्रविष्ट न हो जाय इसके लिए हाथ और पैर के दोनों अंगुष्ठों को डोरी से बांध देते हैं, मुखवस्त्र (मुहपत्ति) से मुख को ढक देते हैं और अंगुली के मध्य भाग का छेदन कर देते हैं, क्योंकि क्षतदेह में भूत-प्रेतादि प्रवेश नहीं करते हैं। शव को ले जाते समय आगे की तरफ पांव करना, परठते समय मुहपत्ति, रजोहरण, चोलपट्टक ये तीन उपकरण अवश्य रखना, इत्यादि बातों का भाष्य में विस्तार से वर्णन किया गया है / व्यव. उद्दे. 7 में विहार करते हुए मार्ग में कालधर्मप्राप्त भिक्षु के शरीर को परठने की विधि का वर्णन किया गया है और यहां उपाश्रय में काल करने वाले भिक्षु के शरीर को परठने का वर्णन है / कलह करनेवाले भिक्षु से सम्बन्धित विधि-निषेध 30. भिक्खू य अहिगरणं कट्ट तं अहिगरणं अविओसवेत्ता, नो से कप्पइ गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, नो से कप्पइ बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, नो से कप्पइ गामाणुगामं दुइज्जित्तए, गणाप्रो वा गणं संकमित्तए, वासावासं वा वत्थए। जत्थेव अप्पणो आयरिय-उवज्झायं पासेज्जा बहुस्सुय-बभागमं, कप्पइ से तस्संतिए पालोइत्तए, पडिक्कमित्तए, निन्दित्तए, गरिहित्तयए, विउट्टित्तए, विसोहित्तए, अकरणाए अब्भुट्टित्तए, अहारिहं तवोक्कम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जित्तए / से य सुएण पविए आइयत्वे सिया, से य सुरण नो पविए नो पाइयव्वे सिया। से य सुएण पट्ठविज्जमाणे नो आइयइ, से निज्जूहियब्वे सिया। 30. यदि कोई भिक्ष कलह करके उसे उपशान्त न करे तोउसे गृहस्थों के घरों में भक्त-पान के लिए निष्क्रमण-प्रवेश करना नहीं कल्पता है। उसे उपाश्रय से बाहर स्वाध्यायभूमि में या उच्चार-प्रस्रवणभूमि में जाना-बाना नहीं कल्पता है। उसे ग्रामानुग्राम विहार करना नहीं कल्पता है / उसे एक गण से गणान्तर में संक्रमण करना और वर्षावास रहना नहीं कल्पता है। किन्तु जहां अपने बहुश्रुत और बागमज्ञ प्राचार्य और उपाध्याय हों उनके समीप आलोचना करे, प्रतिक्रमण करे, निन्दा करे, गर्दा करे, पाप से निवृत्त हो, पाप-फल से शुद्ध हो, पुनः पापकर्म न करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हो और यथायोग्य तप रूप प्रायश्चित्त स्वीकार करे। वह प्रायश्चित्त यदि श्रुतानुसार दिया जाए तो उसे ग्रहण करना चाहिए किन्तु श्रुतानुसार न दिया जाए तो उसे ग्रहण नहीं करना चाहिये। यदि श्रुतानुसार प्रायश्चित्त दिये जाने पर भी जो स्वीकार न करे तो उसे गण से निकाल देना चाहिए। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222] [बृहत्कल्पसूत्र विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में तीव्र कषाय एवं बहुत बड़े कलह को अपेक्षा से कथन किया गया है / ऐसी स्थिति में भिक्षु का मन उद्विग्न हो जाता है, चेहरा संतप्त हो जाता है तथा बोलने का विवेक भी नहीं रहता है। अतः उसे सूत्र-निर्दिष्ट कार्यों से उपाश्रय के बाहर जाना उचित नहीं है। किन्तु कषाय भावों की उपशांति होने पर ही गोचरी आदि के लिए जाना उचित है। सर्वप्रथम कषाय को उपशांत करना और उसके बाद प्राचार्य आदि जो भी बहुश्रुत वहां हों, उनके पास आलोचना (प्रायश्चित) करके कलह से निवृत्त होना आवश्यक है। ___ कलह से निवृत्त नहीं होने पर वह संयमभाव से भी च्युत हो जाता है और क्रमशः अधिक से अधिक प्रायश्चित्त का भागी होता है / कभी दुराग्रह एवं अनुपशांत होने पर अनुशासन के लिये उसे आलोचना किये बिना प्रायश्चित्त दिया जा सकता है। यदि समझाने पर भी वह न समझे एवं प्रायश्चित्त या अनुशासन स्वीकार न करे तो उसे गच्छ से अलग कर देने का भी सूत्र में विधान किया गया है अर्थात् उसके साथ मांडलिक पाहार एवं वंदना आदि व्यवहार नहीं रखा जाता है। सूत्र में विनय, अनुशासन एवं उपशांति के विधान के साथ और न्यायसंगत सूचना की गई है-प्रायश्चित्त ग्रहण करने वाला भिक्षु बहुश्रुत हो एवं प्रायश्चित्तदाता निष्पक्ष भाव न रखकर आगम विपरीत प्रायश्चित्त उसे देने का निर्णय करे तो वह उस प्रायश्चित्त को अस्वीकार कर सकता है। सूत्र के इस निर्देश से यह स्पष्ट होता है कि सूत्रविपरीत प्राज्ञा किसी की भी हो, उसे अस्वीकार करने से जिनाज्ञा की विराधना नहीं होती है, किन्तु अगीतार्थ अथवा अबहुश्रुत के लिए यह विधान नहीं है। परिहार-कल्पस्थित भिक्षु को वैयावृत्य करने का विधान 31. परिहारकप्पट्ठियस्स णं भिक्खुस्स कप्पइ आयरिय-उवमायाणं तदिवसं एगगिर्हसि पिंडवाय दवावेत्तए। तेण परं नो से कप्पइ असणं वा जाव साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाऊ वा कप्पड से अन्नयरं वेयावडियं करेत्तए, तं जहा-- अट्ठावणं वा, निसीयावणं वा, तुयट्टावणं वा, उच्चार-पासवण-खेल-जल्ल-सिंघाणाणं विगिचणं वा विसोहणं वा करेत्तए। अह पुण एवं जाणेज्जा-छिन्नावाएसु पंथेसु आउरे, झिझिए, पिवासिए, तवस्ती, दुबले, किलते, मुच्छेज्ज वा, पवडेज्ज वा, एवं से कप्पइ असणं या जाव साइमं वा दाऊं वा अणुप्पदाऊ वा। 31. जिस दिन परिहारतप स्वीकार करे उस दिन परिहारकल्पस्थित भिक्षु को एक घर से आहार दिलाना प्राचार्य या उपाध्याय को कल्पता है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [223 चौथा उद्देशक] उसके बाद उसे अशन यावत् स्वादिम देना या बार-बार देना नहीं कल्पता है, किन्तु आवश्यक होने पर वैयावृत्य करना कल्पता है, यथा--- परिहारकल्प-स्थित भिक्षु को उठावे, बिठावे, करवट बदलावे, उसके मल-मूत्र, श्लेष्म, कफ आदि परठे, मल-मूत्रादि से लिप्त उपकरणों को शुद्ध करे / ___ यदि प्राचार्य या उपाध्याय यह जाने कि ग्लान, बुभुक्षित, तृषित, तपस्वी, दुर्बल एवं क्लान्त होकर गमनागमन-रहित मार्ग में कहीं मूच्छित होकर गिर जाएगा तो उसे प्रशन यावत् स्वादिम देना या बार-बार देना कल्पता है। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में परिहारकल्प-स्थित साधु के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, यह बतलाया गया है / यहां यह विशेष ज्ञातव्य है कि जो साधु संघ के साधुओं के या गृहस्थों के साथ कलह करे, संयम को विराधना करे और प्राचार्य के द्वारा प्रायश्चित्त दिये जाने पर भी उसे स्वीकार न करे, ऐसे साधु को परिहारतपरूप प्रायश्चित्त दिया जाता है / उसको विधि यह है प्रशस्त द्रव्य क्षेत्र काल भाव में उसे परिहारतप में स्थापित करना। तप की निविघ्न समाप्ति के लिए पच्चीस श्वासोच्छ्वास प्रमाण कायोत्सर्ग करना अथवा मन में चतुर्विंशति-स्तवन का चिन्तन करना / तत्पश्चात् चतुर्विंशतिस्तव को प्रकट बोलकर चतुर्विध संघ को परिहारतप वहन कराने की जानकारी देना। जिस दिन उस साधु को परिहार तप में स्थापित किया जाता है उस दिन जहां पर किसी उत्सव आदि के निमित्त से सरस आहार बना हो, वहां पर आचार्य उसे साथ ले जाकर मनोज्ञ भक्तपान दिलाते हैं, जिससे जनसाधारण को यह ज्ञात हो जाता है कि इसे कोई विशिष्ट तप वहन कराया जा रहा है किन्तु गच्छ से अलग करना आदि कोई असद्व्यवहार नहीं किया जा रहा है। उसके पश्चात न आचार्य ही उसे भक्त-पान प्रदान करते हैं और न संघ के साधु ही। किन्तु जो साधु उसकी वैयावृत्य के लिए प्राचार्य द्वारा नियुक्त किया जाता है, वह उसके खान-पान एवं समाधि का ध्यान रखता है। परिहारतप करने वाला साधु जब स्वयं उठने-बैठने एवं चलने-फिरने आदि कार्य करने में असमर्थ हो जाता है, तो उसकी वैयावृत्य करने वाला साधु उसकी सहायता करता है और गोचरी लाने में असमर्थ हो जाने पर भक्त-पान लाकर के उसे देता है। परिहारतपस्थित साधु तप के पूर्ण होने तक मौन धारण किये रहता है और अपने मन में अपने दोषों का चिन्तन करता हुआ तप को पूर्ण करता है। परिहारतप एक प्रकार से संघ से बहिष्कृत करने का सूचक प्रायश्चित्त है, फिर भी उसके साथ कैसी सहानुभूति रखी जानी चाहिए, यह इस सूत्र में तथा विवेचन में प्रतिपादन किया गया है। परिहारिक तप सम्बन्धी अन्य विवेचन निशीथ. उ. 4 तथा उ. 20 में भी किया गया है / महानदी पार करने के विधि-निषेध 32. णो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथोण वा इमाओ उद्दिट्ठाम्रो गणियाओ वियंजियाओ पंच महण्णवाओ महाणईयो अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरित्तए वा संतरित्तए वा, तं जहा Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224] [बहत्कल्पसूत्र 1. गंगा, 2. जउणा, 3. सरयू, 4. एरावई (कोसिया), 5. मही। अह पुण एवं जाणेज्जा एरावई कुणालाए जत्थ चक्किया एगं पायं जले किच्चा, एगं पायं थले किच्चा, एवं गं कप्पइ अंतोमासस्स दुक्खुत्तो वा, तिवखुत्तो वा उत्तरित्तए वा संतरित्तए वा। जत्थ एवं नो चक्किया एवं णं नो कप्पइ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा, तिक्खुत्तो वा उत्तरित्तए वा संतरित्तए वा। 32. निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को महानदी के रूप में कही गई, गिनाई गई प्रसिद्ध और बहत जल वाली ये पांच महानदियां एक मास में दो या तीन बार तैरकर पार करना या नौका से पार करना नहीं कल्पता है। वे ये हैं 1. गंगा, 2. जमुना, 3. सरयु, 4. ऐरावती (कोशिक) और 5. मही। किन्तु यदि जाने कि कुणाला नगरी के समीप जो ऐरावती नदी है वह एक पैर जल में और एक पैर स्थल (आकाश) में रखते हुए पार की जा सकती है तो उसे एक मास में दो या तीन बार उतरना या पार करना कल्पता है। यदि उक्त प्रकार से पार न की जा सके तो उस नदी को एक मास में दो या तीन बार उतरना या पार करना नहीं कल्पता है / विवेचन-जिन नदियों में निरन्तर जल बहता रहता है और अगाध जल होता है वे 'मदानदियां' कही जाती हैं। भारतवर्ष में सूत्रोक्त पांच के अतिरिक्त सिन्धू, ब्रह्मपुत्रा आदि अनेक नदियां हैं, उन सबका महार्णव और महानदी पद से संग्रह कर लिया गया है। सूत्र में प्रयुक्त 'उत्तरित्तए' पद का अर्थ है-स्वयं जल में प्रवेश करके पार करना तथा 'संतरित्तए' पद का अर्थ है-नाव आदि में बैठकर पार करना। साधू के स्वयं जल में प्रवेश करके पार करने पर जलकायिक जीवों की विराधना होती ही है और नदी के तल में स्थित कण्टक आदि पैर में लगते हैं। कभी जलप्रवाह के वेग से बह जाने पर आत्म-विराधना भी हो सकती है। नाव आदि से पार करने पर जल के जीवों की विराधना के साथ-साथ षट्कायिक जीवों की विराधना भी होती है और नाविक के सहयोग पर निर्भर रहना पड़ता है / नाविक नदी पार कराने के पहिले या पीछे शुल्क मांगे तो देने की समस्या भी उत्पन्न होती है, इत्यादि अनेक दोषों की संभावना रहती है। यदि विशेष कारण से पार जाने-माने का अवसर प्रा जाय तो एक मास में एक बार ही पार करना चाहिए, क्योंकि सूत्र में दो या तीन बार नावादि से पार उतरने का स्पष्ट निषेध किया है। अन्य विवेचन के लिए निशीथ. उद्दे. 12 सूत्र 44 का विवेचन देखें। कुणाला नगरी और ऐरावती नदी का निर्देश उपलक्षण रूप है, अतः जहां साधुगण मासकल्प या वर्षाकल्प से रह रहे हों और उस नगर के समीप भी कोई ऐसी उथली नदी हो, जिसका कि जल Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक] [225 जंघार्ध प्रमाण बहता हो तो तथा उसके जल में एक पैर रखते हुए और एक पैर जल से ऊपर करते हुए चलना सम्भव हो तो साधु अन्य निर्दोष मार्ग के निकट न होने पर जा सकता है। यतना से नदी पार करने पर कायोत्सर्ग का प्रायश्चित्त करना आवश्यक है एवं जीव-विराधना के कारण निशीथ उ. 12 के अनुसार चातुर्मासिक प्रायश्चित्त भी पाता है। घास से ढकी हुई छत वाले उपाश्रय में रहने के विधि-निषेध 33. से तणेसुवा, तणपुजेसु धा, पलालेसु वा, पलालपुजेसुवा, अप्पंडेसु जाव मक्कडासंताणएसु, अहे सवणमायायाए नो कप्पइ निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा, तहप्पगारे उवस्सए हेमंत-गिम्हासु वत्थए / 34. से तणेसु वा तणपुजेसु बा, जाव मक्कडासंताणएसु उप्पि सवणमायाए, कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए हेमंत गिम्हासु वत्थए / ___35. से तणेसु वा, तणपुजेसु वा जाव मक्कडासंताणएसु अहे रयणिमुक्कमउडेसु, नो कप्पड़ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए वासावासं वत्थए / 36. से तणेसु वा, तणपुजेसु वा जाव मक्कडासंताणएसु उप्पिं रयणिमुक्कमउडेसु, कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए वासावासं वत्थए। 33. जो उपाश्रय तृण तृणपुज पराल या परालपुज से बना हो और वह अंडे यावत् मकड़ी के जालों से रहित हो तथा उस उपाश्रय के छत की ऊंचाई कानों से नीची हो तो ऐसे उपाश्रय में निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को हेमन्त व ग्रीष्म ऋतु में रहना नहीं कल्पता है / 34. जो उपाश्रय तृण या तृणपुंज से बना हो यावत् मकड़ी के जालों से रहित हो तथा उस उपाश्रय की छत की ऊंचाई कानों से ऊंची हो तो ऐसे उपाश्रय में निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को हेमन्त तथा ग्रीष्म ऋतु में रहना कल्पता है। 