________________
(१६६)
सम्पूर्ण दर्शकोंने जयजयकार किया । इसके पश्चात् जब स्वामी चौवीस तीर्थंकरोंकी स्तुति पूर्ण कर चुके, तब रागाने पूछा कि आप कौन हैं ? आपने यह वेप क्यों धारण किया और यहां आनेका क्या कारण है? तब स्वामीने यह श्लोक कहकर अपना परिचय दिया--
काञ्च्यां नग्नाटकोऽहं
मलमलिनतनुर्लाम्बशे पाण्डुपिण्डः। पुण्ड्रेण्डे शाक्यभिक्षु
देशपुरनगरे मिष्टमोजी परिवाद।। वाराणस्यामभूवं
शशधरधवलः पाण्डुरागस्तपस्वी राजन् यस्यास्ति शक्तिः
स वदतु पुरतो जैननिन्थवादी ।। • भावार्थ- मैं काञ्ची नगरीका नग्न दिगम्बर यति; शरीरमें रोग होनेसे पुंद नगरीमें बुद्धभिक्षुक बनके रहा, फिर दशपुर नगरमें मिष्टान्नभोजी परिव्राजक बनके रहा, फिर इस वाराणसी में आकर शैव तपस्वी बनके रहा । हे राजन्, मैं जैननिर्ग्रन्थवादी-स्याद्वादी हूं।
यहा जिसकी शक्ति वाद करनेकी हो, वह मेरे सम्मुख आकर — वाद करे। ... स्वामीका आत्मचरित्र सुनकर राजाने जान लिया कि ये कोई
महान् विद्वान् आचार्य हैं । अलौकिक स्तवनके प्रभावसे जब शिवमर्ति खंडित हुई थी और चंद्रप्रभकी मूर्ति प्रगट हो गई थी, उसी, समय राजाकी स्वामीपर भक्ति हो गई थी और यह उनका वृत्तान्त