Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
नमः श्रीवीतरागाय ।
PER
SA
WHI
संपादकनाथूराम प्रेमी.
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनमित्रका तैरहवें वर्षका उपहार
-
| संघी
नमः श्रीवीतरागायत्रविद्वद्रत्नमाला.
प्रथम भाग।
अर्थात् संस्कृतके सात ग्रन्थकर्ताओंका परिचय ।
लेखक-देवरी निवासी नाथूराम प्रेमी । प्रकाशक-जैनमित्र कार्यालय, बम्बई ।
मुद्रकचिं. स. देवळे बम्बईवैभव प्रेस, बम्बई।
अक्टूबर १९१२
प्रथमावृत्ति ] अन्य नं० ४. [ माठ आना.
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
quamur
PUBLISHEK : SITALPRASAD BRAHUCHARI,
Editor Jain-Mitra Karyalaya, HIRABAG, GIRGAOS, BOSEBAY,
asisR
Printed by
C.S. DEOLE at bis Bombay Vaibbar Press, 1, Sadashir Lane, Girgaon,
BOMLAY.
Laron
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
मस्तावना। र हमारा प्राचीन इतिहास बड़े ही अन्धकारमें पड़ा हुआ है। प्राचीनकालमें हमारे पूर्व पुरुष कैसे प्रतिभाशाली और कीर्तिशाली हो गये हैं, इसके जाननेके लिये आज हमारी सन्तानके पास कोई साधन नहीं है। आज तक संसारमें जिन जिन जातियोंने उन्नति की है, उन सक्ने प्रायः अपने प्राचीन इतिहास पढ़कर की है। अपनी जातिके प्राचीन गौरवका इतिहास पढ़कर मनुष्यके हृदयमें उसका अभिमान उत्पन्न होता है और उस अभिमानसे वह अपनी अवस्थाको सुधारनेका प्रयत्न करता है तथा अपने पुरुषाओंके चरितीका अनुकरण करनेके लिये तत्पर होता है। इतिहाससे वह यह भी जान सकता है कि हमारी अवनति किन किन कारणोंसे हुई है और जब हम उन्नतशील थे तब ऐसे कौन कौन कारण मौजूद थे जिनसे हम उन्नतिके पथपर जा रहे थे। इस विषयके ज्ञानसे हम अपने उन्नतिके मार्गको सुगम कर सकते हैं । परन्तु खेद है कि उन्नतिके इस अपूर्व साधनसे जैनसन्तान वंचित हो रही है। उसके हृदयमें अपने पुरुषाओंका अमिमान उत्पन्न करनेके लिये और अपनी उन्नति अवनतिके कारण जाननेके लिये इस कमीको बहुत जल्दी पूरी करनेकी ज़रूरत है। . जैनियोंके इतिहासके मुख्य दो भाग हैं-एक तो ऋपभदेव भग
नसे लेकर अंतिम तीर्थंकर महावीर भगवानके निर्वाणतकका और इसरा निर्वाणसे लेकर वर्तमान समय तकका । इनमेंसे पहला भाग तो हमारे पुराणग्रन्योंमें शंखलाबद्ध सुरक्षित है परन्तु दूसरा माग बिलकुल अंधेरेमें है । इसी भागको शृंखलाबद्ध करके लिखनेकी
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२) आवश्यकता है । इस दूसरे भागमें महावीर भगवान निर्वाणके समय जैनधर्मकी क्या अवस्था थी, दूसरे कौन कौन धर्म थे, वे कैसी अवस्थामें थे, कौन कौन राजा जैनी थे, किन किन देशोंमें जैनधर्मका प्रचार था, जैनसाहित्य और मुनियोंका संव किस अवस्थामें था, दूसरे धर्मोंपर उसका क्या प्रभाव पड़ा, पीछे कब तक जैनधर्मकी उन्नतिका काल रहा और कब उसकी अवनति आरंभ हुई, अवनति होनेके कारण क्या थे, संघभेद कब और क्य हुए, साम्प्रदायिक भेद, उपभेद, गण, गच्छ, अन्वयादि कितने हुए किन कारणोंसे उनमें मतविभिन्नता हुई, किन किन भाषाओं जैनसाहित्य अवतीर्ण हुआ, और इस समय जैनधर्म जैन साहित्य और जैननातिकी क्या अवस्था है, इत्यादि वातोंक समावेश होना चाहिए । इसका सम्पादन करना ऐतिहासि क तत्त्वोंके मर्मज्ञ और नाना भाषाओंके ज्ञाता विद्वानोंका कार्य है उसके लिये उपयुक्त साधनोंकी भी बहुत आवश्यकता है। इस लिरे उसकी पूर्तिकी चर्चा करना मेरे लिये " छोटा मुंह बड़ी वात' के कहावतको चरितार्थ करना है। परन्तु इस भागके अन्तर्गत जो ग्रन्थ कर्ता विद्वानों और आचार्योंका इतिहास है, जैनधर्मके ग्रन्थोंका स्वा ध्याय करते रहनेसे उसका थोड़ा बहुत परिचय मुझे होता रहता। और परिश्रम करनेसे उसके थोड़े बहुत साधन इधर उधरसे भी मिर जाते हैं, इस लिये मैंने उसके एक अंशकी पूर्ति करनेका यह प्रयल किया है । मुझे आशा है कि जवतक इस विषयका कोई . अच्छ ग्रन्थ नहीं बना है, तवतक समाज एक अल्पज्ञकी इस छोटीस भेंटको सस्नेह स्वीकार करनेकी उदारता दिखलायगा और यदि इस
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
गच्छ ग्रहण करने योग्य होगा तो उसे ग्रहण करके मुझे उत्साहित करेगा।. . . . . . .. - जैनियोंको जैसे इतिहासकी आवश्यकता है उसकी पूर्ति अभी नहीं होगी-धीरे २ समय पाकर होगी। अभी तो हमारे यहां इस विषयकी चर्चा ही शुरू हुई है । दश वीस वर्षमें जब हमारी इस विषयकी . ओर पूर्ण अमिरुचि होगी, विद्वानोंके द्वारा इस विषयके सैकड़ों फुटकर लेख प्रकाशित हो लेंगे, अप्रकाशित और अप्राप्य ग्रन्थ छपकर प्रकाशित हो जावेंगे, उनका पठन पाठन होने लगेगा; तव कही किसी अच्छे विद्वानके द्वारा इसका संग्रह हो सकेगा। परन्तु इस विषयकी ओर समाजको अभीसे ध्यान देना चाहिए । यह बड़ी भारी प्रसन्नताकी वात है कि स्वर्गीय वाबू देवकुमारजीके जैनसिद्धान्त-भत्रनकी ओरसे केवल ऐतिहासिक विषयोंकी चर्चा करने'वाला एक स्वतंत्र पत्र प्रकाशित होने लगा है। इसकी बड़ी मारी
आवश्यकता थी । आशा है कि इस पत्रसे जैनइतिहासके उद्धारकार्यमें बहुत सहायता पहुंचेगी ।
लगभग चार वर्ष पहले मैंने नैनहितैषी विद्वद्रत्नमाला नामकी लेखमाला लिखनेका प्रारंभ किया था। उसमें अब तक जितने लेख प्रकाशित हुए थे, प्रायः उन सबका इस पुस्तकमें संग्रह कर दिया गया है। यह लेखमाला अभी चल रही है और यदि कोई विघ्न उपस्थित नहीं हुआ तो आगे भी चलती रहेगी। इस लिये अब तकका यह संग्रह प्रथम भागके नामसे प्रकाशित किया जाता है। हो सका तो आगामी वर्ष इसका दूसरा माग भी प्रकाशित करनेका प्रयत्न किया जायगा । दूसरे भागमें महाकवि वादीमसिंह, पूज्यपाद, नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती, उमास्वामी, शुभचन्द्र, अकलंकभट्ट, कुन्दकुन्दाचार्य, स्वामिकार्तिकेय,
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
(४)
कवि हस्तिमल्ल, पुष्पदन्त, प्रमाचन्द्र आदि विद्वानोंका परिचय रहेगा __ जैनहितैषीमें उक्त लेखोंके प्रकाशित होनेके वाद जो नई ना बातें मालूम हुई हैं, वे सब इस पुस्तकमें शामिल कर दी गई है और जो बातें पहले भ्रमवश लिख दी गई थीं, उनका इसमें. संशो. धन कर दिया गया है। अतएव जो महाशय इन लेखोंको पहले, जैनहितैषीमें पढ़ चुके हैं उनसे भी हमारा अनुरोध है कि वे एक, बार इस संग्रहका स्वाध्याय अवश्य करें। उन्हें इसमें बहुत कुर्छ, नवीनता मिलेगी । साधारण पाठकोंके लिये तो इसमें सब ही कुछ नवीन है । वे तो इसे मन लगाकर पढेंगेही।
निस समय इस पुस्तकका छपाना प्रारंभ हुआ उसी समय मैं बीमार हो गया, इसलिये इसका संशोधन जैसा चाहिए वैसा नहीं हो सका।
आशा है कि पाठक इस दोषपर ध्यान न देकर पुस्तकमें यदि कुछ गुण हों तो केवल उन्हें ही ग्रहण करनेकी उदारता दिखलावेंगे।
___ बम्बई.
१५-१०-१२
नाथूराम प्रेमी।
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूची ।
१ जिनसेन और गुणभद्राचार्य
२ पण्डितप्रवर आशाघर
३ श्रीअमितगतिसूर ४ श्रीवादिराजसूरि ५ महाकवि मल्लिषेण
६ श्री समन्तभद्राचार्य
....
....
....
2000
....
....
8000
....
....
1000
....
....
0000
....
0.00
2000
....
....
पृष्ठसंख्या
१
९०
११५
१४१
१५४
१९९
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
नमः सिद्धेभ्यः विद्वद्रत्नमाला।
।
i
जिनसेन और गुणभदाचार्य।
हम अपने पाठकोंको इस लेखमें ऐसे दो महात्माओंका परिचय कराते हैं, जिनका सिंहासन जैनियोंके संस्कृत साहित्यमें बहुत ही ऊंचा समझा जाता है और जिन्होंने अपनी अपूर्व कृतिको संसारमें छोड़कर अपना नाम युगयुगके लिये अमर कर दिया है। इन अपारप्रज्ञावान् महात्माओंका नाम भगवजिनसेनाचार्य और भगवद्गुण. भद्राचार्य है।
. वंशपरिचय । इन महामुनियोंने किस जाति वा कुलमें जन्म लिया था, इसके नाननेका कोई साधन नहीं हैं। इन्होंने स्वयं अपने ग्रन्योंमें इस
तका उल्लेख नहीं किया है । मुनियोंको क्या आवश्यकता है कि, । अपनी गृहस्थावस्थाका स्मरण करें ? और उस समयके तथा पीके ग्रन्थकर्ताओंको जिन्होंने कि, उनका कुछ उल्लेख किया है, जेनसेन वा गुणभद्रके पारमार्थिक वंशका वर्णन करनेकी अपेक्षा उनके सासारिक वंशका परिचय देना कुछ विशेष महत्त्वका न जंचा
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२) होगा । जैसा कि, महाकवि धनंजयने भगवानकी स्तुति करते .म. कहा है:तस्यात्मजस्तस्य पितति देव त्वां येऽवगायन्ति कुलं प्रकाश्य तेऽद्यापि नन्वाश्मनमित्यवश्यं पाणौ कृतं हेम पुनरूपजन्ति ॥
अभिप्राय यह है कि, हे भगवन् ! जो लोग आपका इस · । कुल प्रगट करके प्रशंसा करते हैं कि आप अमुकके पुत्र हैं ..
अमुकके पिता हैं, वे मानो. हाथमें आये हुए सोनको पत्थर स.झ+ फेंक देते हैं !
· वास्तवमें वात ऐसी ही है। जिनसेनस्वामी और गुणभद्रस्व मीके कुलका पता लगानेसे उनकी उस प्रशंसामें कुछ वृद्धि न हो सकती है, जो कि उनकी कृतिसे और उनके अपार पांडित्य हो रही है । परन्तु वर्तमानमें ऐतिहासिक दृष्टिसे इसका विचार का नेकी भी आवश्यकता है । अनुमानसे हम इतना कह सकते है कि, या तो ये भट्टाकलंकदेवके समान राजाश्रित किसी उच्च प्राम कुलमें उत्पन्न हुए होंगे, या इन्होंने जैन ब्राह्मण(उपाध्याय)और .. पंचम आदि तीन चार जातियोंमेंसे किसी एकको वा दोको अ. जन्मसे पवित्र किया होगा । क्योंकि जिस प्रान्तमें ये रहे हैं तथा जा. इनके जन्मकी संभावना है, वहां इन्हीं जातियोंमें जैनधर्म पाया जाता भगवान् जिनसेनके विषयमें तो निश्चयपूर्वक कुछ कहा नहीं . सकता है। परन्तु गुणभद्रस्वामीके विषयमें द्राविड़भाषाके डा. निघंटुसे पता लगता है कि, वे तिरुनरुकुण्डम् (Tirunar kundam ) नामक ग्रामके रहनेवाले थे, जो कि इस समय क्ष
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
'अर्काट निलेके [ South Arcot District ] अन्तर्गतं समझा जाता है। इसके. सिवाय यह भी सुना जाता है कि कर्नाटकी वा द्राविड़भाषामें भी इनः महात्माओंने कई ग्रन्थोंकी रचना की है। इससे भी (नाना जाता है कि, ये कर्नाटक वा द्राविडदेशवासी होंगे। : हिन्दीपद्यमें एक ज्ञानप्रबोध नामका ग्रन्थ है, उसमें खंडेलवाल जातिकी उत्पत्तिके प्रकरणमें लिखा है कि, जिनसेनस्वामी पहले खंडेलानगरके राजा थे। परन्तु इस वातपर विश्वास नहीं किया जा सकता है। क्योंकि एक तो ज्ञानप्रबोधके कर्त्ताके कथनके सिवाय इस विषयमें और किसी प्राचीन ग्रन्थका प्रमाण नहीं है, दूसरे उन्होंने जो कुछ लिखा है, उसीपर थोडासा विचार करनेसे साफ मालूम हो जाता हैं कि यह केवल कपोलकल्पना हैं | देखिये, ज्ञानप्रबोधके थोड़ेसे पद्य हम वहांपर उद्धृत करते हैं:--
- राजा छौ मौटी भलौ, नाम सही जिनसेन । ' • खंडेलापुरको धणी, गुणपूरणको केन [?] ॥ ९॥ 'अपराजित मुनिके निकट, दीक्षा ले धरि भाव ।
आचारज जिनसेन तो, भये पुण्यपरभाव ॥ १० ॥ 'चेला होया पांचस, गुणभद्दर सिरदार ।
बुद्धि क्रियाका जोरत, आचारज़पदधार ॥ ११ ॥ थापी किरिया देशमें, पंचमकाल प्रमान । सिद्ध भई चक्रेश्वरी, होत भयो है मान ॥ १२ ॥
खंडेलामें जो बसें, आसपासके गाम । · सब ही श्रावक हो गये, गामतणूं धरि नाम ।। १३ ।।
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्येष्ठ शुक्लकी पंचमी, सुन्दर लगन विचार । महापुराण स्थापित करौ, सब ग्रन्थनको सार ॥१४॥ चेला श्रीगुणभद्रजी, गुरुआज्ञाकौं धार ॥ आदि अंत तक सब कथा, रच दीनी विस्तार ॥१५ तिनहीका परिपट्टमें, सब मुनिका सरदार । भये मुनी जिनचन्द्रजी, संयमपालनहार ॥१६॥ शिष्य भये तिनके सही, कुन्दकुन्द मुनिराज ।
ध्यानिनमैं उत्तम भये, जैसे सिरके ताज ॥ १७ ॥ इसमें एक तो यह वात विलकुल गलत है कि, जी गुरुका नाम अपराजित था । क्योंकि महापुराणमें तथा पाश्र्वाभ्यु दय आदिमें उन्होंने स्वयं अपने गुरुका नाम वीरसेन लिखा है, जैसा कि आगे दिखलाया जायगा। दूसरे गुणभद्रकी शिष्य परिपा' टीमें जिनचन्द्र और कुन्दकुन्दको वतलाना अच्छी तरहसे स्पष्ट क रहा है कि, ग्रन्थकत में ऐतिहासिक ज्ञानका सर्वथा अभाव था। . तो विक्रमकी पहली दूसरी शताब्दिके कुन्दकुन्दाचार्य और कहां न शताब्दिके गुणभद्राचार्य ! यदि कुन्दकुन्दकी परिपाटीमें गु .. लिखते, तो भी ठीक था। परन्तु यहां तो गुणभद्रकी परिपाटीमें कुन् कुन्दको लिखकर उलटी गंगा बहाई गई है !
इसके सिवाय पं० वखतरामजीकृत वुद्धिविलास नामक म५ पद्यग्रन्थमें खंडेलाका राजा खंडेलगिरि बतलाया है, जो पं. वंशका था और जिनसेनस्वामीका उक्त नगरमें कहींसे विहार कर
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५ )
I
हुए आना बतलाया है । इस ग्रन्थ में जिनसेनके गुरुका नाम यशो| मद्र बतलाया है, जो कि एक अंगके धारक थे । इससे भी ज्ञानवोधका कथन असत्य ठहरता है ।
" जिनसेन और गुणभद्रस्वामीके गृहस्थावस्थाके वंशका भले ही कुछ पता नहीं लगे, परन्तु उनके मुनिवंशका परिचय उनके ग्रन्थोंसे तथा || दूसरे उल्लेखोंसे भलीभाँति मिलता है । महावीर भगवान् के निर्वाणके पश्चात् जब तक श्वेताम्बरसम्प्रदायकी उत्पत्ति नहीं हुई थी, तब तक यह जैनधर्म संघभेदसे रहित था । केवल आर्हत, जैन, अनेकान्त आदि नामोंसे इसकी प्रसिद्धि थी । परन्तु जव विक्रमकी मृत्युके १३६ वर्ष पीछे श्वेताम्बरसम्प्रदाय पृथक् हुआ, तब दिगम्बरसम्प्रदाय मूलसंघके नामसे प्रसिद्ध हुआ । आगे मूलसंघमें भी अलि आचार्यके समय में जोकि वीरभगवानके निर्वाणसे लगभग ७०० वर्ष पीछे हुए हैं, चार भेद हुए ।
१. नन्दिसंघकी पट्टावलीमें यशोभद्रको चीरनिर्वाणके ४७४ वर्ष पीछे अर्थात् "विक्रम संवत्के प्रारंभमें वतलाया है । पट्टावलीमें जिनसेनका नाम नहीं है ! फ़ारन्तु यदि खंडेलवालोंकी उत्पत्तिका वृत्तान्त ज्ञानप्रबोध सरीखा कपोलकल्पित नहीं है, तो ऐसा माना जा सकता है कि, ये यशोभद्रके ऐसे अनेक शिष्योंमिस जो कि अंगधारी नहीं थे, एक होंगे और महापुराणके कत्तांसे सिवाय नामसाम्यके नका और कोई सम्बन्ध नहीं होगा। खंडेलवालोंकी उत्पत्तिके विषयमें जबतक केसी प्राचीन प्रामाणिक ग्रंथमें कुछ उल्लेख नहीं मिले, तबतक उसे असत्य समझना चाहिये ।
२
एकसए छत्तीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । सोरडे वलहीए उप्पण्णी सेवडो संघो ।
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
१ नन्दिसंघ, २ देवसंघ, ३ सेनसंघ और ४ सिंहसंघ । और इन संघोंमें भी. बलात्कार, पुन्नाट, 'देशीय, काणूर आदि गण तथा सरस्वती, पारिजात, पुस्तक, आदि गच्छ स्थापित हुए। ये भेद केवल मुनियोंके संघरागके कारण हुए हैं, किसी प्रकारके मतभेदसे नहीं हुए हैं। अर्थात् इन संघोंके तथा गण गच्छोंके मान्य पदाोंमें श्वेताम्बरों और दिगम्बरों जैसा अन्तर नहीं है, सब ही एक . ही मार्गके अविभक्त उपासक हैं । जैसा कि समयभूषणमें श्रीइन्द्रनन्दिसुरिने कहा है:
तदेव यतिराजोऽपि सर्वनैमित्तकाग्रणीः । अर्हदलिगुरुश्चक्रे संघसघट्टनं परम् ॥६॥ सिंहसंघो नन्दिसंघः सेनसंघो महामभः । देवसंघ इति स्पष्टं स्थानस्थितिविशेषतः ॥७॥ गणगच्छादयस्तेभ्यो जाताः स्वपरसौख्यदाः । न तत्र भेदः कोप्यस्ति पत्रज्यादिषु कर्मसु ॥८॥
१. श्रुतावतार कथामें लिखा है कि, जब अर्हद्वलिआचार्यने युगप्रतिक्रमणके समय मुनिजनोंके समूहसे पूछा कि, "सब यति आ गये?" तव उन्होंने कहा कि. "हां भगवन् । हम सब अपने २ संघसहित आ गये।" इस वाक्यसे अपने २ संघके प्रति मुनियोंकी निजत्वबुद्धि वा रागबुद्धि प्रगट होती थी। इससे आचार्य महाराजने निश्चयं कर लिया कि, अब आगे यह जैनधर्म भिन्न २ संघों वा गणोंके पक्षपातसे ठहरेगा, उदासीन भावसे नहीं । इस प्रकार विचार करके उन्होंने जो मुनि गुफामेंसे आये थे, उनकी नन्दि, जो अशोक वाटिकासे आये थे, उनकी देव, जो पंचस्तूपोंसे आये थे उनकी सेन और जो, खंडकेसर वृक्षोंके नीचेसे. आये थे, उनकी सिंह संज्ञा रक्खी।
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
(७) - ऊपर जिन. चार संवांका नाम बतलाया गया है, उनमेंसे सेनसंघ नामक वंशमें हमारे दोनों चरित्रनायकोंने दीक्षा ली थी। सेन संघकी किसी विश्वासपात्र पट्टावलीके प्राप्त नहीं होनेसे हम सेनसंधके प्रारंभसे उक्त चरित्रनायकोंतककी गुरुपरम्परा नहीं बतला सकते हैं । परन्तु विक्रान्तकौरवीयनाटकमें हस्तिमल्लकविने जो अपनी प्रशस्ति लिखी है, उससे मालूम होता है कि, गन्धहस्तिमहाभाप्यके कर्ता स्वामीसमन्तभद्रके वंशमें ही भगवान् जिनसेन तथा गुणभद्र हुए हैं। उसमें लिखा है कि, समन्तभद्रस्वामीके शिवकोटि और शिवायन नामके दो शिप्य हुए और उन्हींकी परिपाटीमें श्रीवीरसेन जिनसेन तथा गुणभद्र अवतीर्ण हुए। उस प्रशस्तिका कुछ भाग यह है:
तत्त्वार्थमूत्रव्याख्यानगन्धहस्तिप्रवर्तकः । स्वामी समन्तभद्रोभूदेवागमनिदर्शकः ॥ अवटुतटमटिति झविति स्फुटपटुवाचारधूर्जटेजिह्वा ।
वादिनि समन्तभद्रे स्थितवति का कथान्येपाम् ।। शिष्यौ तदीयौ शिवकोटिनामा शिवायन शास्त्रविदां वरिष्टा । कृत्स्नश्रुतश्रीगुणपादमूले ह्यधीतिमन्ती भवतः कृतायौं । तदन्ववाये विदुपां वरिष्ठः स्याद्वादनिष्ठः सकलागमज्ञः । श्रीवीरसेनोऽजनि तार्किकत्री प्रध्वस्तरागादिसमस्तदोपः ॥
१. बहुत लोगोंका ख्याल है बल्कि कई एक कयानन्यों में भी लिखा है कि, शिवकोटिका ही दूसरा नाम शिवायन था। परन्तु कवियर हस्तिन, कपनमे शिवकोटि और शिवायन दो जुदे : आचार्य सिद्ध होते हैं।
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ८ )
यस्य वाचां प्रसादेन ह्यमेयं भुवनत्रयम् । आसीदष्टाङ्गनैमित्तज्ञानरूपं विदां वरम् ॥ तच्छिष्यप्रवरो जातो जिनसेनमुनीश्वरः । यद्वाङ्मयं पुरोरासीत्पुराणं प्रथमं भुवि ॥ तदीय प्रियत्रिष्योभूद्गुणभद्रमुनीश्वरः । शलाका पुरुषा यस्य सूक्तिभिर्भूषिताः सदा || गुणभद्रगुरोस्तस्य महात्म्यं केन वर्ण्यते । यस्य वाक्सुधया भूमावभिषिक्ता मुनीश्वराः ||
श्रीजिनसेनाचार्यने अपने हरिवंशपुराणके अन्तमें महावीर भगवानसे लेकर अपने समय तकके आचार्योंके नाम दिये हैं । परन्तु उनमें समन्तभद्र, शिवायन, शिवकोटि, वीरसेन आदि किसीका भी नाम नहीं है। इससे मालूम होता है कि, उक्त परम्परा केवल एक पुन्नाटगणकी है, जो कि सेनसंघकी एक शाखा है । महापुराणके कर्त्ता जिनसेन इस पुन्नाटगणमें नहीं, किसी दूसरे ही गणमें हुए हैं, इसलिये उनकी गुरुपरम्परा पुन्नाटगणसे नहीं मिलती है । वीरसेन जिनसेन और गुणभद्र के किसी भी ग्रन्थसे इस वातका पता नहीं लगता है कि, उनका गण तथा गच्छ कौनसा था। उन्होंने जहां २ अपना उल्लेख किया है, वहां केवल सेनसंघका उल्लेख किया है । गण और गच्छका नाम भी नहीं लिया है । यथाः --
श्रीमूलसंघवाराशौ मणीनामिव सार्चिषाम् । महापुरुषरत्नानां स्थानं सेनान्वयोऽजनि ।
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
(९) तत्र वित्रासिताशेपप्रवादिमदवारणः ।। वीरसेनाग्रणीवीरसेनभट्टारको वभौ ॥ इत्यादि ।
[उत्तरपुराण हरिवंशपुराणकारने अपनी जो श्लोकबद्ध गुरुपरम्परा दी है, विस्तारके भयसे हम उसे समग्र प्रकाशित न करके केवल आचार्योंके नाम मात्र देते हैं:__ अंगज्ञानधारियोंके पश्चात्-नयंवरऋपि, श्रुतऋपि, श्रुतिगुप्त, शिवगुप्त, अर्हद्वलि, मन्दरार्य, मित्रवीर, बलदेव, वलमित्र, सिंहरल, वीरवित्, पद्मसेन, व्याघहस्ति, नागहस्ति, जितदंड, नन्दिपेण, दीपसेन, धरसेन, सुधर्मसेन, सिंहसेन, सुनन्दिपेण, ईश्वरसेन, सुनन्दिपेण, अभयसेन, सिद्धसेन, अमयसेन, भीमसेन, जिनसेन, शान्तिपेण, जयसेन, अमितसेन, कीर्तिपेण और हरिवंशपुराणके कर्ता जिनसेन ।