35. जो उपाश्रय तृण या तृणपुंज से बना हो यावत् मकड़ी के जालों से रहित हो किन्तु उपाश्रय के छत की ऊंचाई खड़े व्यक्ति के सिर से ऊपर उठे सीधे दोनों हाथों जितनी ऊंचाई से नीची हो तो ऐसे उपाश्रय में निर्ग्रन्थ एवं निर्ग्रन्थियों को वर्षावास में रहना नहीं कल्पता है / 36. जो उपाश्रय तृण या तृणपुज से बना हो यावत् मकड़ी के जालों से रहित हो और उस उपाश्रय के छत की ऊंचाई खड़े व्यक्ति के सिर से ऊपर उठे सीधे दोनों हाथों जितनी ऊंचाई से अधिक हो, ऐसे उपाश्रय में निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थियों को वर्षावास में रहना कल्पता है / विवेचन--उपर्युक्त चार सूत्रों में से प्रथम सूत्र में यह बतलाया गया है कि जिस उपाश्रय की छत सूखे घास या सूखे धान्य आदि के पलाल भूसा-फूस आदि से बनी हो, जिसमें अण्डे न हों, त्रस जीव भी न हों, हरित अंकुर भी न हों, अोसबिन्दु भी न हों और कीड़ी-मकोड़ी के घर भी न हों, लीलन-फूलन या कीचड़ आदि भी न हो और मकड़ी का जाला आदि भी न हो। किन्तु उस छत की Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226] [बृहत्कल्पसूत्र ऊंचाई साधु के कानों से नीची हो तो ऐसे उपाश्रय में साधु या साध्वियों को हेमन्त और ग्रीष्म काल में भी नहीं रहना चाहिए। दूसरे सूत्र में बतलाया है उक्त प्रकार के उपाश्रय की ऊंचाई यदि साधु के कानों से ऊंची हो तो उसमें साधु और साध्वियां हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में ठहर सकते हैं / तीसरे सूत्र में यह बतलाया है कि उक्त प्रकार के शुद्ध उपाश्रय की ऊंचाई यदि रत्निमुक्तमुकुट से नीची हो तो उस उपाश्रय में वर्षावास बिताना साधु-साध्वियों को नहीं कल्पता है। चौथे सूत्र में यह बताया गया है कि यदि छत की ऊंचाई रत्नि-मुक्तमुकुट से ऊंची हो तो उसमें साधु-साध्वी वर्षावास रह सकते हैं। __ रत्नि नाम हाथ का है / दोनों हाथों को ऊंचा करके दोनों अंजलियों को मिलाने पर मुकुट जैसा आकार हो जाता है, अत: उसे रलि-मुक्तमुकुट कहते हैं। कान की ऊंचाई से भी कम ऊंचाई वाले घास की छत बाले मकान में खड़े होने पर घास के स्पर्श से घास या मिट्टी आदि के कण बार-बार नीचे गिरते रहते हैं। अतः वहां हेमन्त ग्रीष्म ऋतु में एक-दो रात रह कर विहार कर देना चाहिए। चातुर्मास में लम्बे समय तक रहना निश्चित्त होता है / इतने लम्बे समय में हाथ ऊंचे करने का अनेक बार प्रसंग आ सकता है, अतः हाथ ऊंचे करने पर घास का स्पर्श न हो इतने ऊंचे घास की छत वाले मकान में चातुर्मास किया जा सकता है। नीची छत वाले उपाश्रय में रहने के निषेध का कारण भाष्य में यह भी बतलाया है कि साधु-साध्वियों को इतने नीचे उपाश्रय में आते-जाते झुकना पड़ेगा, भीतर भी सीधी रीति से नहीं खड़ा हो सकने के कारण वन्दनादि करने में भी बाधा पाएगी। सीधे खड़े होने पर सिर के टकराने का या ऊपर रहने वाले बिच्छू आदि के डंक लगने की सम्भावना रहती है। सूत्र-पठित “अप्पडेसु अप्पपाणेसु" आदि पदों में 'अल्प' शब्द अभाव अर्थ में है / बीज या मृत्तिकादि से युक्त तृणादि वाले उपाश्रय में ठहरने पर चतुर्लघुक और अनन्तकायपनक प्रादि युक्त उपाश्रय में ठहरने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है। इसी प्रकार प्रतिपादित ऊंचाई से नीचे उपाश्रय में रहने पर भी चतुर्लघु प्रायश्चित्त पाता है। भाष्यकार ने यह भी बताया है कि वर्षावास में उक्त प्रकार के उपाश्रय में रहते हुए यदि तृणाच्छादन में सांप का निवास प्रतीत हो तो उसे विद्या से मंत्रित कर दे / यदि ऐसा न कर सके तो उक्त पाच्छादान के नीचे चंदोवा बंधवा दे। ऐसा भी सम्भव न हो तो ऊपर बांस की चटाई लगा देना चाहिए, जिससे कि ऊपर से सांप द्वारा लटककर काटने का भय न रहे, यदि चटाई लगाना भी सम्भव न हो तो रहने वाले साधुओं को चिलमिलिका का उपयोग करना चाहिए। उपयुक्त सर्व कथन उस उपाश्रय या वसति का है, जो कि घास-फूस आदि से निर्मित और आच्छादित है या जिसके ऊपरी भाग में घास आदि रखा हो, किन्तु पत्थर आदि से निर्मित मकान में रहने का कोई निषेध नहीं है। फिर भी योग्य ऊंचाई वाले मकान में रहना संयम एवं शरीर के Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौया उद्देशक] [227 लिये समाधिकारक होता है। इसलिए योग्य ऊंचाई वाली छत हो, ऐसे मकान में ही यथासम्भव ठहरना चाहिए। चौथे उद्देशक का सारांश सूत्र 1 हस्तकर्म, मैथुनसेवन एवं रात्रिभोजन का अनुद्घातिक प्रायश्चित्त पाता है। तीन प्रकार के दोष सेवन करने पर पारांचिक प्रायश्चित्त पाता है। तीन प्रकार के दोष सेवन करने पर अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त आता है। तीन प्रकार के नपुंसकों को दीक्षित, मुडित या उपस्थापित करना आदि नहीं कल्पता। 10-11 तीन अवगुण वाले को वाचना नहीं देना चाहिए, किन्तु तीन गुण वाले को वाचना देना योग्य है। 12-13 तीन प्रकार के व्यक्तियों को समझाना कठिन होता है और तीन प्रकार के व्यक्तियों को समझाना सरल 14-15 सेवा करने वाले के अभिप्राय से स्पर्श आदि करने पर भिक्षु मैथुन सेवन के संकल्प युक्त सुखानुभव करे तो उसे चतुर्थ व्रत के भंग होने का प्रायश्चित्त पाता है। प्रथम प्रहर में ग्रहण किया आहार-पानी चतुर्थ प्रहर में नहीं रखना। दो कोस से आगे आहार-पानी नहीं ले जाना। अनाभोग से ग्रहण किये अनेषणीय आहारादि को नहीं खाना, किन्तु अनुपस्थापित नवदीक्षित भिक्षु खा सकता है। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के साधुओं को कोई भी प्रौद्देशिक आहार ग्रहण करना नहीं कल्पता है, अन्य तीर्थंकर के साधुओं को कल्पता है। अन्य गण में अध्ययन करने हेतु, गणपरिवर्तन करने हेतु एवं अध्ययन कराने हेतु जाना हो तो प्राचार्य आदि की आज्ञा लेकर सूत्रोक्त विधि से कोई भी साधु या पदवीधर जा सकता है। कालधर्मप्राप्त भिक्षु को उसके सार्मिक साधु प्रतिहारिक उपकरण लेकर गांव के बाहर एकान्त में परठ सकते हैं। क्लेश को उपशांत किये बिना भिक्षु को गोचरी आदि नहीं जाना चाहिये / क्लेश को उपशांत करने पर यथोचित प्रायश्चित्त ही देना एवं लेना चाहिए। प्राचार्य परिहारतप वहन करने वाले को साथ ले जाकर एक दिन गोचरी दिलवाए, बाद में आवश्यक होने पर ही वैयावृत्य आदि कर सकते हैं। अधिक प्रवाह वाली नदियों को एक मास में एक बार से अधिक बार पार नहीं करना चाहिए, किन्तु जंघार्ध प्रमाण जलप्रवाह वाली नदी को सूत्रोक्त विधि से एक मास में अनेक बार भी पार किया जा सकता है। 20-28 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228] (बृहत्कल्पसूत्र सूत्र 33-36 घास के बने मकानों की ऊंचाई कम हो तो वहां नहीं ठहरना चाहिए, किन्तु अधिक ऊंचाई हो तो ठहरा जा सकता है / उपसंहार सूत्र 1-3 14-15 16-17 18 इस उद्देशक मेंअनुद्धात्तिक, पारांचिक, अनवस्थाप्य प्रायश्चित्तों का, दीक्षा, वाचना एवं शिक्षा के योग्यायोग्यों का, मैथुन भावों के प्रायश्चित्त का, आहार के क्षेत्र, काल की मर्यादा का, अनेषणीय पाहार के उपयोग का, कल्पस्थित अकल्पस्थित के कल्पनीयता का, अध्ययन आदि के लिए अन्य गण में जाने का, कालधर्मप्राप्त भिक्षु को एकान्त में परठने का, क्लेश युक्त भिक्षु के रखने योग्य विवेक का, परिहारतप वाले भिक्षु के प्रति कर्त्तव्यों का, नदी पार करने के कल्प्याकल्प्य का, घास वाले मकानों के कल्प्याकल्प्य का, इत्यादि विषयों का कथन किया गया है। 20-25 29 30 WW. 33-36 // चौथा उद्देशक समाप्त // Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक विकुक्ति दिव्य शरीर के स्पर्श से उत्पन्न मैथुनभाव का प्रायश्चित्त 1. देवे य इत्थिरूवं विउम्वित्ता निग्रोथं पडिग्गाहिज्जा, तं च निग्गथे साइज्जेज्जा मेहणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं / 2. देवे य पुरिसरूवं विउवित्ता निरथि पडिग्गाहिज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा मेहुणपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं / 3. देवी य इत्थिरूवं विउव्वित्ता निग्गंथं पडिग्गाहेज्जा, तं च निग्गथे साइज्जेज्जा मेहुणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइगं / 4. देवी य पुरिसरूवं विउब्दित्ता निग्गथि पडिग्गाहेज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा मेहुणपउिसेवणपत्ता प्रावज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं / 1. यदि कोई देव विकुर्वणाशक्ति से स्त्री का रूप बनाकर निर्ग्रन्थ का आलिंगन करे और निर्ग्रन्थ उसके स्पर्श का अनुमोदन करे तो (मैथुनसेवन नहीं करने पर भी) भावों से मैथुनसेवन के दोष को प्राप्त होता है / अत: वह अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का पात्र होता है। 2. यदि कोई देव विकुर्वणा शक्ति से पुरुष का रूप बनाकर निर्ग्रन्थी का आलिंगन करे और निर्ग्रन्थी उसके स्पर्श का अनुमोदन करे तो (मैथुनसेवन नहीं करने पर भी) भावों से मैथुनसेवन के दोष को प्राप्त होती है / अतः वह अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त की पात्र होती है / 3. यदि कोई देवी विकुर्वणा शक्ति से स्त्री का रूप बनाकर निर्ग्रन्थ का आलिंगन करे और निर्ग्रन्थ उसके स्पर्श का अनुमोदन करे तो (मैथुनसेवन नहीं करने पर भी) भावों से मैथुनसेवन के दोष को प्राप्त होता है / अतः वह अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का पात्र होता है। 4. यदि कोई देवी पुरुष का रूप बनाकर निर्ग्रन्थी का आलिंगन करे और निर्ग्रन्थी उसके स्पर्श का अनुमोदन करे तो (मैथुनसेवन नहीं करने पर भी) भावों से मैथुनसेवन के दोष को प्राप्त होती है / अतः वह अनुद्धातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त की पात्र होती है / विवेचन-इन चार सूत्रों में केवल मैथुनभावों का प्रायश्चित्त कहा गया है। किसी निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी को देखकर कोई देव या देवी मनुष्य या मानुषी का रूप बनाकर मैथुन के संकल्पों से निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी का आलिंगन आदि करे और इससे विचलित होकर निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी आलिंगनादि से सुखानुभव करे या मैथुनसेवन की अभिलाषा करे तो वे गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 [बृहत्कल्पसुत्र तात्पर्य यह है कि देव या देवी के विकुर्वित स्त्री रूप के स्पर्श का अनुमोदन करने से साधु को प्रायश्चित्त आता है और देव या देवी के विकुर्वित पुरुष रूप के स्पर्श का अनुमोदन करने से साध्वी को प्रायश्चित्त आता है। कलहकृत आगंतुक भिक्षु के प्रति कर्तव्य 5. भिक्खु य अहिगरणं कटु तं अहिगरणं अविनोसवेत्ता इच्छेज्जा अन्नं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरत्तिए कप्पइ तस्स पंच राइंदियं छेयं कटु परिणिवाविय-परिणिव्वाविय दोच्चं पि तमेवं गणं पडिनिज्जाएयन्वे सिया, जहा वा तस्स गणस्स पत्तियं सिया। 5. भिक्ष कलह करके उसे उपशान्त किये बिना अन्यगण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो उसे पांच दिन-रात की दीक्षा का छेद देकर और सर्वथा शान्त-प्रशान्त करके पुनः उसी गण में लौटा देना चाहिये अथवा जिस गण से वह आया है, उस गण को जिस प्रकार से प्रतीति हो उसी तरह करना चाहिए। विवेचन--इस सूत्र का अभिप्राय यह है कि यदि कोई भिक्षु किसी कारण से क्रोधित होकर अन्यगण में चला जावे तो उस गण के स्थविरों को चाहिए कि उसे उपदेश देकर शान्त करे और पांच दिन की दीक्षा का छेदन कर पूर्व के गण में वापिस भेज दें। जिससे उस गण के निर्ग्रन्थ भिक्षुत्रों को यह विश्वास हो जाए कि अब इस निर्ग्रन्थ भिक्षु का क्रोध उपशान्त हो गया है। यदि उपाध्याय किसी कारण से क्रोधित होकर अन्यगण में चले जाएँ तो उस गण के स्थविर उन्हें भी कोमल वचनों से प्रशान्त करें और उनकी दश अहोरात्र प्रमाण दीक्षा का छेदन कर उन्हें पूर्व के गण में लौटा दें। यदि प्राचार्यादि भी क्रोधित होकर अन्यगण में चले जाएँ तो उन्हें भी उस गण के स्थविर कोमल वचनों से शान्त करें और उनकी पन्द्रह अहोरात्र प्रमाण दीक्षा का छेदन कर उन्हें पूर्व के गण में लौटा दें। कषाय का व्यापक प्रभाव बताते हुए भाष्यकार ने कहा कि देशोन कोटि (करोड़) पूर्वकाल तक तपश्चरण करके जिस चारित्र का उपार्जन किया है वह एक मुहूर्त प्रमाण काल तक की गई कषाय से नष्ट हो जाता है / अतः निर्ग्रन्थ भिक्षु को कषाय नहीं करना चाहिए / यदि कदाचित् कषाय उत्पन्न हो जाए तो उसे तत्काल शान्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। ___ अपने गण को छोड़कर अन्य गण में आये हुए भिक्षु प्रादि समझाने पर भी पुनः अपने गण में जाना न चाहें तो उस गण के स्थविर सामान्य भिक्षु को दश अहोरात्र, उपाध्याय की पन्द्रह अहोरात्र और प्राचार्य की बीस अहोरात्र दीक्षा का छेदन कर अपने गण में रख सकते हैं, किन्तु रखने के पूर्व सम्भव हो तो उस गण से उसकी जानकारी एवं स्वीकृति प्राप्त कर लेनी चाहिए। रात्रिभोजन के अतिचार का विवेक एवं प्रायश्चित्तविधान 6. भिक्खू य उग्गयवित्तीए अणत्यमिय-संकप्पे संथडिए निन्वितिगिच्छे असणं वा जाव साइमं वा पडिग्गाहेत्ता आहारं प्राहरेमाणे अह पच्छा जाणेज्जा Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा उद्देशक] [231 अणुग्गए सूरिए, अथमिए वा से जं च प्रासयंसि, जं च पाणिसि, जं च पडिग्गहे तं विगिचमाणे वा, विसोहेमाणे वा णो अइक्कमइ। तं अप्पणा भुजमाणे, अन्नेसि वा दलमाणे, राइभोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं / 7. भिक्खू य उग्गयवित्तीए अणत्यमियसंकप्ये संथडिए विइगिच्छासमावण्णे असणं वा जाव साइमं वा पडिग्गाहित्ता आहारं पाहारेमाणे ग्रह पच्छा जाणेज्जा अणुग्गए सूरिए, अथमिए वा से जं च प्रासयंसि, जं च पाणिसि, जं. च पडिग्गहे तं विगिचमाणे वा विसोहेमाणे वा नो जइक्कमइ। तं अप्पणा भुजमाणे, अन्नेसि वा दलमाणे राइभोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासिथं परिहारद्वाणं अणुग्धाइयं / 8. भिक्खू य उग्गयवित्तीए अणथमियसंकप्पे असंथडिए निवितिगिच्छे असणं वा जाव साइमं वा पडिग्गाहेत्ता आहारं आहारेमाणे अह पच्छा जाणेज्जा अणुग्गए सूरिए, प्रत्थमिए वा से जं च आसयंसि, जं च पाणिसि, जं च पडिग्गहे तं विगिचमाणे वा, विसोहेमाणे वा नो अइक्कमइ / तं अप्पणा भुजमाणे अन्नेसि वा दलमाणे राइभोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं / 9. भिक्खू य उग्गयवित्तीए अणथमियसंकप्पे असंथडिए विइगिच्छासमावण्णे असणं वा जाव साइमं वा पडिग्गाहेत्ता आहारं पाहारेमाणे अह पच्छा जाणेज्जा अणुग्गए सूरिए, प्रथमिए वा से जं च आसयंसि, जं च पाणिसि, जं च पडिग्गहे तं विगिचमाणे वा, विसोहेमाणे वा नो अइक्कमइ / तं अप्पणा भुजमाणे, अन्नेसि वा दलमाणे राइभोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं / 6. सूर्योदय के पश्चात् और सूर्यास्त से पूर्व भिक्षाचर्या करने की प्रतिज्ञा वाला तथा सूर्योदय या सूर्यास्त के सम्बन्ध में असंदिग्ध-समर्थ-भिक्षु अशन यावत् स्वादिम ग्रहण कर आहार करता हुआ यदि यह जाने कि सूर्योदय नहीं हुआ है अथवा सूर्यास्त हो गया है, तो उस समय जो आहार मुंह में है, हाथ में है, पात्र में है उसे परठ दे तथा मुख आदि की शुद्धि कर ले तो वह जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। यदि उस आहार को वह स्वयं खावे या अन्य निर्ग्रन्थ को दे तो उसे रात्रिभोजनसेवन का दोष लगता है / अतः वह अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का पात्र होता है / Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232] [बृहत्कल्पसूत्र 7. सूर्योदय के पश्चात् और सूर्यास्त से पूर्व भिक्षाचर्या करने की प्रतिज्ञा वाला किन्तु सूर्योदय या सूर्यास्त के सम्बन्ध में संदिग्ध-समर्थ-भिक्षु अशन यावत् स्वादिम ग्रहण कर आहार करता हुआ यदि यह जाने कि सूर्योदय नहीं हुआ है या सूर्यास्त हो गया है, तो उस समय जो आहार मुह में है, हाथ में है, पात्र में है उसे परठ दे तथा मुख आदि की शुद्धि कर ले तो वह जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। यदि उस आहार को वह स्वयं खावे या अन्य निर्ग्रन्थ को दे तो उसे रात्रिभोजनसेवन का दोष लगता है अतः वह अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का पात्र होता है। 8. सूर्योदय के पश्चात् और सूर्यास्त से पूर्व भिक्षाचर्या करने की प्रतिज्ञा वाला तथा सूर्योदय या सूर्यास्त के सम्बन्ध में असंदिग्धन-समर्थ-भिक्षु प्रशन यावत् स्वादिम ग्रहण कर आहार करता हुआ यदि यह जाने कि-सूर्योदय नहीं हुआ है या सूर्यास्त हो गया है तो उस समय जो आहार मुह में है, हाथ में है, पात्र में है उसे परठ दे तथा मुख आदि की शुद्धि कर ले तो वह जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। यदि उस पाहार को वह स्वयं खावे या अन्य निर्ग्रन्थ को दे तो उसे रात्रिभोजनसेवन का दोष लगता है / अत: वह अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का पात्र होता है / 9. सूर्योदय के पश्चात् और सूर्यास्त से पूर्व भिक्षाचर्या करने की प्रतिज्ञा वाला किन्तु सूर्योदय या सूर्यास्त के सम्बन्ध में संदिग्ध-असमर्थ-भिक्षु अशन यावत् स्वादिम ग्रहण कर आहार करता हुआ यह जाने कि 'सूर्योदय नहीं हुआ है या सूर्यास्त हो गया है तो उस समय जो आहार मुह में है, हाथ में है, पात्र में है उसे परठ दे तथा मुख प्रादि की शुद्धि कर ले तो वह जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। यदि उस आहार को वह स्वयं खावे या अन्य निर्ग्रन्थ को दे तो उसे रात्रिभोजनसेवन का दोष लगता है / अतः वह अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का पात्र होता है / विवेचन-प्रस्तुत इन चार सूत्रों मेंप्रथम सूत्र संस्तृत एवं निविचिकित्स निर्ग्रन्थ की अपेक्षा से कहा गया है / द्वितीय सूत्र संस्तृत एवं विचिकित्स निर्ग्रन्थ की अपेक्षा से कहा गया है / तृतीय सूत्र असंस्तृत एवं निवि चिकित्स निर्ग्रन्थ की अपेक्षा से कहा गया है। चतुर्थ सूत्र असंस्तृत एवं विचिकित्स निर्ग्रन्थ की अपेक्षा से कहा गया है / संस्तृत-शब्द का अर्थ है—समर्थ, स्वस्थ और प्रतिदिन पर्याप्तभोजी भिक्षु / असंस्तृत-शब्द का अर्थ है-असमर्थ, अस्वस्थ तथा तेला आदि तपश्चर्या करने वाला तपस्वी भिक्षु ! असंस्तृत तीन प्रकार के होते हैं--१. तप-असंस्तृत, 2. ग्लान-प्रसंस्तृत, 3. अध्वान-प्रसंस्तृत / 1. तप-प्रसंस्तृत तपश्चर्या करने से जो निर्ग्रन्थ असमर्थ हो गया है। 2. ग्लान-प्रसंस्तृत-रोग आदि से जो निर्ग्रन्थ अशक्त हो गया है। . 3. अध्वान-प्रसंस्तृत-मार्ग की थकान से जो निर्ग्रन्थ क्लान्त हो गया है। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक [233 विचिकित्स-पद का का अर्थ है सूर्योदय हुआ या नहीं अथवा सूर्यास्त हुआ या नहीं, इस प्रकार के संशय वाला भिक्षु / निविचिकित्स–पद का अर्थ है संशयरहित अर्थात् 'सूर्योदय हो गया है' या 'सूर्यास्त नहीं हुआ है'---इस प्रकार के निश्चय वाला निर्ग्रन्थ / निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियां एक देश से अन्य देश में जाते समय बीच में पड़ने वाले बड़े अरण्य-प्रदेशों में आत्मसुरक्षा के लिए कदाचित सार्थवाहों के साथ विहार करें / वह सार्थवाह जहां सूर्यास्त हो वहीं पड़ाव डालकर ठहर जावे / सूर्योदय होते ही आगे चल देवे / ऐसे पड़ावों पर सामने से आने-जाने वाले सार्थवाह भी कभी-कभी एक साथ ही ठहर जावें / उस समय मेघाच्छन्न आकाश में सूर्य न दिखने पर सूर्योदय का भ्रम हो जाने से सार्थवाह आगे के लिए प्रस्थान कर दे तब नया आने वाला सार्थवाह निर्ग्रन्थों या निम्रन्थियों को आहार देना चाहे तो 'सूर्योदय हो गया है' इस संकल्प से आहारादि लेना सम्भव है और उसका सेवन करना भी सम्भव है। / उसी समय बादल दूर हो जाए और उषाकालीन प्रभा दिख जाए या सूर्योदय होता हुआ दिख जाए तो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी को वह आहार परठ देना चाहिए / अन्यथा वह सूत्रोक्त प्रायश्चित्त का भागी होता है। अन्य विवेचन निशीथ उ. 10, सूत्र 28 में देखें / वहां भी ये चार सूत्र इसी प्रकार के कहे गये हैं। उद्गाल सम्बन्धी विवेक एवं प्रायश्चित्त-विधान 10. इह खलु निगंथस्स वा निगंथीए वा राओ वा बियाले वा सपाणे सभोयणे उम्गाले आगच्छेज्जा, तं विगिचमाणे वा विसोहेमाणे वा नो अइक्कमइ / तं उग्गलित्ता पच्चोगिलमाणे राइभोयणपडिसेवणपत्ते प्रावज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं / 10. यदि किसी निर्ग्रन्थ या निम्रन्थी को रात्रि में या विकाल ( सन्ध्या ) में पानी और भोजन सहित उद्गाल आये तो उस समय वह उसे थूक दे और मुह शुद्ध कर ले तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं रहता है। ___यदि वह उद्गाल को निगल जावे तो उसे रात्रि-भोजनसेवन का दोष लगता है और वह अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का पात्र होता है। विवेचन--जब कभी कोई साधु मात्रा से अधिक खा-पी लेता है, तब उसे उद्गाल आता है और पेट का अन्न और पान मुख में आ जाता है / इसलिए गुरुजनों का उपदेश है कि साधु को सदा मात्रा से कम ही खाना-पीना चाहिए। कदाचित् साधु के अधिक मात्रा में आहार-पान हो जाए और रात में या सांयकाल में उद्गाल या जाए तो उसे सूत्रोक्त विधि के अनुसार वस्त्र आदि से मुख को शुद्ध कर लेना चाहिए / जो उस उगाल आये भक्त-पान को वापस निगल जाता है वह सूत्रोक्त प्रायश्चित्त का भागी होता है। इस . विषय को स्पष्ट करने के लिए भाष्यकार ने एक रूपक दिया है। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234] [बृहत्कल्पसूत्र जैसे कड़ाही में मात्रा से कम दूध आदि ओंटाया या रांधा जाता है तो वह उसके भीतर ही उबलता पकता रहता है, बाहर नहीं आता किन्तु जब कड़ाही में भर-पूर दूध या अन्य कोई पदार्थ भर कर ओंटाया या पकाया जाता है तब उसमें उबाल आकर कड़ाही से बाहर निकल जाता है और कभी तो वह चूल्हे की आग तक को बुझा देता है। इसी प्रकार मर्यादा से अधिक आहार करने में उद्गाल आ जाता है और कम आहार करने से उद्गाल नहीं पाता है / ऐसा ही प्रायश्चित्तसूत्र निशीथ उ. 10 में भी है। संसक्त आहार के खाने एवं परठने का विधान 11. निरगंथस्स य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविद्धस्स अंतो पडिग्गहंसि पाणाणि वा, बीयाणि वा, रए वा परियावज्जेज्जा, तं च संचाएइ विगिचित्तए वा विसोहित्तए था, तं पुव्यामेव विगिचिय विसोहिय, तो संजयामेव भुजेज्ज वा, पिएज्ज वा। तं च नो संचाएइ विगिचित्तए वा, विसोहित्तए वा, तं नो अप्पणो भुजेज्जा, नो अन्नेसि दावए, एगते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिट्ठवेयव्वे सिया। 11. गृहस्थ के घर में श्राहार-पानी के लिए प्रविष्ट हुए साधु के पात्र में कोई प्राणी, बीज या सचित्त रज पड़ जाए और यदि उसे पृथक किया जा सके, विशोधन किया जा सके तो उसे पहले पृथक करे या विशोधन करे, उसके बाद यतनापूर्वक खावे या पीवे / यदि उसे पृथक् करना या विशोधन करना सम्भव न हो तो उसका न स्वयं उपभोग करे और न दूसरों को दे, किन्तु एकांत और प्रासुक स्थंडिल-भूमि में प्रतिलेखन प्रमार्जन करके परठ दे। विवेचन-गोचरी के लिए गए हुए साधु या साध्वी को सर्वप्रथम आहार देने वाले व्यक्ति के हाथ में लिए हुए अन्नपिंड का निरीक्षण करना चाहिए कि यह शुद्ध है या नहीं। जीवादि तो उसमें नहीं हैं ? यदि शुद्ध एवं जीवरहित दिखे तो ग्रहण करे, अन्यथा नहीं / देख कर या शोध कर यतना से ग्रहण करते हुए उक्त अन्न-पिंड के पात्र में दिये जाने पर पुनः देखना चाहिए कि पात्र में अन्नपिंड देते समय कोई मक्खी आदि तो नहीं दब गई है, या ऊपर से पाकर तो नहीं बैठ गई है, या अन्य कोड़ी आदि तो नहीं चढ़ गई है ? यदि साधु या साध्वी इस प्रकार सावधानीपूर्वक निरीक्षण न करे तो लधुमास के प्रायश्चित्त का पात्र होता है। कदाचित् गृहस्थ द्वारा आहार देते समय साधु का उपयोग अन्यत्र हो और गृहस्थ के घर से निकलते ही उसका ध्यान पाहार की ओर जावे कि मैं पात्र में लेते समय जीवादि का निरीक्षण नहीं कर पाया हूं तो सात कदम जाए जितने समय के भीतर ही किसी स्थान पर खड़े होकर उसका निरीक्षण करना चाहिए। यदि उपाश्रय समीप हो तो वहां जाकर निरीक्षण करना चाहिए और निरीक्षण करने पर यदि स प्राणी चलते-फिरते दीखे तो उन्हें यतना से एक-एक करके बाहर निकाल देना चाहिए / इसी प्रकार यदि आहार में मृत जीव दीखे या सचित्त बीजादि दीखे अथवा सचित्त-पत्रादि से मिश्रित . आहार दीखे और उनका निकालना संभव हो तो विवेकपूर्वक निकाल देना चाहिए। यदि उनका निकालना संभव न हो तो उसे एकान्त निर्जीव भूमि पर परठ देना चाहिए। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [235 पांचवां उद्देशक] भाष्यकार ने यह भी कहा है कि परठते समय साधु इस बात का भी ध्यान रखे कि जिस गहस्थ के यहां से आहार लाये हैं वह देख तो नहीं रहा है? उसकी आँखों से ओझल ही परठना चाहिए / अन्यथा वह निन्दा करेगा कि देखो ये साधु कैसे उन्मत्त हैं जो ऐसे दुर्लभ प्राहार को ग्रहण करके भी फेंक देते हैं। इस सूत्र का तात्पर्य यह है कि कोई भी सचित्त पदार्थ या सचित्तमिश्रित खाद्य पदार्थ असावधानी से ग्रहण कर लिया जाए और सचित्त पदार्थ शोधन हो सके तो उनका शोधन करके अचित्त आहार खाया जा सकता है। यदि सचित्त पदार्थ ऐसे मिश्रित हों कि उनका निकालना सम्भव न हो तो वह मिश्रित आहार भी परठ देना चाहिए। जैसे-१. दही में प्याज के टुकड़े, 2. शक्कर में नमक, 3. सूखे ठंडे चूरमे आदि में गिरे हुए खशखश आदि के बीज, 4. घेवर या फीणी आदि में कीड़ियों आदि का निकालना सम्भव कम होता है और फूलन एवं रसज जीवों से संसक्त आहार भी शुद्ध नहीं हो सकता है, अतः ये परठने योग्य हैं / सचित्त जल-बिन्दु गिरे आहार को खाने एवं परठने का विधान 12. निग्गंथस्स य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठस्स अंतो पडिग्गहंसि दए वा, दगरए बा, दगफुसिए वा परियावज्जेज्जा से य उसिणभोयणजाए परिभोत्तब्वे सिया। से य सीयभोयणजाए तं नो अप्पणा भुजेज्जा, नो अग्नेसि वावए, एगते बहुफासुए थंडिले पडिलेहिता पमज्जित्ता परिट्टवेयध्वे सिया / 12. गृहस्थ के घर में आहार-पानी के लिए प्रविष्ट साधु के पात्र में यदि सचित्त जल, जलबिन्दु या जलकण गिर जाए और वह पाहार उष्ण हो तो उसे खा लेना चाहिए। ___ वह आहार यदि शीतल हो तो न खुद खावे न दूसरों को दे किन्तु एकान्त और प्रासुक स्थंडिलभूमि में परठ देना चाहिए / विवेचन-पूर्व सूत्र में संसक्त आहार सम्बन्धी विधि का कथन किया गया है और प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि वर्षा से या अन्य किसी की असावधानी से ग्रहण किए हुए आहार पर सचित्त पानी या पानी की बूदें अथवा बारीक छींटे उछलकर गिर जाएँ तो भिक्ष यह जानकारी करे कि वह आहार उष्ण है या शीतल ? यदि उष्ण है तो पानी की बूंदें अचित्त हो जाने से उस आहार को खाया जा सकता है / यथा खीचड़ी, दूध, दाल आदि गर्म पदार्थ / यदि ग्रहण किया हुआ भोजन शीतल है तो उसे नहीं खाना चाहिये किन्तु परठ देना चाहिए, यथा-खाखरा रोटी आदि / इस सूत्र के भाष्य-गाथा. 