________________
दीक्षागुरुका नाम जयसेन अवश्य था, जिनका कि उल्लेख आदिपुराणकी उत्थानिकामें वीरसेन स्वामीके पीछे मिलता है:. जन्मभूमिस्तपोलक्ष्भ्याः श्रुतप्रशमयोनिधिः ।।
जयसेनगुरुः पातुः बुधवृन्दाग्रणीः स नः ।।५८॥ ' अर्थात् तपरूपी लक्ष्मीके जन्मस्थान (दीक्षा देनेवाले) और शास्त्र तथा शान्तिके कोश और विद्वानोंके अगुए जयसेनगुरु हमारी रक्षा करें।
इस तरह वीरसेनस्वामी के तीन शिष्योंका उल्लेख मिलता है । कौन कह सकता है कि, उनके ऐसे २ महा विद्वान् और कितने शिप्य थे?
जिनसेनस्वामीके शिष्योंमें केवल गुणभद्रस्वामीका ही उल्लेख मिलता है और इन्हींकी सबसे अधिक प्रसिद्ध है । अथवा दूसरे गृहस्थ शिष्य जगद्विख्यात महाराजाधिराज अमोघवर्ष थे, जिन्होंने कि राज्यका परित्याग कर दिया था। इनका विशेष परिचय हम आगे चलकर करावेंगे।
गुणभद्रस्वामीके अनेक शिष्योमेंसे केवल दो शिप्योंके विषयमें हम कुछ जानते हैं, एक तो लोकसेन जिनके उपकारके लिये आत्मानुशासन नामक ग्रन्थकी रचना हुई है और दूसरे मण्डलपुरुष जिन्होंने 'चूडामणि-निघण्टु ' नामक द्राविड़भाषाका कोश बनाया है। लोकसेनके विषयमें उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें इस प्रकार लिखा है:
विदितसकलशास्त्रो लोकसेनो मुनीशः .. .
कविरविकलत्तस्तस्य शिष्येषु मुख्यः । सततमिह पुराणे प्राप्य साहाय्यमुच्चै
गुरुविनययनपीन्मान्यतां स्वस्य सन्दिः ।। २५ ॥