महापुराणमें भगवान् जिनसेनने यद्यपि अपनी क्रमवद्ध गुरुपरम्परा नहीं दी है, परन्तु मंगलाचरणमें जिन २ आचार्योंको नमस्कार किया है, उनमेंसे समन्तमद्र, सिद्धसेन, यशोभद्र, शिवकोटि, वीरसेन और जयसेन ये छह आचार्य सेनसंवके मालूम होते हैं। क्योंकि भद्र और सेन ये दो शब्द सेनसंवके आचार्योंके नामके साथ ही प्रायः रहते हैं। इनमसे समन्तभद्र और शिवकोटिका उल्लेख तो ऊपर हो चुका है, और वीरसेन तथा जयसेन जिनसेनके गुरुआम
है, जैसा कि आगे प्रगट किया जायगा । शेप रहे सिद्धसेन और 1. यशोमद्र, सो इन्हें समन्तभद्रके पीछेकी गुल्परिपाटीमें गिनना
चाहिये।
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१०)
हमारे चरित्रनायकोंकी गुरुपरम्पराका, क्रमबद्ध पता चित्रकूटपुर निवासी एलाचार्यसे प्रारंभ होता है । एलाचार्यके पास वीरसेनस्वामीने सम्पूर्ण सिद्धान्तशास्त्रोंका अध्ययन करके उपरितम आदि आठ अधिकारोंको लिखा था। ये एलाचार्य कौन थे, और उनकी गुरुपरम्परा क्या थी, इसका पता अभीतक कुछ भी नहीं मिला है । श्रुतावतारमें केवल इतना ही उल्लेख मिलता है:
काले गते कियत्यपि ततः पुनश्चित्रकूटपुरवासी । श्रीमानेलाचार्यों वभूव सिद्धान्ततत्त्वज्ञः ॥ १७६ ॥ तस्य समीपे सकलं सिद्धान्तमधीत्य वीरसेनगुरुः ।
उपरितमनिवन्धनाद्यधिकारानष्टं लिलेख ॥ १७७ ।। वीरसेन स्वामीके विनयसेन, जिनसेन, और दशरथगुरुनामके तीने शिष्योंका पता लगता है। इनमेंसे विनयसेनका उल्लेख जिनसेन स्वामीने अपने पार्श्वभ्युदयकान्यकी प्रशस्तिमें किया है:
श्रीवीरसैनमुनिपादपयोजभृङ्गः
श्रीमानभूद्विनयसेनमुनिर्गरीयान् । . , तच्चोदितेन जिनसेनमुनीश्वरेण
. काव्यं व्यधायि परिवेष्टितमेघदूतम् ॥ ७१ ॥ १. यह चित्रकूटपुर कहां है, यह ठीक २ नहीं कहा जा सकता है।
२. जयधवलटीकाकी प्रशस्तिमें एक श्रीपाल नामके आचार्यका उल्लेख है, जिन्होंने इस टीकाको सम्पादन की है। क्या आश्चर्य है कि, वे भी वीरसेनस्वा. मीके एक शिष्य हों:' टीका श्रीजयचिह्नितोरधवला सूत्रार्थसंबोधिनी ।
स्थेयादारविचन्द्रमुज्ज्वलतमा श्रीपालसम्पादिता।
-
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
(११)
सो समय दो कईसंघ नरपुराणकी जा
काष्ठासंघके आद्यप्रवर्तक कुमारसेनाचार्य इन्हीं विनयसेनके शिप्य ये, जिन्होंने सन्याससे भ्रष्ट होकर फिर दीक्षा नहीं ली थी । यया
आसी' कुमारसेणो नंदियढे विणयसेणदिक्खयो। सण्णासभंजणेण य अगहियपुणदिक्खो जाओ ।। सो समणसंघवज्जो कुमारसेणो हु समयमिच्छत्तो । चत्तोवसमो रुदो कटंसंघ पख्वदि ॥ ३८ ॥ जिनसेनस्वामीके विषयमें उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें लिखा है:
अभवदिह हिमादेवसिन्धुप्रवाहो
ध्वनिरिव सकलज्ञात्सर्वशास्त्रकमूर्तिः । उदयगिरतटाद्वा भास्करो भासमानः
मुनिरनु जिनसेनो वीरसेनादमुप्मात् ।। अर्थात् जिस तरहसे हिमालयसे गंगानदीका प्रवाह निकलता है, अथवा सर्वज्ञदेवके शरीरसे उनकी दिव्यध्वनि होती है, किंवा उदयाचल पर्वतसे प्रकाशमान सूर्य उदय होता है, उसी प्रकारसे वीरसेनभगवानके पीछे सर्व शास्त्रोंकी मूर्तिके समान श्रीजिनसेनाचार्य हुए। - इसके सिवाय आदिपुराणकी प्रस्तावनामें स्वयं जिनसेन स्वामीने वीरसेनस्वामीको गुरु कहकर उनका बहुत ही गौरवके साथ स्मरण किया है । देखियेः१. संस्कृतछाया-आसीत्कुमारसेनो नन्दितटे विनयसेनदीक्षितः ।
सन्यासभंजनेन यः अगृहीतपुनःक्षो जातः ।। २. स श्रमणसंघवयंः कुमारसेनः खलु समयमिथ्यात्वी। त्यक्तोपशमो रुद्रः काष्टासंघ प्ररूपयति ॥ ३८
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १२ )
श्रीवीरसेन इत्यात्तभट्टारकपृथुप्रयः । सनः पुनातु पूतात्मा कविन्दारको मुनिः॥५५॥ लोकवित्वं कवित्वं च स्थितं भट्टारके द्वयम् । वामिता वाग्मिता यस्य वाचा वाचस्पतेरपि॥५६॥ सिद्धान्तोपनिवन्धानां विधातुर्मद्गुरोश्चिरम् । मन्मनःसरसि स्थेयान्मृदुपादकुशेशयम् ।। ५७ ॥ धवलां भारती तस्य कीर्तिं च विधुनिर्मलाम् ।
धवलीकृतनिःशेषभुवनां तन्नमीम्यहम् ॥ ५८ ॥ इन श्लोकोंका अभिप्राय यह है कि, भट्टारककी बड़ी भारी प्रसिद्ध पदवी प्राप्त करनेवाले, पवित्रात्मा और कविशिरोमणि श्रीवीरसेनाचार्य हमें पवित्र करें । लौकिक ज्ञान और कविता ये दोनों गुण वीरसेन भट्टारकमें हैं। उनकी वाणी वृहस्पतिके पांडित्यको भी पराजित करती है । सिद्धान्तोंकी धवल जयधवल टीकाएं करनेवाले मेरे इन गुरुमहाराजके कोमल चरणकमल मेरे मनरूपी सरोवरमें चिरकाल तक ठहरें। उनकी धवला अर्थात् उज्ज्वल अथवा धवलाटीकासम्बन्धी वाणीको तथा चंद्रमाके समान निर्मल कीर्तिको जो कि सारे संसारको धवल कर रही है, मैं पुनःपुनः नमस्कार करता हूं।
१. भट्टारकका लक्षण नीतिसारमें इस प्रकार लिखा है:. सर्वशास्त्रकलाभिज्ञो नानागच्छाभिवर्द्धकः।
महामनाः प्रभाभावी भट्टारक इतीष्यते ॥ • अर्थात् जो सारे शास्त्रोंका और सारी कलाओंका जाननेवाला हो, अनेक गच्छोंका-बढ़ानेवाला हो, विचारशील और प्रभावशील हो, उसे भारक कहते हैं।
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१३) उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें गुणभद्राचार्य जिनसेनस्वामीकी प्रशंसा , कर चुकनेके पश्चात् कहते हैं:
दशरथगरुरासीत्तस्य धीमान्सधर्मा
शशिन इव दिनेशो विश्वलोकैकचक्षुः । निखिलमिदमदीपन्यापि तद्वामयूखैः __ प्रकटितनिजभावं निर्मलैर्धर्मसारैः ।। ११ ॥ सद्भावः सर्वशास्त्राणां तद्भास्वद्वाक्यविस्तरे।
दर्पणार्पितविम्वाभो वालेरप्याशु बुध्यते ॥१२॥ प्रत्यक्षीकृतलक्ष्यलक्षणविधिविद्योपविद्यान्तगः
सिद्धान्ताव्यवसानयानजनितप्रागल्भ्यद्धेद्धधी । नानानूननयप्रमाणनिपुणोऽगण्यर्गुणैभूपितः
शिष्यः श्रीगुणभद्रसरिरनयोरासीजगद्विश्रुतः॥ भावार्थ-जिस तरह चन्द्रमाका सधर्मी सूर्य होता है, उसी प्रकारसे उन जिनसेनस्वामीके सधर्मा ( एक गुरुके शिप्य) दशरथगुरु नामके आचार्य हुए, जो कि संसारको दिखलानेवाले अद्वितीय नेत्र हैं और जिनकी निर्मल धर्मको कहनेवाली वचनरूपी किरणों से यह अन्धकारन्याप्त संसार अपने यथार्थ भावको प्रकट करता है अर्थात् जिनकी वाणीसे संसारका स्वरूप जान पड़ता है। उनके प्रकाशमान वाक्योंमें सारे शास्त्रोंका भाव दर्पणमें पड़े हुए प्रतिविम्बके समान मूर्ख पुरुषोंको भी शीघ्र ही भास जाता है। इन दोनोंका अर्थात् जि. नसेन और दशरथगुरुका जगत्प्रसिद्ध शिष्य गुणभद्रसरि हुआ, जिसे सारा व्याकरणशास्त्र प्रत्यक्ष हो रहा है, सिद्धान्तसागरके पार
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१४). जानेसे जिसकी प्रतिभा तथा वुद्धि प्रकाशित हो रही है, विद्याओं
और उपविद्याओंके जो पार पहुंच गया है, सारे नय और प्रमाणोंके (न्यायशास्त्र के) जाननेमें जो चतुर है और इस प्रकारके जो अगणित गुणोंसे भूपित है। ___ इससे दो बातें मालूम होती हैं, एक तो यह कि, दशरथगुरु जिनसेन स्वामीके सतीर्थ थे और दूसरे यह कि गुणभद्रस्वामीके भी वे गुरु थे । वहुत करके गुणभद्रस्वामीके विद्यागुरु दशरथगुरु होंगे
और दीक्षागुरु जिनसेनस्वामी होंगे। ___ इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतारमें जो कि कोल्हापुरमें छपा है, लिखा
विंशति सहस्रसद्ग्रन्थरचनया संयुतां विरच्य दिवम् । यातस्ततः पुनस्तच्छिष्यो जयसेनगुरुनामा ॥ १८२ ।।
तच्छेषं चत्वारिंशता सहस्रः समापितवान् । इत्यादि। - अर्थात् वीरसेनस्वामी जयधवला टीकाके २० हजार श्लोक बनाकर स्वर्गलोकको सिधारे, तव उनके शिष्य जयसेनगुरुने उसका शेष भाग ४० हजार श्लोकोंमें बनाकर पूर्ण किया। इससे मालूम होता है कि वीरसेनस्वामीके एक जयसेन नामके भी शिष्य थे । परन्तु यथार्थमें यह एक भ्रम है । लेखकके प्रमादसे मूल पुस्तकमें या छपाते समय संशोधकके दृष्टिदोषसें 'जिनसेनगुरु' की जगह 'जयसेनगुरु' लिख अथवा छप गया है। क्योंकि जैसा कि हम आगे लिखेंगे, जयधवला
टीकाका शेषभाग जिनसेनस्वामीका ही बनाया हुआ है। अतएव वीर- : - सैनस्वामीके जयसेन नामके शिष्य नहीं थे । हां जिनसेनस्वामीके
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
दीक्षागुरुका नाम जयसेन अवश्य था, जिनका कि उल्लेख आदिपुराणकी उत्थानिकामें वीरसेन स्वामीके पीछे मिलता है:. जन्मभूमिस्तपोलक्ष्भ्याः श्रुतप्रशमयोनिधिः ।।
जयसेनगुरुः पातुः बुधवृन्दाग्रणीः स नः ।।५८॥ ' अर्थात् तपरूपी लक्ष्मीके जन्मस्थान (दीक्षा देनेवाले) और शास्त्र तथा शान्तिके कोश और विद्वानोंके अगुए जयसेनगुरु हमारी रक्षा करें।
इस तरह वीरसेनस्वामी के तीन शिष्योंका उल्लेख मिलता है । कौन कह सकता है कि, उनके ऐसे २ महा विद्वान् और कितने शिप्य थे?
जिनसेनस्वामीके शिष्योंमें केवल गुणभद्रस्वामीका ही उल्लेख मिलता है और इन्हींकी सबसे अधिक प्रसिद्ध है । अथवा दूसरे गृहस्थ शिष्य जगद्विख्यात महाराजाधिराज अमोघवर्ष थे, जिन्होंने कि राज्यका परित्याग कर दिया था। इनका विशेष परिचय हम आगे चलकर करावेंगे।
गुणभद्रस्वामीके अनेक शिष्योमेंसे केवल दो शिप्योंके विषयमें हम कुछ जानते हैं, एक तो लोकसेन जिनके उपकारके लिये आत्मानुशासन नामक ग्रन्थकी रचना हुई है और दूसरे मण्डलपुरुष जिन्होंने 'चूडामणि-निघण्टु ' नामक द्राविड़भाषाका कोश बनाया है। लोकसेनके विषयमें उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें इस प्रकार लिखा है:
विदितसकलशास्त्रो लोकसेनो मुनीशः .. .
कविरविकलत्तस्तस्य शिष्येषु मुख्यः । सततमिह पुराणे प्राप्य साहाय्यमुच्चै
गुरुविनययनपीन्मान्यतां स्वस्य सन्दिः ।। २५ ॥
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १६ ) अर्थात् उन गुणभद्रसूरिके सम्पूर्ण शिष्योंमें लोकसेन नामके मुनश्विर मुख्य शिष्य हुए, जो कि कवि हैं और सकल चारित्रके पालन करनेवाले हैं, तथा इस पुराणके रचनेमें गुरुविनयरूप बड़ी भारी सहायता देकर जो विद्वानोंके द्वारा मान्य हुए हैं। मंडलपुरुपने अपने कोशमें स्वयं लिखा है कि, गुणभद्रस्वामी मेरे गुरु हैं। क्षत्रचूडामणिकी प्रस्तावनामें श्रीयुक्त कुप्पूस्वामी शास्त्रीने मंडलपुरुषकृत चूडामणिनिघंटुकी प्रशस्ति उद्धृत की है, परन्तु द्राविड़ भाषाका ज्ञान नहीं होनेसे हम उसे प्रकाशित नहीं कर सके ।
इस तरह हमारे चरित्रनायकोंके वंशवृक्षका निम्नलिखित रूप होता है:
एलाचार्य वीरसेन
विनयसेन जिनसेन दशरथगुरु श्रीपाल (सशंकित) कुमारसेन (काष्ठासंघी)।
अमोघवर्ष महाराज
गुणभद्र
लोकसेन मंडलपुरुष 1. मंडलपुरुष यह नाम मुनि अथवा आचार्य सरीखा नहीं मालूम होता है । बहुत करके मंडलपुरुष विद्वान् गृहस्थ ही होंगे।
२. हो सकता है कि एलाचार्य सेनसंघके आचार्य न हों और वीरसेनस्वामी उनके समीप सिद्धान्त पढ़ने गये हों तथा वीरसेनस्वामीके दीक्षागुरु कोई दूसरे ही आचार्य हों।
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१७)
यहांपर एक बात यह विचारणीय है कि वीरसेनस्वामीके पीछे जिनसेन और जिनसेनके पीछे गुणभद्रस्वामीने ही आचार्यपदको सुशोभित किया था, या अन्य किसीने देवसेनसरिने अपने दर्शनसारग्रन्थों काष्ठासंघकी उत्पत्तिमें लिखा है कि:
'सिरिवीरसेणसीसो जिणसेणो सयलसत्यविण्णाणी । सिरिपउमणंदि पच्छा चउसंघसमुद्धरणधीरो ॥ ३१ ॥ तस्य य सिस्सो गुणवं गुणभद्दो दिव्बणाणपरिषण्णो। पक्खोवासमंडिय महातबो भावलिंगो य ॥ ३२ ॥ तेण पुणोवि य मिच्चं णेऊण मुणिस्स विणयसेणस्स । सिद्धंतं घोसित्ता सयं गयं सग्गलोयस्स ॥ ३३॥
अर्थात्-श्रीवीरसेनाचार्यके शिष्य जिनसेन जो कि संपूर्ण शाम्नांके ज्ञाता थे, श्रीपद्मनन्दिके पश्चात् चारों संबके स्वामी (आचार्य) हुए। फिर उनके शिष्य गुणवान् गुणभद्र हुए जो कि दिव्यज्ञानसे परिपूर्ण, एक एक पक्षका (१५ दिनका) उपवास करनेवाले, बड़े मारी तपस्वी, और सच्चा मुनिलिंग धारण करनेवाले थे। उन्होंने श्रीविन
१. संस्कृतछायाश्रीवीरसेनशिप्यो जिनसेनः सकलशास्त्रविज्ञानी। श्रीपद्मनन्दिपश्चात् चतुःसंघसमुदरणधीरः॥३१॥ तस्य च शिप्यो गुणवान गुणभद्रो दिव्यज्ञानपरिपूर्णः । पक्षोपवासमण्डितः महातपः भावलिगच ॥ ३२॥ तेन पुनोपि च मृत्यु नीत्वा मुनेः विनयसेनस्य । सिद्धान्तं घोसित्वा स्वयं गतं स्वर्गलोकस्य ॥ ३३ ॥
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१८) यसेनमुनिकी मृत्यु होनेपर सिद्धान्तोंका उपदेश किया और पीछे वे भी स्वर्गलोकको सिधारे।
इससे यह जान पड़ता है कि, वीरसेनस्वामीके पश्चात् पद्मनन्दि नामके मुनि और फिर उनके पीछे जिनसेनस्वामी आचार्यपदपर सुशोभित हुए थे। इसी प्रकारसे जिनसेनस्वामीके पश्चात् विनयसेन और फिर गुणभद्रस्वामी पट्टाधीश हुए थे। पद्मनन्दि आचार्य कौन थे, इस विषयमें निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता है । जिनसेन और गुणभद्रके प्राप्य ग्रन्थोंमें उनका कोई उल्लेख नहीं मिलता है। परन्तु यदि पद्मनन्दि एलाचार्यका ही नामान्तर हो-जैसा कि प्रसिद्ध है, तो ऐसा हो सकता है कि, वीरसेनके गुरु जो एलाचार्य थे-जिसका कि उल्लेख श्रुतावतार कथामें है-वे ही वीरसेनके पीछे संघाधिपति हुए होंगे और उनके पीछे जिनसेन हुए होंगे। विनयसेन जिनसेन स्वामीके सतीर्थ थे, और विद्वान थे, इसलिये उनके पश्चात् वे आचार्य हुए ही होंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं है । विनयसेनका उल्लेख पार्वाभ्युदयकाव्यमें मिलता भी है। गुणभद्रस्वामीके पश्चात् आचार्यका पट्ट बहुत करके उनके मुख्य शिष्य लोकसेनने सुशोमित किया होगा।
१. पद्मनन्दि यह नाम नन्दिसंघके आचार्य सरीखा जान पड़ता है। क्योंकि नन्दि, चन्द्र, कीर्ति और भूषण ये चार शब्द प्रायः नन्दिसंघके मुनियोंके नामके साथ ही रहा करते हैं । सेनसंघके आचार्योंके नाममें तो सेन, भद्र- {
राज और वीर्य शब्द लगाये जाते हैं। हां ऐसा हो सकता है कि, किसी का• रणसे नन्दिसंधी होकर भी पद्मनन्दि सेनसंघके आचार्य बना लिये गये हों।
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१९)
स्थानपरिचय। साधुओंके रहनेका कोई नियत स्थान नहीं होता है । एक ही स्थानमें रहनेसे साधुओंका चरित्र मलिन हो जानेकी संभावना रहती है। इसलिये दिगम्बर मुनि निरंतर एक स्थानसे दूसरे स्थानको विहार किया करते थे और अपने उपदेशोंसे संसारका कल्याण किया करते थे। ऐसा मालूम होता है कि विक्रमकी नवमी शताब्दिमें जब कि भगवान् जिनसेन और गुणभद्र हुए हैं, दिगम्बरवृत्ति बनी हुई थी, सैकड़ों दिगम्बरमुनि विहार किया करते थे और उनके संवका शासन संघाधिपति आचार्य करते थे। तो भी मुनियोंके चरित्रपर उस समयने तथा उस समयकी परस्थितिने अपना थोड़ा बहुत प्रभाव डाल दिया था, जिससे तत्कालीन आचार्योंने देशकालके अनुसार एक ही स्थानमें न रहनेके तथा राजसभादिमें न जाने आदिके वन्धनोंमें कुछ ढिलाई कर दी थी, जान पड़ता है कि भगवान् जिनसेन और मुणभद्र स्थायीरूपमें तो नहीं, परंतु अधिकतर कर्णाटक और महाराष्ट्र देशके ही भीतर जहां कि राष्ट्रकूट राजाओंका राज्य था रहे होंगे। क्योंकि दूसरे प्रदेश जैनमुनियोंके लिये इतने निरापद नहीं थे । बल्कि ये प्रायः राजधानियोंमें ही अधिक रहे होंगे और वहीं रहकर जैनशासनका उद्योत करते रहे होंगे। क्योंके तत्कालीन राजा अमोघवर्ष, अकालवप और नामन्त लोकादित्य इनके भक्त थे और उनका इन्हें राजधानियोंमें रहनेके लिये आग्रह रहता होगा। राजधानियोंके सिवाय अन्य स्थानों में इनके रहने. का उल्लेख भी बहुत कम मिलता है । गुणभद्रस्वामीने उत्तरपुराणकी
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२०) समाप्ति वंकापुरमें की थी जो कि वनवासदेशकी राजधानी था और जहां अकालवर्षका सामन्त लोकादित्य राज्य करता था । वंकापुर इस समय धारवाड़ प्रान्तमें एक कस्वा है । और पाश्र्वाभ्युदय काव्यकी रचना अमोघवर्षकी राजधानी मान्यखेटमें हुई होगी, ऐसा जान पड़ता है। क्योंक पंडिताचार्य योगिराट्की कथाकी घटनासे अथवा ऐसी ही और किसी घटनाके कारण इस ग्रन्थके वनानेकी प्रवृति महाराज अमोघवर्षकी राजसभामें ही होनेकी अधिक संभावना है।
मान्यखेट उस समय कर्नाटक और महाराष्ट्र इन दो विस्तृत देशोंकी राजधानी था । इससे पाठक जान सकते हैं कि इस नगरका वैभव कितना बढ़ा चढ़ा होगा । उस समय उक्त देशोंमें और कोई भी शहर मान्यखेट सरीखा धनजनसम्पन्न नहीं था । तत्कालीन कई एक दानपत्रों और शिलालेखोंमें उसे इन्द्रपुरीकी हँसी करनेवाला वतलाया है। परन्तु इस समय उसी मान्यखेटको देखिये, तो इस वातपर विश्वास ही नहीं होता है कि यह कभी एक बड़ा भारी नगर रहा होगा । मान्यखेटको इस समय मलखेड़ कहते हैं । हैद्राबाद रेलवे लाइनपर चितापुर नामके स्टेशनसे आगे मलखेड़गेट . नामका एक छोटासा स्टेशन है। इस स्टेशनसे मलखेड ग्राम ४-५ मील है। यह ग्राम निजामसरकारके कृपापात्र एक मुसलमान . जागीरदारके अधिकारमें है । इस गांवके पश्चिममें एक किला है। किलेसे सटकर एक रमणीय सरिता वहती है । सुनते हैं. कि, पहले इस किलेमें एक विशाल और सुन्दर जैनमन्दिर था,
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २१ )
जिसमें कि वहुमूल्य प्रतिमाएं थीं । परन्तु इस समय उस मन्दिरके केवल कुछ चिन्हमात्र ही दिखलाई देते हैं । वम्बई में जो श्रीरत्नकीर्ति नामके भट्टारक रहते हैं और अपनेको मलखेड़की गद्दी स्वामी बतलाते हैं, कहते हैं कि किलेके एक मन्दिरके मोंहिरेमें जो कि एक उपाध्यायके अधिकारमें है, हीरा पन्ना माणिक आदि नानारत्नोंकी अंगुष्ट प्रमाण ५१ प्रतिमाएं हैं और प्रयत्न करनेसे लोगोंको उनके दर्शन भी मिलते हैं । वे यह भी कहते हैं कि; किला पहले जैनियोंके अधिकारमें था, परन्तु अब निकल गया है । गांवमें इस समय केवल एक ही जैनमन्दिर है, शेष जैनमन्दिर विकृत होकर शिवमन्दिरोंके रूपमें दिखलाई देते हैं । यद्यपि उनके भीतर जिनेन्द्रदेव के स्थान में शिवजी विराजमान हैं, परन्तु ऐसे अनेक चिन्ह अव भी शेष हैं, जिनसे मालूम हो जाता है कि, पहले ये जैनमन्दिर थे ।
मलखेड़में मूलसंघी भट्टारकोंकी एक गद्दी है । परन्तु इन समय दूसरी गद्दियोंके समान उसकी भी बहुत ही शोचनीय स्थिति है । भट्टारक कौन हैं, कैसे हैं और वहांका अद्वितीय ग्रन्थभंडार कहां है, इसका कुछ पता नहीं है । इस गद्दीको पहले निजाम सरकारकी ओरसे पांच ग्राम माफीमें लगे हुए थे, परन्तु अब वे जब्त कर लिये गये हैं । पहले दक्षिणमें यह गद्दी सबसे मुख्य समझी जाती थी, सेतवाल, लाड, पंचम कासार, कंबोज आदि सारी जैन जातियां " मठाधिपति भट्टारकको नियमित भेट दिया करती थीं, परन्तु पीछे जब यहांकी शाखाएँ लातूर और कारंजामें स्थापित हुई, शात्रसे
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२२) असम्मत विधवाविवाहकी रीति जारी करनेसे जातियोंमें फूटका वीज बोया गया, भट्टारकोंमें मूर्खता तथा सुखप्रियता आई और जैनधर्मके दुर्दिन लगे, तव धीरे २ यह गद्दी रसातलको पहुंच गई । जहांपर सैकड़ों वर्षतक भगवान् वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, अकलंकभट्ट सरीखे महान् तपस्वी और दिग्गज विद्वान् रह चुके हैं, और महापुराण जैसे अपूर्व ग्रन्थ बनाये गये हैं, वहांपर अब एक साधारण त्यागी ब्रह्मचारीको तथा महापुराणके एक श्लोकका भी अर्थ लगानेवालेको न पाकर ऐसा कौन सहृदय होगा जिसका हृदय विदीर्ण न होता हो ? हाय ! आज कोई ऐसा भी पुरुष नहीं है, जो इस प्राचीन नगरमें और कुछ नहीं तो प्राचीन मन्दिरोंका जीर्णोद्धार करके भगवान् जिनसेन और गुणभद्रका एक स्मारक ही बनवा देवे! कालप्रभो ! तुम्हारी लीला बड़ी ही निर्दयतासे भरी हुई है। न जाने . तुम्हारे विशाल उदरगर्ममें मान्यखेट सरीखे हमारे कितने गौरवस्थल सदाके लिये समा गये हैं !