5910-5912 में स्पष्टीकरण करते हुए शीतल पाहार की मात्रा एवं स्पर्श आदि के विकल्प (भंग) किए हैं एवं गिरी हुई पानी की बूदों आदि को खाद्य पदार्थ से शस्त्रपरिणत होने या नहीं होने की अवस्थाएं बताई गई हैं। उनका सारांश यह है-'व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्तिः' अतः पानी की मात्रा एवं शीत या उष्ण आहार की मात्रा और स्पर्श आदि के Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236] [बृहत्कल्पसूत्र अनुपात से पानी के अचित्त होने का स्वतः निर्णय करना चाहिए एवं अचित्त हो जाए तो खाना चाहिए और सचित्त रहे तो परठ देना चाहिए। आगमों में अनेक खाद्य पदार्थों के अंश युक्त पानी को अचित्त एवं ग्राह्य बताया गया है, अतः शीतल आहार पर गिरी हुई पानी की बूदों के शस्त्रपरिणत होने की पूर्ण सम्भावना रहती है। जिस प्रकार गर्म पाह वह आहार खाया जा सकता है, वैसे ही कालान्तर से वह शीतल आहार भी खाया जाए तो उसमें कोई दोष नहीं है। उष्ण आहार में पानी की बूंदों का तत्काल अचित्त हो जाना निश्चित है और शीतल आहार में गिरी पानी की बूंदों का अचित्त होना अनिश्चित है अथवा कालान्तर में अचित्त होती हैं / इसी कारण से सूत्र में दोनों के विधानों में अन्तर किया गया है। पशु-पक्षी के स्पर्शादि से उत्पन्न मैथुनभाव के प्रायश्चित्त 13. निग्गंथीए य राओ वा वियाले वा उच्चारं वा पासवणं वा विगिचमाणीए वा विसोहेमाणीए वा अन्नयरे पसुजाइए वा पक्खिजाइए वा अन्नयरं इंदियजायं परामुसेज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा हत्थकम्म-पडिसेवणपत्ता पावज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं / 14. निग्गंथीए य रामो वा वियाले वा उच्चारं वा पासवणं वा विगिचमाणीए वा अन्नयरे पसुजाइए वा पक्खिजाइए वा अन्नयरंसि सोयंसि प्रोगाहेज्जा तं च निग्गंथो साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं / 13. यदि कोई निर्ग्रन्थी रात्रि में या विकाल में मल-मूत्र का परित्याग करे या शुद्धि करे उस समय किसी पशु-पक्षी से निर्ग्रन्थी की किसी इन्द्रिय का स्पर्श हो जाए और उस स्पर्श का वह (यह सुखद स्पर्श है इस प्रकार) मैथुनभाव से अनुमोदन करे तो उसे हस्तकर्म दोष लगता है, अतः वह अनुद्घातिक मासिक प्रायश्चित्त की पात्र होती है।। 14. यदि कोई निर्ग्रन्थी रात्रि में या विकाल में मल-मूत्र का परित्याग करे या शुद्धि करे, उस समय कोई पशु-पक्षी निर्ग्रन्थी के किसी श्रोत का अवगाहन करे और उसका वह 'यह अवगाहन सुखद है' इस प्रकार मैथुनभाव से अनुमोदन करे तो (मैथुनसेवन नहीं करने पर भी) उसे मैथुनसेवन का दोष लगता है / अतः वह अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त की पात्र होती है। विवेचन-ये दोनों सूत्र ब्रह्मचर्यव्रत की रक्षा के लिए कहे गये हैं, यदि कोई साध्वी रात्रि या सन्ध्या के समय मल-मूत्र परित्याग कर रही हो और उस समय कोई वानर, हरिण, श्वान आदि पशु या मयूर, हंस आदि पक्षी अकस्मात् पाकर साध्वी के किसी अंग का स्पर्श करे और साध्वी उस स्पर्श के सुखद होने का अनुभव करे तो वह हस्तमैथुन-प्रतिसेवना की पात्र होती है और उसे इसका प्रायश्चित्त गुरुमासिक तप बतलाया गया है। ___ यदि उक्त पशु या पक्षियों में से किसी के अंग उस साध्वी के गुह्य प्रदेश में प्रविष्ट हो जाएं और उससे वह रति-सुख का अनुभव करे तो वह मैथुन-प्रतिसेवना की पात्र होती है / उसकी शुद्धि के लिए गुरुचातुर्मासिक तप का विधान किया गया है। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [237 पांचवां उद्देशक] भाष्यकार लिखते हैं कि जहां पर वानरादि का या मयूरादि पक्षियों का संचार अधिक हो ऐसे स्थान पर साध्वियों को अकेले मल-मूत्र परित्याग के लिए नहीं जाना चाहिए। यदि जाना भी पड़े तो दण्ड को हाथ में लिए हुए किसी दूसरी साध्वी के साथ जाना चाहिए जिससे उन पशु-पक्षियों के समीप आने पर उनका निवारण किया जा सके। दिन में भी साध्वियों को मल-मूत्र परित्याग के लिए दण्ड हाथ में लेकर जाना चाहिए। साध्वी को एकाको गमन करने का निषेध 15. नो कप्पइ निग्गंथीए एगाणियाए गाहावइकुलं पिण्डवायपडियाए निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा। 16. नो कप्पइ निग्गंथीए एगाणियाए बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा। 17. नो कप्पइ निग्गंथीए एगाणियाए गामाणुगामं दूइज्जित्तए, वासावासं वा वस्थए / 15. अकेली निर्ग्रन्थी को प्राहार के लिए गृहस्थ के घर में आना-जाना नहीं कल्पता है। 16. अकेली निर्ग्रन्थी को शौच के लिए तथा स्वाध्याय के लिए उपाश्रय से बाहर आनाजाना नहीं कल्पता है। 17. अकेली निम्रन्थी को एक गांव से दूसरे गांव विहार करना तथा वर्षावास करना नहीं कल्पता है। विवेचन-निर्ग्रन्थी को किसी स्थान पर अकेले रहना या अकेले कहीं आना-जाना योग्य नहीं है, क्योंकि स्त्री को अकेले देखकर दुराचारी मनुष्य के द्वारा आक्रमण और बलात्कार की सम्भावना रहती है। इसी कारण गोचरी के लिए उसे किसी गृहस्थ के घर में भी अकेले नहीं जाना चाहिए। मल-परित्याग के लिए ग्रामादि के बाहर जो भी स्थान हो, उसे 'विचारभूमि' कहते हैं और स्वाध्याय के लिये जो भी शांत स्थान हो उसे 'विहारभूमि' कहते हैं। इन भूमियों पर अकेले जाना, ग्रामानुग्नाम विहार करना और अकेले किसी स्थान पर वर्षावास करना भी साध्वी के लिए निषिद्ध है। साध्वी को वस्त्र-पानरहित होने का निषेध . ... . 18. नो कप्पइ निग्गंथीए अचेलियाए होत्तए। 19. नो कप्पइ निग्गंधीए अपाइयाए होत्तए। . .. 18. निर्ग्रन्थी को वस्त्ररहित होना नहीं कल्पता है। 19. निर्ग्रन्थी को पावरहित होना नहीं कल्पता है / Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238) विवेचन--साध्वी के लिए अचेल होना और जिनकल्पी होना भी निषिद्ध है। सर्वज्ञप्ररूपित धर्म में अचेल रहना विहित है फिर भी साध्वी के लिए लोकापवाद पुरुषाकर्षण प्रादि अनेक कारणों से वस्त्ररहित होना सर्वथा निषिद्ध है / भक्त-पानादि के पात्र नहीं रखने पर साध्वी के आहार-नीहार का करना सम्भव नहीं है। वस्त्र त्यागकर कायोत्सर्ग करना भी साध्वी के लिए निषिद्ध है, क्योंकि उस दशा में कामप्रेरित तरुण जनों के द्वारा उपसर्गादि की सम्भावना रहती है। साध्वी को प्रतिज्ञाबद्ध होकर आसनादि करने का निषेध 20. नो कप्पद निग्गंथीए वोसट्टकाइयाए होत्तए। 21. नो कप्पइ निग्गंथीए बहिया गामस्स वा जाव रायहाणीए वा उड्ढं बाहाओ पगिजिमयपगिन्मिय सूराभिमुहीए एगपाइयाए ठिच्चा आयावणाए आयावेत्तए। __ कप्पइ से उवस्सयस्स अंतोवगडाए संघाडियपडिबडाए पलंबियबाहुयाए समतलपाइयाए ठिच्चा मायावणाए आयावेत्तए। 22. नो कप्पइ निग्गंथोए ठाणाइयाए होत्तए। 23. नो कप्पइ निग्गंथीए पडिमट्ठाइयाए होत्तए। 24. नो कप्पइ निग्गंथीए उक्कुडुयासणियाए होतए। 25. नो कप्पइ निग्गंथीए निसज्जियाए होत्तए। 26. नो कप्पइ निरगंथोए वीरासणियाए होत्तए। 27. नो कप्पइ निग्गंथीए दण्डासणियाए होत्तए / 28. नो कप्पइ निग्गंथीए लगण्डसाइयाए होत्तए। नो कप्पइ निग्गंथीए ओमंथियाए होत्तए। 30. नो कप्पइ निग्गंथीए उत्ताणियाए होत्तए। 31. नो कप्पइ निग्गंथीए अम्बखुज्जियाए होत्तए। 32. नो कप्पइ निग्गंथीए एगपासियाए होत्तए / 20. निर्ग्रन्थी को सर्वथा शरीर वोसिराकर रहना नहीं कल्पता है / 21. निर्ग्रन्थी को ग्राम यावत् राजधानी के बाहर भुजाओं को ऊपर की ओर करके, सूर्य की पोर मुह करके तथा एक पैर से खड़े होकर प्रातापना लेना नहीं कल्पता है। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक [239 किन्तु उपाश्रय के अन्दर पर्दा लगाकर के भुजाएं नीचे लटकाकर दोनों पैरों को समतल करके खड़े होकर आतापना लेना कल्पता है / 22. निर्ग्रन्थी को खड़े होकर कायोत्सर्ग करने का अभिग्रह करना नहीं कल्पता है। 23. निर्ग्रन्थी को एक रात्रि आदि कायोत्सर्ग करने का अभिग्रह करना नहीं कल्पता है। 24. निर्ग्रन्थी को उत्कुटुकासन से स्थित रहने का अभिग्रह करना नहीं कल्पता है। 25. निर्ग्रन्थी को निषद्याओं से स्थित रहने का अभिग्रह करना नहीं कल्पता है / 26. निर्ग्रन्थी को वीरासन से स्थित रहने का अभिग्रह करना नहीं कल्पता है / 27. निर्ग्रन्थी को दण्डासन से स्थित रहने का अभिग्रह करना नहीं कल्पता है / 28. निम्रन्थी को लकुटासन से स्थित रहने का अभिग्रह करना नहीं कल्पता है। 29. निर्ग्रन्थी को प्रधोमुखी सोकर स्थित रहने का अभिग्रह करना नहीं कल्पता है / 30. निर्ग्रन्थी को उत्तानासन से स्थित रहने का अभिग्रह करना नहीं कल्पता है / 31. निर्ग्रन्थी को आम्र-कुब्जिकासन से स्थित रहने का अभिग्रह करना नहीं कल्पता है / 32. निर्ग्रन्थी को एक पार्श्व से शयन करने का अभिग्रह करना नहीं कल्पता है।। विवेचन शरीर को सर्वथा वोसिराकर मनुष्य तिर्यंच या देव सम्बन्धी उपसर्ग सहन करना साध्वी के लिये निषिद्ध है / / साध्वी यदि आतापना लेना चाहे तो ग्रामादि के बाहर न जाकर अपने उपाश्रय के अन्दर ही सूत्रोक्त विधि से आतापना ले सकती है। ___ समय निश्चित कर लम्बे काल के लिये खड़े रहकर कायोत्सर्ग करना भी साध्वी के लिये निषिद्ध है। भिक्षु को 12 प्रतिमाएं, मोयपडिमा प्रादि प्रतिमाएं, जो एकाकी रहकर की जाती हैं, वे भी साध्वी के लिये निषिद्ध हैं। समय निश्चित करके पांच प्रकार के निषद्यासन से भी बैठना साध्वी को निषिद्ध है। पांच प्रकार की निषद्या इस प्रकार है 1. समपादपुता-जिसमें दोनों पैर पुत-भाग का स्पर्श करें, 2. गो-निषद्यका--गाय के समान बैठना। 3. हस्तिशुण्डिका- दोनों पुतों के बल बैठकर एक पैर हाथी की सूड के समान उठाकर बैठना। 4. पर्यका-पद्मासन से बैठना और 5. अर्धपर्यंका-अर्ध पद्मासन अर्थात् एक पैर के ऊपर दूसरा पैर रखकर बैठना। साध्वियों को इन पांचों ही प्रकार की निषद्याओं से अभिग्रह करके बैठने का निषेध किया गया है। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240] [बृहत्कल्पसूत्र सूत्र 26 से 33 तक कहे गये पाठ आसन भी साध्वी को समय निश्चित करके करना निषिद्ध है। इन आसनों का स्वरूप दशा. दशा. 7 में किया गया है, वहां से समझा जा सकता है / ::. भाष्यकार ने इन सभी साधनाओं के निषेध का कारण यह बताया है कि उस दशा में कामप्रेरित तरुण जनों के द्वारा उपसर्गादि की सम्भावना रहती है / निश्चित समय पूर्ण होने के पूर्व वह सम्भल कर सावधान नहीं हो सकती है। समय निर्धारित किये बिना साध्वी किसी भी आसन से खड़ी रहे, बैठे या सोए तो उसका इन सूत्रों में निषेध नहीं है / भाष्य में भी कहा है-- बीरासण गोदोही मुत्तुसम्वे वि ताण कम्पति / ते पुण पडुच्च चेट्ट, सुत्ता उ अभिग्गहं पप्पा / / 5956 // वीरासन और गोदोहिकासन को छोड़कर प्रवृत्ति की अपेक्षा सभी आसन साध्वी को करने कल्पते हैं / सूत्रों में जो निषेध किया है वह अभिग्रह की अपेक्षा से किया है। वीरासन और गोदुहिकासन ये स्त्री की शारीरिक समाधि के अनुकूल नहीं होते हैं, इसी कारण से भाष्यकार ने निषेध किया है / यद्यपि अभिग्रह आदि साधनाएं विशेष निर्जरा के स्थान हैं, फिर भी साध्वी के लिये ब्रह्मचर्य महाव्रत की सुरक्षा में बाधक होने से इनका निषेध किया गया है। भाष्य में विस्तृत चर्चा सहित इस विषय को स्पष्ट किया गया है तथा वहां अगीतार्थ भिक्षुत्रों को भी इन अभिग्रहों के धारण करने का निषेध किया है। आकुचनपट्टक के धारण करने का विधि-निषेध 33. नो कप्पइ निग्गंथीणं आकुचणपट्टगंधारित्तए वा, परिहरित्तए वा। 34. कप्पइ निग्गंथाणं आकुचणपट्टगंधारित्तए वा, परिहरित्तए वा। 33. निर्ग्रन्थियों को प्राकुचनपट्टक रखना या उपयोग में लेना नहीं कल्पता है / 34. निर्ग्रन्थों को प्राकुचनपट्टक रखना या उपयोग में लेना कल्पता है / विवेचन--'प्राकुचनपट्टक' का दूसरा नाम 'पर्यस्तिकापट्टक' है। यह चार अंगुल चौड़ा एवं शरीरप्रमाण जितना सूती वस्त्र का होता है। भीत आदि का सहारा न लेना हो तब इसका उपयोग किया जाता है। जहां दीवार आदि पर उदई आदि जीवों की सम्भावना हो और वृद्ध ग्लान आदि का अवलम्बन लेकर बैठना आवश्यक हो तो इस पर्यस्तिकापट्ट से कमर को एवं घुटने ऊंचे करके पैरों को बाँध देने पर आराम कुर्सी के समान अवस्था हो जाती है और दीवार का सहारा लेने के समान शरीर को आराम मिलता है। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक [241 पर्यस्तिकापट्टक लगाकर इस तरह बैठना गर्वयुक्त प्रासन होता है। साध्वी के लिये इस प्रकार बैठना शरीर-संरचना के कारण लोक निन्दित होता है, इसलिये सूत्र में उनके लिये पर्यस्तिकापट्टक का निषेध किया गया है। भाष्यकार ने बताया है कि अत्यन्त आवश्यक होने पर साध्वी को पर्यस्तिकापट्टक लगाकर उसके ऊपर वस्त्र प्रोढ़कर बैठने का विवेक रखना चाहिए। साधु को भी सामान्यतया पर्यस्तिकापट्टक नहीं लगाना चाहिये, क्योंकि विशेष परिस्थिति में उपयोग करने के लिये यह औपग्रहिक उपकरण है। अवलम्बनयुक्त आसन के विधि-निषेध 35. नो कप्पइ निग्गंथीणं सावस्सयंसि आसणंसि आसइत्तए वा तुयट्टित्तए वा / 36. कप्पइ निग्गंथाणं सावस्सयंसि पासणंसि आसइत्तए वा तुपट्टित्तए वा। 35. निर्ग्रन्थी को सावश्रय (अवलम्बनयुक्त) आसन पर बैठना या शयन करना नहीं कल्पता है। 36. निर्ग्रन्थ को सावश्रय आसन पर बैठना या शयन करना कल्पता है / विवेचन-पूर्वोक्त सूत्रों में अवलम्बन लेने के लिये पर्यस्तिकापट्टक का कथन किया गया है और इन सूत्रों में अवलम्बनयुक्त कुर्सी आदि आसनों का वर्णन है / आवश्यक होने पर भिक्षु इन साधनों का उपयोग कर सकता है / इनके न मिलने पर पर्यस्तिकापट्ट का उपयोग किया जाता है। जिन भिक्षुओं को पर्यस्तिकापट्ट की सदा आवश्यकता प्रतीत होवे उसे अपने पास रख सकते हैं। क्योंकि कुर्सी आदि साधन सभी क्षेत्रों में उपलब्ध नहीं होते। पूर्वोक्त दोषों के कारण ही साध्वी को अवलम्बनयुक्त इन आसनों का निषेध किया गया है। साधु-साध्वी कभी सामान्य रूप से भी कुर्सी आदि उपकरण उपयोग में लेना आवश्यक समझे तो अवलम्बन लिये बिना बे उनका विवेक पूर्वक उपयोग कर सकते हैं। सविसाण पीठ आदि के विधि-निषेध 37. नो कप्पइ निग्गंथोणं सविसाणंसि पीढंसि वा फलगंसि वा आसइत्तए वा तुट्टित्तए वा / 38. कप्पइ निग्गंथाणं सविसाणंसि पीढंसि वा फलगंसि वा प्रासइत्तए वा तुयट्टित्तए वा। 37. साध्वियों को सविषाण पीठ (बैठने की काष्ठ चौकी प्रादि) या फलक (सोने का पाटा आदि) पर बैठना या शयन करना नहीं कल्पता है / 38. साधुओं को सविषाण पीठ पर या फलक पर बैठना या शयन करना कल्पता है। विवेचन-पीढ़ा या फलक पर सींग जैसे ऊंचे उठे हुए छोटे-छोटे स्तम्भ होते हैं। वे गोल एवं चिकने होने से पुरुष चिह्न जैसे प्रतीत होते हैं / इसलिये इनका उपयोग करना साध्वी के लिए निषेध Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242] [बृहत्कल्पसूत्र किया गया है / साधु को भी अन्य पीठ-फलक मिल जाये तो विषाणयुक्त पीठ-फलक आदि उपयोग में नहीं लेने चाहिए। क्योंकि सावधानी न रहने पर इनकी टक्कर से गिरने की या चोट लगने की सम्भावना रहती है और नुकीले हों तो चुभने की सम्भावना रहती है / सवत तुम्ब-पात्र के विधि-निषेध 39. नो कप्पइ निग्गंथोणं सवेण्टयं लाउयं धारेत्तए वा परिहरित्तए वा। 40. कप्पइ निग्गंथाणं सवेण्टयं लाउयं धारेत्तए वा परिहरित्तए वा। 39. साध्वियों को सवृन्त अलाबु (तुम्बी) रखना या उसका उपयोग करना नहीं कल्पता है : 40. साधुओं को सवृन्त अलाबु रखना या उसका उपयोग करना कल्पता है। विवेचन-इन सूत्रों में कहा गया है कि साध्वी को अपने पास डंठलयुक्त तुबी नहीं रखना चाहिए / इसका कारण विषाणयुक्त पीठ-फलक के समान (ब्रह्मचर्य सम्बन्धी) समझ लेना चाहिये / साधु को ऐसा तुम्ब-पात्र रखने में कोई आपत्ति नहीं है। सवंत पात्रकेसरिका के विधि-निषेध 41. नो कप्पइ निग्गंथीणं सवेण्टयं पायकेसरियं धारित्तए वा परिहरित्तए था। 42. कप्पइ निग्गंथाणं सवेण्टयं पायकेसरियं धारितए वा परिहरित्तए था। 41. साध्वियों को सवृन्त पात्रकेसरिका रखना या उसका उपयोग करना नहीं कल्पता है / 42. साधुओं को सवृन्त पात्रकेसरिका रखना या उसका उपयोग करना कल्पता है / विवेचन-काष्ठ-दण्ड के एक सिरे पर वस्त्र-खण्ड को बांधकर पात्र या तुबी आदि के भीतरी भाग को पोंछने के या प्रमार्जन करने के उपकरण को 'सवन्त पात्रकेसरिका' कहते हैं। ब्रह्मचर्य के बाधक कारणों की अपेक्षा से ही साध्वी को इसके रखने का निषेध किया गया है। गोलाकार दंड के अतिरिक्त अन्य प्रकार की पात्रकेसरिका का उपयोग वह कर सकती है अर्थात् जिस तरह साध्वी दंडरहित प्रमार्जनिका रखती है, वैसे ही वह पात्रकेसरिका भी दण्डरहित रख सकती है। दण्डयुक्त पादपोंछन के विधि-निषेध 43. नो कप्पइ निग्गंथीणं दारुदण्डयं पायछणं धारेत्तए वा परिहरित्तए वा। 44. कप्पइ निग्गंथाणं दारुदण्डयं पायपुछणं धारेत्तए वा परिहरित्तए वा। 43. निर्ग्रन्थी को दारुदण्ड वाला (काष्ठ की डंडी वाला) पादपोंछन रखना या उसका उपयोग करना नहीं कल्पता है / Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक] [243 44. निर्ग्रन्थ को दारुदण्ड वाला 'पादपोंछन' रखना या उसका उपयोग करना कल्पता है। विवेचन-वस्त्रखण्ड का पादपोंछन उपकरण पांव की रज आदि पोंछने के काम आता है / उसके भिन्न-भिन्न उपयोग पागम में वर्णित हैं। यहां पूर्वोक्त कारणों से काष्ठदण्डयुक्त पादपोंछन का साध्वी के लिये निषेध किया गया है और साधु को यदि आवश्यक हो तो वह दण्डयुक्त पादपोंछन रख सकता है / इस उपकरण सम्बन्धी अन्य जानकारी निशीथ उ. 2 सूत्र 1 के विवेचन में दी गई है। परस्पर मोक आदान-प्रदान विधि-निषेध 45. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अन्नमन्नस्स मोयं प्रापिबित्तए वा आयमित्तए वा नन्नत्थ गाढाऽगाढेसु रोगायकेसु / 45. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को एक दूसरे का मूत्र पीना या उससे मालिश करना नहीं कल्पता है, केवल उग्र रोग एवं आतंकों में कल्पता है / विवेचन-यद्यपि मूत्र अपेय है फिर भी वैद्य के कहने पर रक्तविकार, कोढ़ आदि कष्टसाध्य रोगों में अथवा सर्प-दंश या शीघ्र प्राणहरण करने वाले आतंक होने पर साधु और साध्वियों को मूत्र पीने की और शोथ आदि रोग होने पर उससे मालिश करने की छूट प्रस्तुत सूत्र में दी गई है / अनेक रोगों में गाय, बकरी आदि का तथा अनेक रोगों में स्वयं के मूत्रपान का चिकित्साशास्त्र में विधान किया गया है। इन कारणों से कभी साधु-साध्वी को परस्पर मूत्र के आदान-प्रदान करने का प्रसंग आ सकता है। इसी अपेक्षा से सूत्र में विधान किया गया है तथा सामान्य स्थिति में परस्पर लेन-देन करने का निषेध भी किया है। आचमन का अर्थ शुद्धि करना भी होता है किन्तु यहां पर प्रबल रोग सम्बन्धी विधान होने से मालिश करने का अर्थ ही प्रसंगानुकूल है। आहार-औषध परिवासित रखने के विधि-निषेध 46. नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथोण वा पारियासियस्स प्राहारस्स तयप्पमाणमेत्तमवि, भूइप्पमाणमेत्तमवि, तोविंदुप्पमाणमेत्तमवि आहारमाहारेत्तए, नन्नत्थ गाढाऽगाढेसु रोगायंकेसु / 47. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथोण वा पारियासिएणं आलेवणजाएणं गायाई प्रालिपित्तए वा विलिपित्तए वा, नन्नत्य गाढाऽगाहिं रोगार्यकेहि / 48. नो कप्पह निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पारियासिएणं तेल्लेण वा जाव नवनीएण वा गायाई अभंगित्तए वा मक्खित्तए वा, नन्नत्य गाढाऽगाहिं रोगायंकेहि / 46. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को परिवासित (रात्रि में रखा हुआ) आहार त्वक् प्रमाण Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244] [बृहत्कल्पसूत्र (तिल-तुष जितना) भूति-प्रमाण (एक चुटकी जितना) खाना तथा पानी बिन्दुप्रमाण जितना भी पीना नहीं कल्पता है, केवल उग्र रोग एवं आतंक में कल्पता है। 47. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को अपने शरीर पर सभी प्रकार के परिवासित लेपन एक बार या बार-बार लगाना नहीं कल्पता है, केवल उग्र रोग एवं प्रातंकों में लगाना कल्पता है। 48. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को अपने शरीर पर परिवासित तेल यावत् नवनीत को चुपड़ना या मलना नहीं कल्पता है, केवल उग्र रोग या अातंकों में कल्पता है। विवेचन-निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को खाने-पीने योग्य और लेपन-मर्दन करने योग्य पदार्थों का संचय करना तथा रात्रि में उन पदार्थों का लाना, रखना एवं उनका उपयोग करना उत्सर्गमार्ग में सर्वथा निषिद्ध है और इन कार्यों के लिये प्रायश्चित्त का भी विधान है। क्योंकि इन कार्यों के करने से संयमविराधना होती है। भाष्य में इस विषय का विस्तृत वर्णन है। उग्र रोग या अातंक होने पर पूर्वोक्त अत्यन्त आवश्यक पदार्थों के संचय करने का तथा रात्रि में परिवासित रखने का एवं उनके उपयोग करने का अपवादमार्ग में ही विधान है। गीतार्थ यदि यह जान ले कि निकट भविष्य में उग्न रोग या आतंक होने वाला है, महामारी या सेनाओं के आतंक से गांव खाली हो रहे हैं, स्थविर रुग्ण हैं, चलने में असमर्थ हैं, आवश्यक औषधियां आस-पास के गांवों में न मिलने के कारण दूर गांवों से लाई गई हैं, इत्यादि कारणों से उक्त पदार्थों का संचय कर सकते हैं, रात्रि में परिवासित रख सकते हैं एवं उनका उपयोग भी कर सकते हैं। चन्दन, कायफल, सोंठ आदि द्रव्य लेपन योग्य होते हैं। शिला पर घिस कर या पीसकर इनका लेप तैयार किया जाता है। मालेपन---एक बार लेपन करना / विलेपन-बार-बार लेपन करना / अथवा आलेपन-शरीर में जलन आदि होने पर सर्वांग में लेप करना। विलेपन-मस्तक आदि विशिष्ट अंग पर लेप करना / निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थियों को सौन्दर्यवृद्धि के लिए किसी प्रकार के पालेपन-विलेपन का प्रयोग नहीं करना चाहिए। केवल रोगादि की शान्ति के लिए लेप्य पदार्थों का प्रयोग कर सकते हैं / आगाढ रोगातंक में इन पदार्थों को रात्रि में भी रखा जा सकता है। इन सूत्रों में रात्रि में रखे गये पदार्थों का परिस्थितिवश खाने एवं उपयोग में लेने का विधान किया गया है। इससे रात्रि में खाना या उपयोग में लेना न समझकर परिवासित पदार्थों को दिन में उपयोग में लेने का ही समझना चाहिये / दुर्लभ द्रव्यों को रात में रखने की एवं प्रबल रोगातंक में दिन में उपयोग लेने की छूट सूत्र से समझ लेनी चाहिये / भिन्न-भिन्न पदार्थों को रात्रि में किस विवेक से किस प्रकार रखना, इसकी विधि भाष्य से जाननी चाहिये। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक] |245 परिहारिक भिक्षु का दोषसेवन एवं प्रायश्चित्त 49. परिहारकप्पट्ठिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, से य आहच्च अइक्कमेज्जा, तं च थेरा जाणिज्जा अप्पणो आगमेणं अन्नेसि वा अंतिए सोच्चा, तो पच्छा तस्स अहालहुसए नाम ववहारे पटुधियव्वे सिया।। 49. परिहारकल्पस्थित भिक्षु यदि स्थविरों की वैयावृत्य के लिए कहीं बाहर जाए और कदाचित् परिहारकल्प में कोई दोष सेवन करले, यह वृत्तान्त स्थविर अपने ज्ञान से या अन्य से सुनकर जान ले तो वैयावृत्य से निवृत्त होने के बाद उसे अत्यल्प प्रस्थापना प्रायश्चित्त देना चाहिये / विवेचन-इस सूत्र में 'वैयावृत्य' पद उपलक्षण है, अतः अन्य आवश्यक कार्य भी इसमें समाविष्ट कर लिए जाते हैं। ___ प्राचार्य या गण प्रमुख आदि परिहारतप वहन करने वाले को वैयावृत्य के लिए या अन्य दर्शन के वादियों के साथ शास्त्रार्थ करने के लिए कहीं अन्यत्र भेजें या वह स्वयं अनिवार्य कारणों से कहीं अन्यत्र जाए और वहां उसके परिहारतप की मर्यादा का अतिक्रमण हो जाए तब उसके अतिक्रमण को प्राचार्यादि स्वयं अपने ज्ञान-बल से या अन्य किसी के द्वारा जान लें तो उसे अत्यल्प प्रायश्चित्त दें, क्योंकि उसका परिहारतप वैयावृत्य या शास्त्रार्थ आदि विशेष कारणों से खण्डित हुया है। ऐसे प्रसंगों में आवश्यक लगे तो प्राचार्य उसका परिहारतप छुड़ाकर भी भेज सकते हैं। अतः उस अवधि में किया गया अतिक्रमण क्षम्य माना गया है एवं उसका अत्यल्प प्रस्थापना प्रायश्चित्त दिया जाता है। पुलाक-भक्त ग्रहण हो जाने पर गोचरी जाने का विधि-निषेध 50. निग्गंथीए य गाहावइकुलं पिण्डवायपडियाए अणुपविट्ठाए अन्नयरे पुलागभत्ते पडिग्गाहिए सिया सा य संथरेज्जा, कप्पइ से तदिवसं तेणेव भत्तट्ठणं पज्जोसवेत्तए, नो से कप्पइ दोच्चं पि गाहावइकुलं पिण्डवायपडियाए पविसित्तए / सा य न संथरेज्जा, एवं से कप्पइ दोच्चं पि गाहावइकुलं पिण्डवायपडियाए पविसित्तए। 50. निम्रन्थी आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करे और वहां यदि पुलाक-भक्त (अत्यंत सरस आहार) ग्रहण हो जाए और यदि उस गृहीत आहार से निर्वाह हो जाए तो उस दिन उसी पाहार से रहे किन्तु दूसरी बार अाहार के लिए गृहस्थ के घर में न जावे।। यदि उस गृहीत आहार से निर्वाह न हो सके तो दूसरी बार पाहार के लिए जाना कल्पता है। विवेचन—पुलाक शब्द का सामान्य अर्थ है-'असार पदार्थ', किन्तु यहां कुछ विशेष अर्थ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [यहत्कल्पसूत्र जिनके सेवन से संयम निस्सार हो जाए अथवा जिनशासन, संघ और धर्म की अवहेलना या निन्दा हो वे सब खाद्यपदार्थ पुलाक-भक्त कहे जाते हैं / भाष्य में विस्तृत अर्थ करते हुए पुलाक-भक्त तीन प्रकार के कहे हैं 1 धान्यपुलाक, 2. गन्धपुलाक, 3. रसपुलाक / 1. जिन धान्यों के खाने से शारीरिक सामर्थ्य आदि की वृद्धि न हो, ऐसे सांवा, शालि, बल्ल आदि 'धान्यपुलाक' कहे जाते हैं। 2. लहसुन प्याज प्रादि तथा लोंग इलायची इत्र प्रादि जिनकी उत्कट गन्ध हो, वे सब पदार्थ 'गन्धपुलाक' कहे जाते हैं। 3. दूध इमली का रस द्राक्षारस आदि अथवा अति सरस, पौष्टिक एवं अनेक रासायनिक औषध-मिश्रित खाद्य पदार्थ 'रसपुलाक' कहे जाते हैं। इस सूत्र में 'पुलाकभक्त' के ग्रहण किए जाने पर निर्वाह हो सके तो साध्वी को पुनः गोचरी जाने का निषेध किया है / अतः यहां रसपुलाक की अपेक्षा सूत्र का विधान समझना चाहिए। क्योंकि गन्धपुलाक और धान्यपुलाक रूप वैकल्पिक अर्थ में पुन: गोचरी नहीं जाने का सूत्रोक्त विधान तर्कसंगत नहीं है। रसपूलाक के प्रति सेवन से अजीर्ण या उन्माद होने की प्रायः सम्भावना रहती है / अतः उस दिन उससे निर्वाह हो सकता हो तो फिर भिक्षा के लिए नहीं जाना चाहिए, जिससे उक्त दोषों की सम्भावना न रहे / यदि वह रस-पुलाकभक्त अत्यल्प मात्रा में हो और उससे निर्वाह न हो सके तो पुनः भिक्षा ग्रहण की जा सकती है। इस सूत्र में निम्रन्थी के लिए ही विधान किया गया है, निर्ग्रन्थ के लिए क्यों नहीं? इसका उत्तर भाष्यकार ने इस प्रकार दिया है। "एसेव गमो नियमा तिविहपुलागम्मि होई समणाणं" जो विधि निर्ग्रन्थी के लिए है, वही निर्ग्रन्थ के लिए भी है। पांचवें उद्देशक का सारांश देव या देवी स्त्री का या पुरुष का रूप विकुर्वित कर साधु साध्वी का आलिंगन आदि करे, तब वे उसके स्पर्श आदि से मैथुनभाव का अनुभव करें तो उन्हें गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है। अन्य गण से कोई भिक्षु आदि क्लेश करके आवे तो उसे समझाकर शान्त करना एवं पांच दिन आदि का दीक्षाछेद प्रायश्चित्त देकर पुनः उसके गण में भेज देना। यदि आहार ग्रहण करने के बाद या खाते समय यह ज्ञात हो जाए कि सूर्यास्त हो गया है या सूर्योदय नहीं हुआ है तो उस पाहार को परठ देना चाहिये / यदि खावे तो उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है / रात्रि के समय मुह में उद्गाल आ जाए तो उसे नहीं निगलना किन्तु परठ देना चाहिये। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक] सूत्र 11 12 13-14 15-17 18-21 22-32 [247 गोचरी करते हुए कभी आहार में सचित्त बीज, रज या त्रस जीव आ जाए तो उसे सावधानीपूर्वक निकाल देना चाहिए। यदि नहीं निकल सके तो उतना संसक्त आहार परठ देना चाहिये। गोचरी करते हुए कभी आहार में सचित्त जल की बूदें आदि गिर जाएँ तो गर्म आहार को खाया जा सकता है और ठण्डे साहार को परठ देना चाहिये। रात्रि में मल-मूत्र त्याग करती हुई निर्ग्रन्थी के गुप्तांगों का कोई पशु या पक्षी स्पर्श या अवगाहन करें और निर्ग्रन्थी मैथुनभाव से उसका अनुमोदन करे तो उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है। निर्ग्रन्थी को गोचरी, स्थंडिल या स्वाध्याय आदि के लिये अकेले नहीं जाना चाहिये तथा विचरण एवं चातुर्मास भी अकेले नहीं करना चाहिए। निर्ग्रन्थी को वस्त्ररहित होना, पापरहित होना, शरीर को वोसिरा कर रहना, ग्राम के बाहर आतापना लेना नहीं कल्पता है, किन्तु सूत्रोक्त विधि से वह उपाश्रय में प्रातापना ले सकती है। निर्ग्रन्थी को किसी भी प्रकार के आसन से प्रतिज्ञाबद्ध होकर रहना नहीं कल्पता है। आकुचनपट्ट, पालम्बन युक्त आसन, छोटे स्तम्भयुक्त पीढे, नालयुक्त तुम्बा, काष्ठदण्डयुक्त पात्रकेसरिका या पादपोंछन साध्वी को रखना नहीं कल्पता है, किन्तु साधु इन्हें रख सकता है। प्रबल कारण के बिना साधु-साध्वी एक दूसरे के मूत्र को पीने एवं आचमन करने के उपयोग में नहीं ले सकते हैं। साधु-साध्वी रात रखे हुए आहार-पानी औषध और लेप्य पदार्थों को प्रबल कारण के बिना उपयोग में नहीं ले सकते, किन्तु प्रबल कारण से वे उन पदार्थों का दिन में उपयोग कर सकते हैं। परिहारतप वहन करने वाला भिक्षु सेवा के लिये जावे, उस समय यदि वह अपनी किसी मर्यादा का उल्लंघन कर ले तो उसे सेवाकार्य से निवृत्त होने पर अत्यल्प प्रायश्चित्त देना चाहिए। अत्यन्त पौष्टिक आहार आ जाने के बाद साध्वी को अन्य आहार की गवेषणा नहीं करना चाहिए। किन्तु उस आहार से यदि निर्वाह न हो सके, इतनी अल्प मात्रा में ही हो तो पुन: गोचरी लाने के लिये जा सकती है। उपसंहारइस उद्देशक में 45 सूत्र 1-4, 13-14 मैथुनभाव के प्रायश्चित्त का, क्लेश करके आये भिक्षु के प्रति कर्तव्य का, Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24] [बृहत्कल्पसूत्र 15-32 33-44 45 रात्रिभोजन का विवेक एवं उसके प्रायश्चित्त का, संसक्त आहार के विवेक का, निर्ग्रन्थी को एकाकी न होने का एवं शरीर को न वोसिराने का, आतापना लेने के / कल्प्याकल्प्य का और प्रतिज्ञाबद्ध आसन न करने का, अनेक उपकरणों के कल्प्याकल्प्य का, परस्पर मूत्र-उपयोग के कल्प्याकल्प्य का, परिवासित आहार एवं औषध के कल्प्याकल्प्य का, परिहारिक भिक्षु के अतिक्रमण करने का, पौष्टिक आहार का, इत्यादि विषयों का कथन किया गया है। // पांचवां उद्देशक समाप्त // 46-48 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठा उद्देशक अकल्प्य वचनप्रयोग का निषेध 1. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाई छ अवयणाई वइत्तए, तं जहा 1. अलियवयणे, 2. होलियवयणे, 3. खिसियवयणे, 4. फरुसवयणे, 5. गारत्थियवयणे, 6. विनोसवियं वा पुणो उदोरित्तए / 1. निर्ग्रन्थों निर्ग्रन्थियों को ये छह निषिद्ध वचन बोलना नहीं कल्पता है, यथा 1. अलीकवचन, 2. हीलितवचन, 3. खिसितवचन, 4. परुषवचन, 5. गार्हस्थ्यवचन, 6. कलहकारक वचन का पुनर्कथन / / विवेचन-१. अलीकवचन-असत्य या मिथ्या भाषण 'अलीकवचन' है। 2. होलितवचन-दूसरे की अवहेलना करने वाला वचन 'हीलितवचन' है। 3. खिसितवचन-रोषपूर्ण कहे जाने वाले या रोष उत्पन्न करने वाले वचन खिसितवचन' हैं। 4. परुषवचन-कर्कश, रूक्ष, कठोर वचन 'परुषवचन' हैं। 5. गार्हस्थ्यवचन-गृहस्थ-अवस्था के सम्बन्धियों को पिता, पुत्र, मामा आदि नामों से पुकारना 'गार्हस्थ्यवचन' हैं। 6. कलहउदीरणावचन-क्षमायाचनादि के द्वारा कलह के उपशान्त हो जाने के बाद भी कलहकारक वचन कहना 'व्युपशमित-कलह-उदीरण वचन' है। साधु और साध्वियों को ऐसे छहों प्रकार के वचन नहीं बोलने चाहिए। असत्य आक्षेपकर्ता को उसी प्रायश्चित्त का विधान 2. कप्पस्स छ पत्यारा पण्णत्ता, तं जहा 1. पाणाइवायरस वायं वयमाणे, 2. मुसावायस्स वायं वयमाणे, 3. प्रदिन्नादाणस्स वायं वयमाणे, 4. अविरइवायं बयमाणे, 5. अपुरिसवायं वयमाणे, 6. वासवायं वयमाणे। इच्चेए कप्पस्स छ पत्यारे पत्थरेत्ता सम्म अप्पडिपूरेमाणे तट्ठाणपत्ते सिया। 2. कल्प-साध्वाचार के छह विशेष प्रकार के प्रायश्चित्तस्थान कहे गये हैं, यथा Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250] 1. प्राणातिपात का आरोप लगाये जाने पर, 2. मृषावाद का आरोप लगाये जाने पर, 3. अदत्तादान का आरोप लगाये जाने पर, 4. ब्रह्मचय भग करने का आरोप लगाये जाने पर, 5. नपुंसक होने का आरोप लगाये जाने पर, 6. दास होने का आरोप लगाये जाने पर। संयम के इन विशेष प्रायश्चित्तस्थानों का आरोप लगाकर उसे सम्यक् प्रमाणित नहीं करने वाला साधु उसी प्रायश्चित्तस्थान का भागी होता है। विवेचन -1. कल्प-निर्ग्रन्थ का आचार, 2. प्रस्तार-विशेष प्रायश्चित्तस्थान, 3. प्रस्तरण--प्रायश्चित्तस्थान-सेवन का आक्षेप लगाना / सूत्र में छह प्रस्तार कहे गए हैं--- प्रथम प्रस्तार-यदि कोई निर्ग्रन्थ किसी एक निग्रन्थ के सम्बन्ध में प्राचार्यादि के सम्मुख / उपस्थित होकर कहे कि "अमुक निर्ग्रन्थ ने अमुक त्रस जीव का हनन किया है।" प्राचार्यादि उसका कथन सुनकर अभियोग (प्रारोप) से सम्बन्धित निर्ग्रन्थ को बुलावे और उससे पूछे कि "क्या तुमने त्रस जीव की घात की है ?" यदि वह कहे कि "मैंने किसी जीव की घात नहीं की है।" ऐसी दशा में अभियोग लगाने वाले निर्ग्रन्थ को अपना कथन प्रमाणित करने के लिए कहना चाहिए। यदि अभियोक्ता आरोप को प्रमाणित कर दे तो जिस पर जीवघात का आरोप लगाया है, वह दोषानुरूप प्रायश्चित्त का पात्र होता है। यदि अभियोक्ता अभियोग प्रमाणित न कर सके तो वह प्राणातिपात किये जाने पर दिए जाने वाले प्रायश्चित्त का भागी होता है। इसी प्रकार द्वितीय प्रस्तार मृषावाद, तृतीय प्रस्तार अदत्तादान और चतुर्थ प्रस्तार अविरतिवाद-ब्रह्मचर्यभंग के अभियोग के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए / दीक्षा देने वाले प्राचार्यादि के सामने किसी निग्रन्थ के नपुंसक होने का अभियोग लगाना पंचम प्रस्तार 'अपुरुषवाद' है। किसी निर्ग्रन्थ के सम्बन्ध में "यह दास था या दासीपुत्र था", इस प्रकार का अभियोग लगाना षष्ठ प्रस्तार "दासवाद" है / अभियोक्ता और दोष-सेवी यदि एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगावें या उनमें वादप्रतिवाद बन जाए तो प्रायश्चित्त की मात्रा भी बढ़ जाती है। अर्थात् सूत्रोक्त चतुर्लघु का चतुर्गुरु प्रायश्चित्त हो जाता है। यदि अभियोग चरम सीमा तक हो जाता है तो प्रायश्चित्त भी चरम सीमा का ही दिया जाता है / अर्थात् सदोष निर्ग्रन्थ को अन्तिम प्रायश्चित्त पाराञ्चिक वहन करना पड़ता है। विशेष विवरण के लिए भाष्य देखना चाहिए / Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठा उद्देशक] [251 साधु-साध्वी के परस्पर कण्टक आदि निकालने का विधान 3. निग्गंथस्स य अहे पायंसि खाणू वा, कंटए वा, हीरए वा, सक्करे वा परियावज्जेज्जा, तं च निग्गंथे नो संचाएइ नीहरित्तए वा, विसोहेत्तए वा, तं निग्गंथी नीहरमाणी वा विसोहेमाणी वा नाइक्कम। 4. निग्गंथस्स य अच्छिसि पाणे वा, बीये वा, रए वा परियावज्जेज्जा, तं च निग्गथे नो संचाएइ नीहरित्तए वा विसोहेत्तए वा, तं निग्गथी नोहरमाणी वा विसोहेमाणी वा नाइक्कमइ / 5. निग्गंथीए य अहे पायंसि खाणू वा, कंटए वा, होरए वा, सक्करे वा परियावज्जेज्जा, तं च निग्गंथी नो संचाएइ नीहरित्तए वा विसोहेत्तए वा, तं निगंथे नोहरमाणे वा विसोहेमाणे वा नाइक्कमइ। 6. निग्गंथीए य अच्छिसि पाणे वा, बोये वा, रए वा परियावज्जेज्जा, तं च निग्गंथी नो संचाइएइ नोहरित्तए वा विसोहेत्तए वा, तं निग्गथे नोहरमाणे वा विसोहेमाणे वा नाइक्कमइ। 3. निर्ग्रन्थ के पैर के तलुवे में तीक्ष्ण शुष्क ठुठ, कंटक, कांच या तीक्ष्ण पाषाण-खण्ड लग जावे और उसे वह (या अन्य कोई निर्ग्रन्थ) निकालने में या उसके अंश का शोधन करने में समर्थन हो, (उस समय) यदि निर्ग्रन्थी निकाले या शोधे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करती है। 4. निर्ग्रन्थ की आँख में मच्छर आदि सूक्ष्म प्राणी, बीज या रज गिर जावे और उसे वह (या अन्य कोई निर्ग्रन्थ) निकालने में या उसके सूक्ष्म अंश का शोधन करने में समर्थ न हो, (उस समय) यदि निर्ग्रन्थी निकाले या शोधे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करती है। 5. निर्ग्रन्थी के पैर के तलुवे में तीक्ष्ण शुष्कळूठ, कंटक, कांच या पाषाण खण्ड लग जावे और उसे वह (या अन्य निर्ग्रन्थी) निकालने में या उनके सूक्ष्म अंश का शोधन करने में समर्थ न हो, (उस समय) यदि निर्ग्रन्थ निकाले या शोधे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। 6. निर्ग्रन्थी की आँख में (मच्छर आदि सूक्ष्म) प्राणी, बीज या रज गिर जावे और उसे वह (या अन्य कोई निर्ग्रन्थी) निकालने में या उसके सूक्ष्म अंश का शोधन करने में समर्थ न हो, (उस समय) यदि निर्ग्रन्थ निकाले या शोधे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। विवेचन-निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी के शरीर का और निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थ के शरीर का स्पर्श न करे, यह उत्सर्गमार्ग है। किन्तु पैर में कंटक आदि लग जाने पर एवं अाँख में रज आदि गिर जाने पर अन्य किसी के द्वारा नहीं निकाले जा सकने पर कण्टकादि निकालने में कुशल निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी अपवादमार्ग में एक दूसरे के कण्टकादि निकाल सकते हैं। ऐसी स्थिति में एक दूसरे के शरीर का स्पर्श होने पर भी वे प्रायश्चित्त के पात्र नहीं होते हैं किन्तु ऐसे समय में भी क्षेत्र और काल का तथा वस्त्रादि का विवेक रखना अत्यन्त आवश्यक होता है एवं योग्य साक्षी का होना भी आवश्यक है। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252] [हत्कल्पसूत्र साधु द्वारा साध्वी को अवलम्बन देने का विधान 7. निग्गथे निग्गीथ दुग्गंसि वा, विसमंसि वा, पध्वयंसि वा पक्खलमाणि वा पवटमाणि वा गेण्हमाणे वा अवलम्बमाणे वा नाइक्कमइ / 8. निग्गंथे निग्य सेयंसि वा, पंकसि वा, पणगंसि वा उदयंसि वा, प्रोकसमाणि वा ओवज्ममाणि वा गेण्हमाणे वा अवलम्बमाणे वा नाइक्कमइ / 9. निग्गथे निगथि नावं प्रारोहमाणि वा, ओरोहमाणि वा गेण्हमाणे वा अवलम्बमाणे वा नाइक्कमइ। 10. खित्तचित्तं निग्गथि निग्गथे गिण्हमाणे वा अवलम्बमाणे वा नाइक्कमइ / 11. दित्तचित्तं निग्गथि निग्गथे गिण्हमाणे वा अवलम्बमाणे वा नाइक्कमइ / 12. जक्खाइट्ठ निग्गथि निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलम्बमाणे वा नाइक्कमइ / 13. उम्मायपत्तं निगथि निग्गथे गिण्हमाणे वा अवलम्बमाणे वा नाइक्कमइ / 14. उवसांगपत्तं निग्गथि निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलम्बमाणे वा नाइक्कमइ / 15. साहिगरणं निगथि निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलम्बमाणे वा नाइक्कमइ / 16. सपायच्छित्तं निग्गथि निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलम्बमाणे वा नाइक्कमइ / 17. भत्तपाणपडियाइक्खियं निग्गथि निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलम्बमाणे वा नाइक्कमइ / 18. अट्ठजायं निग्गथि निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलम्बमाणे वा नाइक्कमइ / 7. दुर्गम--(हिंसक जानवरों से व्याप्त) स्थान, विषम स्थान या पर्वत से फिसलती हुई या गिरती हुई निर्ग्रन्थी को निर्ग्रन्थ ग्रहण करे या सहारा दे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। ___8. दल-दल, पंक, पनक या जल में गिरती हुई या डूबती हुई निर्ग्रन्थी को निर्ग्रन्थ ग्रहण करे या सहारा दे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। 9. नौका पर चढ़ती हुई या नौका से उतरती हुई निर्ग्रन्थी को निर्ग्रन्थ ग्रहण करे या सहारा दे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। 10. विक्षिप्तचित्त वाली निर्ग्रन्थी को निर्ग्रन्थ ग्रहण करे या अवलम्बन दे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठा उद्देशक] [253 11. दिप्तचित्त वाली निर्ग्रन्थी को निर्ग्रन्थ ग्रहण करे या अवलम्बन दे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। 12. यक्षाविष्ट निम्रन्थी को निर्ग्रन्थ ग्रहण करे या अवलम्बन दे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। 13. उन्माद-प्राप्त निर्ग्रन्थी को निर्ग्रन्थ ग्रहण करे या अवलम्बन दे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। 14. उपसर्ग-प्राप्त निर्ग्रन्थी को निर्ग्रन्थ ग्रहण करे या अवलम्बन दे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। 