मान्यखेटमें बहुत करके वलात्कारगणकी गद्दी है । यह गही कहते हैं कि, इन्द्रप्रस्थकी ( देहलीकी ) गद्दीके लगभग ५०-६० वर्षे पीछे स्थापित हुई थी। फीरोजशाह वादशाहने वि० संवत् १४०७ से १४४४ तक राज्य किया है । इसके समयमें प्रभाचंद्राचार्यसे भट्टारकोंकी उत्पत्ति हुई है, और पहले पहल इन्द्रप्रस्थमें पट्ट स्थापित हुआ है। इस हिसाबसे विक्रमकी पन्द्रहवीं शताब्दिके प्रारंभमें अथवा चौदहवीं शताब्दिके उत्तरार्धमें मलखेड़में भट्टारकोंकी गद्दी स्थापित हुई होगी। इसके पहले वस्त्रधारी भट्टारकोंका वहां नाम निशान
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२३) भी नहीं रहा होगा। यह ठीक है कि, पट्ट स्थापन होनेके पहले वहां सौ दो सौ वर्ष दिगम्बर मुनियोंका अभाव रहा होगा । क्याकि ऐसा न होता, तो दिगम्बरोंके स्थानमें वन्नधारियोंका होना कोई स्वीकार न करता । लोगोंने समयको और मुनियोंके अभावको देखकर 'सर्वथा न होनेसे कुछ होना अच्छा है' की नीतिके अनुसार वस्त्रधारियोंको ही उपकारकी दृष्टि से बहुत समझा होगा । परन्तु उस सौ दो सौ वर्षके समयसे पहले वहां दिगम्बर मुनियोंका ही संघ रहा होगा। भगवान् जिनसेन और गुणभद्राचार्य दिगम्बर ही होंगे । बल्कि उनके समयमें और भी सैकड़ों दिगम्बर मुनि होंगे, जिनका शासन वे करते होंगे; इस विषयमें कोई सन्देह नहीं है।
मान्यखेटमें सेनसंघके सिवाय दुसरे संघोंके भी अनेक आचार्य रहे होंगे, ऐसा जान पड़ता है । क्योंकि भगवान अकलंकदेवमट्ट भी जो कि देवसंवके आचार्य थे, इसी मान्यखेटमें हुए हैं। हमारे पाठकोंने अकलंकचरित्रमें पढ़ा होगा कि, मान्यखेटमें विक्रमकी नवमी शताब्दके लगभग महाराजा अमोववर्षके ही घरानेका साहमतुंग (शुमतुंगया कृष्णराज ) नामका राजा राज्य करता था। अकलंक देव उसके प्रधान मंत्री पुरुषोत्तमके पुत्र थे । विद्या प्राप्त करनेपर अकलंकदेवने शुभतुंगकी सभामें आकर निम्नलिखित श्लोक पढ़े थे, जो कि श्रवणबेलगुलके जिनमन्दिरकी एक शिलापर लिखे
राजन् साहसतुंग सन्ति बहवः श्वेतातपत्रा नृपाः किन्तु त्वत्सहशा रणे विजयिनस्त्यागोन्नता दुर्द्धमाः।
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२४) तद्वत्सन्ति वुधा न सन्ति कवयो वादीश्वराः वाग्मिनो नानाशास्त्र विचारचातुरधियाः काले कलौ मद्विधाः । राजन् सर्वारिदर्पप्रविदलनपटुस्त्वं यथाऽत्र प्रसिद्धस्तद्वत् ख्यातोऽहमस्यांभुवि निखिलमदोत्पाटने पण्डितानाम्। नोचेदेपोऽहमेत तव सदसि सदा सन्ति सन्तो महन्तो वक्तुं यस्यास्ति शक्तिःस वदतु विदिताशेषशास्त्रो यदि स्यात् ।
इन दोनों श्लोकोंका भावार्थ यह है कि हे साहसतुंग, जिस तरह इस जगतमें सफेद छत्रके धारी अनेक राजा हैं, परन्तु तेरे समान रणविजयी दानशूर राजा बहुत दुर्लभ हैं, उसी तरहसे पंडित बहुत हैं, परन्तु मेरे समान कवि वाग्मि और अनेक शास्त्रोंके विचारमें चतुर विद्वान् इस कलिकालमें और दूसरा नहीं है । और जिस तरहसे तू सारे शत्रुओंका मान मर्दन करनेमें प्रसिद्ध है, उसी प्रकारसे पंडितोंका सारा घमंड चकचूर करनेके लिये पृथ्वीमें मैं प्रसिद्ध हूं। यदि ऐसा नहीं है, तो मैं खड़ा हूं, तेरी सभा सदा ही बहुत बड़े २ विद्वान् रहते हैं, उनमेंसे किसीकी वोलनेकी शक्ति हो, तो वह वोले ! .
अकलंकदेवके शिष्य प्रभाचन्द्र और विद्यानन्दि जिनसेनाचार्यके समकालीन थे । आश्चर्य नहीं कि, ये भी मान्यखेटमें ही हुए हों । प्रोफेसर के. वी: पाठकने २५ जून सन् १८९२ ई० को 'रायल एशियाटिक सुसाइटीकी बम्बईकी शाखा के समक्ष भर्तृहरि और कुमारिलभट्टके विषयमें एक निवन्ध पढ़ा था। उसमें लिखा है कि, अकलंकदेव राष्ट्रकूटवंशके शुभतुंग राजाके समकालीन थे जो कि आठवीं
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २५ )
शताव्दिके उत्तरार्धमें हुआ है । अकलंकके शिष्य प्रभाचन्द्र और विद्यानन्दि नवमी शताव्दिके पूर्वार्धमें हुए होंगे और हरिवंशके कर्ता जिनसेनके समकालीन होंगे । उस समय राष्ट्रकूटवंशीय राजा द्वितीय श्रीवल्लभ था । श्रीवल्लभ कृष्णराजका पुत्र और अमोववघेका दादा था । अतएव विद्यानन्दि और प्रभाचन्द्रका काल शकसंवत् ७६० हो सकता है। इस तरह मान्यखेट नगर - जहा कि भगवान जिनसेनाचार्य तथा गुणभद्रस्वामी रहे हैं- बड़े २ भारी मान्य विद्वानोंका निवासस्थल और भगवती जिनवाणीका क्रीडामन्दिर रह चुका है |
समयविचार |
भगवज्जिनसेनका जन्म जहांतक हमने विचार किया है, शकसंवत् ६७५ ( वि० सं० ८१० ) के लगभग होना चाहिये । क्योंकि जिनसेन नामके एक दूसरे आचार्यने अपने हरिवंशपुराण नामके ग्रन्थमें निम्नलिखित श्लोकॉम उनका और उनके गुरु वीरसेनका उल्लेख किया है:
जितात्मपरलोकस्य कवीनां चक्रवर्तिनः । वीरसेनगुरोः कीर्तिरकलङ्कावभासते ।। ३९ ।। यामिताऽभ्युदये तस्य जिनेन्द्र गुणसंस्तुतिः । स्वामिनो जिनसेनस्य कीतीं संकीर्तियत्यसाँ ॥ ४० ॥
१. यह बात आगे सप्रमाण सिद्ध की जायगी कि, हरिवंश कर्ता जिनसेन आदिपुराणके कर्ता जिनसेनसे जुड़े थे ।
२. किसी २ पुस्तक " पार्श्वजिनेन्द्रगुपसंस्तुतिः " पाठ है ।
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २६ )
वर्द्धमानपुराणोद्यदादित्योक्तिगभस्तयः । प्रस्फुरन्ति गिरीशान्तः स्फुटस्फटिकभित्तिषु ॥ ४१ ॥ अर्थात्-जिन्होंने परलोकको जीत लिया है और जो कवियों के चक्रवर्ती हैं, उन वीरसेनगुरुकी कलंकरहित कीर्ति प्रकाशित हो रही है । जिनसेनस्वामीने पार्श्वनाथ भगवान के गुणोंकी जो अपार स्तुति बनाई है, वह उनकी कीर्तिका भली भांति संकीर्तन कर रही है तथा उनके अभ्युदयका कारण हुई है । और उनके रचे हुए वर्द्धमानपुराणरूपी उगते हुए सूर्यकी उक्तिरूपी किरणें विद्वान् पुरुषोंकी अन्तःकरणरूपी स्फटिक भूमिमें स्फुरायमान हो रही हैं ।
I
इन श्लोकोंसे यह मालूम होता है कि हरिवंशपुराणकी रचना होनेके समय आदिपुराणके कर्त्ता जिनसेनका अस्तित्व था और उस समय वे पार्श्वजिनेन्द्रस्तुति तथा वर्द्धमानपुराण नामके दो ऐसे ग्रन्थ वना चुके थे, जिन्होंने विद्वानोंके हृदयमें स्थान पा लिया था । इसके सिवाय उनके नामके साथ जो 'स्वामी' पद दिया है, उससे जान पड़ता है कि, वे उस समय एक आदरणीय मुनि समझे जाते थे। इन तीन वातोंसे पाठक सोच सकते हैं कि, हरिवंशपुरा - णकी रचनाके समय उनकी अवस्था बहुत ही कम होगी, तो २५ वर्षकी होगी । विना इतनी अवस्थाके इतना पांडित्य, गौरव तथा स्वामी पदका पाना संभव नहीं हो सकता है । और हरिवंशकी
१. तत्वार्थ सूत्रव्याख्याता स्वामीति परिपठ्यते । ( नीतिसार ) अर्थात् तत्वार्थसूत्रपर व्याख्यान ( टीका ) बनानेवाला अथवा उसका व्याख्यान करनेवाला 'स्वामी' कहलाता है ।
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२७ )
रचनाका समय उसकी प्रशस्तिके निम्नलिखित श्लोकसे शकसंवत् ७०५ प्रतीत होता है:
शाकेष्वन्दशतेषु सप्तसु दिशं पञ्चोत्तरेपूत्तरां
पातीन्द्रायुधनाम्नि कृष्णनृपजे श्रीवल्लभे दक्षिणाम् । पूर्वी श्रीमदवन्तिभूभृतिनृपे वत्साधिराजेऽपरां
सौराणामधिमण्डलं जययते वीरे वराहेऽवति ।। भावार्थ-शकसंवत् ७०५ में जब कि उत्तर दिशामें कृष्णराजका पुत्र इन्द्रायुध, दक्षिणमें श्रीवल्लम ( प्रभूतवर्ष ), पूर्वमें अवन्तिराज, और पश्चिममें वत्सरान राज्य करते थे, तब इस ग्रन्यकी रचना हुई। ___ यह ७०५ शकसंवत् हरिवंशके समाप्त होनेका है । और हरिवंशपुराणकी श्लोकसंख्या लगमग दशवारहहजार है। इतना बड़ा ग्रन्थ रचनेके लिये बहुत ही शीघ्रता की गई होगी, तो पांच वर्ष फिर भी लग गये होंगे । तव ग्रन्यके प्रारंभके समयमें जहां कि जिनसेनस्वामीकी प्रशंसा की गई है, और अन्त समयमें पांच वर्षका अन्तर हुआ।अर्थात् शकसंवत् ७०० (वि० ८३५ ) में अन्य प्रारंभ किया गया होगा । अब उसमेंसे २५ वर्ष निकाल दीजिये, तो जिनसेन स्वामीके जन्मका अनुमानिक समय ६७५ शक निकल आवेगा। ___ हरिवंशपुराणके ऊपर दिये हुए श्लोकोंके विषयमें यदि कोई कहे कि हरिवंशके कोने जिन जिनसेनकी प्रशंसा की है, वे आदिपुराणके कर्तासे पृथक् भी तो हो सकते हैं। तो उसका उत्तर यह है कि
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२८) जिनसेनके पहले जो वीरसेनगुरुकी प्रशंसा की गई है, उससे स्पष्ट हो रहा है कि, वीरसेनके पश्चात् जो जिनसेनका उल्लेख है, वह वीरसेनके शिप्य जिनसेनका ही है । इसके सिवाय वीरसेनको जो कवीनां चक्रवर्तिनः विशेपण दिया गया है, उससे यह भी विदित होता है कि ये वीरसेन भी आदिपुराणकर्तीके गुरुसे कोई मिन्न नहीं हैं। क्योंकि आदिपुराणके प्रारंभमें जो उनकी स्तुति की गई है, उसमें भी कवितृन्दारको मुनिः (देखो पृष्ठ १२ पंक्ति २) आदि विशेषण दिये गये हैं, जिनसे उनका श्रेष्ठ कवि होना सिद्ध होता है।
और आदिपुराणके कर्ताके समान हरिवंशके कर्त्ताने उन्हें सिद्धान्तशास्त्रोंकी टीका रचनेवाला नहीं कहा है। क्योंकि हरिवंशकी रचनाके समय उन्होंने टीकाएं नहीं बनाई थीं, कवित्वमें ही उनकी श्रेष्ठता थी। इससे सिद्ध है कि, हरिवंशमें जिन जिनसेनकी स्तुति की गई है, वे हमारे चरित्रनायक ही हैं। ___ भगवज्जिनसेनका जन्म कब हुआ होगा, इसका विचार किया जा चुका । अब यह देखना है कि, उनका स्वर्गवास कब हुआ होगा । यद्यपि इसके लिये कहीं किसी निश्चित तिथिका उल्लेख नहीं मिलता है परन्तु अनुमानसे जान पड़ता है कि लगभग शकसंवत् ७७० (वि० सं० ९०५) तक वे इस संसारमें रहे होंगे । क्योंकि वीरसेनस्वामीने जो सिद्धान्तशास्त्रकी वीरसेनीया नामकी टीका बनाई है, उसका शेष भाग जिनसेनस्वामीने शकसंवत् ७५९ में समाप्त किया है, ऐसा जयधवला टीकाकी प्रशस्तिसे . मालूम पड़ता है। देखिये:
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२९)
इति श्रीवीरसेनीया टीका सूत्रार्थदर्शिनी । मटग्रामपुरे श्रीमद्गुर्जरार्यानुपालिते ॥ फाल्गुने मासि पूर्वाह्ने दशम्यां शुक्लपक्षके । प्रवर्धमानपूजायां नन्दीश्वरमहोत्सवे ॥ अमोघवर्पराजेन्द्रप्राज्यराज्यगुणोदया। निष्ठितमचयं यायादाकल्पान्तमनल्पिका ॥ पष्ठिरेव सहस्राणि ग्रन्थानां परिमाणतः । श्लोकेनानुष्टुभेनात्र निर्दिष्टान्यनुपूर्वशः। विभक्तिः प्रथमस्कन्धो द्वितीयः संक्रमोदयः। उपयोगश्च शेपास्तु तृतीयस्कन्ध इष्यते ॥ एकानपष्ठिसमधिकसप्तशताब्देषु शकनरेन्द्रस्य । समतीऽतेपु समाता जयधवला माभूतव्याख्या ॥ गाथासूत्राणि सूत्राणि चूर्णिमुत्रं तु वार्तिकम् । टीका श्रीवीरसेनीयाऽशेपापद्धतिपञ्चिका ॥ श्रीवीरमभुभापितार्थघटना निर्लोडितान्यागमन्याया श्रीजिनसेनसन्मुनिवरैरादेशितार्थस्थितिः । टीका श्रीजयचिह्नितोरुधवला मूत्रार्थसम्बोधिनी
स्थेयादारविचन्द्रमुज्ज्वलतमा श्रीपालसम्पादिता ।। भावार्थ-इस प्रकारसे यह वीरसेनीया टीका जो कि सूत्रोंके अर्थको प्रगट करनेवाली है वढी भारी है, और अमोघवर्षे महाराजके विस्तृत राज्यके गुणोंके कारण जिसका उदय हुआ है, फागुन
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
(३०) सुदी दशमीके पूर्वाह्नमें जब कि अष्टान्हिकाका महोत्सव था और पूजा हो रही थी, पूर्ण हुई, सो कल्पकालपर्यन्त इसका कभी क्षय नहीं होवे । अनुष्टुप् श्लोकोंकी गिनतीसे इस टीकाके कुल ६० हजार श्लोक हुए हैं। इसमें तीन स्कन्ध हैं, जिनके क्रमसे विभक्ति, संक्रमोदय, और उपयोग ये तीन नाम हैं। शकसंवत् ७९९ में कपायप्राभृतकी यह जयधवला टीका समाप्त हुई । गाथासूत्र, सूत्र, चूर्णिसूत्र, वार्तिक और वीरसेनीया टीका इस प्रकारसे इस पं. चांगी टीकाका क्रम है। जिसमें वीरभगवान्के कहे हुए अभिप्रायोंका संग्रह किया गया है, दूसरे आगमोंके विपय जिसमें विलोये गये हैं, श्रेष्ठ जिनसेन मुनीश्वरने जिसमें (अपने गुरुके ) उपदेश किये हुए अर्थोकी रचना की है, श्रीपाल नामके मुनिने जिसे सम्पादन की है, और सूत्रोंके अर्थका जिससे वोध होता है; ऐसी यह अतिशय पवित्र या प्रकाशमान जयधवला टीका जवतक संसारमें सूर्य चंद्र हैं, तब तक स्थिर रहे। __इसमें कहीं वीरसेनीया और कहीं जयधवला टीका लिखी देखकर पाठक चक्करमें न पड़ें । वास्तवमें कपायप्राभूतकी ( जिसे प्रायोदोषप्राभूत भी कहते हैं और जो ज्ञानप्रवादनाम पांचवें पूर्वके दशम वस्तुका तीसरा प्राभत है) जो वीरसेनस्वामी और जिनसेनस्वामीकृत ६० हजार श्लोक प्रमाण टीका है, उसका नाम तो वीरसेनीया है और इस वीरसेनीया टीकासहित जो कषायप्राभूतके. मूलसूत्र और चूर्णिसूत्र वार्तिक वगैरह अन्य आचार्योंकी टीकाएं हैं, उन सबके संग्रहको जयधवलाटीका कहते हैं । यह संग्रह श्रीपाल . नामके
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३१ )
किसी आचार्यने किया है, इसलिये जयधवलाको ' श्रीपालसम्पादिता' विशेषण दिया है । कपायप्राभृतके मूल गाथासूत्र ( १८३ ) श्लोक और विवरणसूत्र ( १०३ श्लोक ) गुणधरमुनिकृत हैं, चूर्णिसूत्र ( ६००० श्लो० ) यतिवृपभाचार्यकृत हैं और वार्तिक ( ६० हजार लो० ) बहुत करके वप्पदेवगुरुकृत हैं ।
वीरसेनीया टीकाका प्रथमस्कन्ध जो कि २० हजार श्लोकका है वीरसेनस्वामीने बनाया है, और शेष भाग उनके शिष्यने । इसके लिये इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार कथामें भी स्पष्ट शब्दांम लिखा है:--
------
आगत्यं चित्रकूटात्ततः स भगवान्गुरोरनुज्ञानात् । माटग्रामे चात्रानतेन्द्रकृतजिनगृहे स्थित्वा ।। १७८ ।। व्याख्याप्रज्ञप्तिमवाप्य पूर्वपट्खण्डतस्ततस्तस्मिन् । उपरिमबन्धनाद्यधिकारैरष्टादशविकल्पैः ।। १७९ ।। सत्कर्मनामधेयं पष्ठं खण्डं विधाय संक्षिप्य । इति पण्णां खण्डानां ग्रन्थसहस्रद्विसप्तत्या ॥ १८० ॥ प्राकृतसंस्कृतभाषामियां टीकां विलिख्य धवलख्याम् । जयधवलां च ऋपायप्राभृतके चतसृणां विभक्तीनाम् ॥ १८१ ॥ विंशतिसहस्रसद्ग्रन्थरचनया संयुतां विरच्य दिवम् | यातस्ततः पुनस्ताच्छप्यो जयसेनगुरुनामा || १८२ ॥
१. इसका पहले १७६ और १७७ वें श्लोकसे सम्बन्ध है, जो पृष्ठ १० में छप चुके हैं।
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३२ )
तच्छेषं चत्वारिंशतासहस्रैः समापितवान् । जयधवलैवं पष्ठिसहस्रग्रन्थोऽभवट्टीका || १८३ ॥ भावार्थ — गुरु महाराजकी आज्ञासे वीरसेनस्वामी चित्रकू छोड़कर माटग्राम में आये । वहां आनतेन्द्रके वनवाये हुए जिनमन्दिरमें बैठकर उन्होंने व्याख्याप्रज्ञप्ति ( वप्पदेवगुरुकृत) को प्राप्तकरके उसके जो पहले (कर्मप्राभृतके ) छह खंड हैं, उनमेंसे छठे खंडको संक्षेप किया और सबकी बन्धनादि अठारह अधिकारोंमें ( अध्यायोंमें) प्राकृतसंस्कृतभाषामिश्र धवला नामकी टीका ७२ हजार श्लोकोंमें रची। और फिर दूसरे कपायप्राभृतके पहले स्कन्धकी चारों विभक्तियोंपर जयधवला नामकी २० हजार श्लोक प्रमाण टीका लिख करके स्वर्गलोकको सिधारे । पीछे उनके शिष्य श्रीजयसेनगुरुने ४० हजार श्लोक और बनाकर जयधवलाटीकाको पूर्ण की । जयधवला - सब मिलाकर ६० हजार श्लोकोंम पूर्ण हुई ।
यहां जो शिष्यका नाम जयसेनगुरु लिखा है वह जैसा कि पहले कहा जा चुका है, छपानेवालोंके अथवा लेखक महाशयोंके दृष्टिदोषसे लिखा गया है । इसके लिये एक प्रमाण तो यह है कि, वीरसेनस्वामीके जयसेन नामके कोई शिष्य नहीं थे जिनसेन ही थे और दूसरे विबुध श्रीधरकृत गद्यश्रुतावतारमें जयसेनकेस्थानमें जिनसेन ही लिखा है । यथा:--
अत्रान्तरे एलाचार्यभट्टारकपार्श्वे सिद्धान्तद्वयं वीरसेननामा मुनिः पठित्वाऽपराण्यपि अष्टादशाधिकाराणि प्राप्य पञ्चखण्डे षट्खण्डं संकल्प्य संस्कृतप्राकृतभाषया सत्कर्मनामटीकां द्वास
L
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
(३३) सतिसहस्रपमिता धवलनामाङ्कितां लिखाप्य विंशतिसहस्रकर्मपाभूतं विचार्य वीरसेनमुनिः स्वर्ग यास्यति । तस्य शिप्यो जिनसेनो भविष्यति सोऽपि चत्वारिंशत्सहस्रः कर्मणाभतं समाप्ति नेप्यति । अमुना प्रकारेण पष्टिसहस्रपमिता जयधवलनामाकिता टीका भविष्यति ।। - इसका अभिप्राय वही है, जो ऊपर इन्द्रनान्दिकृत श्रुतावतारके श्लोकोंमें दिया है । केवल इतना अन्तर है कि जयसेनके स्थानमें जिनसेनको वीरसेनका शिप्य बतलाया है।
इसके शिवाय भगवद्गुणभद्रने उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें जिनसेनस्वामीको सिद्धान्तशास्त्रका टीकाकार कहा है । यथाः--
जिनसेनमगवतोक्तं मिथ्याकविदर्पदलनमतिललितम् ।
सिद्धान्तोपनिवन्धनको भत्रों चिराविनायासात् ॥ इस श्लोकका सम्बन्ध पहलेके कई श्लोकोंसे है, जिनमें महापुराणकी प्रशंसा की गई है। विस्तारके भयसे हमने उन्हें न लिखकर केवल इस एक ही श्लोकको लिखा है। इसका अभिप्राय यह है कि, झूठे कवियोंके गर्वको दलन करनेवाला यह बहुत ही सुन्दर महापुराण, विना ही परिश्रमके सिद्धान्तकी (कपायप्रामृतकी) शेष टीका वनानेवाले और चिरकाल तक संबका पालन करनेवाले भगवान् जिनसेनका कहा हुआ है । हम समझते हैं कि, जयधवला टीकाके शेप मागके कर्ता जिनसेन ही हैं, इस विषयमें अत्र और अधिक प्रमाण देनेकी अवश्यकता नहीं होगी।
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
(३४)
• अब प्रस्तुत विषयपर आइये । इससे शकसंवत् ७९९ तक। जिनसेनस्वामी स्वामी थे, इस विषयमें कोई सन्देह नहीं रहा । अब यह देखना है कि, आगे वे और कबतक इस धराधामको पवित्र करते रहे हैं।
हमारी समझमें आदिपुराणकी रचना जयपवला टीकाके पूर्ण हो चुकनेके पश्चात् हुई हैं। क्योंकि आदिपुराणकी प्रस्तावना जिस समय लिखी गई है, उस समय वीरसेनस्वामी सिद्धान्तशास्त्रोंकी. दोन टीकाओंके कर्ता कहलतेथेऔर स्वर्गवास कर चुके थे, ऐसा निम्नलिखित . श्लोकसे अनुमान होता है:
सिद्धान्तोपनिवन्धानां विधातुर्मदगुरोश्चिरम् । . मन्मनःसरासि स्थेयान्मृदुपादकुशेशयम् ।। ५७ ॥ __ इस श्लोकका अर्थ पहले लिखा जा चुका है। इसमें जो 'सिद्धान्तोंको टीकाएं बनानेवाले' विशेण दिया है, वह यदि आदिपुराण जयधवला टीकासे पहले बना होता, तो नहीं दिया जाता । वीरसेनस्वामी 'टीकाएं ' वना चुके थे, इसीलिये दिया गया है और, 'उनके कोमल चरण कमल मेरे हृदयसरॉवरमें ठहरें ऐसी जो आकांक्षा की गई है, उससे ध्वनित होता है कि, वीरसेनस्वामीका स्वर्गवास हो चुका था, क्योंकि परलोकगत अवस्थामें ही गुरुके चरण स्मरण किये जाते हैं। इसके सिवाय जव महापुराण अधूरा छोड़के ही जि नसेनस्वामी स्वर्गवास कर गये हैं, तब स्वयं ही सिद्ध है कि, महापुराण उनकी सबसे पिछली रचना है। जयधवला टीका उससे बहुत पहले बन चुकी होगी।
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
इसके जाननेका कोई साधन नहीं है कि, महापुराण किस समय प्रारंभ किया गया और उसका उत्तरभाग गुणभद्राचार्यने किस समय लिखना शुरू किया। केवल उत्तरपुराणकी समाप्तिका समय उसकी अन्त प्रशस्तिसे मालूम होता है:
शकनृपकालाभ्यन्तरविंशत्यधिकाष्टशतमिताब्दान्ते । मङ्गलमहार्थकारिणि पिङ्गलनामनि समस्तजनमुखद॥३२॥ श्रीपञ्चम्या बुधा युजि दिवसवरे मंत्रिवारे सुधांशौ । पूर्वायां सिंहलग्ने धनुपि धरणिजे वृश्चिकाकी तुलागौ । सूर्ये शुके कुलीरे गवि च सुरगुरौ निष्ठितं भन्यवयः ।। प्राप्लेज्यं सर्वसारं जगति विजयते पुण्यमेतत्पुराणम् ॥३३॥
इसका अभिप्राय यह है कि, शकसंवत् ८२० में यह महापुराण समाप्त हुआ । महापुराणके शेप भागके जिसको कि गुणभद्रस्वामीने पूर्ण किया है, दश हजार श्लोक हैं। यदि गुणभद्रस्वामी इसे लगातार वनाते गये हों, और दश दश पांच पांच श्लोक ही इसके प्रतिदिन बनाते रहे हों, तो दश हजार श्लोकोंकी रचनाके लिये पांच वर्ष समझ लेना काफी है । अर्थात् उत्तरपुराणका प्रारंभ शकसंवत् ८९५ के लगभग हुआ होगा, ऐसा अनुमान कर सकते हैं । परन्तु इससे यह समझ लेना हमारी भूल होगी कि, जिनसेनन्वामीका ८१५ के लगभग देहान्त हुआ होगा । क्योंकि इस कालमें १४० वर्षकी आयु होना एक प्रकारसे असंभव है। इससे जान पड़ता है कि, जिनसेनस्वामीका शरीरान्त होनेपर महापुराण बहुत वर्षों तक अधूरा पड़ा रहा है, और फिर गुणभद्रस्वामीने उसमें हाथ लगाया है । हम
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
(३६) पहले लिख चुके हैं कि, जिनसेनस्वामीके पीछे संघके स्वामी विनय'सेन हुए थे और फिर उनके पीछे गुणभद्र हुए थे। इससे अनुमान होता है कि, शायद गुणभद्रस्वामीने संघका आधिपत्य अर्थात् आचार्यपद पाचुकनेपर महापुराणका लिखना शुरू किया होगा और क्या .
आश्चर्य है, जो महापुराण वीचमें इसलिये पड़ा रहा हो कि, ऐसा 'महान् आर्पग्रन्थ एक संघाधिपति अनुभवी ऋषिके द्वारा ही पूर्ण होना. चाहिये, सामान्य मुनिके द्वारा नहीं।
उधर जयधवला टीकाके पूर्ण होते ही यदि महापुराणकी रचना शुरू हो गई हो, और वह इस ख्यालसे कि उस समय निनसेनस्वामीकी अवस्था ८० वर्षसे उपर हा चुकी थी, वहुत थोड़ी थोड़ी होती रही हो तो उसके दशहजार श्लोक पूर्ण होनेमें लगभग १० वर्ष लग गये होंगे । महापुराणका जितना भाग जिनसेनस्वामीकृत है उसकी श्लोकसंख्या दश हजार है। इस हिसावसे शकसंवत् ७७० तक अथवा वहुत जल्दी हुआ हो, तो निदान ७६५ तक तो भगवान् जिनसेनका अस्तित्व माननेमें कोई आपत्ति नहीं दीखती है ।
इस तरह भगवान् जिनसेन अपने अस्खलित ब्रह्मचर्य, संयम और पवित्र विचारोंके कारण लगभग ९०-९५ वर्षकी अवस्थाको प्राप्त. करके और संसारका अनन्त उपकार करके स्वर्गवासी हुए।
१.जिनसेनस्वामीके गुरु वीरसेनस्वामीकी अवस्था भी ८० वर्षसे कम न .' हुई होगी, ऐसा जान पड़ता है। क्योंकि वे जयधवलाटीका पूर्ण होनेके दश वर्षे 'पहले लगभग शकसवत् ७५० में स्वर्गवासी हुए होंगे गौर जन्म उनका अधिक नहीं तो जिनसेनस्वामीके १० वर्ष पहले लगभग ६६५ शकमें हुआ होगा। इस हिसावसे ८५ वर्षकी अवस्था हो जाती है।
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
(३७)
गुगभद्रस्वामी कवस का तक रहे, इसका निगय करने और बड़ी कठिनता है। क्योंकि उन्होंने उत्तरपुराणके सिवाय अन्य किसी भी अन्यमें अपनी प्रशास्ति नहीं दी है। और न उस समयके किसी विद्वानका किया हुआ उलेख उनके विषय मिलता है। श्रीदेवसेनसरिके बनाये हुए दर्शनमारके कुछ गाथा हम ऊपर दे चुके हैं, जिनमें यह कहा गया है कि, जिनमेनस्वामीके शिप्य गुण भद्रस्वामी थे । उन्होंने विनयमनमुनिके शरीरान्त होनेपर सिद्धान्तोंका उपदेश किया और पीछे वे भी स्वर्गलोकको सिधारे । फिर विनयमेनका शिप्य कुमारसेन था, सो उसने संन्यासनष्ट होकर काष्टासंब चलाया । इससे यह अभिप्राय निकलता है कि, विनयसेन और गुगमद्रस्वामीकी मृत्युके पश्चात् कुमारसेन सन्यासभ्रष्ट हुआ हैं, और फिर उसने काटासंघ चलाया है। काष्टासंघ कत्र चला है, इसके लिये दर्शनासारकी उक्त गायाओंके आगे ही कहा है:
सत्तसये तेवण्णे विक्रमरायस्स मरणपत्नन्स । नंदियडे वरगामे कहोसंयो मुणेयचो ॥ ३९ ॥ नदियडे वरगामे कुमारसेणो य सत्यविण्णाणी।
कहो दसणभहो जादो सल्लेरणाकाले ॥ ४० ॥ अर्थात् विक्रमराजा (शालिवाहन )को मृत्युके ७५३ वर्ष पीके नन्दीतट ग्राममें काष्ठासंब उत्पन्न हुआ। उक ग्राममें शाम्रो ज्ञाता कुमारसेन सल्लेखनाके समय दर्शनसे भ्रष्ट हो गया।
१. यह निश्चय हो चुका है कि, भाकलंबदसे चलानेया शालिवाहन नाम विक्रम था। जनप्रन्यों में जहाँ विस्मान्द लिग रहता है. यहां पर घरके शकसंवनके ही अभिनायते लिता रता है।
-
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
पहले लिख चुके हैं कि, जिनसेनस्वामी के पीछे संघके स्वामी विनयसेन हुए थे और फिर उनके पीछे गुणभद्र हुए थे। इससे अनुमान होता है कि, शायद गुणभद्रस्वामीने संघका आधिपत्य अर्थात् आचार्यपद पाचुकनेपर महापुराणका लिखना शुरू किया होगा और क्या आश्चर्य है, जो महापुराण वीचमें इसलिये पड़ा रहा हो कि, ऐसा महान् आर्षग्रन्थ एक संघाधिपति अनुभवी ऋषिके द्वारा ही पूर्ण होना चाहिये, सामान्य मुनिके द्वारा नहीं ।
उधर जयधवला टीकाके पूर्ण होते ही यदि महापुराणकी रचना शुरू हो गई हो, और वह इस ख्यालसे कि उस समय जिनसेनस्वामीकी अवस्था ८० वर्षसे उपर हा चुकी थी, वहुत थोड़ी थोड़ी होती रही हो; तो उसके दशहजार श्लोक पूर्ण होनेमें लगभग १० वर्ष लग गये होंगे। महापुराणका जितना भाग जिनसेनस्वामीकृत है। उसकी श्लोकसंख्या दश हजार है। इस हिसावसे. शकसंवत् ७७० तक अथवा बहुत जल्दी हुआ हो, तो निदान ७६५ तक तो' भगवान् जिनसेनका अस्तित्व माननेमें कोई आपत्ति नहीं दीखती है।
इस तरह भगवान् जिनसेन अपने अस्खलित ब्रह्मचर्य, संयम और पवित्र विचारोंके कारण लगभग ९०-९५ वर्षकी अवस्थाको प्राप्त. करके और संसारका अनन्त उपकार करके स्वर्गवासी हुए।
१. जिनसेनस्वामीके गुरु वीरसेनस्वामीकी अवस्था भी ८० वर्षसे कम न " हुई होगी, ऐसा जान पड़ता है। क्योंकि वे जयधवलाटीका पूर्ण होनेके दश वर्ष 'पहले लगभग शकसवत् ७५० में स्वर्गवासी हुए होंगे और जन्म उनका अधिक . नहीं तो जिनसेनस्वामीके १० वर्ष पहले लगभग ६६५ शकमें हुआ होगा। इस हिसावसे ८५ वर्षकी अवस्था हो जाती है।'
-
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
(३७)
गुणभद्रस्वामी कबसे कब तक रहे, इसका निणय करनेमें और चड़ी कठिनता है। क्योंकि उन्होंने उत्तरपुराणके सिवाय अन्य किसी भी अन्यमें अपनी प्रशास्ति नहीं दी है। और न उस समयके किसी विद्वानका किया हुआ उल्लेख उनके विषयमें मिलता है। श्रीदेवसेनसूरिके बनाये हुए दर्शनसारके कुछ गाथा हम ऊपर दे चुके हैं, जिनमें यह कहा गया है कि, जिनसेनस्वामीके शिष्य गुण भद्रस्वामी थे। उन्होंने विनयसनमुनिके शरीरान्त होनेपर सिद्धान्तोंका उपदेश किया और पीछे वे भी स्वर्गलोकको सिधारे । फिर विनयसेनका शिष्य कुमारसेन था, सो उसने संन्यासभ्रष्ट होकर काष्ठासंघ चलाया। इससे यह अभिप्राय निकलता है कि, विनयसेन और गुणभद्रस्वामीकी मृत्युके पश्चात् कुमारसेन सन्यासभ्रष्ट दुआ है, और फिर उसने काठासंघ चलाया है। काष्ठासंघ कत्र चला है, इसके लिये दर्शनासारकी उक्त गाथाओंके आगे ही कहा है:
सत्तसये तेवण्णे विक्रमरायस्स मरणपत्तस्स। . नंदियडे वरगामे कटोसंघो मुणेयवो ॥ ३९ ॥ . नदियडे वरगामे कुमारसेणो य सत्यविण्णाणी।
कहो दसणभट्टो जादो सल्लेहणाकाले ॥४०॥ अर्थात् विक्रमराजा (शालिवाहन ) की मृत्युके ७५३ वर्ष पीछे नन्दीतट ग्राममें काष्ठासंघ उत्पन्न हुआ। उक्त ग्राममें शास्त्रोंका ज्ञाता कुमारसेन सल्लेखनाके समय दर्शनसे भ्रष्ट हो गया।
१. यह निश्चय हो चुका है कि, शकसंववके चलानेवाले शालिवाहनका नाम विक्रम था । जैनग्रन्थोंमें जहां विक्रमाव्द. लिखा रहता है, वहां बहुत करके शकसंवतके ही अभिप्रायसे लिखा रहता है.। .. . . .
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
(३८)
वर्तमानमें जो शकसंवत् चलता है, वह शकविक्रमके जन्मसे चलता है और यहां जो ७५३ शक बतलाया है, वह मरणका है। अतएव शकविक्रमकी (शालिवाहनकी) अवस्थाके ८९ वर्ष इसमें जोड़ें देना चाहिये । इस तरह ७५३+८९८४२ शकसंवत् काठासंघकी उत्पत्तिका होता है। इससे सिद्ध होता है कि, शक ८४२ से पहले और ८२० के पीछे किसी समय गुणभद्रस्वामीको मृत्यु हो चुकी होगी। शक ८२० के पीछे कहनेका कारण यह है कि, महापुराणकी समाप्ति उन्होंने शक ८२० में की है, ऐसा पहले कहा जा चुका है। आत्मानुशासन, जिनदत्तचरित्र आदि कई ग्रन्थ गुणमद्रस्वामीके और भी हैं, परन्तु उनकी प्रशस्तियोंके अभावसे यह नहीं कहा जा सकता है कि, वे महापुराणसे पहले वन चुके थे, या पीछेके हैं। यदि पछिके हों, तो शक ८२० के और भी कई वर्ष पीछे तक गुणभद्रस्वामीकी अवस्थाकी निश्चित अवधि बढ़ाई जा सकती है। प्रारंभमें कहा जा चुका है कि, मंडलपुरुपकृत चूडामणि निघंटुमें गुणभद्रस्वामीके ग्रामका नाम लिखा है। क्या आश्चर्य है, जो उक्त ग्रन्थसे उनके जन्म तथा दीक्षादिके समयका भी निश्चित ज्ञान हो जाय।
ग्रन्थरचना। जिनसेनस्वामीके बनाये हुए आदिपुराण और पार्श्वभ्युदयकाव्य ये दो ग्रन्थ तो प्रसिद्ध तथा प्राप्त हैं, जयधवला टीका (शेषभाग) सर्वत्र प्राप्त नहीं है, परन्तु उसका अस्तित्व है । मूडविद्रीके सुप्रसिद्ध
१.इसीलिये त्रिलोकसारमें लिखा है कि,वीर निर्वाणके६०५वर्ष और५महिनेके वाद शकराजा हुआ। वर्तमान शकसंवत् १८३४ में ६०५ जोडनेसे २४३९ बीरनिर्वाण संवत् हो जाता है।
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
(३९) सिद्धान्तमन्दिरमें उसकी एक प्रति है, और जिनेन्द्रगुणस्तुति तथा वर्द्धमानपुराणनामके दो ग्रन्थोंका पता हरिवंशपुराणकी प्रस्तावनासे लगता है, जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है, परन्तु अभीतक इन ग्रन्योंका अस्तित्व कहींपर सुननेमें नहीं आया है। शायद किसीको यह ज्ञात भी नहीं है कि, जिनसेनस्वामीके बनाये हुए चर्द्धमानपुराण तथा जिनेन्द्रगुणस्तुति नामके भी कोई ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्योंके सिवाय सुप्रसिद्ध हरिवंशपुराण भी जिनसेनस्वामीका बनाया हुआ कहलाता है। बल्कि प्रोफेसर के. वी. पाठक, श्रीयुक्त टी. एस. कुप्पूस्वामी शास्त्री आदि कई विद्वानोंने इस विषयका कई स्थानोंमें उल्लेख भी किया है । इस लेखके लिखनेका प्रारंभ करने तक इस निवन्धलेखकका भी यही ख्याल था कि, हरिवंशपुराण और आदिपुराणके कर्ता जिनसेन एक ही हैं। परन्तु पीछे विचार. करनेसे अच्छीतरह निश्चय हो गया कि, आदिपुराणके कर्ता जिनसेनसे हरिवंशपुराणके कर्ता जिनसेन जुदे थे। पटकोंके विश्वासके लिये इस विषयमें हम यहांपर थोड़ेसे प्रमाण देते हैं:
१ आदिपुराणके कर्ता जिनसेनके विद्यागुरुका नाम वीरसेन और दीक्षागुरुका नाम जयसेन था, ऐसा ऊपर आदिपुराण, पार्थाभ्युदय, उत्तरपुराण, श्रुतावतार, दर्शनसार अदि कई अन्योंके आधारसे प्रगट किया जा चुका है, परन्तु हरिवंशपुराणके कर्ता अपने गुरुका नाम कीर्तिसेन लिखते हैं। . २ आदिपुराणकारने अपने संघका नाम सेन लिखा है, परन्तु गण नहीं बतलाया । हरिवंशकेकर्ता संवआदि कुछ भी नहीं लिखकर
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
(४०) केवल अपना पुन्नाटगण वतलाते हैं और दोनोंकी गुरुपरम्परा भी एक दूसरेसे बिलकुल नहीं मिलती है । देखिये, हरिवंशपुराणकी प्रशास्तिमें जिनसेनसूरि वर्द्धमानस्वामीसे लेकर जयसेनगुरु तककी गुरुपरम्परा लिखकर आगे कहते हैं:तदीय शिष्योऽमितसेनसद्गुरु पवित्रपुन्नाटगणाग्रणी गणी । जिनेन्द्रसच्छासनवत्सलात्मना तपोभृता वर्षशताधिजीविना ३१ सुशास्त्रदानेन वदान्यतामुना वदान्यमुख्येन भुवि प्रकाशिता। तदग्रजा धर्मसहोदर शमी समाधीर्द्धम इवात्तविग्रहः ॥ ३२ ॥ तपोमयाँ कीर्तिमशेषदिक्ष यः क्षिपन्वभौ कीर्तितकीर्तिषणः।। तदनशिष्येण शिवाग्रसौख्यभागरिष्टनमीश्वरभक्तिभाविना॥३३॥ स्वशक्तिभाजा जिनसेनसारिणा धियाल्पयोक्ता हरिवंशपद्धतिः। यदत्र किञ्चिद्रचितं प्रमादतःपरस्परव्याहृतिदोषदूषितम् ॥ ३४॥ तदप्रमदास्तु पुराणकोविदाःसृजन्तु जन्तुस्थितिशक्तिवेदिनः। प्रशस्तवंशो हरिवंशपर्वतःक मे मतिःक्वाल्पतराल्पशक्तिका॥३५॥
इन श्लोकोंका अभिप्राय यह है कि, उन जयसेन गुरुके शिष्य अमितसेन गुरु हुए, जो पवित्र पुन्नाटगणके मुख्य आचार्य थे, जिनकी सौ वर्षसे अधिक अवस्था हुई थी, और जिन्होंने असीम शास्त्रदान करके (विद्यापढाकर) संसारमें बड़ी भारी दानशूरता प्रगट की थी। उनके बड़े भाई और
१.इस लेखके प्रारंभमें (पृष्ठ में) नयंधरसे लेकर हरिवंशपुराणके कर्ता जिनसेन तककी गुरुपरम्परा लिखी जा चुकी है, वहां जयसेनस्वामीतककी गुरुनामावली देख लेना चाहिये । ये जयसेनस्वामी षट्खंडसूत्रोंके एक टीकाकार और सुप्रसिद्धा वैयाकरण थे । आदिपुराणकर्ताके दीक्षागुरु जयसेन इनसे भिन्न होंगे। . .
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
(४१) धर्मके सहोदर कीर्तिपेण आचार्य हुए, जो शांत, पूर्णबुद्धि, तपस्वी, और 'धर्मके मूर्तिमंत शरीर थे। इन कीर्तिषेणके मुख्य शिष्य और नेमिनायके भक्त जिनसेनसरिने अपनी अल्पबुद्धिके अनुसार यह हरिवंशपुराण बनाया । यदि इसमें कहीं प्रमादवश भूल हुई हो, तो उसे प्रमादरहित पुराणन ठीक कर देवें । क्योंकि कहां तो प्रशस्तवंश हरिवंशरूपी पर्वत और कहां मेरी अतिशय. न्यूनशक्तिवाली बुद्धि ! . पुन्नाटगण चार संघों से किस संघके अन्तर्गत है, यहः हम निचयपूर्वक नहीं कह सकते हैं । परंतु हरिवंशपुराणकी प्रशस्तिका जो अंतिम श्लोक है, उससे तो ऐसा जान पड़ता है कि, पुन्नाट नामका कोई जुदा संघ ही है । वह श्लोक यह है:
व्युत्सृष्टापरसंघसन्ततिवृहत्पुन्नाटसंघान्वये प्राप्तः श्रीजिनसेनमुरिकविना लाभाय वोधे पुनः। दृष्टोऽयं हरिवंशपुण्यचरितः श्रीपार्वतः सर्वतो
व्याप्साशामुखमण्डलस्थिरतरः स्थयात्पृथिव्यां चिरम् ।। अर्थात् दूसरे संघोंकी सन्ततिको जिसने छोड़ दी है, ऐसे बड़े युन्नाट संघकी परिपाटीमें होनेवाले श्रीजिनसेनसूरि कविने सम्यग्ज्ञानके पानेके लिये जो यह हरिवंशका पुण्यचरित्ररूपी शोभामय पर्वत देखा है-रचा है, वह सब ओरसे आशाओंके (दिशाओंके वा इच्छाओंके ) मुखमंडलको व्याप्त करता हुआ पृथ्वीमें चिरकाल तक स्थिर रहे। . . . . .
. . इण्डियन ऐन्टिक्केरी ( १२११३-१६ ) में राष्ट्रकूटवंशीय महाराज प्रभूतवर्ष (द्वितीय) का जो दानपत्र प्रकाशित हुआ है
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
(४२) और जिसमें विजयकीर्तिके शिष्य अर्ककीर्ति मुनिको शिलाग्रामके जिनेन्द्रमन्दिरको शकसंवत् ७३९ में पांच ग्राम देनेका जिकर है, उसमें--. 'श्रीयापनीयनन्दिसंघपुंनागक्षमूलगणे श्रीकीाचार्यान्वये ऐसा पद दिया हुआ है। इससे ऐसा भी जान पड़ता है कि, पुनाट वा 'नागगण उस यापनीय संघका एक गण है, जिसकी गणना जैनाभासोंमें की जाती है । जो हो इस विषयमें हम फिर कभी वि-- चार करेंगे, यहां केवल इतना ही सिद्ध करना है कि, हरिवंशपुराणके कर्ता पुन्नागगणके थे और इसलिये वे सेनसंघी जिनसेनसे पृथक् थे।
३ हरिवंशपुराणके प्रारंभमें ग्रन्थकर्त्ताने जिनसेन और उनके गुरु विनयसेनकी प्रशंसा की है। इससे अच्छी तरह स्पष्ट हो रहा है. कि, प्रशंसा करनेवाले ग्रन्थकर्तासे, प्रशंसित जिनसेन दूसरे हैं। . ___४ हरिवंशपुराणमें नेमिनाथ भगवानका जन्म सौरीपरमें लिखा है
और उत्तरपुराणमें द्वारिकामें लिखा है। इसके सिवाय हरिवंश और उत्तरपुराणके कथाभागमें और भी कई एक भेद हैं । इससे भी जान पड़ता है कि, आदिपुराणके कर्तासे हरिवंशके कर्ता पृथक् हैं। क्योंकि उत्तरपुराण आदिपुराणके कर्ता जिनसेनके शिष्य गुणभद्रका बनाया हुआ है । यदि हरिवंशपुराणको गुणभद्रके गुरु जिनसेनने ही बनाया होता, तो गुणभद्रस्वामी अपने गुरुके लिखे हुए कथाभागसे विरुद्ध कुछ भी नहीं लिखते, यह निश्चय है। हरिवंशके कर्ता दूसरे संघके थे और उत्तरपुराणके को दूसरे संघके थे; इसीलिये कथाभागमें दोनोंका मतभेद दिखलाई देता है। . .. हरिवंशपुराण और आदिपुराणका बहुत विचारपूर्वक स्वाध्याय करनेसे भी अच्छी तरहसे समझमें आता है कि, इनके रचयिता
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
(४३) कवि भिन्न २ हैं। दोनोंकी कान्यशैली, कथानक कहनेका ढंग उत्प्रेक्षाएँ, कल्पनाएँ, आदि सभीमें बहुत बड़ा अन्तर दिखलाई देता है। . यहां विषयान्तर होता है तो भी हम अपने पाठकोंसे क्षमा मागकर यह कह देना भी आवश्यक समझते हैं कि, हरिवंशपुराणको
और पद्मपुराणको जो कई लोगोंने काष्ठासंघी आचार्योंका वनाया हुआ समझ रक्खा है, सो केवल भ्रम है । क्योंकि जिस समय ये दोनों ग्रन्थ बने हैं, उस समय काष्ठासंघका सूत्रपात भी नहीं हुआ था। क्योंकि काष्ठासंघकी उत्पत्ति दर्शनसारके मतसे. शकजन्म संवत् ८४२ (शकमृत्यु ७५३ ) में जिनसेनके सतीर्थ. विनयसेनके शिष्य कुमारसेन द्वारा हुई है, जैसा कि हम पूर्वमें लिख चुके हैं ( देखो पृष्ठ ३७ ) और हरिवंशपुराण शकसंवत्.७०५ में वना है, तथा पद्मपुराण उससे भी पहले वीर नि० संवत् १२०३ में अर्थात् शकसंवत् ५९८ में रचा गया है। हरिवंशपुराणके कतीने रविपेणाचार्यकी स्तुति की है, इससे भी मालूम होता है कि वह हरिवंशसे भी पहलेका है । अतएव पद्मपुराण और हरिवंशपुराण काष्ठासंघी नहीं है। इनका कथाभाग उत्तरपुराणसे नहीं १. यथा-कृतपद्मोदयोद्योता प्रत्यहं परिवर्तिता। , . मूर्तिकाव्यमयी लोके रवेरिव रवेप्रिया ॥३४॥
वरांगनेव सागैर्वरांगचरितार्थवाक् ।
कस्य नोत्यादयेदूगाढमनुरागं स्वगोचरम् ॥३५॥ - इन श्लोकोंसे यह भी मालूम होता है कि, रविपेणस्वामीने पद्मपुराणके सिवाय वरांगचरित्र नामका भी एक बहुत उत्तम काव्य बनाया है। . . . .
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
(४४)
मिलता है, केवल इसी एक कारणसे ये काष्ठासंघी नहीं हो सकते हैं। __हरिवंशपुराणके सिवाय अलंकारचिन्तामणि नामका एक अलंकार विषयक ग्रन्थ भी भगवजिनसेनके नामसे प्रसिद्ध हो गया है। परंतु सिवाय इसके कि उसके छपानेवालोंने उसके टाइटिलपेजपर " भगवजिनसेनाचार्यकृत ' लिख दिया है, और कोई प्रमाण उसके 'जिनसेनाचार्यकृत होनेमें नहीं है। लगभग २० वर्ष पहले इस ग्रन्थका काव्याम्बुधि नामक संस्कृत मासिकपत्रमें प्रकाशित होना शुरू हुआ था, जो कि सुप्रसिद्ध जैनविद्वान् पद्मराजपण्डितके द्वारा वेंगलोरसे निकलता था । उसमें उन्होंने इसे अजितसेनाचार्यकृत लिखा था। इससे निश्चय होता है कि वह उक्त आचार्यकृत ही होगा । और यदि अनितसेनाचार्यकृत नहीं है, तो भी इसमें तो किसी प्रकारका सन्देह नहीं है कि, वह भगवजिनसेनकृत नहीं है। क्योंकि उसमें:संस्कृतं प्राकृतं तस्यापभ्रंशो भूतभाषितम् । . ... इति भाषा चतस्रोपि यान्ति काव्यस्य कायताम् ॥ (पृष्ठ २८).
आदि तीन श्लोक उद्धृत किये हैं, जो कि वाग्भटालंकारके हैं और वाग्भटालंकारके की वि० सं० ११७९ में: अणहिल्लपुरपाटणमें जिनसेनस्वामीसे तीन सौ वर्ष पीछे हुए हैं। इसके सिवाय
श्रीमत्समन्तभद्राचार्यजिनसेनादिभाषितम् । · लक्ष्यमात्रं लिखामि स्वनामसूचितलक्षणम् ॥ (पृष्ठ ३०)
इस श्लोकमें स्वयं कवि ही कह रहा है कि, जिनसेनाचार्य मुझसे भिन्न हैं । आवश्यकता होनेपर इस. विषयमें और भी अनेक प्रमाण, ििदये जा सकते हैं।
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
(४५)
जयधवलाटीकाका शेषमाग भगवजिनसेनका बनाया हुआ है। इसके कई प्रमाण पहले दिये जा चुके हैं। उनके सिवाय प्राकृतशब्दानुशासनके कर्ता महाकवि त्रिविक्रमकी प्रशस्तिसे भी इस वातका पता लगता है, कि जिनसेनस्वामीने कोई प्राकृतका ग्रन्थ बनाया है और वह बहुत करके यही संस्कृतप्राकृतमिश्र वीरसेनीया टीकाका शेषभाग होगाः
श्रुतभर्तुरर्हनन्दित्रविद्यमुनेः पदाम्बुजभ्रमरः। श्रीवाणमुकुलकमलद्युमणेरादित्यशर्मणः पौत्रः॥ श्रीमल्लिनाथपुत्रो लक्ष्मीगर्भामृताम्बुधिसुधांशुः। सोमस्य वृत्तविद्याधाना भ्राता त्रिविक्रमासुकविः ।। श्रीवीरसेनजिनसेनाचार्यादिवचःपयोधितः कतिचित् । प्राकृतपदरत्नानि प्राकृतकृतिभूपणाय विचिनोति ।।
इसका भावार्थ यह है कि, अर्हनन्दि विद्यमुनिका शिप्य, आदित्यशर्माका पौत्र, मल्लिनाथका पुत्र, लक्ष्मीमाताके गर्भसमुद्रसे निकला हुआ चन्द्रमा और सोमका भाई त्रिविक्रम सुकवि वीरसेन जिनसेन आदि आचार्योंके वचनसमुद्रसे कुछ प्राकृतपदरूपी रत्न निकालकर अपनी प्राकृतरचनाकी शोभाके लिये संग्रह करता है। ___ इस तरह जिनसेनस्वामीके बनाये हुए वर्द्धमानपुराण, पार्श्वस्तुति, नयधवला टीका, आदिपुराण, और पार्श्वभ्युदयकाव्य इन पांच ग्रन्योंका निश्चित रूपसे पता लगता है। इनके सिवाय .. १. भगवजिनसेनका बनाया हुआ एक जिनसहस्रनामस्तोत्र भी है, परन्तु वह आदिपुराणके अन्तर्गत है, इसलिये जुदा नहीं गिनाया गया। .
-
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ४६ ) द्रोपदीप्रबंध आदि दो चार ग्रन्थ और भी जिनसेनाचार्यके नामसे प्रसिद्ध हैं । परन्तु जब तक स्वतः अच्छी तरहसे न देख लिये जावें तब तक यह कहना कठिन है कि, वे वास्तवमें किसके बनाये हुए हैं। क्योंकि जिनसेन नामके और भी अनेक विद्वान् आचार्य हो गये हैं।
उपर्युक्त पांच ग्रन्थों से इस समय पार्थाभ्युदय और आदिपुराण ये दो ही ग्रन्थ प्रसिद्ध और प्राप्य हैं, इसलिये हम अपने पाठकोंको यहांपर उन्हींका थोडासा परिचय करा देना चाहते हैं। ___ पार्थाभ्युदय-यह ३६४ मन्दाक्रान्ता वृत्तोंका एक खंडकाव्य है । संस्कृत साहित्यमें अपने ढंगका यह एक ही काव्य है। इसमें महाकवि कालिदासका सुप्रसिद्ध काव्य मेघदूत सवका सन वेष्टित है । मेघदूत काव्यमें जितने श्लोक हैं, और उन श्लोकोंके जितने चरण हैं, वे सब एक २ वा दो २ करके इसके प्रत्येक:श्लोकमें प्रविष्ट कर लिये गये हैं, अर्थात् मेघदूतके प्रत्येक चरणकी समस्यापूर्ति करके यह कौतुकावह ग्रन्थ रचा गया है। संस्कृतमे मेघदतके श्लोकोंका अन्तिम चरण ले लेकर तो अनेक ग्रन्थ रचे गये हैं-जैसे नेमिदूत, शीलदूत, हसपादाङ्कदृत आदि । परन्तु सम्पूर्ण ग्रन्थको वेष्टित करनेवाला यह एक ही कान्य है । जिस कथाको लेकर इस अपूर्व ग्रन्थकी रचना हुई है, उसका सार भाग इस प्रकार है:
१. यह दि. जैनकवि विक्रमका बनाया हुआ है । इसमें राजीमती और नेमिनाथका चरित्र वर्णित है । छप चुका है। २. यह श्वेताम्बर जैन कवि चारित्र सुन्दर गणिका वनाया हुआ है। इसमें स्थूलभद्राचार्यका चरित्र है. । छपचुका है।
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ४७ )
66
इस भरतक्षेत्र के सुरम्य नामक देशमें एक पोदनपुरी नामकी नगरी थी, जिसमें अरविंद नामक राजा राज्य करता था । राजाके मंत्री विश्वभूतिके कमठ और मरुभूति नामके दो पुत्र थे । अवस्था प्राप्त होनेपर इन दोनोंको मंत्रीका पद प्राप्त हुआ और क्रमसे वरुणा और वसुंधरा नामकी सुन्दर कन्याओंके -साथ इन दोनोंका विवाह हो गया । एक वार अरविन्द्रमहा- राज मरुभूतिको अपने साथ लेकर वज्रवीर्य नामक राजाको जीतनेके लिये उसकी राजधानीपर चढ़ गये । इधर कमठका मन मरुभूतिकी स्त्री वसुन्धरापर आसक्त हो रहा था, सो उसने अवसर याकर अपनी स्त्री वरुणाके द्वारा वसुन्धराको एकान्तमें प्राप्त करके नाना प्रकार के कामकौशलोंसे वशमें कर ली और उसका शील नष्ट कर दिया । परन्तु यह वात छुपी नहीं रही । अरविन्द महाराजको - लौटकर अपनी राजधानीमें प्रवेश करनेके पहिले ही इसका पता लग गया, इसलिये उन्होंने मरुभूतिसे पूछा कि, भाईकी खीके साथ पतित होनेवालेको क्या दंड देना चाहिये ? और उसने जो उत्तर दिया उसीके अनुसार कमठको यह आज्ञा देकर नगरीस निकलवा दिया कि अब वह कभी मेरी दृष्टिके साम्हने न आवे । निदान कमठ मरुभूतिपर क्रुद्ध होकर घरसे निकल गया और वनमें तापसी होकर कायक्लेश करने लगा । मरुभूतिका हृदय बहुत कोमल था, इसलिये 'जब उसने घर आकर यह सुना कि, मेरा भाई देशसे निकाल दिया गया है, तब बहुत दुःखी हुआ और पश्चात्ताप करता हुआ
।
कमठके पास पहुंचा । वहां उसका क्रोध शान्त करनके लिये
.