15. साधिकरण निर्ग्रन्थी को निर्ग्रन्थ ग्रहण करे या अवलम्बन दे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। 16. सप्रायश्चित्त निर्ग्रन्थी को निर्ग्रन्थ ग्रहण करे या अवलम्बन दे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। 17. भक्त-पानप्रत्याख्यात निर्ग्रन्थी को निर्ग्रन्थ ग्रहण करे या अवलम्बन दे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। 18. अर्थ-जात निर्ग्रन्थी को निर्ग्रन्थ ग्रहण करे या अवलम्बन दे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। विवेचन-निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों का उत्सर्गमार्ग तो यही है कि वे कभी भी एक दूसरे का स्पर्श न करें। यदि करते हैं तो वे जिनाज्ञा का उल्लंघन करते हैं। किन्तु उक्त सूत्रों में कही गई परिस्थितियों में निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थियां एक दूसरे के सहायक बन कर सेवा-शुश्रूषा करें तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं 1. क्षिप्तचित्त-शोक या भय से भ्रमितचित्त / 2. दिप्तचित्त हर्षातिरेक से भ्रमितचित्त / 3. यक्षाविष्ट-भूत-प्रेत आदि से पीड़ित / 4. उन्मादप्राप्त-मोहोदय से पागल / 5. उपसर्गप्राप्त-देव, मनुष्य या तिथंच आदि से त्रस्त / 6. साधिकरण-तीव्र कषाय-कलह से प्रशांत / 7. सप्रायश्चित्त कठोर प्रायश्चित्त से चलचित्त / 8. भक्त-पानप्रत्याख्यात--आजीवन अनशन से क्लांत / 9. अर्थजात-शिष्य या पद की प्राप्ति की इच्छा से व्याकुल / उन्मत्त, पिशाचग्रस्त, उपसर्ग-पीड़ित, भयग्रस्त निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियां एक दूसरे को सम्भालें, कलह, विसंवाद में संलग्न को हाथ पकड़ कर रोकें। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [बृहत्कल्पसूत्र भक्त-प्रत्याख्यान करके समाधिमरण करने वाली निर्ग्रन्थी की अन्य परिचारिका साध्वी के अभाव में सभी प्रकार की परिचर्या की व्यवस्था करें। / यद्यपि अनेक साध्वियां साथ में रहती हैं फिर भी कुछ विशेष परिस्थितियों में साध्वियों से न सम्भल सकने के कारण साधु को सम्भालना या सहयोग देना आवश्यक हो जाता है / सूत्र में केवल गिरती हुई निर्ग्रन्थी को निर्ग्रन्थ द्वारा सहारा देने आदि का कथन है। किन्तु कभी विशेष परिस्थिति में गिरते हुए साधु को साध्वी भी सहारा आदि दे सकती है, यह भी उपलक्षण से समझ लेना चाहिए। संयमनाशक छह स्थान 19. कप्पस्स छ पलिमंथू पण्णता, तं जहा 1. कोक्कुइए संजमस्स पलिम), 2. मोहरिए सच्चवयणस्स पलिमंथू , 3. चक्खुलोलुए इरियावहियाए पलिमंथू , 4. तितिणिए एसणागोयरस्स पलिम), 5. इच्छालोलुए मुत्तिमग्गस्स पलिमंथू, 6. भिज्जानियाणकरणे मोक्खमग्गस्स पलिमंथू, सम्वत्थ भगवया अनियाणया पसत्था / 19. कल्प--साध्वाचार के छह सर्वथा घातक कहे गये हैं, यथा-- 1. देखे बिना या प्रमार्जन किए बिना कायिक प्रवृत्ति करना, संयम का घातक है। 2. वाचालता, सत्य वचन का घातक है। 3. इधर-उधर देखते हुए गमन करना, ईर्यासमिति का घातक है। 4. आहारादि के अलाभ से खिन्न होकर चिढ़ना, एषणासमिति का घातक है। 5. उपकरण आदि का प्रति लोभ, अपरिग्रह का घातक है / 6. लोभवश अर्थात् लौकिक सुखों की कामना से निदान (तप के फल की कामना) करना, मोक्षमार्ग का घातक है। क्योंकि भगवान् ने सर्वत्र अनिदानता-निस्पृहता प्रशस्त कही है। विवेचन यद्यपि संयम-गुणों का नाश करने वाली अनेक प्रवृत्तियां होती हैं तथापि प्रस्तुत सूत्र में मुख्य छह संयमनाशक दोषों का कथन किया गया है / "पलिमंथु" शब्द का अर्थ है--संयमगुणों का अनेक प्रकार से सर्वथा नाश करने वाला। 1. कौत्कुच्य-जो यत्र-तत्र बिना देखे बैठता है, शरीर को या हाथ पांव मस्तक आदि अंगोपांगों को बिना देखे या बिना विवेक के इधर-उधर रखता है, वह 17 प्रकार के संयम का नाश करने वाला होता है। . Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठा उद्देशक] [255 2. मौखर्य-अत्यधिक बोलना वाणी का दोष है, ज्यादा बोलने वाला विनय आदि गुणों की उपेक्षा करता है, अप्रीति का भाजन बनता है, ज्यादा बोलने वाला विचार करके नहीं बोलता है / अतः वह असत्य एवं अनावश्यक बोलता है / इस प्रकार प्रतिभाषी सत्यमहाव्रत को दूषित करता है। आगमों में साधुओं को अनेक जगह अल्पभाषी कहा है / श्रावक के आठ गुणों में भी अल्पभाषी होना एक गुण कहा गया है। 3. चक्षुर्लोल्य-इधर-उधर देखने वाला ईर्यासमिति का पालन नहीं कर सकता है, उसकी ईर्यासमिति भंग होती है। चलते हुए इधर-उधर देखने की प्रवृत्ति साधु के लिये उचित नहीं है। क्योंकि यशोधन न कर सकने के कारण त्रस-स्थावर प्राणियों की हिंसा होना सम्भव है। चक्ष-इन्द्रिय का संयम प्रथम महाव्रत में जीवरक्षा के लिए है, चतुर्थ महावत में चक्ष-इन्द्रिय का संयम स्त्री आदि का निरीक्षण न करने के लिए है। पांचवें महाव्रत की दूसरी भावना ही चक्षइन्द्रिय का संयम रखना है। 4. तितिनक-मनोज्ञ आहारादि प्राप्त न होने पर जो खिन्न होकर बड़बड़ करता रहता है एवं इच्छित आहार की प्राप्ति में एषणा के दोषों की उपेक्षा भी करता है / इस प्रकार वह तिनतिनाट करने के स्वभाव से एषणासमिति को भंग करने वाला कहा गया है। 5. इच्छालोलुप-सरस आहार की, वस्त्र-पात्रादि उपकरणों की तथा शिष्य आदि की अत्यन्त अभिलाषा रखने वाला भिक्षु अपरिग्रहप्रधान मुक्तिमार्ग का अनुसरण नहीं करता है। क्योंकि मुक्तिमार्ग रूप संयम में इच्छाओं एवं ममत्व का कम होना ही प्रमुख लक्षण है। इसका नाश करने वाला इच्छालोलुप साधक मुक्तिमार्ग का नाश करने वाला कहा गया है / 6. भिध्या निदानकरण-लोभवश या प्रासक्तिवश मनुष्य देव सम्बन्धी या अन्य किसी भी प्रकार का निदान (धर्माचरण के फलस्वरूप लौकिक सुखों की प्राप्ति का संकल्प) करने वाला भिक्ष इन निदान-संकल्पों से दूसरे भवों में भी मोक्ष प्राप्त न करके नरकगति आदि में परिभ्रमण करता रहता है / इस प्रकार यह निदानकरण मोक्षप्राप्ति का विच्छेद करने वाला है। किसी प्रकार का लोभ या आसक्ति न रखते हुए केवल ज्ञानादि गुणों की आराधना के लिए या मुक्तिप्राप्ति के लिए परमात्मा से याचना-प्रार्थना करना प्रशस्त भाव है एवं अनिदान है। यथा-१. तित्थयरा मे पसीयंतु। 2. आरुग्गबोहिलाभ, समाहिवरमुत्तमं दितु / 3. सिद्धा सिद्धि मम विसंतु। -~आव. अ. 2, गा. 5-6-7 इस प्रकार की प्रार्थना में लोभ नहीं है, इसलिए यह याचना मोक्षसाधक है, बाधक नहीं। ऐसा टीकाकार ने “भिज्जा" शब्द की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया है। वह टीका इस प्रकार है "भिज्ज" ति लोभस्तेन यद् निदानकरणं / भिज्जा ग्रहणेन यदलोभस्य भवनिर्वेदमार्गानुसारितादिप्रार्थनं तन्न मोक्षमार्गस्य परिमन्थरित्यावेदितं प्रतिपत्तव्यम्। -बृहत्कल्पभाष्य भाग 6 कई प्रतियों में भ्रम से "भिज्जा" के स्थान "भुज्जो" आदि पाठ भी बन गये हैं, जो कि टीकाकार के बाद में बने हैं। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256] [बृहत्कल्पसूत्र छह प्रकार की कल्पस्थिति 20. छम्विहा कप्पट्टिई पण्णत्ता, तं जहा 1. सामाइय-संजय-कप्पट्टिई, 2. छेनोवट्ठावणिय-संजय-कप्पट्टिई, 3. निविसमाण-कप्पट्टिई, 4. निस्विटुकाइय-कप्पट्टिई, 5. जिणकप्पट्टिई, 6. थेरकप्पट्टिई। कल्प की स्थिति--आचार की मर्यादाएं छह प्रकार की कही गई हैं / यथा 1. सामायिकचारित्र की मर्यादाएं, 2. छेदोपस्थापनीयचारित्र की मर्यादाएं, 3. परिहारविशुद्धिचारित्र में तप वहन करने वाले की मर्यादाएं, 4. परिहारविशुद्धिचारित्र में गुरुकल्प व अनुपरिहारिक भिक्षुषों की मर्यादाएं, 5. गच्छनिर्गत विशिष्ट तपस्वी जीवन बिताने वाले जिनकल्पी भिक्षुओं की मर्यादाएं, 6. स्थविरकल्पी अर्थात् गच्छवासी भिक्षुओं की मर्यादाएं। विवेचन-यहां "कल्प" का अर्थ संयत का प्राचार है। उसमें अवस्थित रहना कल्पस्थिति कहा जाता है। निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों की समाचारी (मर्यादा) को भी कल्पस्थिति कहा जाता है। वह छह प्रकार की कही गई है। यथा 1. सामायिकसयत-कल्पस्थिति-समभाव में रहना और सभी सावध प्रवृत्तियों का परित्याग करना, यह सामायिकसंयत-कल्पस्थिति है। यह दो प्रकार की होती है 1. इत्वरकालिक-जब तक पंच महाव्रतों का आरोपण न किया जाए तब तक इत्वरकालिक सामायिक-कल्पस्थिति है। 2. यावज्जीविक-जीवनपर्यन्त रहने वाली सामायिक यावज्जीविक सामायिककल्पस्थिति है। जिसमें पुनः महावतारोपण न किया जाय, यह मध्यम तीर्थंकरों के शासनकाल में होती है / 2. छेदोपस्थापनीय-संयत-कल्पस्थिति बड़ी दीक्षा देना या पुनः महाव्रतारोपण करना। यह कल्पस्थिति दो प्रकार की होती है-- 1. निरतिचार-इत्वरसामायिक वाले शैक्षकों को अथवा भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यों को पंच महाव्रतों की प्रारोपणा कराना निरतिचार छेदोपस्थापनीय-संयत-कल्पस्थिति है। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ट्ठा उद्देशक [257 2. सातिचार-पंच महाव्रत स्वीकार करने के बाद जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी जानबूझकर किसी एक महाव्रत को यावत् पांचों महाव्रतों को भंग करे तो उसकी पूर्व दीक्षापर्याय का छेदन कर पुनः महाव्रतारोपण कराना सातिचार-छेदोपस्थापनीय-संयत-कल्पस्थिति है। 3. निविशमान-कल्पस्थिति -परिहारविशुद्धि संयम में तप की साधना करने वाले साधुओं की समाचारी को निर्विशमान-कल्पस्थिति कहते हैं। ___4. निविष्टकायिक-कल्पस्थिति-जो साधु संयम की विशुद्धि रूप तप-साधना कर चुके हैं, उनकी समाचारी को निर्विष्टकायिक-कल्पस्थिति कहते हैं। 5. जिनकल्पस्थिति- गच्छ से निकलकर एकाकी विचरने वाले पाणिपात्र-भोजी गीतार्थ साधुओं की समाचारी को जिनकल्पस्थिति कहते हैं। 6. स्थविरकल्पस्थिति-गच्छ के भीतर प्राचार्यादि की आज्ञा में रहने वाले साधुओं की समाचारी को स्थविरकल्पस्थिति कहते हैं। इस प्रकार तीर्थंकरों ने साधुओं की कल्पस्थिति छह प्रकार की कही है / छ? उद्देशक का सारांश सूत्र 1 साधु-साध्वी को छह प्रकार के अकल्पनीय वचन नहीं बोलना चाहिये। किसी भी साधु पर असत्य आरोप नहीं लगाना। क्योंकि प्रमाणाभाव में स्वयं को प्रायश्चित्त का पात्र होना पड़ता है। परिस्थितिवश साधु-साध्वी एक दूसरे के पैर में से कंटक आदि निकाल सकते हैं और प्रांख में पड़ी रज आदि भी निकाल सकते हैं / 7-18 सूत्रोक्त विशेष परिस्थितियों में साधु-साध्वी को सहारा दे सकता है एवं परिचर्या कर सकता है। साधु-साध्वी संयमनाशक छह दोषों को जानकर उनका परित्याग करे। संयमपालन करने वालों की भिन्न-भिन्न साधना की अपेक्षा से छह प्रकार की आचारमर्यादा होती है। उपसंहार इस उद्देशक में अकल्प्य वचन बोलने के निषेध का, आक्षेप वचन प्रमाणित नहीं करने के प्रायश्चित्त का, _3-18 अपवादमार्ग में साधु-साध्वी के परस्पर सेवा कर्तव्यों का, सूत्र 1 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 255 [बृहस्कल्पसूत्र सूत्र 19 संयमनाशक दोषों का, . छह प्रकार की कल्प मर्यादाओं का, इत्यादि विषयों का कथन किया गया है / ॥छट्ठा उद्देशक समाप्त // सूत्र संख्या को तालिका उद्देशक सूत्र 30 ** NewM our.. 217 // बृहत्कल्पसूत्र समाप्त // Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भागमप्रकाशन-समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों की शुभ नामावली महास्तम्भ संरक्षक 1. श्री सेठ मोहनमलजी चोरड़िया , मद्रास 1. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली 2. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, 2. श्री ज्ञानराजजी केवलचन्दजी मूथा, पाली सिकन्दराबाद 3. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी मेहता, मेड़ता सिटी 3. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर 4. श्री श० जडावमलजी माणकचन्दजी बेताला, 4. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरडिया, बैंगलोर बागलकोट 5. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग 5. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर 6. श्री एस. किशनचन्दजी चोरडिया, मद्रास 6. श्री मोहनलालजी नेमीचन्दजी ललवाणी, 7. श्री कंवरलालजी बैताला, गोहाटी चांगाटोला 8. श्री सेठ खींवराजजी चोरडिया मद्रास 7. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरडिया, मद्रास 9. श्री गुमानमलजी चोरड़िया, मद्रास 8. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगा१०. श्री एस. बादलचन्दजी चोरडिया, मद्रास टीला 11. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 9. श्रीमती सिरेकुवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगन१२. श्री एस. रतनचन्दजी चोरडिया, मद्रास चन्दजी झामड़, मदुरान्तकम् 13. श्री जे. अन्नराजजी चोरडिया, मद्रास 10. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा 14. श्री एस. सायरचन्दजी चोरडिया, मद्रास (K. G. F.) जाड़न / 15. श्री आर. शान्तिलालजी उत्तमचन्दजी 11. श्री थानचन्दजी मेहता, जोधपुर चोरडिया, मद्रास 12. श्री भैरुदानजी लाभचन्दजी सुराणा, नागौर 16. श्री सिरेमलजी हीराचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 13. श्री खूबचन्दजी गादिया, ब्यावर 17. श्री जे. हुक्मीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 14. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया स्तम्भ सदस्य ब्यावर 1. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपर 15. श्री इन्द्रचन्दजी बैद, राजनांदगांव 2. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर 16. श्री रावतमलजी भीकमचन्दजी पगारिया, 3. श्री तिलोकचंदजी, सागरमलजी संचेती, मद्रास बालाघाट 4. श्री पूसालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा, कटंगी 17. श्री गणेशमलजी धर्मीचन्दजी कांकरिया, टंगला 5. श्री आर. प्रसन्नचन्दजी चोरडिया, मद्रास 18. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर 6. श्री दीपचन्दजी चोरडिया, मद्रास 19. श्री हरकचन्दजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर 7. श्री मूलचन्दजी चोरडिया, कटंगी 20. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचन्दजी लोढ़ा, 8. श्री वर्द्धमान इण्डस्ट्रीज, कानपुर ___ चांगाटोला 9. श्री मांगीलालजी मिश्रीलालजी संचेती, दुर्ग 21. श्री सिद्धकरणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोला Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सदस्य-नामावली 22. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास 8. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली 23. श्री मोहनराजजी मुकनचन्दजी बालिया, 9. श्री के. पुखराजजी बाफणा, मद्रास अहमदाबाद 10. श्री रूपराजजी जोधराजजी मूथा, दिल्ली 24. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तलेसरा, पाली 11. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, रायपुर 25. श्री रतनचन्दजी उत्तमचन्दजी मोदी, ब्यावर 12. श्री नथमलजी मोहनलालजी लूणिया, चण्डावल 26. श्री धर्मीचन्दजी भागचन्दजी बोहरा, झठा 13. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया, 27. श्री छोगमलजी हेमराजजी लोढ़ा डोंडीलोहारा कुशालपुरा 28. श्री गुणचंदजी दलीचंदजी कटारिया, बेल्लारी 14. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर 29. श्री मूलचन्दजी सुजानमलजी संचेती, जोधपूर 15. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर 30. श्री सी० अमरचन्दजी बोथरा, मद्रास 16. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपूर 31. श्री भंवरलालजी मूलचंदजी सुराणा, मद्रास 17. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टांटिया, जोधपुर 32. श्री बादलचंदजी जुगराजजी मेहता, इन्दौर 18. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर 33. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन 19. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपुर 34. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, अजमेर 20. श्रीमती सुन्दरबाई गोठी w/o श्री ताराचंदजी 35. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, गोठी, जोधपुर बैंगलोर 21. श्री रायचन्दजी मोहनलालजी, जोधपुर 36. श्री भंवरीमलजी चोरड़िया, मद्रास 22. श्री धेवरचन्दजी रूपराजजी, जोधपुर 37. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास 23. श्री भंवरलालजी माणकचंदजी सुराणा, मद्रास / 38. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना. अागरा 24. श्री जवरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी. ब्यावर 39. श्री घेवरचंदजी पुखराजजी भुरट, गोहाटी 25. श्रा माणकच 25. श्री माणकचन्दजी किशनलालजी, मेड़तासिटी 40. श्री जबरचन्दजी गेलड़ा, मद्रास 26. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर 41. श्री जड़ावमलजी सुगनचन्दजी, मद्रास 27. श्री जसराजजी जंवरीलालजी धारीवाल, जोधपुर 28. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर 42. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास 43. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, मद्रास 29. श्री नेमीचंदजी डाकलिया मेहता, जोधपुर 44. श्री लणकरणजी रिखबचंदजी लोढ़ा, मद्रास / 30. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर 45. श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी महेता, कोप्पल 21 - 31. श्री प्रासूमल एण्ड के०, जोधपुर 32. श्री पुखराजजी लोढा, जोधपुर __ सहयोगी सदस्य 33. श्रीमती सुगनीबाई W/o श्री मिश्रीलालजी 1. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसा, मेड़तासिटी सांड, जोधपुर 2. श्रीमती छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर 34. श्री बच्छराजी सुराणा, जोधपुर 3. श्री पूनमचन्दजी नाहटा, जोधपुर 35. श्री हरकचन्दजी मेहता, जोधपुर 4. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, 36. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर विल्लीपुरम् 37. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, 5. श्री भंवरलालजी चौपड़ा, ब्यावर जोधपुर 6. श्री विजयराजजी रतनलालजी चतर, ब्यावर 38. श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया, जोधपुर 7. श्री बी. गजराजजी बोकडिया, सेलम 39. श्री मांगीलालजी चोरा Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-नामावली 40. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई 69. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी देशलहरा, भिलाई 41. श्री प्रोकचंदजी हेमराजजी सोनी, दुर्ग 70. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, 42. श्री सूरजकरणजी सुराणा, मद्रास __ दल्ली-राजहरा 43. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग 71. श्री चम्पालालजी बुद्धराजजी बाफणा, ब्यावर 44. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपोर्ट कं.) 72. श्री गंगारामजी इन्द्रचंदजी बोहरा, कुचेरा जोधपुर 73. श्री फतेहराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, कलकत्ता 45. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना 74. श्री बालचंदजी थानचन्दजी भरट, 46. श्री प्रेमराजजी मीठालालजी कामदार, कलकत्ता बैंगलोर 75. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर 47. श्री भंवरलालजी मूथा एण्ड सन्स, जयपुर 76. श्री जंवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, 48. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर बोलारम 49. श्री भंवरलालजी नवरत्नमलजी सांखला, 77. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया मेट्टपालियम 78. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली 50. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुल्ली 79. श्री माणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, टंगला 51. श्री आसकरणजी जसराजजी पारख, दुर्ग 80. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढा, ब्यावर 52. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई 81. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गोहाटी 53. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, 82. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठ ___ मेड़तासिटी 83. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, 54. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर कुचेरा 55. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर 84. श्री मांगीलालजी मदनलालजी चोरड़िया, भैरूंद 56. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर 85. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा 57. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर 86. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जंवरीलालजी 58. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़ता कोठारी, गोठन सिटी 87. श्री सरदारमलजी एण्ड कम्पनी, जोधपुर 59. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर 88. श्री चम्पालालजी हीरालालजी बागरेचा, 60. श्री मांगीलालजी प्रकाशचन्दजी रूणवाल, मैसूर जोधपुर 61. श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया कलां 89. श्री धुखराजजी कटारिया, जोधपुर 62. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर 90. श्री इन्द्रचन्दजी मुकनचन्दजी, इन्दौर 63. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजो मोदी, भिलाई 91. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर 64. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा 92. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर 65. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर 93. श्री बालचन्दजी अमरचन्दजी मोदी, ब्यावर 66. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी मुलेच्छा, 94. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भंडारी, बैंगलोर राजनांदगाँव 65. श्रीमती कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी श्री 67. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई स्व. पारसमलजी ललवाणी, गोठन 68. श्री भंवरलालजी डूंगरमलजी कांकरिया, 96. श्री अखेचंदजी लणकरणजी भण्डारी, कलकत्ता भिलाई 97. श्री सुगनचन्दजी संचेती, राजनांदगांव Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सदस्य-नामावली 98. श्री प्रकाशचंदजी जैन, नागौर 116. श्रीमती रामकुंवरबाई धर्मपत्नी श्री चांदमलजो 99. श्री कुशालचंदजी रिखबचन्दजी सुराणा, लोढा, बम्बई बोलारम 117. श्री मांगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर 100. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, 118. श्री सांचालालजी बाफणा, औरंगाबाद कुचेरा 119. श्री भीखमचन्दजी माणकचन्दजी खाबिया, 101. श्री गूदडमलजी चम्पालालजी, गोठन (कुडालोर) मद्रास 102. श्री तेजराजजी कोठारी, मांगलियावास 120. श्रीमती अनोपकुंवर धर्मपत्नी श्री चम्पालालजी 103. सम्पतराजजी चोरड़िया, मद्रास / संघवी, कुचेरा 104. श्री अमरचंदजी छाजेड़, पादु बड़ी 121. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला 105. श्री जुगराजजी धनराजजी बरमेचा, मद्रास 122. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कलकत्ता 106. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास 123. श्री भीखमचन्दजी गणेशमलजी चौधरी, 107. श्रीमती कंचनदेवी व निर्मलादेवी. मद्रास 108. श्री दुलेराजजी भंवरलालजी कोठारी, 124. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड़, कुशालपुरा सिकन्दराबाद 109. श्री भंवरलाल जी मांगीलालजी बेताला, डेह 125. श्री मिश्रीलालजी सज्जनलालजी कटारिया 110. श्री जीवराजजी भंवरलालजी चोरडिया, सिकन्दराबाद भैरूदा 126. श्री वर्तमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, 111. श्री मांगीलालजी शांतिलालजी रूणवाल, बगड़ीनगर हरसोलाव 127. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, 112. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर बिलाड़ा 113. श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर 128. श्री टी. पारसमलजी चोरडिया, मद्रास 114. श्री भूरमलजी दुलीचंदजो बोकड़िया, मेड़ता 129. श्री मोतीलालजी आसूलालजी बोहरा सिटी एण्ड कं., बैंगलोर 115. श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली 130. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ 00 धलिया Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम आगमप्रकाशन समिति, ब्यावर द्वारा अद्यावधि प्रकाशित आगम-सा अनुवादक-सम्पादक आचारांगसूत्र दो भाग श्रीचन्द सुराना 'सरस' उपासकदशांगसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री (एम.ए., पी-एच. डी.) ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल अन्तकृद्दशांगसूत्र साध्वी दिव्यप्रभा (एम.ए., पी-एच.डी.) अनुत्तरोववाइयसूत्र साध्वी मुक्तिप्रभा (एम.ए., पी-एच.डी.) स्थानांगसूत्र पं. हीरालाल शास्त्री समवायांगसूत्र पं. हीरालाल शास्त्री सूत्रकृतांगसूत्र श्रीचन्द सुराना 'सरस' विपाकसूत्र अनु. पं. रोशनलाल शास्त्री सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल नन्दीसूत्र अनु. साध्वी उमरावकंवर 'अर्चना' सम्पा. कमला जैन 'जीजी' एम. ए. औपपातिकसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [चार भाग] श्री अमरमुनि राजप्रश्नीयसूत्र वाणीभूषण रतनमुनि, सं. देवकुमार जैन प्रज्ञापनासूत्र [तीन भाग] जैनभूषण ज्ञानमुनि प्रश्नव्याकरणसूत्र अनु. मुनि प्रवीणऋषि सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल उत्तराध्ययनसूत्र श्री राजेन्द्रमुनि शास्त्री निरयावलिकासूत्र श्री देवकुमार जैन दशवकालिकसूत्र महासती पुष्पवती आवश्यकसूत्र महासती सुप्रभा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री अनुयोगद्वारसूत्र उपाध्याय श्री केवलमुनि, सं. देवकुमार जैन सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र सम्पा. मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' जीवाजीवाभिगमसूत्र [प्र. भाग] श्री राजेन्द्रमुनि जीवाजीवाभिगमसूत्र द्वि. भा.] निशीथसूत्र मुनिश्री कन्हैयालालजी 'कमल', श्री तिलोकमुनि त्रीणिछेदसूत्राणि विशेष जानकारी के लिये सम्पर्कसूत्र श्री आगम प्रकाशन समिति श्री ब्रज-मधुकर स्मृति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर-३०५९०१ in Education International