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ४८ )
ज्यों ही इसने मस्तक नवाया, त्यों ही दुष्ट कमठने अपने सिरपर ( तपस्याके लिये ) रक्खी हुई शिलाको पटककर मरुभूतिका प्राण ले लिया । कुछ समय पीछे कमटकी आयु भी पूरी हुई । तदनन्तर इन दोनोंने नाना योनियों में नाना जन्म धारण किये और मरुभूतिके जीवने प्रत्येक जन्ममें कमटके द्वारा प्राण खोकर · अन्तमें वाराणसीके महाराज विश्वसेनकी ब्राह्मी (वामा ) महादेवीके उदरसे पार्श्वनाथ तीर्थकरका जन्म धारण किया । तथा कमठने शम्बर नामके ज्योतिपीदेवकी पर्याय पाई । जिस समय पार्श्वनाथ भगवान् निष्क्रमण कल्याणके पश्चात् प्रतिमायोग धारण किये हुए विराजमान थे, उस समय शम्बर आकाशमार्गले. भ्रमण करता हुआ वहांसे निकला और अपने पूर्व वैरको स्मरण करके उनको कष्ट देने लगा । " बस इसी कथानकको लेकर पार्श्वम्युदय रचा गया है । इसमें शम्बर देवको यक्ष, ज्योतिर्भवनको अलकापुरी, और यक्षकी वर्षशापको शम्बरकी वर्षशाप मान ली है। इसके सिवाय पूर्व और वर्तमान भवोंकी वर्तमानरूपमें ही कल्पना की है।
1
जब मेघदूतके कथानक में और पार्श्वचरित्रके कथानक में जमीन आसमानका अन्तर है, तब मेघदूतके चरणोंको लेकर पार्श्वचरित्रका
१ इससे जान पड़ता है कि प्रथमानुयोगकी कथाओं में कवि अपनी रचनाको चमत्कृतिपूर्ण और हृदयग्राहिणी बनाने के लिये कुछ न्यूनाधिक्य भी कर सकता है । कथाकी मूलभित्ति मात्रका आश्रय रखके वह उसमें मनमाने प्रसंगों की कल्पना कर सकता है । महाकवि कालिदास, भवभूति आदिकी रचनाओं में भी यह बात देखी जाती है । जिनं महाभारतादि ग्रन्थोंकी मूल कथाएं लेकर .. उन्होंने अपने ग्रन्थ बनाये हैं, उनसे उनके आख्यानोंका पूरा २ सादृश्य नहीं है ।
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ४९ )
रचना कितना कठिन कार्य है, इसे काव्यरचनाके मर्मज्ञपाठक अच्छी तरहसे समझ सकते हैं । ऐसी रचनाओं में क्लिष्टता और निरसता आनेकी बहुत बड़ी संभावना है । परन्तु पार्श्वाभ्युदय क्लिष्टता और निरसताके दोषोंसे साफ वच गया है। आप इसके किसी भी ' श्लोकको पढ़ेंगे तो यह नहीं मालूम होगा कि, समस्यापूर्ति पढ़ रहे हैं । आपको एक नवीन ही 1 आस्वाद मिलेगा ।
हम किसी कान्यकी शैलीके काव्यका
केवल अपने अध्ययनके और अपनी जांचके भरोसे हमारा यह कहना तो बढ़े भारी साहसका कार्य होगा कि महाकवि जिनसेनकी कविता कविकुलगुरु कालिदासकी कविताके जोड़की है । परन्तु इतना कहे विना तो नहीं रहा जाता है कि, कालिदासके ग्रन्थोंका जितना अध्ययन, अध्यापन, आलोचन, और प्रत्यालोचन हुआ है उतना यदि जिनसेनके ग्रन्थोंका हो, तो इस कविश्रेष्ठका आसन संस्कृतसाहित्यमें आशासे भी अधिक ऊंचा हुए विना नहीं रहेगा । खेद इसी बात का है कि, धार्मिक पक्षपातके कारण अजैन विद्वानोंमें तो इन ग्रन्थोंका पठन पाठन नहीं रहा है और जैनियोंमें कोई विद्वान् नहीं है । जो थोड़े बहुत हैं, उनकी विद्या ऐसी निकम्मी और निर्वीर्य है कि, उसके द्वारा इन रत्नोंके गुण प्रगट होनेकी आशा ही नहीं की जा सकती है। तो भी क्या चिन्ता है - कालोह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी । हमको विश्वास है कि कभी न कभी निष्पक्ष विद्वानोंके हाथमें जाकर जिनसेनके ग्रन्थ अपने यथार्थ गुणको प्रगट किये विना नहीं रहेंगे ।
1
A
४
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
(५०) प्रो० के० वी० पाठक ऐसे ही निप्पक्ष विद्वानों से एक हैं । उन्होंने रायल एशियाटिक सुसायटीम कुमारिलमह और भर्तृहरिके विषयमें जो निबंध पढ़ा था, उसम जिनसेनस्वामीके विषयमें देखिये क्या राय दी थी;--
जिनसेन lived on into the reign of Amogharrarsha, as he tells us himself in the पार्श्वभ्युदय. This poem is one of the curiosities of Sauskrit literature. It is atonce the product and the wirror of the literary taste of the age. The first place among Indian poets is alloted to कालिदास by consent of all. जिनसेन, however, claims to be considered a higher genius than the author of Cloud Messenger ( मेघदत ).
इसका अभिप्राय यह है कि, "जिनसेन अमोघवर्ष (प्रथम) के राज्य कालमें हुए हैं जैसा कि उन्होंने पार्वाभ्युदयमें कहा है। पाश्र्वाभ्युदय संस्कृत साहित्यमें एक कौतुकजनक उत्कृष्ट रचना है । यह उस समयके साहित्य स्वादका उत्पादक और दर्पणरूप अनुपम काव्य है । यद्यपि सर्वसाधारणकी सम्मतिसे भारतीय कवियाम कालिदासको पहिला स्थान दिया गया है, तथापि जिनसेन मेघदूतके कर्ताकी अपेक्षा अधिकतर योग्य समझे जानेके अधिकारी हैं।"
पार्श्वभ्युदयकी कविताका इस लेखके पाठक भी थोड़ा बहुत रसास्वादन कर सकें, इसलिये हम यहांपर थोडेसे पद्य भावार्थसहित उद्धृत किये देते हैं:
कल्लोलान्तर्बलिनशिशिरः शीकरासारवाही धूतोद्यानो मदमधुलिहां व्यञ्जयत्सिञ्जितानि
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
(५१)
" यत्र स्त्रीणां हरति सुरतिग्लानिमङ्गानुकूल:
शिपावातः प्रियतम इव प्रार्थनाचाटुकारः॥" ११२॥ - अर्थात्-उस नगरीमें पानीकी लहरोंके संयोगसे शीतल रहनेवाला, पानीके विन्दुआको अपने साथ उड़ानेवाला, और बगीचोंको कम्पायमान करनेवाला शिप्रानदीका वायु मतवाले भौरों सरीखा शब्द करता हुआ चलता है और सुरतक्रीडा करनेके लिये चाटुकार ( खुशामद ) करनेवाले पतिके समान स्त्रियोंके अंगोंसे लगकर उनके ( पूर्वकृत ) सुरतक्रीड़ाके खेदको दूर कर देता है ।
चित्रं तन्मे यदुपयमनानन्तरं विप्रयुक्ता त्वत्तः साध्वी सुरतरसिका सा तदा जीवतिस्म । मन्ये रक्षत्यसुनिरसनाद्धातुमापद्गताना--
"माशावन्धः कुसुमसदृशं प्रायशो ह्यङ्गनानाम् ॥३५॥ शम्बर (कमठचर ) यक्ष पार्श्वनाथस्वामीसे कहता है-मुझे यह आश्चर्य मालूम होता है कि विवाहके पश्चात् तुझसे जुदी हो जानेपर तेरी सुरतरसिका और साध्वी स्त्री ( वसुंधरा ) जीती वनी रही । यद्यपि दुखिनी स्त्रियोंका आशारूपी बंधन फूलके समान कोमल होता है । परन्तु मैं तो समझता हूं कि उनके प्राणोंको नकलनेसे वही वचा लेता है।
त्वत्सादृश्यं मनसि गुणितं कामुकीनां मनोहृत् कामावाधां लघयितुमथो दृष्टुकामा विलिख्य । यावत्पीत्या किल बहुरसं नाथ पश्यामि कोणै. "रस्तावन्मुहुरुपचितैदृष्टिरालुप्यते मे॥" : सर्ग ना
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
(५२)
हे नाथ, कामवती स्त्रियोंके मनको हरण करनेवाली, नानारसमयी और जीमें समाई हुई आपकी मूर्तिको ज्यों ही मैं कामको पीडाको कम करनेके लिये चित्रपटपर लिखती है. और प्रीतिपूर्वक देखना चाहती हूं, त्यों ही वार २ बढ्नेवाले गरम गरम आसू मेरी दृष्टिको रोक देते हैं आपकी मूर्तिके दर्शन नहीं करने देते हैं।
तीव्रावस्थे तपति मदने पुष्पवामदङ्ग तल्पेऽनल्पं दहति च मुहुः पुप्पभेदः प्रक्लते। तीवापाया त्वदुपगमनं स्वममापि नापं "क्रूरस्तस्मिन्नपि न सहते सङ्गमं नो कृतान्तः।। ३५ वर्ग: हे नाथ, अतिशय तीन मदन अपने पुप्पवाणोंसे मेरे अंगोंको संतापित करता है और फूलोंसे रची हुई सेजपर भी मुझे वारंवार जलाता है | इससे अतिशय दुखी होकर मैं आपका समागम चाहती हूं। परन्तु स्वप्नमें भी आपका संगम नहीं होता है-निद्रा ही नहीं आती है। हाय ! यह निर्दय देव प्रत्यक्षकी तो कौन कहे, स्वप्नमें भी हमारे संयोगको सहन नहीं करता है।
वित्तानिन्नः स्मरपरवशां वल्लभां कांचिदेकां ध्यानव्याजात्स्मरति रमणी कामुको नूनमेषः । अज्ञातं वा स्मरति सुदती या मया पिताऽसी
"त्तां चावश्यं दिवसगणनातत्परामेकपत्नीम्॥" ३३ शम्बर- देव पार्श्वनाथस्वामीको ध्यानस्थ देखकर कहता हैया तो यह निर्धन कामी ध्यानके वहानेसे अपनी किसी प्यारी सुन्दरी और कामके वशमें पड़ी हुई स्त्रीका स्मरण करता है अथवा
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
(५३)
जिस सुन्दर दन्तोंवाली वसुंधराको मैंने ( कमठने ) दृषित की थी
और जो मेरे आनेके दिनोंकी गिनती किया करती थी, उसका अज्ञातभावसे ध्यान करता है । इसमें सन्देह नहीं है। ___ पार्श्वभ्युदयकी कविताकी वानगीके लिये हम समझते हैं कि इतने श्लोक वस होंगे । काव्यमर्मज्ञ पाठकोंसे यहां हम एक प्रार्थना कर देना उचित समझते हैं कि, जिस समय आप पार्वाभ्युदयकी तुलना किसी दूसरे ग्रन्यसे करें, उस समय इस वातको न भूल जावें कि, इसकी रचनामें कवि अपनी कल्पनाको बहुत ही परिमित और संकुचित क्षेत्रमें रखनेके लिये विवश हुआ है। आपको यह देखना चाहिये कि, समस्याके एक नियमित प्रदेशमें इस महाकविकी प्रतिमा और कल्पनाने कैसा मनोहारी नृत्य किया है। यदि आप ऐसा न करेंगे, और किसी स्वतंत्र काव्यके साथ इसको भी स्वतंत्र कान्य मानकर तुलना करेंगे, तो आपकी तुलना न्यायसंगत नहीं होगी। हमको विश्वास है कि, यदि आप इस काव्यको सच्चे समालोचकके नेत्रोंसे देखेंगे, तो योगिराट् पंडिताचार्यके इस श्लोकको दुहराये विना नहीं रहेंगे कि:
श्रीपाश्चात्साधुतः साधुः कमठात्खलतः खलः।
पाश्वाभ्युदयतः काव्यं न च कचिदपीण्यते ॥ १७ ।। अर्थात्-श्रीपार्श्वनाथसे बढ़कर कोई साधु, कमठसे बढ़कर कोई दुष्ट और पार्थाभ्युदयसे बढ़कर कोई काव्य नहीं दिखलाई देता है। . पार्वाभ्युदय काव्य अमोघवर्षके राज्यकालमें वना है, ऐसा उसकी अन्तःप्रशस्तिके श्लोकसे विदित होता है
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५४ ) इति विरचितमेतत्काव्यमावेष्टय मेधं
बहुगुणमपदोपं कालिदासस्य काव्यम् । मलिनितपरकाव्यं तिष्ठतादाशशाङ्क
भुवनमवतु देवः सर्वदामोघवर्पः ॥ और एक प्रकारसे यह निश्चय है कि, जयधवलाटीकासे जो कि शक ७५९ में पूर्ण हुई है और लगभग ७९० के वनना शुरू हुई होगी पार्श्वभ्युदय पहिले बना है। तब शक संवत् ७३६ से (जो कि अमोघवर्षके राज्यरोहणका निश्चित समय है ) शक ७५० तकके किसी मध्यकालमें पार्खाभ्युदय निर्माण हुआ होगा। ___ पार्वाभ्युदयकी रचनाके सम्बन्धमें योगिराट् पंडिताचार्यने जो कि उक्त काव्यके टीकाकार हैं, एक कौतुकजनक कथाका उल्लेख किया है । उसका सारांश यह हैं, कि:__"कोई कालिदास नामके कवि अपने मेघदूत नामके काव्यको अनेक राजाओंको सुनाते हुए वंकापुरनरेश अमोघवर्पकी सभा आये और उन्होंने वहां घमंडके साथ दूसरे विद्वानोंकी अवहेलना करते हुए अपना काव्य पढ़कर सुनाया । कालिदासकी यह उद्धतता विनयसेन नामके मुनिको सहन नहीं हुई । इसलिये उन्होंने उसका अहंकार नष्ट करनेके लिये तथा सन्मार्गकी प्रभावना करनेके लिये जिनसेन मुनिसे आग्रह किया । महाकवि जिनसेन 'एकसंघि' थे. अर्थात् उन्हें कोई भी श्लोक वा ग्रंथ एक बार सुननेसे कण्ठस्थ हो जाता था । इसलिये उन्होंने मेघदूतके १२० श्लोक तत्काल ही हृदयस्थ कर लिये और फिर हंसकर कहाः
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
(५५) " पुरातनकृतिस्तेयात्काव्यं रम्यमभूदिदम् " अर्थात् " यह कान्य एक पुराने ग्रन्थसे चुराया गया है, इसलिये इसमें सुन्दरता आ गई है । " जिनसेनके इन शब्दोंको सुनकर कालिदासको वहुत क्रोध आया । वे वोले:
. " पठतात्कृतिरस्ति चेत् " अर्थात् " यदि कोई पुराना ग्रन्थ है जिसमेंसे कि मैंने मेघदूत चुराया है, तो पढ़ करके सुनाओ । " जिनसेनने कहा, " ग्रन्थ है तो, परन्तु यहांसे बहुत दूरीपर एक नगरमें है, इसलिये मैं वहांसे आठ दिनके भीतर लाकर फिर सभामें पढ़कर सुनाऊंगा ।" यह सुनकर सभापति महाराजने कहा, "अच्छा ठीक है । आजसे आठवें राज वह अन्य लाकर सुनाया जावे" और समा विसर्जन कर दी। इसके पश्चात् अपने स्थानपर आकर महाकवि जिनसेनने पाम्युिदय काव्यकी रचना करना शुरू की और उसे एक सप्ताहमें पूर्ण करके आठवें रोज राजसभा पहुचकर सुना दी । अन्तमें कालिदासको लज्जित तथा गर्वगलित करके स्वामीने यह भी प्रगट कर दिया कि, वास्तवमें कालिदासका कान्य स्वतंत्र है, मैंने केवल इन्हें लज्जित करनेके अभिप्रायसे यह मेघदृतवेष्टित पाश्र्वाभ्युदय बनाया है !"
इसमें जो कालिदासका सम्बन्ध वतलाया है, उससे इस कथाके सत्य होनेमें सन्देह होता है। क्योंकि शककी आठवीं शताब्दिमें 'कालिदासनामका कोई भी कवि नहीं हुआ है और यदि हुआ भी हो, तो वह मेघदूतका कर्त्ता तो कदापि नहीं होगा। क्योंकि
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
भोजके समय
है, वह लामाजका समय
(५६) यह मत अब प्रायः सर्वमान्य हो गया है कि, शाकुन्तल, कुमारसंभव, मेघदूत, रघुवंश आदि सुप्रसिद्ध और मनोहर काव्योंका रचयिता कालिदास विक्रमादित्यके समयमें हो गया है, और विक्र. मादित्य जिनसेनस्वामीसे लगभग ९०० वर्ष पहिले हो गये हैं। एक कालिदासकी संभावना धाराधीश महाराज भोजके समयमें . भी की जाती है, परन्तु भोजका समय भी जिनसेनस्वामीसे नहीं मिलता है, वह लगभग दो सौ वर्ष पीछे चला जाता है । इसलिये इस दूसरे कालिदासका भी जिनसेनस्वामीसे साक्षात् होना संभव नहीं । हो सकता है।
महाकवि कालिदास जिनसेनस्वामीसे वहुत पहिले हो गये हैं, इसके लिये एक बहुत अच्छा प्रमाण वीजापुर जिलेके आयहोली ग्रामके मेगूती नामक जैनमंदिरका शिलालेख है, जो रविकीर्ति नामके जैनविद्वानका लिखा हुआ है । इस लेखमें पहिले महापराक्रमी राजा हर्षको परास्त करनेवाले चौलुक्यवंशीय महाराजः सत्याश्रय पुलकेशीकी बहुतसी प्रशंसा करके अन्तमें लिखा है कि,--
यस्याम्बुधित्रयनिवारितशासनस्य _ सत्याश्रयस्य परमाप्तवता प्रसादम् । शैलं जिनेन्द्रभवनं भवनं माहिम्नाम्
निम्मापितं मतिमता रविकिर्तिनेदम् ॥
१. परमारराजाओंके लेखोंसे सिद्ध हुआ है कि, राजाभोजकी मृत्यु वि. सं. १११२ के लगभग हुई थी, और १११५ में उदयादित्य नामक राजा धाराके सिंहासनपर बैठा था।
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
(५७) येनायोजि न वेश्म स्थिरमर्थविधौ विवेकिना जिनवेश्म। . सविजयतां रविकीर्तिः कविताश्रितकालिदासभाराविकीर्तिः ।
पंचाशत्सु कलौ काले पसु पंचशतेषु च
समासु समतीतासु शकानामपि भूभुजाम् ॥ . इसमें रविकीर्तिने आपको कालिदास और भारवि सरीखा कीर्तिशाली कवि कहा है और मन्दिर वननेका समय शकसंवत् ५५६ वतलाया है । इससे मालूम होता है कि, कालिदास शक ५५६ से भी बहुत पहिले हो गये हैं। रविकीर्तिके समयमें उनकी किर्ति देशव्यापिनी हो चुकी थी। इसलिये उनका जिनसेनसे साक्षात्कार नहीं हो सकता है। __ मेघदूत संस्कृतके सर्वोत्तम काव्योंमें गिना जाता है और वास्तमें वह है भी वहुत मनोहर । तव रविकीत जिसकी कीर्तिकी अपने लिये उपमा देकर आपको गौरवान्वित मानते हैं, उत्त कालिहासको छोड़कर. मेघदूतको किसी अप्रसिद्ध कालिदासका बनाया हुआ कल्पित करना हमें तो ठीक नहीं मालूम होता है ।
योगिराट् पंडिताचार्यकी उक्त कया यों तो पढ़नेमें अच्छी और प्रभावशालिनी मालूम होती है, परंतु उसमें जो कालिदासके प्रति जिनसेनस्वामीकी असूया और असत्यभाषणता प्रगट की गई है, वह एक पूज्य ग्रन्थकारके चरितके सर्वथा अयोग्य है । उससे प्रशंसा होना तो दूर रहा, भगवान् जिनसेन जैसे विरागी मनोनिग्रही हात्माके पवित्र चरित्रमें एक बड़ा भारी लांछन लगता है। . .
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५८ )
इसके सिवाय यह भी तो सोचना चाहिये कि, योगिराट्र पंडिताचार्य जिनसेनके समयकालीन तो थे ही नहीं, उनसे लगभग आठ सौ वर्ष पीछे हुए हैं और दूसरे किसी ग्रन्थकारने इस कथाका उल्लेख किया नहीं है, तब यह कैसे कहा जा सकता है कि यह कथा सर्वथा विश्वसनीय है? जनश्रुतियोंके आधारसे लिखी हुई कथाओं में ऐसी भूलें बहुधा हुआ करती हैं । जो हो, पार्श्वाभ्युदयकी रचना चाहे जिस कारणसे हुई हो; कालिदासको लज्जित करनेके लिये हुई हो अथवा अपना पाण्डित्य प्रगट करनेके लिये हुई हो परन्तु इसमें संदेह नहीं है कि, वह संस्कृतसाहित्यका एक कौतुकजनक रत्न है ।
1
आदिपुराण -- महापुराणके दो भाग हैं । पहिले भागका नाम आदिपुराण है और दूसरेका उत्तरपुराण । आदिपुराणमें मुख्यतः प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्तीका चरित्र है और उत्तरपुराणमें शेष २३ तीर्थकरोंका तथा चक्रवर्ती नारायण आदि शलाका पुरुषका चरित्र है। पूरे महापूराणमें चौवीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण, और नौवलभद्र इन ६३ शलाकापुरुषका चरित्र है। दिगम्बर सम्प्रदायमें प्रथमानुयोगका यह सबसे प्रधान ग्रन्थ
। हमारे यहां जितने पुराण, काव्य, नाटक, आदिके ग्रन्थ हैं, उन सबकी कथाएँ प्रायः इसी महापुराणसे ली गई हैं । महापुराणकी श्लोकसंख्या २० हजार है, जिसमेंसे १२००० श्लो
१. पार्श्वाभ्युदयकी टीकामें ' रत्नमाला ' नामके कोशके जगह २ प्रमाण दिये हैं और रत्नमालाका कर्त्ता ' इग्दण्डनाथ' नामक जैनविद्वान् विजयनगरनरेश हरिहरराजके समय शंकसंवत् १३२१ में हुआ है और इससे पीछे योगिराट् पंडि ताचार्य हुए होंगे ।
4
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
कोंमें आदिपुराण पूर्ण हुआ है और शेष ८००० श्लोकोंमें उत्तरपुराण समाप्त हुआ है । आदिपुराणमें ४७ पर्व वा अध्याय हैं । जिनमें ४२ पर्व पूरे और ४३ वें पर्वके तीन श्लोक जिनसेनस्वामीके बनाये हुए हैं । शेष पांच पर्व ( १६२० श्लोक ) गुणभद्रस्वामीके बनाये हुए हैं। भगवान् जिनसेन ४३ व पर्वके केवल तीन श्लोक ही वना पाये थे कि उनका देहोत्सर्ग हो गया । कहते हैं कि, जिस समय जिनसेनस्वामीने महापुराणका प्रथम मंगलाचरणका श्लोक बनाया था; उस समय उन्होंने अपने शिप्यासे कह दिया था कि, यह ग्रन्य मुझसे पूर्ण नहीं होगा । मंगलाचरणके श्लोकमें जो अक्षर और शब्द योजित हुए थे; उनके निमित्तसे उस विशाल बुद्धिशाली महात्माने यह भविष्य कहा था और निदान वह पूर्ण हुआ ! शेष ग्रन्य गुणभद्राचार्यने पूर्ण करके अपनी गुरुमक्तिका परिचय दिया । - पं० कुप्पूस्वामी शास्त्री आदि कई एक विद्वानोंका ऐसा ख्याल है कि, महापुराण जैनियोंका सबसे पहिला ग्रन्य है। इसके पहिले उनका और कोई पुराण अन्य नहीं था । और इसके लिये वे हस्तिमल्लि कविके विक्रान्तकौरवीय नाटकका यह श्लोक पेश करते हैं,
तच्छिप्यप्रवरो जातो जिनसेनमुनीश्वरः ।
यद्वाङ्मयं पुरोरासीत पुराणं प्रथमं भुवि ॥ इसका अभिप्राय यह है कि, उनके (वीरसेनके ) शिप्य जिनसेन • हुए, जिन्होंने पुरुदेवका अर्थात् आदिनाथ भगवानका मुख्य पुराण बनाया । इस श्लोकमें जो 'प्रथम' पद है, उसका अर्थ
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
(६०) पहला:' नहीं, किन्तु 'मुख्य' करना चाहिए । श्रीयुक्त कुप्पूस्वामीने इसका अर्थ 'पहला' करके जीवंधरचरित्रकी भूमिकामें लिख दिया है कि, " जिनसेनाचार्यः पुराणकृतामादिमो जैनेषु ।" अर्थात् जैनपुराण वनानेवालोंमें जिनसेन सबके पहिले हैं । परंतु यह एक भ्रम है। जिनसेनस्वामीके पहिले जैनियोंमें कई पुराणकर्ता हो गये हैं। हां! यह वात दूसरी है कि, आदिपुराण उन सम्पूर्ण पुराणोंमें अपने ढंगका सबसे प्रधान ग्रन्थ बना और यही अभिप्राय हस्तिमल्लके दिये हुए 'प्रथम' पदसे सूचित होता है । जिनसेनस्वामीके शिष्य गुणभद्राचार्य उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें स्वयं इस बातको स्वीकार करते हैं कि, आदिपुराणको जिनसेनस्वामीने कविपरमेश्वर नामके कविकी बनाई हुई गद्यकथाके आधारसे बनाया है। देखिये, प्रशस्तिका १६ वा श्लोकः--
कविपरमेश्वरनिगदितगद्यकथामातृकं पुरोश्चरितम् । सकलछन्दोलङ्कृतिलक्ष्यं सूक्ष्मार्थगूढपदरचनम् ॥
कविपरमेश्वर जिनका दूसरा नाम कविपरमेष्ठी भी है, कर्नाटक प्रान्तमें एक बड़े नामी कवि हो गये हैं। कर्नाटककविचरित्र नामक ग्रन्थके कती कहते हैं कि, कनडीके सुप्रसिद्ध कवि आदिपंपने उनकी बड़ी प्रशंसा की है। और पंपकवि ही क्यों, आदिपुराणमें स्वयं जिनसेनस्वामीने उनको पूज्य मानकर स्मरण किया है. . . स पूज्यः कविभिलोके कवीनां परमेश्वरः।
वागर्थसंग्रहं कृत्स्नं पुराणं यः समग्रहीत् ॥ ६०॥
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
(६१)
अर्थात्:-वह कविपरमेश्वरं कवियोंके द्वारा पूजने योग्य है, जिसने वाणी और उसके अर्थका जिसमें संग्रह है, ऐसा सम्पूर्ण पुराण बनाया। इससे यह भी मालूम पड़ता है कि, कविपरमेष्ठीका बनाया हुआ एक ऐसा पुराण है, जिसमें समस्त ६३ शलाका पुरुषोंका चरित्र होगा और प्रायः उसीके आधारसे महापुराणकी रचना हुई होगी। __ और यही एक क्यों वीसों प्रमाण इस विषयमें दिये जा सकते हैं कि, आदिपुराणके पहिले अनेक पुराण ग्रन्थ थे, जिनमें आदिपुराणकी कथाका अस्तित्व था । हरिवंशपुराण, पद्मपुराणादि ग्रन्थ आदिपुराणके पहिलेके बने हुए हैं और उनमें आदिपुराणका बहुतसा कथाभाग मिलता है। इसके शिवाय आदिपुराणकी उत्थानिकाके निम्न श्लोकोंसे भी मालूम होता है कि, जिनसेनके पहिले अनेक पुराणकार हो गये हैं,
नमः पुराणकारेभ्यो यद्वक्राब्जे सरस्वती। येषामन्यकवित्वस्य सूत्रपातायितं वचः॥४१॥ धर्मसूत्रानुगा हृद्या यस्य वाङ्मणयोऽमलाः। ।
कथालङ्कारतां भेजुः काणभिक्षुर्जयत्यसौ ॥ ५१ ।। पहिले श्लोकमें पुराण बनानेवालोंको नमस्कार किया है, जिनके वचनोंके आधारसे दूसरोंने ग्रन्थ वनाये हैं और दूसरेमें काणभिक्षु,
१. आदिपुराणके भाषा और मराठी टीकाकारोंने इस श्लोकके ऊपरके श्लोकमें । जिन जयसेनकी प्रशंसा की है, कविपरमेश्वरको उनका विशेषण (कवियोंमें श्रेष्ठ)
समझ लिया है। परन्तु यह केवल भ्रम है। कविपरमेश्वर एक कविका नाम है।
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
(६२) नामक कविकी प्रशंसा की है, जिसने किसी कथाग्रन्यकी रचना की है। ___ आदिपुराण जैनसाहित्यका एक परमोत्तम ग्रन्थ है । यह केवल पुराण ही नहीं है। इसमें कविने अपने रचनाकौशलसे जैनियोंके कथा, चरित्र, भूगोल और द्रव्य इन चारों ही अनुयोंगोके विषयोंको संग्रह कर दिये हैं। जैनधर्मके जितने मान्य तत्त्व हैं, प्रायः वे सब ही इसमें कहीं न कहीं कथाका सम्बन्ध मिलाकर किसी न किसी रूप कह दिये गये हैं। इसकी प्रमाणता भी बहुत है । पीछेके ग्रन्थकारोंने इस ग्रन्थके प्रमाण 'आप' कहकर बड़े आदरके साथ उद्धृत किये हैं। पौरा'णिकोंके सिवाय कवियोंमें भी इसका बड़ा आदर है। वे इसे एक अद्वितीय महाकाव्य समझते आ रहे हैं । और है भी यह ऐसा ही । महाकाव्यके सारे लक्षण इसमें मिलते हैं । यह शृंगारादि " नवों रसोंसे ओतप्रोत भरा हुआ है । इसकी कविता वहुत ऊंचे दर्जेकी है । पदलालित्य, अर्थसौष्टव, सरलता, गंभीरता, कोमलता आदि कविताके समस्त गुणोंसे वह परिपूर्ण है। प्राकृतिक दृश्योंके तथा मानसिक विचारोंके भी इसमें अच्छे चित्र खींचे हैं । वह न केवल पाठकोंके मनोरंजनकी ही शक्ति रखती है, किन्तु मनोरंजनपूर्वक सुखका मार्ग दिखाती है और संसारके कष्टोंसे छूटनेके लिये उत्साहित करती है । यदि वर्तमान रुचिके पाठकोंको प्रसन्न न कर सकनेका इस ग्रन्थमें कुछ दोष है, तो वह यही कि, इसकी कविता शृंगारादि रसोंमें तन्मय करके भी उसमें स्थिर नहीं रहने देती हैकुछ ही समझ पीछे उन रसोंमें विरसताका भान करा देती है। पर
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
(६३)
ग्रन्थकर्ताको इस वातकी कुछ परवा नहीं है। वे अपने इस दोषको ही गुण समझते हैं। वे कहते हैं:
धर्मानुवन्धिनी या स्यात्कविता सैव शस्यते । शेपा पापासवायैव सुप्रयुक्तापि जायते ॥ ६३ ॥ परे तुष्यन्तु वा मा वा कविः स्वार्थ प्रतीहताम् । न पराराधनाच्छ्रेयः श्रेयः सन्मार्गदेशनात् ॥ ७६ ॥
(प्रथमपर्व) अर्थात् जो कविता धर्मसम्बन्धी है, उसीकी प्रशंसा की जाती है। पर जो धर्मसम्बन्धी नहीं है, वह चाहे जैसी अच्छी बनी हो, पापका आस्रव करनेवाली ही होगी। दूसरे लोग चाहे प्रसन्न हों, चाहे न हों, कविको अपना स्वार्थ ( आत्महित ) देखना चाहिये । क्योंकि दूसरोंकी आराधना करनेसे-वा उन्हें रानी रखनेसे कल्याण नहीं होता है । कल्याण होता है, सच्चे धर्मका रपदेश देनेसे। अभिप्राय यह कि, कविको धर्मोपदेशमय कविता करनी चाहिये । इस वातकी परवा नहीं करना चाहिये कि, इससे कोई प्रसन्न होगा या नहीं। और सब कोई प्रसन्न हो भी तो नहीं सकते हैं। क्योंकि लोगोंकी रुचि ही मिन्न २ होती है। किसीको शब्दसौन्दर्य प्रिय है, कोई भावसौष्टवको पसन्द करता है, किसीको बड़े २ समास अच्छे लगते हैं, कोई छोटे २ सरल पदोंसे प्रसन्न होता है, किसीको श्लेपादि अलंकारोंसे ढकी हुई कविता प्यारी लगती है। किसीका मन उसके प्राकृतिक स्पष्ट रूपपर मोहित होता है और कोई इन गुणोंसे भिन्न जुदी ही वातोंके प्रेमी हैं । फिर सबके प्रसन्न करनेकी इच्छा कैसे पूर्ण हो सकती है ? . . .
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
(६४) जो लोग इस पूज्य धर्मात्माके इस उद्देश्यको समझ लेंगे और उसपर दृष्टि रखके फिर आदिपुराणका अध्ययन करेंगे, हमको विश्वास है कि, वे इसको एक अतिशय पूज्य और पवित्र कान्य स्वीकार करनेमें कमी संकुचीत नहीं होंगे । उन्हें इस कान्यके सम्मुख दूसरे वासनाविलसित कान्य फीके मालूम होने लगेंगे । क्योंकि---
त एव कवयो लोके त एव च विचक्षणाः । येपां धर्मकथाङ्गत्वं भारती प्रतिपद्यते ॥ ६२ ॥
(प्रथमपर्व) अर्थात्-पृथ्वीमें वे ही कवि हैं और वे ही पंडित हैं, जिनकी वाणी धर्मकथाका प्रतिपादन करती है।
आदिपुराणकी कविताके विषयमें गुणभद्रस्वामीने कहा है:कविपरमेश्वरनिगदितगद्यकथामातृकं पुरोश्चरितम् । सकलछन्दोलतिलक्ष्यं सूक्ष्मायेंगूढपदरचनम् । व्यावर्णनोरुसारं साक्षात्कृतसर्वशास्त्रसद्भावम् । अपहस्तितान्यकाव्यं श्रव्यं व्युत्पन्नमतिभिरादेयम् ।। जिनसेनभगवतोक्तं मिथ्याकविदर्पदलनमतिललितम् । सिद्धान्तोपनिवन्धनको भर्ना चिराद्विनेयानाम् ॥ अतिविस्तरभीरुत्वादवशिष्टं संगृहीतममलधिया । गुणभद्रसूरिणेदं प्रहीणकालानुरोधेन ॥ १९ ॥
अर्थात् यह आदिपुराण कविपरमेश्वरकी कही हुई गद्यकथाके आधारसे बनाया गया है। इसमें सारे छन्द और अलंकारोंके उहाहरण हैं, इसकी रचना. सूक्ष्म अर्थ और .गूढपदोंवाली है,
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
(६५) इसका वर्णन बहुत ही अच्छा है । इसके पढ़नेसे सारे शास्त्रोंके उत्कृष्ट पदार्थ साक्षात् हो जाते हैं अर्थात् इसमें सम्पूर्ण शास्त्रोंके रहस्यका संग्रह है। दूसरे कान्योंको यह तिरस्कृत करता है अर्थात् इसके समान और कोई अच्छा काव्य नहीं है। यह श्रवण करनेके योग्य है वा अन्य काव्य है और विद्वानोंके ग्रहण करने योग्य है, मिथ्या कवियोंके अभिमानको यह नष्ट कर देता है और बहुत ही सुन्दर है। इसे सिद्धान्तकी टीका करनेवाले और चिरकाल तक शिष्योंका शासन करनेवाले जिनसेनस्वामीने बनाया था। इसका अवशिष्ट भाग (५ पर्व) निर्मल बुद्धिशाली गुणभद्रसूरिने बहुत विस्तारके मयसे और हीनकालके अनुरोधसे थोड़े संग्रह किया। एक और कविने कहा है:
यदि सकलकवीन्द्रप्रोक्तसूक्तप्रचार- , श्रवणसरसचेतास्तत्त्वमेवं सखे स्याः। कविवरजिनसेनाचार्यवक्रारविन्द-
. प्रणिगदितपुराणाकर्णनाभ्यर्णकर्णः ॥ . अर्थात्-हे मित्र ! यदि तुम सारे कवियोंकी सूक्तियोंको सुनकर सरस हृदय बनना चाहते हो, तो कविवर जिनसेनाचार्यके मुखकमलसे उदित हुए आदिपुराणके सुननेके लिये अपने कानोंको समीप लाओ। . समग्र महापुराणकी प्रशंसामें कहा है:
धर्मोत्र मुक्तिपदमत्र कवित्वमत्र ... तीर्थेशिनां चरितमत्र महापुराणे ।
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
(६६) .. यद्वा कवीन्द्रजिनसेनमुखारविन्द- ...
निर्यद्वांसि न मनांसि हरन्ति केपाम् ॥ __ अर्थात्-इस महापुराणमें धर्म है, मुक्तिका मार्ग है, कविता है
और तीर्थंकरोंका चरित है । इसके सिवाय इसमें ( पूर्व भागमें) जो जिनसेन कवीन्द्रके मुखकमलसे निकले हुए वचन हैं, वे किसके मनको हरण नहीं करेंगे ?
'आदिपुराणमें सुभाषित कविता जितनी चाहिये उतनी मिल सकती है । इसके लिये कहा है:
यथा महायरत्नानां प्रसूतिर्मकरालयात् । . तथैव सूक्तरत्नानां प्रभवोऽस्मात्पुराणतः॥१६॥ सुदुर्लभं यदन्यत्र चिरादपि सुभाषितम् । . .
सुलभं स्वैरसंग्राह्यं तदिहास्ति पदे पदे ॥ २२ ॥ अर्थात्-जैसे बड़े .२ कीमती रत्न समुद्रसे उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकारसे सूक्त वा सुभाषितरूपी रत्न इस पुराणसे । अन्य ग्रन्थोंमें जो कठिनाईसे भी नहीं मिल सकते हैं, वे सुभाषितपद्य.इस ग्रन्थमें स्थान स्थानपर सहन ही जितने चाहो उतने मिल सकते हैं। . ___ आदिपुराण जैसे काव्यकी कविताकी उत्तमता दूसरेके कहनेकी अपेक्षा स्वयं अनुभव करनेसे ही भली भांति मालूम हो सकती है। इसलिये हम अपने पाठकोंसे प्रेरणा करते हैं कि वे इस अद्वितीय ग्रन्थको स्वयं विचारपूर्वक स्वाध्याय करके देखें । यह ग्रन्थं यद्यपि अभी तक मूल और हिन्दी टीकायुक्त नहीं छपा है, तो भी मराठी
जो कठिनाइ
सहज ही
ताकी उत्तमता हो सकती
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
(६७) टीकासहित छप गया है । इसलिये जिन भाइयोंको संस्कृतका ज्ञान है अथवा मराठीका परिचय है, उन्हें इसकी मधुर और सरस क'विताका आस्वादन अवश्य करना चाहिये। .. इस १२ हजार श्लोकोंके बड़े भारी ग्रन्थमेंसे भिन्न २ रुचिके पाठकोंको अच्छे लगें, ऐसे दश पांच श्लोक नहीं चुने जा सकते हैं, तो भी हम अपने स्वाध्यायके समय नोट किये हुए कुछ श्लोकोंको यहां भावार्थसहित प्रकाशित कर देते हैं । वे सबको नहीं, तो हमारीसी रुचिवाले पाठकोंको अवश्य प्यारे लगेंगे- . . "चक्रवर्ती के दीक्षा लेनानेपर लक्ष्मीमती रानीके भेजे हुए दूत वज्रजंघ महारानके पास आकाशमार्गसे जा रहे हैं। देखिये, उस समयका कविने कैसा अच्छा प्राकृतिक चित्र खींचा है:
क्वचिज्जलधरांस्तुङ्गान्स्वमार्गपरिरोधिनः । विभिन्दन्तौ पयोविन्दून्क्षरतोऽश्रुलवानिव ॥ १०० ॥ , तौ पश्यन्तौ नदी दूरांत्तन्वीरत्यन्तपाण्डुराः ।
धनागमस्य कान्तस्य विरहेणेव कर्शिताः ॥ १०१॥ मन्वानों दूरभावेन पारिमाण्डल्यमागतान् । भूमाविव निमग्नाङ्गानक्कतापभयागिरीन् ॥ १०२ ॥ दीर्घिकाम्भो भुवोन्यस्तमिवैकमतिवर्तुलम् । . तिलकं दूरताहेतोः प्रेक्षमाणावनुक्षणम् ॥१०३॥ [ पर्व ८]
कहीं २ वे दूत अपने मार्गको रोकनेवाले बड़े २ मेघोंको भेदते हुए जाते हैं। उस समय उनमेंसे जो पानीकी बूंदें झरती हैं, वे उनके आंसुओं ‘सरीखी जान पड़ती हैं। नीचेकी नदी बहुत ऊंचाईके कारण उन्हें पतली
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
(६८) और धूसरी दिखलाई देती है, सो जान पड़ता है कि वह अपने प्यारे मेघके विरहसे कृश हो रही है । दूरसे गोलाकार और छोटे दिखनेवाले पर्वत उन्हें ऐसे मालूम होते हैं कि ये सूर्यके तापके डरसे" जमीनमें घुसे जा रहे हैं । इसी प्रकारसे विस्तृत वावड़ीका पानी अतिशय गुलाई लिये हुए उन्हें ऐसा ज्ञात होता है कि पृथ्वीने अपने मस्तकमें यह एक टीका लगा लिया है। 'नमः स्थगितमस्माभिः सुरगोपैस्तथा मही । क्व यातेति न्यषेधन्नु पथिकान्गर्जिता घनाः ॥ १५ [पर्व ९] अर्थात्-वर्षाऋतुमें बटोहियोंसे बादल गर्न करके कहते हैं कि आकाशको तो हमने सव ओरसे घेर लिया है और पृथ्वीको इन्द्रवधूटियों ( एक प्रकारका लाल कीड़ा ) ने ढक लिया है, अब देखें, तुम कहां जाते हो ?
वंशैः संदष्टमालोक्य तांसां तु दशनच्छदम् । वीणालाबुभिराश्लेषिघनं तत्स्तनमण्डलम् ॥१०८[पर्व१२J
अर्थात्-वंशी वा वांसुरीको एक अप्सराके होठोंका चुम्बन करती । देखकर वीणाकी अलाबुने ( नीचके तुवेने ) दूसरी देवांगनाके सघन कुचमंडलोंसे अलिंगन कर लिया । यह चुम्बन करती है, तो मैं कुचोंका स्पर्श क्यों न करूं? · कृतावगाहनाः स्नातुं स्तनदनं सरोजलम् ।
रूपसौन्दर्यलोभेन तदगारीदिवाङ्गनाः ॥ १६० [पर्व ८] उस सरोवरमें बहुतसी स्त्रियां अपने कुचोंतकके शरीरको डुवाकर
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्नान करती थी, सो ऐसा जान पड़ता था कि उस सरोवरके जलने उन्हें रूप और सुन्दरताके लोभसे निगल लिया है।
धुन्वानाचामराण्यस्य ता ममोत्सेक्षते मनः ।
जनापवादजं लक्ष्म्या रजोपासितुमुद्यताः ॥ ४९ [ पर्व ११] __महाराज वज्रनाभिपर चमर ढोरती हुई दासियोंको देखकर मेरे मनमें ऐसी उत्प्रेक्षा होती है कि वे लक्ष्मीके अपवादसे उठी हुई धूलको उड़ा रही हैं। अभिप्राय यह है कि लक्ष्मी जिसके पास होती है उसमें मूर्खता, अभिमानता, निर्दयता आदि दोष होते हैं। यह नो एक प्रकारकी बदनामीकी रज है, वह इस लक्ष्मीवान् महारानपर नहीं पड़ जाय, इसका वे यत्न कर रही हैं। अर्थात् प्रगट कर रही हैं कि यह लक्ष्मीवान् होकर भी विद्वान् निरभिमानी धर्मात्मा है। हमारे समाजके धनवानोंको संतोपित होना चाहिये कि पहलेके वनी भी मूर्खतादि गुणोंमें कम नेकनाम नहीं थे। ___ यत्र शालिवनोपान्ते खात्पतन्ती शुकावलीम् ।
शालिगोप्योनुमन्यन्ते दधतीं तोरणश्रियम् ॥६ [पर्व ४]
अर्थात्-उस देशके धान्यके खेतोंके समीप जो आकाशसे तोतोकी पंक्ति उतरती थी, उसे देखकर ग्रामीण स्त्रियां विचारती थीं कि क्या यह तोरण है?
लक्ष्मी चलां विनिर्माय यदाघो वेधसार्जितम् ।
तन्निर्माणेन तन्नूनं तेन प्रक्षालितं तदा ।। ८२ [ पर्व ६ ] . चंचल लक्ष्मीको बनाकर विधाताने जो पाप किया था, मानो
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
(७०) इस श्रीमतीको बनाकर उसने उसे धो डाला । अभिप्राय यह कि श्रीमती अचल वा गंभीर थी।
चामीकरमर्यन्त्रैर्जलकेलिविधावसी । प्रियामुखाव्जमम्भोभिरसिञ्चत्कोणितेक्षणम् ॥ २३ ॥
साप्यस्य मुखमासेक्तुं कृतवाञ्छापि नाशकत् । . स्तनांशुके गलत्याविर्भवद्वीडापरामुखी ॥२४ [पर्व ८] __ जलक्रीड़ाके समय वह वनजंघकुमार आवातके भयसे नेत्र संकुंचित करती हुई प्यारी श्रीमतीके मुखको सोनेकी पिचकारीसे भि. गो देता है। इधर श्रीमती भी अपने पतिके मुखपर पिचकारी लो. डना चाहती है, परंतु नहीं छोड़ सकती है। क्योंकि ज्यों ही वह प्रयत्न करती है, त्यों ही उसके कुचोंपरका वस्त्रं नीचे खिसक जाता है और तव लज्जा उसे रोक देती है। ____ आदिपुराण जिनसेनस्वामीकी सबसे अन्तिम रचना है। यह पार्श्वभ्युदयसे लगभग ३० वर्ष पीछे और वर्द्धमानपुराणसे लगभग ६० वर्ष पीछे, जव कि कविकी अवस्था९० वर्षसे ऊपर होगी, रचा गया है । इसीसे इसमें जिनसेनस्वामीके सारे जीवनके अध्ययनका और विचारोंका · सार संग्रह हो गया है। इसमें कविके कवित्वका परिपाक हुआ दिखलाई देता है । इतनी आयुके रचे हुए ग्रन्थ बहुत कम विद्वानोंके पाये जाते हैं और जो पाये जाते हैं, वे अनुभूत और सिद्ध सिद्धान्तोंके आकर होते हैं। आदिपुराणके स्वाध्यायसे जैनधर्मके गूढ़से गूढ़ रहस्योंका. ज्ञान होता है और साथ ही उच्चकोटिके काव्यका सुमधुर सुस्निग्धः आस्वाद मिलता है। मेरे
स ऊपर होगी,
नका और विचार सम जिनसेनस्वामी
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
(७१) विचारसे इसकी कवितामें जो सुन्दरता, कोमलता और स्वाभाविकता है, वह पार्श्वभ्युदयमें भी नहीं है। ___ आदिपुराणके अन्तके ५ सर्ग गुणमद्रस्वामीके बनाये हुए हैं, ऐसा पूर्वमें कहा जा चुका है । ये पांच सर्ग आदिपुराणमें शामिल करनेके सर्वथा योग्य हुए हैं। अपने पूज्य गुरुकी कविताकी समता करनेमें गुणभद्रस्वामीने वैसी ही सफलता प्राप्त की है, जैसी कि वाणमट्टके पुत्रने अपने पिताकी अधूरी कादम्बरीको पूर्ण करनेमें पाई है। यह कार्य गुणभद्रके सिवाय दूसरेसे शायद ही ऐसा अच्छा होता । यह लेख इच्छासे बहुत अधिक बढ़ गया है, इसलिये गुणभद्रस्वामीका कवित्व कैसा है यह बतलानेके लिये अधिक स्थान न रोक कर हम उस भूमिकाक्रे थोडेसे श्लोक ही यहां उद्धृत कर देते हैं, जो कि उन्होंने आदिपुराणका शेष माग पूर्ण करनेका प्रारंभ करते समय लिखे हैंनिर्मितोऽस्य पुराणस्य सर्वसारो महात्मभिः । तच्छेपे यतमानानां प्रसादस्येव नः श्रमः ॥ ११ ॥
अर्यात् इस पुराणका मुख्य सारमाग महात्मा जिनसेन बना चुके हैं । अब उसके शेष भागको पूरा करनेका हमारा परिश्रम वैसा ही है, जैसा एक महलके थोड़ेसे बाकी रहे कार्यको पूरा करना । इक्षोरिवास्य पूर्वाद्धमेवाभावि रसावहम् ।
. यथा तथाऽस्तु निप्पचिरिति प्रारभ्यते मया ॥ १४ ॥ . जिस तरह गन्नेका पूर्वभाग ( नीचेका हिस्सा ) अतिशय रसीला होता है, उसी प्रकारसे इस आदिपुराणका पूर्वमाग हुआ है। अब
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
(७२) आगेके भागमें गन्नेके ऊपरके भाग समान जैसे तैसे रसकी प्राप्ति होगी, ऐसा समझकर मैं उसे प्रारंभ करता हूं । अभिप्राय यह कि वह पूर्वार्धके समान सरस नहीं हो सकेगा । कैसी सुन्दर उपमा है।
अथवाऽयं भवेदस्य विरसं नेति निश्चयः। धोग्रं ननु केनापि नादर्शि विरसं क्वचित् ॥ १६ ॥
अथवा ऐसा भी निश्चय होता है कि, इसका अग्रभाग विरस नहीं होगा। क्योंकि धर्मके अन्तको किसीने कभी विरस होते नहीं देखा है-सरस ही होता है और यह धर्मस्वरूप है।
गुरूणामेव माहात्म्यं यदपि स्वादु मद्वचः। तरूणां हि स्वभावोऽसौ यत्फलं स्वादु जायते ॥ १७ ॥ यदि मेरे वचन सरस वा सुस्वादु हों, तो इसमें मेरे गुरुमहाराजका ही माहात्म्य समझना चाहिये । क्योंकि यह वृक्षोंका ही स्वभाव है-उन्हींकी खूबी है, जो उनके फल मीठे होते हैं। निर्यान्ति हृदयावाचो हदि मे गुरवः स्थिताः। ते तत्र संस्करिष्यन्ते तन मेऽत्र परिश्रमः ॥१८॥
हृदयसे वाणीकी उत्पत्ति होती है और हृदयमें मेरे गुरुमहाराज विराजमान हैं, सो वे वहांपर बैठे हुए संस्कार करेंगे ही ( रचना करेंगे ही) इसलिये मुझे इस शेष भागके रचनेमें परिश्रम नहीं करना पड़ेगा। .
मतिमें केवलं सूते कृतिं राजीव तत्सुताम् । ' "धियस्ता वर्तयिष्यन्ति धात्रीकल्पाः कवीशिनाम् ॥ ३३ ॥
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७३ )
रानी जैसे अपनी पुत्रीको केवल उत्पन्न करती है - पालती नहीं उसी प्रकारसे मेरी बुद्धि इस काव्यरूपी कृतिको केवल उत्पन्न करेगी । परन्तु उसका पालनपोषण दाईके समान कवीश्वरोंकी बुद्धि ही करेगी ।
सत्कवैरर्जुनस्येव शराः शब्दास्तु योजिताः ।
कर्ण दुस्संस्कृतं प्राप्य तुदन्ति हृदयं भृशम् ॥ ३४ ॥ अर्जुनक छोड़े हुए वाण जिस तरह दुस्संस्कृत अर्थात् दुस्सासनके बहकाये हुए कर्णके हृदयमें अतिशय पीड़ा उत्पन्न करते थे, उसी प्रकारसे सत्कविके योजित किये हुए शब्द दुस्संस्कृत अर्थात् बुरे संस्कारोंवाले पुरुषोंके कानोंके समीप पहुंचकर उनके हृदयमें चुभते हैं - उन्हें बुरे लगते हैं ।
पुराणं मार्गमासाद्य जिनसेनानुगा ध्रुवम् ।
भवावधेः पारमिच्छन्ति पुराणस्य किमुच्यते ॥ ४० ॥ भगवान् जिनसेनके अनुयायी उनके पुराणके मार्गके आश्रयसे -संसाररूपी समुद्रके भी पार पहुंचनेकी इच्छा करते हैं, फिर मेरे लिये इस पुराणसागरका पार करना क्या कठिन है ? अर्थात् यह तो सहज ही पूरा हो जायगा ।
गुणभद्रस्वामीके बनाये हुए अभीतक तीन ग्रन्थ प्राप्य हैं, एक आंदिपुराणका शेषभाग तथा उत्तरपुराण, दूसरा आत्मानुशासन और तीसरा जिनदत्त चरित्र । इनमेंसे आदिपुराणके शेष भागके, विपयमें तो ऊपर कहा जा चुका है । उत्तरपुराणका अभीतक मैंने स्वाध्याय नहीं किया है । इसलिये उसकी विशेष आलोचना तो नहीं
4
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७४ ) की जा सकती है, तो भी आदिपुराणके शेषभागके समान उसकी कविता भी अच्छी होगी । तंजौरके श्रीयुक्त कुप्पूस्वामीशास्त्रीने जीवंधरचरित्रको उत्तरपुराणसे जुदा निकालकर छपवाया है, उसे विद्वानोंने बहुत पसन्द किया है, इससे भी उत्तरपुराणके कवित्वकी उत्तमताका अनुमान होता है। उसमें तेईस तीर्थकरोंका और उनके तीर्थमें होनेवाले शलाकापुरुषोंका चरित्र है। जितनी संक्षेपतासे यह ग्रन्थ पूर्ण किया गया है, यदि उतनी संक्षे. पतासे नहीं किया जाता, आदिपुराणके समान विस्तारसे रचा जाता तो इससे कई गुना होता । पर जितना है, उतना भी कुछ थोड़ा नहीं है, आठ हजार श्लोकोंमें है। __ आत्मानुशासन-यह २७२ पोंका छोटासा, परन्तु बहुत ही उत्तम ग्रन्थ है । इसकी रचना कब हुई है ? इसके जाननेका कोई साधन नहीं है । क्योंकि इसके अन्तमें सिवा निम्नलिखित श्लोकके जिसमें कि ग्रन्थकर्ताका और उसके गुरुका उल्लेख है और कुछ भी नहीं लिखा है
जिनसेनाचार्यपादस्मरणाधीनचेतसाम् ।
गुणभद्रभदन्तानां कृतिरात्मानुशासनम् ।। तो भी ऐसा अनुमान होता है कि, यह महापुराणका शेष भाग पूर्ण करनेके पहिले बनाया गया होगा। क्योंकि इस ग्रन्थकी भाषा: टीकाके प्रारंभमें जो कि स्वर्गीय पं० टोडरमल्लजीकी बनाई हुई है, किसी संस्कृतटीकाके आधारसे लिखा है कि " यह आत्मा-. नुशासन गुणभद्रस्वामीने लोकसेन मुनिके सम्बोधनके लिये बनाया
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
(७५)
है।" और उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें लोकसेनमुनिको विदितसकलशास्त्र, मुनीश, कवि, अविकलवृत्त आदि विशेषण दिये गये हैं । इससे यह कल्पना हो सकती है कि, उत्तरपुराण वननेके समय यदि लोकसेन 'विदितसकलशास्त्र' थे, तो फिर उसके पश्चात् उन्हें संवोधनकी उतनी आवश्यकता नहीं थी, जितनी कि इस विशेषणके योग्य होनेके पहिले थी । अतएव जबतक और कोई वाधक प्रमाण न मिले तबतक यह मान लेना कुछ अनुचित नहीं दिखता है कि, आत्मानुशासन उत्तरपुराणके पहिले वना है। ___ आत्मानुशान आत्माका शासन करनेके लिये-उसको वशीभूत करनेके लिये न्यायी शासकके समान है। अध्यात्मके प्रेमी इसके अध्ययनसे अभूतपूर्व शान्ति लाभ करते हैं। इसकी रचना
शैली भर्तृहरिके वैराग्यशतकके ढंगकी है और उसीके समान प्रभावशालिनी भी है । थोड़ेसे पद्य यहां उद्धृत कर दिये जाते हैं
हे चन्द्रमः किमिति लाञ्छनवानभूस्त्वं तद्वान् भवः किमिति तन्मय एव नाभूः । किं ज्योत्स्नयामलमलं तव घोषयन्त्या
स्वभौनुवन्ननु तथा सति नाऽसि लक्ष्यः॥ २४१ ॥ अर्थात्-हे चन्द्रमा ! तू कालिमारूप थोडेसे कलंकसे युक्त क्यों हुआ ? यदि कलंकवान् ही होना था, तो सर्वथा कलंकमय ही क्यों न हुआ ? तेरी इस चांदनीसे जो कि तेरे कलंकको और भी
१. यह ग्रन्य भाषार्टीका सहित. छप चुका है। सनातन नग्रन्थमालाके प्रथम गुच्छकमें मूलमात्र भी छपा है। . . .
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७६ )
-अधिक साफ २ बतला रही है, क्या लाभ है ? यदि तू राहुके समान सबका सब काला होता, तो तेरा दोप किसीकी दृष्टिमें तो • नहीं आता - तुझे कोई टोकता तो नहीं? ऊंचा पद प्राप्त करके जो नीचताका कार्य करता है, उसको लक्ष्य करके यह अन्योक्ति कही गई है।
-
लोकाधिपाः क्षितिजेो भुवि येन जातास्तस्मिन्विधौ सति हि सर्वजनप्रसिद्धे । शोच्यं तदेव यदमी स्पृहणीयवीर्यास्तेषां बुधाय वत किंकरतां प्रयान्ति ।। ९५ ।। जिस लोकप्रसिद्ध धर्मके सेवनसे राजादि पुरुष लोकके स्वामी होते हैं उसके होते हुए जो बड़े २ पराक्रमी पंडित उन राजाओंके दास 'बनते हैं, उनकी दशा बड़ी शोचनीय है- उनपर बड़ा तरस आता है। अभिप्राय यह है कि, ये लोग धर्महीका सेवन क्यों नहीं करते हैं ? जिसके कि कारण राजादिकोंके सुख प्राप्त होते हैं ।
सत्यं वदात्र यदि जन्मनि बन्धुकृत्यमाप्तं त्वया किमपि वन्धुजनाद्धितार्थम् । एतावदेव परमस्ति मृतस्य पश्चात् संभूय कायमहितं तव भस्मयन्ति ॥ ८३ ॥ हे भाई ! यदि तूने अपने बन्धुजनोंसे इस जन्ममें कुछ वन्धुतारूप -लाभ उठाया हो तो, सच सच बता दे । हमको तो इनका इतना ही उपकार भासता है कि मरनेके पीछे ये सब इकट्ठे होकर तेरे अपकार करनेवाले शरीरको जला देते हैं ।
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
(७७)
: प्रियामनुभवत्स्वयं भवति कातरं केवलं परेष्वनुभवत्सु तां विषयिषु स्फुटं ल्हादते । मनो ननु नपुंसकं त्विति न शब्दतश्चार्थतः
सुधीः कथमनेन सन्नुभयथा पुमान् जीयते ॥ १३७ ॥ मन केवल शब्दसें ही नपुंसक नहीं है, किन्तु अर्थसे भी है। क्योंकि यह स्वयं तो स्त्रीको भोग नहीं सकता है, केवल कायर होता है
और दूसरोंको अर्थात् स्पर्शादि इन्द्रियोंको भोगते देखकर प्रसन्न होता है। तब ऐसा नपुंसक मन सुधी (बुद्धिमान् ) पुरुषको जो कि शब्दसे
और अर्थसे सर्वथा पुल्लिंग है, कैसे जीत सकता है ? अभिप्राय यह कि मनको वलवान् समझकर उसके जीतनेका उपाय करनेमें त्रुटि नहीं करनी चाहिये। ..
ज्ञानमेव फलं ज्ञाने ननु श्लाघ्यमनश्वरम् । . __ अहो मोहस्य माहात्म्यमन्यदप्यत्र मृग्यते ॥ १७५ ॥
ज्ञानका फल ज्ञान ही है, जो कि सर्वथा प्रशंसा योग्य और अविनाशी है। इसको छोड़ जो उससे दूसरे सांसारिक फलोंकी इच्छा की जाती है, सो अवश्य ही मोहका वा मूर्खताका माहात्म्य है। अभिप्राय यह कि ज्ञान होनेसे निराकुलतारूप जो सुख होता है, उसे छोड़कर लोग विषयसुखोंको टटोलते हैं, सो मूर्खता है।
जिनदत्तचरित-बड़नगरमें मलूकचन्द्रजी हीराचन्द्रके मन्दिरमें है। उसकी संस्कृत शैली बड़ी.अच्छी और प्रौद है । इस छोटेसे "नव सात्मक काव्यसे गुणभद्राचार्यके पाण्डित्यका पूर्ण परिचय
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७८ )
मिलता है । यह सारा काव्य अनुष्टप श्लोकोंमें लिखा गया है । अनुप होकर भी यह गंभीर है। इसकी भाषा पंडित वख्तावरमल रतनलालने बनाई है । यह भाषा मुंशी अमनसिंहजीने छपवाई थी । अनुवादक महाशय संस्कृतके विद्वान नहीं थे, इसलिये अनुवाद जैसा होना चाहिये वैसा नहीं हुआ है और वहुतसी जगह भाव भी लिखनेसे रह गया हैं ।
एक भावसंग्रह नामका ग्रन्थ भी गुणभद्राचार्यका बनाया हुआ कहा जाता है, परन्तु अभीतक हमें उसके दर्शन नहीं हुए हैं ।
1
श्रीयुक्त तात्या नेमिनाथ पांगलने मराठीके 'विविधज्ञानविस्तार ' नामक मासिकपत्रमें गुणभद्रस्वामीके विषयमें एक दन्तकथाका उल्लेख किया है । यद्यपि ठीक ऐसी ही कथा सुप्रसिद्ध कवि बाणभट्ट के विषयमें भी सुनी जाती है और विद्वानोंमें उसका प्रचार भी विशेषतासे है, इससे उसके सत्य होनेमें भी सन्देह है; तो भी हम पाठकोंके जाननेके लिये यहां उसे उद्धृत कर देते हैं:
---
“ जिस समय जिनसेनस्वामीको ज्ञात हुआ किं, अब मेरा अन्तः समय निकट है और महापुराणको मैं पूरा नहीं कर सकूंगा; तब उन्होंने इस बातकी चिन्ता की कि मेरे शिष्यों में ऐसा कौन है, जो इस ग्रन्थको योग्यताके साथ पूर्ण कर देगा ? और अपने दो
१. बाणभट्ट जव अपनी अधूरी कादम्बरीको छोड़कर मृत्युशय्यापर पड़े थे, तब उन्होंने भी अपने दो पुत्रोंसे इसी प्रकार पूछा था और ऐसा ही उत्तरं
A
पाया था ।
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
(७९) शियोंको जो कि सबसे अधिक विद्वान् समझे जाते थे, पास बुला: कर कहा कि यह जो साम्हने सूखा वृक्ष खड़ा है, इसका कान्यंवाणीमें वर्णन करो । तव उन दोनोंमेंसे.पहिलेने कहा-- .
"शुष्कं काष्ठं तिष्ठत्यग्रे।" फिर दूसरेने कहा- . . .
"नीरसतरुरिह विलसतिं पुरतः ।.... - यह दूसरा और कोई नहीं था, गुणभद्रस्वामी थे । इनके सरस उत्तरको सुनकर जिनसेनस्वामीने इन्हींको योग्य समझा में आज्ञा दी कि तुम शेष ग्रन्थको पूर्ण करना.।"
. समकालीन राजाओंका परिचय ।
अमोघवर्षे । .. . जिनसेन और गुणभद्रस्वामीके समयमें जितने राजा हो गये हैं, उन सबमें महाराजा अमोघवर्ष जैनधर्मके परम शृद्धालु सहायक और उन्नायक समझे जाते हैं। जिनसेनस्वामीके ये परम भक्त थे, जैसा कि गुणभद्रस्वामीने लिखा है:
यस्य प्रांशुनखांशुजालविसरद्धारान्तराविर्भव. त्पादाम्भोजरजापिशङ्गमुकुटप्रत्यारत्नद्युतिः । - संस्मर्ता स्वममोघवर्षनृपतिः पूतोऽहमद्येत्यलं . स श्रीमान् जिनसेनपूज्यभगवत्पादो जगन्मङ्गलम् ॥८॥
इसका अभिप्राय यह है कि महाराजा अमोघवर्ष जिनसेनस्वामीके । चरणकमलोंमें मस्तकको रखकर · आपको पवित्र मानते थे और
उनका सदा स्मरण किया करते थे। अमोघवर्षकी वनाई हुई
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
(८०)
प्रश्नोत्तररत्नमाला नामकी एक छोटीसी पुस्तक है। उसके अन्तमें जो निम्नलिखित श्लोक है, उससे मालूम होता है कि उन्होंनेविवेकपूर्वक यह समझकर कि संसार सारहीन है, राज्यका त्याग कर दिया था। विवेकाच्यक्तराज्येन राज्ञेयं रत्नमालिका। रचितामोघवर्षेण सुधियां सदलंकृतिः॥ इस पुस्तकके प्रारंभमें जो निम्न लिखित श्लोक है:प्रणिपत्य वर्धमान प्रश्नोत्तरत्नमालिकां वक्ष्ये । नागनरामरवन्धं देवं देवाधिपं वीरम् ॥
इससे यह भी शंका नहीं रहती कि उन्होंने किस धर्मके विवेकसे राज्यका त्याग किया था ? इससे स्पष्टतः मालूम होता है कि वे महावीर भगवानके अनुयायी थे और उनके सच्चे उपदेशने उनके चित्तपर इतना प्रभाव डाला था कि वे संसारके झगड़ोंसे मुक्त हो कर धर्मका सेवन करने लगे थे।
प्राचीन लेखों और पुस्तकोंमें अमोघवर्षका उल्लेख तीन नामोंसे मिलता है-अमोघवर्ष, नृपतुंगदेव और शर्वदेव । अपनी उदारता
१. प्रश्नोत्तररत्नमालाको अभी तक श्वेताम्वरी भाई विमलदास कविकी बनाई हुई और वैष्णव शंकराचार्यकी वनाई हुई कहते थे, परन्तु ईसाकी ग्यारहवी सदीमें इसका जो तिव्वती भाषामें अनुवाद हुआ था, उसके प्राप्त होनेते अव यह वात निश्चित हो गई है कि, यह राष्ट्रकूटवंशी अमोघवर्षकी ही बनाई हुई है। उक्त तिब्बती अनुवादमें स्पष्ट शब्दोंमें लिखा है कि इसे अमोघवर्ष प्रथमने संस्कृतमें बनाई थी। .
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
(८१)
दानशीलता और न्यायपरायणतासे अमोघवर्पने अपने अमोघवर्ष नामको इतना प्रसिद्ध किया कि, पीछेसे यह एक प्रकारकी पदवी समझी जाने लगी और उसे राठौरवंशके तीन चार राजाओंने तथा परमारवंशीय महाराज मुंजने भी अपनी प्रतिष्ठाका कारण समझकर धारण की। इन पिछले तीन चार अमोघवोंके कारण इतिहासमें ये अमोघवर्प प्रथमअमोघवर्पके नामसे उल्लिखित होते हैं।
अमोघवर्ष राष्ट्रकूट वा राठौरवंशके राजा थे। राष्ट्रकूटवंशीय राजा तृतीय कृष्ण, ध्रुवराज, कर्कराज, द्वितीय कर्कराज, और द्वितीय प्रभूतवर्ष आदिके दानपत्रों तथा शिलालेखोंसे इनके पूर्व राजाओंकी परम्पराका पता इस प्रकार लगता है—१ गोविन्दराज, २ कक्कराज ( पहिलेका पुत्र ), ३ इन्द्रराज (पुत्र), ४ दन्तिदुर्ग अपर नाम वल्लभराज (पुत्र), ५ कृष्णराज अपर नाम शुभतुंग (चाचा, कक्कराजका द्वितीय पुत्र ), ६ गोविन्दरान द्वितीय, अपर नाम वल्लभरान (पुत्र), ७ ध्रुवराज अपर नाम निरुपम ( छोटा भाई) ८ जगत्तुङ्ग अपर नाम गोविन्दराज तृतीय वा प्रभूतवर्ष और इनके पुत्र ९ अमोघवर्ष प्रथम । अमोघवर्षने शक संवत् ७३७ से ८०० तक राज्य किया है । उस समय राष्ट्रकूटोंका राज्य सारे महाराष्ट्र और कर्नाटक प्रान्तमें फैला हुआ था। सिवा इसके राठौर राजा दन्तिदुर्गने सोलंकी राजा कीर्तिवर्मा (द्वितीय) का महाराज्य छीन लिया था, वह तथा
१. अर्थिपु यथार्थतां यः समभीष्टफलाप्तिलब्धतोषेषु । वृद्धिं निनाय परमाममोघवर्षाभिधानस्य ॥
(ध्रुवराजका दानपत्र इंडियन एंटिक्वेरी १२-१८१)
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
(८२)
गुजरातमें जो सोलंकी (चालुक्य) राज्यका शाखाराज्य स्थापित हुआ था, वह भी राठौरोंके हाथमें आ गया था । इस तरह ये दोनों राज्य भी राठौर राज्यके अन्तर्गत हो गये थे और दन्तिदुर्गसे लेकर खोटिगदेवके राज्यकाल तक (शक संवत् ८९४ तक ) राठौर वंशके ही अधिकारमें रहे थे । शक संवत् ८९४ में मालवाके परमार राजा श्रीहर्पने राठौरोंपर विजय प्राप्त की थी और मान्यखेटनगरीको लूटी थी और उसी समय खोट्टिगदेवका देहान्त हुआ था। खोट्टिगदेव अमोघवर्ष प्रथमके प्रपौत्रका पुत्र था । इसीके समय राठौरोंकी राज्यलक्ष्मी प्रभाहीन हुई । ___ अमोघवर्ष प्रथमके समय राष्ट्रकुटवंशकी स्वतंत्र राज्यलक्ष्मी उन्नतिके शिखरपर विराजमान थी, और अन्य राजाओंकी लक्ष्मीका परिहास करती थी । निम्नलिखित श्लोकोंसे मालूम होता है कि अमोघवर्ष बड़े भारी प्रतापी वीर थे, वली थे, सोलंकी राजाओंके लिये वे प्रलयकालकी अग्निके समान थे, अन्य शत्रुओंकी स्त्रियोंको वैधन्यकी दीक्षा देनेवाले थे, उनकी सेना इतनी अधिक थी कि उसके भारसे शेषनाग दवा जाता था। उन्होंने वेंगीमें किसी चालुक्यराजाको मार करके उसके अपूर्व सुस्वादु खाद्यसे यमराजको सन्तुष्ट किया था। शत्रुओंको उनके मारे कहीं भी ठहरनेका अवकाश नहीं मिलता था, उनका निर्मल यश सब ओर फैल रहा था, और उनकी राजधानीका
१. अमोघवर्षका पुत्र अकालवर्ष उसका जगत्तुंग (दुसरा) और उसका अमोघवर्ष द्वितीय । इस अमोघवर्षके तीन पुत्र थे-१ कृष्ण, २ निरुपम . ३ खोटिंगदेव। . ..
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
(८३) / नगर मान्यखेट इतना विशाल और सुन्दर था कि उसके साम्हने . इन्द्रपुरीकी हसी होती थी। मानों उन्होंने उसे देवोंके गर्वको खर्व करनेके लिये अपनी राजधानीका स्थान बनाया था
तस्य श्रीमदमोघवपतेश्वालुक्यकालानल: सूनुर्भूपतिरूर्जिताहितवधृवैधव्यदीक्षागुरुः । आसीदिन्द्रपुराधिकं पुरमिदं श्रीमान्यखेटाभिधं येनेदं च सरः कृतं गुरुकल्पासादमन्तःपुरम् ॥
(इंडियन् एण्टिक्वेरी १२॥ २६४-६७) तत्सुनुरानतनृपो नृपतुंगदेवः सोऽभूत् स्वसैन्यभरभंगरिताहिराजः । यो मान्यखेटममरेन्द्रपुरोपहासि गीर्वाणगर्वमिव खर्वयितुं व्यत्त ॥
(एपिग्राफिआ इण्डिका ५॥ १९२-९६) तस्माच्चामोघवर्षोऽभवदतुलवलो येन कोपादपूर्वचालुक्याभ्यपखाद्यैर्जनितरतियमः प्रीणितोविंगवल्लयाम् । वैरिश्चाण्डोदरान्तर्वहिरुपरितले यन्न लब्धावकाशं तोयव्याजाद्विशुद्धं यश इव निहितं तज्जगत्तुंगसिन्धोः॥
चतुर्थ गोविन्दराजका दानपत्र ।
(इंडियन एण्टिक्वेरी १२।२४९-५२) अमोघवर्षके एक शिलालेखमें लिखा है-“वङ्गाङ्गमगधमालवर्वगीशैरचितो" (इंडियन एण्टिक्वेरी नि० १२पृष्ठ २१८) निससे मालूम होता है कि वंग अंग मगध मालव और उगीके राजा उनकी सेवा करते थे । अर्थात् अपने समयके वे एक महान् सम्राट् थे।
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ८४ )
अमोघवर्ष जैसे वीर तथा उदार थे, उसी प्रकारसे विद्वान् भी थे। उन्होंने संस्कृत और कानड़ी भाषामें अनेक ग्रन्थोंकी रचना की है, जिसमेंसे एक प्रश्नोत्तर रत्नमालाका उल्लेख तो ऊपर हो चुका है - जो छप चुकी है, दूसरा प्राप्य ग्रन्थ कवि - राजमार्ग है । यह अलंकारका ग्रन्थ है, और कानड़ी भाषाके उत्कृष्ट ग्रन्थोंमें गिना जाता है । इनके सिवाय और भी कई ग्रन्थ अमोघवर्षके सुने जाते हैं, परन्तु वे अप्राप्य हैं ।
इतिहासज्ञोंने अमोघवर्षका राज्यकाल शक संवत् ७३६ से ७९९ तक निश्चय किया है । जिनसेनस्वामीका स्वर्गवास शक संवत् ७६५ के लगभग निश्चित किया जा चुका है। इससे समझना चाहिये कि जिनसेनके शरीरत्यागके समय अमोघवर्ष महाराज राज्य ही करते थे। राज्यका त्याग उन्होंने शक संवत् ८०० में किया है जब कि आचार्य - पदपर गुणभद्रस्वामी विराजमान थे । यह वात अभी विवादापन्न ही है कि अमोघवर्षने राज्यको छोड़कर मुनिदीक्षा ले ली थी या केवल उदासीनता धारण करके श्रावककी कोई उत्कृष्ट प्रतिमाका चरित्र ग्रहण कर लिया था । हमारी समझमें यदि उन्होंने मुनिदीक्षा ली होती; तो प्रश्नोत्तररत्नमालामें वे अपना नाम ' अमोघवर्ष ' न लिखकर मुनि अवस्था धारण किया हुआ नाम लिखते । इसके सिवाय त्याग करने के समय उनकी अवस्था लगभग ८०. वर्षकी
राज्यका
4
थी, इसलिये भी उनका कठिन मुनिलिंग धारण करना संभव प्रतीत नहीं होता है ।
F
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
(६५) अकालवर्ष-अमोघवर्षके पश्चात् उनका पुत्र अकालवर्ष जिसको कि 'द्वितीयकृष्ण ' भी कहते हैं, सार्वभौम सम्राट् हुआ था, जैसा कि द्वितीय कर्कराजके दानपत्रमें अमोघवर्षका वर्णन करनेके पश्चात् लिखा है:
तस्मादकालवर्षोऽभूत्सार्वभौमक्षितीश्वरः।
यत्मतापपरित्रस्तो व्योम्नि चन्द्रायते रविः ॥ . परन्तु अकालवर्षका राज्यकाल शक ८११-८३३ तक निश्चित् किया गया है। इससे मालूम होता है कि अमोघवर्ष और अकालवर्षके. वीचमें १०-११ वर्ष तक किसी दूसरे राजाने राज्य किया है, और वह वहुत करके अमोघवर्षका पितृन्य (काका ) इन्द्रराज था, जैसा कि ध्रुवराजके दानपत्रके निम्नलिखित श्लोकसे विदित होता है
राजाभूत्तपितृव्यो रिपुभवाविभवोद्भूत्यभावैकहेतुलक्ष्मीवानिन्द्रराजो गुणिनृपनिकरान्तश्चमत्कारकारी ।
रागादन्यान्व्युदस्य प्रगटितविषया यं नृपान्सेवमाना E. राज्यश्रीरेव चक्रे सकलकविजनोगीततथ्यस्वभावम् ।।
शायद अमोघवर्षके राज्य त्याग करनेके समय अकालवर्ष वालक था, इस कारण राज्यका कार्य इन्द्रराज देखता होगा और इसीलिये अमोघवर्षके पश्चात् कहीं इन्द्रराजको और कहीं अकालवर्षको राजा माना है। ... अकालवर्ष.भी अपने पिताके समान. वड़ा भारी वीर और पराक्रमी 2: १. इन्द्रराजकी सन्तानने गुजरात देशमें राष्ट्रकूटवंशका एक शाखाराज्य स्थापित किया था।
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
(८६) राजा था। तृतीय कृष्णराजके दानपत्रमें जो कि वर्धा नगरके समीपएक कुएमें प्राप्त हुआ है-इसकी इस प्रकार प्रशंसा लिखी है
तस्योत्तर्जितगूर्जरो हृतहटल्लासोद्भटश्रीमदो गौडानां विनयव्रतार्पणगुरुः सामुद्रनिद्राहरः । द्वारस्थाङ्गकलिङ्गगाङ्गमगधैरभ्यचिंताज़चिरं
मूनुः मुनृतवाग्भुवः परिदः श्रीकृष्णराजोऽभवत् ।। इसका अभिप्राय यह है कि उस अमोघवर्षका पुत्र श्रीकृष्णराज हुआ जिसने गुर्जर, गौड, द्वारसमुद्र, अंग, कलिंग, गंग, मगध आदि देशोंके राजाओंको अपने वशवर्ती वा आज्ञानुवर्ती किये थे । गुणभद्रस्वामीने भी उत्तरपुराणके अन्तमें इस राजाकी बहुत प्रशंसा की है। दो श्लोक यहां उद्धृत किये जाते हैं___ यस्योत्तुंगमतंगजा निजमदस्रोतस्विनीसंगमा
द्गाङ्गं वारि कलङ्कितं कटु मुहुः पीत्वाप्यगच्छत्तृपः । कौमारं धनचन्दनं वनमपां पत्युस्तरंगानिलमन्दान्दोलित (१) भास्करकरच्छायं समाशिश्रियन् ॥२६॥ दुग्धाब्धौ गिरिणा हरौ हतसुखागोपीकुचोधनः पप्ले भानुकमिदेलिमदले वासायसंकोचने।। यस्योरः शरणे प्रथीयसि भुजस्तम्भान्तरोत्तम्भितस्थेये हारकलापतोरणगुणे श्रीः सौख्यमागाचिरम् ॥२७॥
यह नहीं कहा जा सकता है कि अमोघवर्षके समान अकाल वर्ष भी जैनधर्मका श्रद्धालु था या नहीं। क्योंकि इस विषयका हमें अभी तक कोई उल्लेख नहीं मिला है । पर उसका सामन्त
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
(८७ )
लोकादित्य जो कि वनवासदेशका राजा था और बंकापुरमें जिसकी राजधानी थी, जैनधर्मका भक्त रहा है, ऐसा जान पड़ता है। क्योंकि
पद्मालयमुकुलकुलपविकासकसमतापततमहसि । श्रीमति लोकादित्ये प्रध्वस्तप्रथितशत्रुसंतमसे ॥ २९ ॥ चेल्लपताके चेल्लध्वजानुजे चेल्लकेतनतनूजे । जैनेन्द्रधर्मदृद्धिविधायिनि स्वविधुवीध्रपृथुयशसि ॥३०॥ इत्यादि श्लोकोंमें गुणभद्रस्वामीने लोकादित्यको “ जैनेद्र धर्मवृद्धिविधायिनि" विशेषण देकर कमसे कम इतना तो भी स्पष्ट कर दिया है कि वह जैनधर्मका शुभचिन्तक तथा उसकी वृद्धि करनेवाला था।
जिनसेनस्वामीका जन्म समय शक संवत् ६७५ और मृत्युसमय शक सं० ७७० निश्चित किया जा चुका है और उनके पश्चात् गुणभद्रस्वामी निदान शक संवत् ८२० तक जीते रहे हैं। इस वीचमें अर्थात् शक संवत् ६७९ से ८२० तकके समयमें राष्ट्रकूटवंशके चार पांच राजा राज्य कर चुके हैं । जिनमेंसे तीनका समय तो निश्चित है-श्रीवल्लभ शक संवत् ७०५ से ७३६ तक, अमोघवर्ष ७३६ से ७९९ तक और अकालवर्ष ८०० से ८३३ तक । श्रीवल्लभसे पहिले शुभतुंग, दन्तिदुर्ग आदि राजा हुए हैं, परन्तु उनका निश्चित समय विदित नहीं है।
.
१. इस राजाके समयमें हरिवंशपुराणकी रचना हुई थी।
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
(.८८ )
पूर्वके कवि वा आचार्य। जिनसेनस्वामीने आदिपुराण व महापुराणकी भूमिकामें जिन बहुतसे कवियों तथा आचार्योंका स्मरण किया है, यहां हम उनका उल्लेख कर देना भी ऐतिहासिक दृष्टिसे उपयोगी समझते हैं:
१. सिद्धसेनकवि-इन्हें 'प्रवादिकरिकेसरी' विशेषण दिया है, जिससे मालूम होता है कि ये बड़े भारी नैयायिक व तार्किक विद्वान् होंगे। कई लोगोंका अनुमान है कि, ये प्रसिद्ध श्वेताम्बर तार्किक 'सिद्धसेनदिवाकर ही होंगे, जिन्होंने अनेक . न्यायग्रन्योंकी रचना की है। ___२. समन्तभद्र-इनकी कवियोंके, वादियोंके, गमकोंके और वाग्मीजनोंके शिरोमणि कहकर स्तुति की है। गन्धहस्तिमहाभाप्य, रत्नकरंड-श्रावकाचार और देवागम आदि ग्रन्योंके कर्ता यही गिने जाते हैं। न्यायशास्त्रके ये अद्वितीय विद्वान् हुए हैं।
३. श्रीदत्त- इन्हें बड़े भारी तपस्वी और वादिरूपीसिंहोंके भेदन करनेवाले बतलाये हैं। __४. यशोभद्र-इनके विषयमें कहा है कि, विद्वानोंकी समामें इनका नाम सुनते ही वादियोंका गर्व गलित हो जाता था।
५. प्रभाचन्द्रकवि—जिन्होंने चन्द्रोदय (न्यायकुमुदचन्द्रोदय) करके जगतको आल्हादित किया। प्रमेयमल्मातडके कर्ता भी ये ही समझे जाते हैं।
६. शिवकोटिमुनीश्वर-निसकेआराधनाचतुष्टय (भगवती आराधना) का आराधन करके यह संसार शीतीभूत वा शान्त हो गया ।
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
(८९) ७. जटाचार्य-काव्यका अनुचिन्तन करते समय जिनकी जटाएं चंचल होकर ऐसी मालूम होती थीं, मानों अर्थका व्याख्यान कर रही हैं। जटाचार्यका दूसरा नाम सिंहनन्दि भी है। ऐसा आदिपुराणकी टिप्पणीमें लिखा है।
८. काणभिक्षु-कथालंकारके वनानेवाले ।
९. देव-कवियोंके तीर्थंकर । बहुत करके यह आचार्य देवनन्दिका संक्षिप्त नाम होगा।
१०. भट्टाकलंक-११ श्रीपाद,-१२ पात्रकेसरी--इनके अतिशय निर्मलगुण विद्वानोंके हृदयमें हारके भावको प्राप्त होते हैं। ' १३. वादिसिंह-कवित्व, वाग्मित्व, और गमकत्वकी सीमापर पहुंचे हुए। आश्चर्य नहीं कि, 'वादिसिंह यह वादीभासिंहका ही नामान्तर हो । जिस तरह वादीभसिंहके कवित्वको प्रगट करनेवाले गद्यचिन्तामणि और क्षत्रचूडामणि दो ग्रन्थ प्रगट हो चुके हैं, उसी 'प्रकारसे अपने नामानुसार तार्किकत्वको प्रगट करनेवाली उन्होंने
आप्तमीमांसाकी भी कोई टीका लिखी है जिसका उल्लेख अष्टसहस्त्रीकी उत्थानिकामें (श्रीमता वादीमसिंहनोपलालितामाप्तमीमांसां) मिलता है। - १४. वीरसेन-जिनसेनस्वामीके गुरु प्रसिद्धकवि और सिद्धान्तअन्योंके टीकाकार ।
१५. जयसेन-तपस्वी, शान्तमार्ति, शास्त्रज्ञ, पंडिताग्रणी ।
१६. कविपरमेश्वर-कवियोंद्वारा पूज्य और वागर्थसंग्रह पुरा'णका रचनेवाले।
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
(९०)
पण्डितप्रवर आशाधर । "आशाधरो विजयतां कलिकालिदासः" इस ऋषितुल्य विद्वान्का नाम आशाधर था। आशाधरके पिताका नाम सल्लक्षण [ सलखण] और माताका नाम श्रीरत्नी था । जैनियोंकी ८४ जातियोंमें बघेरवाल नामकी एक जाति है। हमारे चरित्रनायकने इसी वघरवाल जातिका मुख उज्ज्वल किया था । सपादलक्ष देशमें मंडलकर नामका एक नगर है। पंडित आशाधरका जन्म उसी मंडलकर नगरमें हुआ था।
सपादलक्ष देशको भाषामें सवालख कहते हैं। नागौरके निकटका प्रदेश सवालखके नामसे प्रसिद्ध है । इस देशमें पहले चाहमान ( चौहान ) राजाओंका राज्य था । फिर सांभर और अजमेरके चौहान राजाओंका सारा देश सपादलक्ष कहलाने लगा था और उसके सम्बन्धसे चौहान राजाओंके लिये “ सपादलक्षीय नृपतिभूपति" आदि शब्द लिखे जाने लगे थे। __आशाधरके समयमें सपादलक्ष देशमें सांभरका राज्य भी शामिल था, यह उनके दिये हुए “ शाकंभरीभूपण" विशेषणसे स्पष्ट होता है । शाकंभरी झील जिसमें कि नमक पैदा होता है और जिसे
१-श्रीमानास्ति सपादलक्षविपयः शाकंभरीभूषण
स्तत्र श्रीरतिधाममण्डलकरं नामास्ति दुर्ग महत् । श्रीरल्यामुदपादि तत्र विमलव्याघेरवालान्वयात्
श्रीसल्लक्षणतो जिनेन्द्रसमयश्रद्धालुराशाधारः ॥१ २-प्राचीन कालमें "कमाऊंके" आसपासके देशको भी सपादलक्ष कहते थे।
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
आजकल सांभर कहते हैं, सवालख देशकी श्रृंगाररूप थी । मंडलकरदुर्गको आजकल 'मांडलगढ़का किला' कहते हैं । यह इस समय मेवाड़ राज्यमें है । उस समय मेवाड़का सारा पूर्वीय भाग चौहानोंके आधीन था। चौहान राजाओंके वहुतसे शिलालेख वहां अव तक मिलते हैं । महाराजाधिराज पृथ्वीराजके समय तक मांडलगढ़ सपादलक्ष देशके अन्तर्गत था और वहांके अधिकारी चौहान राजा थे। पीछे अजमेरपर मुसलमानोंका अधिकार होनेपर वह किला भी उनके हस्तगत होगया था । __ आशाधरकी स्त्री सरस्वतीसे एक छाहड़ नामका पुत्र था, जिसने धाराके तत्कालीन महाराजाधिराज अर्जुनदेवको अपने गुणोंसे मोहित कर रखा था। वह अपने पिताका सुपूत पुत्र था । यद्यपि उसके कीर्तिशाली कार्योंके जाननेका कोई साधन नहीं है । परन्तु इसमें सन्देह नहीं है कि, वह होगा अपने पिता ही जैसा विद्वान् । इसीलिये पंडितराजने एक श्लोकमें अपने साथ उसकी तुलना की है कि "जिस तरह सरस्वतीके (शारदाके) विषयमें मैंने अपने आपको उत्पन्न किया, उसी तरहसे अपनी सरस्वती नामकी भार्याक गर्भसे अपने अतिशय गुणवान् पुत्र छाहड़को उत्पन्न किर्या !" छाहड़ सरीखे गुणवान् पुत्रको पानेका एक प्रकारसे उन्हें अभिमान था । जान पड़ता है, उनके छाहड़के अतिरिक्त और कोई पुत्र नहीं था । यदि होता, तो वे अपने ग्रन्योंकी प्रशस्तिमें छाहड़के समान
-
१-सरस्वत्यामिवात्मानं सरस्वत्यामजीजनत।
यः पुत्रं छाहडं गुण्यं रंजितार्जुनभूपतिम् ॥ २ ॥
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ९२) उसका भी उल्लेख करते । अनगारधर्मामृतकी भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका वि० सं० १३०० की बनी हुई है, जब कि उनकी आयु कमसे कम ६५ वर्षकी होगी, जैसा कि हम आगे सिद्ध करेंगे। इस अवन्याके पश्चात् पुत्र उत्पन्न होनेकी संभावना बहुत कम होती है। ___ आशावरने अपने ग्रन्याकी प्रशस्तियोंमें अपना बहुत कुछ परिचय दिया है । परन्तु किसीमें अपने जन्नका समय नहीं बतलाया है। तो भी उन्होंने अपने विषयमें जो बातें कहीं है, उनसे अनुमान होता है कि विक्रम संवत् ११३५ के लगमग उनका जन्न हुआ होगा।
निस समय गजनीके बादशाह शहाबुद्दीनगोरीने सारे नपाइल्स देशको व्याप्त कर लिया था, उस समय सदाचार भंग होनेक भयसे मुसलमानोंक अत्याचारके डरसे आशापर अपने परिवारके साय देश छोड़कर निकले थे, और मालवाकी धारा नगरीम आ बसे थे। उस समय माल्वाके परमारवंशके प्रतापी राजा विन्ध्यवर्माका राज्य था। वहां उनकी भुजाओंके प्रचंड बल्ले तीनों पुत्मार्थोंका साधन अच्छी तरहसे होता था। शहाबुद्दीन गोरीने ईस्वी सन् १९१३ में अर्थात् विक्रम संवत् १२४९ में पृथ्वीराजक्ने कैद करके दिल्लीको
१-लेच्छेशेन सपादलक्षविषये व्याप्ते वृत्तशतित्रासाद्विन्ध्यनरेन्ददो परिभल्लू त्रिवर्गाजनि। प्राप्तो नालबमंडले बहुपरीवारः पुरानावनात् यो वारानपत्रदिनामिनिवासानं नहावीरतः ॥५॥ प्रशस्तिनी टीनाने 'लेशन' काल "साहवदीन्नुल्लेन' लिखा है।
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
(९३ ) अपनी राजधानी वनाई थी । उसी समय अर्थात् संवत् १२४९ (ई. सन् ११९३ ) में उसने अजमेरको अपने आधीन करके वहांके लोगोंकी कतल कराई थी और इसी साल वह अपने एक सरदारको हिन्दुस्थानका सारा कारभार सोप करके गजनीको लौट गया था। इसके पश्चात् सन् ११९४ और ९५ में हिन्दुस्थानपर उसकी छठी और सातवीं चढ़ाई और भी हुई थी । छठी चढाईमें
उसने कन्नोज फ़तह की थी। और सातवींमें दिल्ली, गवालियर, “बुन्देलखंड, विहार, बंगाल, और गुजरात प्रदेश उसने अपने राज्यमें 'मिला लिये थे। फिर सन् १२०२ में वह ग्यासुद्दीनगोरीके मरनेपर गजनीके तख्तपर बैठा था, और सन् १२०६ में सिंध नदीके किनारे उसे गक्कर जातिके जंगली लोगोंने मार डाला था। इससे मालूम पड़ता हैः कि, शहाबुद्दीन गोरीने पृथ्वीराज चौहानसे 'दिल्लीका सिंहासन छीनते ही अजमेरपर धावा किया होगा। क्योंकि
अजमेर पृथ्वीरानके ही अधिकारमें था और उसी समय अर्थात् 'सन् ११९३ ईस्वीमें सपादलक्षदेश शहाबुद्दीनके अत्याचारोंसे व्याप्त
हो गया होगा । यही समय पंडितप्रवर आशाधरके मांडलगढ़ छोडकर धारा नगरीमें आनेका निश्चित होता है। ___ मांडलगढ़से धारानगरीमें आ वसनेके पश्चात् पंडित आशाध
रेने एक महावीर नामके प्रसिद्ध पंडितसे जैनेन्द्रप्रमाण और जै+ ,नेन्द्रव्याकरण इन दो ग्रन्थोंका अध्ययन किया । आशाधरके गुरु
पं० महावीर, वादिराज पंडित धरसेनके शिष्य थे। प्रसिद्ध विद्या
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
(९४ )
मिलापी महाराजा भोजको मरे हुए यद्यपि उन दिनों १५० वर्ष वीत चुके थे, तो भी धारानगरीमें संस्कृत विद्यादा अच्छा प्रचार था। उन दिनों संस्कृतके कई नामी नामी विद्वान् हो गये हैं जिनमें वादीन्द्र विशालकीति, देवचन्द्र, महाकवि मदनोपाध्याय, कविराज विल्हण ( मंत्री, अर्जुनदेव, केल्दण, आशाधर आदि मुख्य गिने जाते हैं।
वि० संवत् १२४९ में जब कि पंडित आशाधर धाराने आये होंगे, उनकी अवस्था अधिक नहीं होगी । क्योंकि धारामें आने पश्चात् उन्होंने न्याय और व्याकरण शाख पढ़े थे । हमारी समझमें उस समय उनकी अवस्था २० वर्षके भीतर भीतर होगी। और इस हिसाबसे उनका जन्म वि० सं० १९३०-३५ के लग. भग हुआ होगा, जैसा कि हम पहले लिख चुके हैं।
जिस समय आशाधर धारामें आये थे, उस समय मालवाके राजा विन्ध्यनरेन्द्र, विन्ध्यवर्मा, अथवा विजयवर्मा थे । प्रशन्तिकी टीका 'विन्ध्यभूपतिका' अर्थ 'विजयवर्मा नाम मालवाधिपति किया है। जिससे मालूम होता है कि विन्ध्यवाहीका दूसरा नाम विजयवर्मा है । विन्ध्यवर्माका यह नामान्तर अभीतक किसी शिलालेख या दानपत्रमें नहीं पाया गया है । विजयवर्मा परमार महाराज भोजकी पांचवीं पीढ़ीमें थे । पिप्पलियाके अर्जुनदेवके दानपत्रमें उनकी कुलपरम्परा इस प्रकार लिखी है:- 'भोज-उदयादित्य-नरवा, यशोवर्मा, अजयवर्मा, विन्ध्यवर्मा (विजयवर्मा), सुभटवर्मा,
१-वंगाल एशियाटिक सुसाइटीका जनरल जिल्द ५ पृष्ट ३७८ ॥
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ९५) अर्जुनवर्मा । " अर्जुनवर्माके कोई पुत्र नहीं था । इसालय उसके पीछे अनयवर्माके भाई लक्ष्मीवर्माका पौत्र देवपाल (साहसमल्ल ) और देवपालके पीछे उसका पुत्र जैतुगिदेव (जयसिंह ) राजा हुआ । आशाधर जिस समय धारामें आये, उस समय विन्ध्यवर्माका राज्य था और वि० सं० १२९६ में जब उन्होंने सागारधर्मामतकी टीका वनाई, तव जैतुगिदेव राजा थे । अर्थात् वे अपने समयमें धाराके सिंहासनपर पांच राजाओंको देख चुके थे। केवल ६० वर्षके वीचमें पांच राजाओंका होना एक आश्चर्यकी वात है ! आशा. धरका विद्याभ्यास समाप्त होते होते उनके पाण्डित्यकी कीर्ति चारों
ओर फैलने लगी। उनकी विलक्षण प्रतिभाने विद्वानोंको चकित स्तंमित कर दिया। विन्ध्यवर्माके सान्धिवैग्रहिक मंत्री ( फारेन सेक्रेटरी) विल्हण नामके एक महाकवि थे। उन्होंने आशाधरकी विद्वत्तापर मोहित होकर एकवार निम्नलिखित श्लोक कहा था,"आशाधर वं मयि विद्धि सिद्धं निसर्गसौन्दर्य्यमजर्यमार्य। सरस्वतीपुत्रतया यदेतदर्थे परं वाच्यमयं प्रपञ्चः ॥
जिसका आशय यह है कि "हे आशाधर ! तथा हे आर्य ! तुम्हारे साथ मेरा स्वाभाविक सहोदरपना (भ्रातृत्व ) और श्रेष्ठ मित्रपना है । क्योंकि जिस तरह तुम सरस्वतीके (शारदाके) पुत्र हो उसी तरह मैं भी हूँ । एक उदरसे पैदा होनेवालोंमें मित्रता और भाईपना होता ही है।" इस श्लोकसे इस वातका भी पता लगता है
१-इत्युपश्लोकितो विद्वद्विल्हणेन कवीशिना।
श्रीविन्ध्यभूपतिमहासान्धिविग्रहकेण यः ॥ ७ ॥
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
(९६ ) कि आशाधर कोई सामान्य पुरुष नहीं थे। एक बड़े भारी राज्यके महामंत्रीकी जिनके साथ इतनी गाढ मित्रता थी, उनकी प्रतिष्ठा थोडी नहीं समझना चाहिये । उक्त विल्हण कविका उल्लेख मांडूके एक .खंडित शिलालेखमें है । उसे. छोड़कर न तो उनका बनाया हुआ कोई ग्रन्थ मिलता है और न आशाधरको छोड़कर उनका किसीने उल्लेख किया है। ऐसे राजमान्य प्रतिष्ठित कविकी जब यह दशा है तव पाठक सोच सकते हैं कि कालकी कुटिल गतिने हमारे देशके ऐसे कितने विद्वानोंकी कीर्तिका नाम शेष न कर दिया होगा ! - आशाधरकी प्रशस्तिमें विल्हण कवीशका नाम देखकर पहले हमने समझा था कि काश्मीरके प्रसिद्ध कवि विल्हण ही जिनकी उपाधि विद्यापति थी, आशाधरकी प्रशंसा करनेवाले हैं। परन्तु वह केवल एक भ्रमःथा । विद्यापति विल्हण और मालवा राज्यके मंत्री कवीश विल्हणके समयमें लगभग डेढ़ सौ वर्षका अन्तर है । विद्यापति विल्हण काश्मीरनरेश कलशके राज्यकालमें विक्रम संवत् ११२० के लगभग काश्मीरसे निकला था। जिस समय वह धारामें आया था, भोर्जदेवकी मृत्यु हो चुकी थी। इससे स्पष्ट है कि विध्यवर्माके मंत्री विल्हणसे विद्यापति विल्हण भिन्न पुरुष थे... .
विल्हणचरित नामका एक काव्य विल्हण कविका बनाया हुआ प्रसिद्ध है । परन्तु इतिहासज्ञोंका मत है कि उसका कर्ता विल्हण
"१-राजा भोजकी मृत्यु वि० सं० १११२के पूर्व हो चुकी थी और१११५ में उदयादित्यको राज्य मिल चुका था, ऐसा परमार राजाओंके लेखोंसे सिद्ध हो चुका है।
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ९७ ) नहीं है, किसी दूसरे कविने उसकी रचना की है और यदि विल्हणने की हो, तो वह विद्यापति बिल्हणसे मिन्न होना चाहिये । परन्तु भिन्न होकर भी वह विन्ध्यवर्माका मंत्री विल्हण नहीं हो सकता । क्योंकि उक्त काव्यमें जिस वैरिसिंह राजाकी कन्या शशिकलाके साथ विल्हणका प्रेमसम्बन्ध होना वर्णित है, वह विक्रमसंवत् ९०० के लगभग हुआ है । इससे आशाधरके समयके साथ उसका भी ठीक नहीं बैठ सकता है।
शाङ्घरपद्धति और सूक्तमुक्तावली आदि सुभाषित ग्रन्थों में बिल्हण कविके नामसे बहुतसे श्लोक ऐसे मिलते हैं, जो न तो विद्यापति बिल्हणके विक्रमांकदेवचरित तथा कर्णसुन्दरी नाटिकामें हैं और न विल्हणचरितमें हैं। क्या आश्चर्य है, जो उनके बनानेवाले आशाधरकी प्रशंसा करनेवाले बिल्हण ही हों।। __ आशाधरने अपनी प्रशंसा करनेवाले दो विद्वानोंके नाम और भी लिखे हैं, जिनमेंसे एकका नाम उदयसेन और दूसरेका नाम मदनकीर्ति है । ये दोनों ही दिगम्बर मुनि थे। क्योंकि इनके नामके साथ मुनि और यतिपति विशेषण लगे हुए हैं । देखिये, उदयसेन . क्या कहते हैं:
१. कर्णसुंदरीनाटिकाके मंगलाचरणमें जिनदेवको नमस्कार किया गया है । इसका कारण यह नहीं है कि विद्यापति विल्हण जैनी थे । किन्तु उक्त नाटिका अणहिलपाटनके राजा कके जैन मंत्री. सम्पत्करके वनवाये हुए आदिनाथ भगवान्के यात्रामहोत्सवपर खेलनेके लिये वनाई गई थी, इसलिये उसमें जिनदे
को नमस्कार करना ही उन्होंने उचित समझा होगा । पीछेसे अपने इष्टदेव शि'पार्वताको भी नमस्कार किया है। .
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ९८ ) .
व्याघ्रेरवालवरवंशसरोजहंसः काव्यामृतौघरसपानसुतृप्तगात्रः । सल्लक्षणस्य तनयो नयविश्वचक्षुराशाधरो विजयतां कलिकालिदासः ॥ ३ ॥
अर्थात् — जो बघेरवालोंके श्रेष्ठवंशरूपी सरोवरसे उत्पन्न हुआ हंस है, काव्यामृत के पानसे जिसका हृदय तृप्त है, जो सम्पूर्ण नयोंका जाननेवाला है और जो श्रीसलक्षणका पुत्र है, वह कलियु गका कालिदास आशाधर जयवन्त होवे ।
इसी प्रकारसे श्रीमदनकीर्तिमुनिने कहा था कि
इत्युदयसेनमुनिना कवि सुहृदा योऽभिनन्दितः प्रीत्या । प्रज्ञापुञ्जोसीति च योऽभिहितो मदनकीर्तिय तिपतिना ॥ ४ ॥ “ अर्थात् आप प्रज्ञाके पुंज हैं अर्थात् विद्याके भंडार हैं । "
इन दोनों विद्वानोंमेंसे हमको उदयसेनके विषयमें तो केवल इतना ही मालूम है कि वे कविके मित्र थे और मदनकीर्तिके विषयमें इससे अधिक और कुछ नहीं कहा जा सकता कि वे एक ' यतिपति' वा जैन मुनि थे । मदनोपाध्याय वा बालसरस्वति 'मदन' से कुछ नामसाम्य देखकर भ्रम होता है कि मदनकीर्ति और मदनोपाध्याय (राजगुरु ) एक होंगे । परन्तु इसके लिये कोई संतोषप्रद प्रमाण नहीं |
मालवाधीश महाराज अर्जुनदेव बड़े भारी विद्वान् और कवि थे
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
(९९)
अमरुशतककी उनकी वनाई हुई रससंजीविनी नामकी एक टीका काव्यमालामें प्रकाशित हुई है । इस टीकामें जगह जगहपर 'यदुक्तमुपाध्यायेन वालसरस्वत्यपरनान्ना मदनेन" इस प्रकार लिखकर मदनोपाध्यायके अनेक श्लोक उदाहरणस्वरूप उद्धृत किये हैं और भव्यकुमुदचन्द्रिका टीकाकी प्रशस्तिके नवम श्लोकके अन्तिमपदकी टीकामें पं० आशाधरने भी लिखा है, " आपुः प्राप्तः, के वालसरस्वतिमहाकविमदनादयः।" इससे स्पष्ट हो जाता है कि अमरुशतकमें जिनके श्लोक उदाहरणस्वरूप ग्रहण किये गए हैं, वे ही आशाधरके शिष्य महाकवि मदन हैं । इसके सिवाय प्राचीन लेखमालामें अर्जुनवर्मदेवका जो तीसरा दानपत्र प्रकाशित हुआ है, उसके अन्तमें " रचितमिदं राजगुरुणा मदनेन" इस प्रकार लिखा हुआ है। इससे इस विषयमें भी शंका नहीं रहती है कि आशाधरके शिष्य मदनोपाध्याय जिनका दूसरा नाम 'वालसरस्वती' . था, मालवाधीश महाराज अर्जुनदेवके गुरु थे। ___ अमरुशतककी टीकामें जो श्लोक उद्धृत किये गए हैं, उनसे मालूम पड़ता है कि महाकवि मदनोपाध्यायका बनाया हुआ कोई अलंकारका ग्रन्थ होगा जो अभीतक कहीं प्रसिद्ध नहीं है। हमारे एक विद्वान् मित्रने लिखा है कि वालसरस्वती मदनोपाध्यायकी बनाई हुई एक पारिजातमंजरी नामकी नाटिका है । परन्तु उसके देखनेका हमको अभीतक सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ।
मदनकीर्तिके सिवाय आशाधरके अनेक शिष्य थे । व्याकरण, । काव्य, न्याय, धर्मशास्त्र आदि विषयोंमें उनकी असाधारण गति थी।
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१००) इन सब विषयों में उन्होंने सैकड़ों शिष्योंको निष्णात कर दिया था। देखिये, वे क्या कहते हैं:- यो द्राग्व्याकरणाब्धिपारमनयच्छुश्शूपमाणान्नकान्
षट्तीपरमास्त्रमाप्य न यतः प्रत्यर्थिनः केऽक्षिपन् । · चेरुः केऽस्खलितं न ये न जिनवाग्दीपं पथि ग्राहिताः
पीत्वा काव्यसुधां यतश्च रसिकेप्वापुः प्रतिष्ठां न के ॥९॥ • भावार्थ-शुश्रूषा करनेवाले शिष्योंमेंसे ऐसे कौन हैं, जिन्हें आशाधरने व्याकरणरूपी समुद्रके पार शीघ्र ही न पहुंचा दिया हो तथा ऐसे कौन हैं, जिन्होंने आशाधरसे षट्दर्शनरूपी परम शस्त्रको लेकर अपने प्रतिवादियोंको न जीता हो तथा ऐसे कौन हैं, जो आशाधरसे निर्मल जिनवचनरूपी (धर्मशास्त्र ) दीपक ग्रहण करके मोक्षमार्गमें प्रवृत्त नहीं हुए हों, अर्थात् मुनि न हुए हों और ऐसे कौन शिष्य हैं, जिन्होंने आशाधरसे काव्यामृतका पान करके रसिक पुरुषोंमें प्रतिष्ठा नहीं पाई हो ।
इस श्लोककी टीकामें पंडितवर्यने प्रत्येक विषयके पार पहुंचे हुए अपने एक २ दो २ शिष्योंका नाम भी दे दिया है। पंडित देवचंद्रादिको उन्होंने व्याकरणज्ञ बनाया था, वादीन्द्र विशालकीर्ति आदिको षड्दर्शनन्यायका ज्ञाता बनाकर वादियोंपर विजय प्राप्त कराई थी, भट्टारक 'देवचन्द्र विनयचन्द्र आदिको धर्मशास्त्र पढ़ाकर मोक्षमार्गमें प्रवृत्त किया था और मदनोपाध्यायादिको काव्यके पंडित बनाकर अर्जुनवर्मदेव जैसे रसिक राजाओंकी प्रतिष्ठाका अधिकारी (राजगुरु ) बना दिया था। पाठक इससे जान सकते हैं कि आशाधरकी विद्वत्ता,
4
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १०१ )
पढ़ानेकी शक्ति और परोपकारशीलता कैसी थी। गृहस्थ होने पर भी बड़े २ मुनि उनके पास विद्याध्ययन करके अपनी विद्यातृष्णाको पूर्ण करते थे । उस समयके इतिहासकी यह एक विलक्षण घटना है, जो नीतिके इस वाक्यको स्मरण कराती है- " गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्गं न च वयः " अर्थात्, गुणवानोंमें उनके गुण ही पूजने के योग्य होते हैं, उनकी उमर अथवा वेप नहीं ।
1
विन्ध्यवर्माका और उनके पीछे उनके पुत्र सुभटवर्माका राज्यकाळ समाप्त हो चुकने पर आशाधरने धारानगरीको छोड़ दी और नलकच्छपुरको अपना निवासस्थान बनाया । नलकच्छपुरमें आ रहनेका कारण उन्होंने अपने प्यारे धर्मकी उन्नति करना बतलाया है, - श्रीमदर्जुनभूपालराज्ये श्रावकसंकुले |
जिनधर्मोदयार्थ यो नलकच्छपुरेऽवसत् ॥ ८ ॥ इससे यह भी अनुमान होता है कि वे धारासे अकेले आये होंगे । गृहस्थाश्रमसे उन्होंने एक प्रकार से सम्बन्ध छोड़ दिया होगा ।
- नलकच्छपुरको इस समय नालछा कहते हैं । यह स्थान धारसे १० कोसकी दूरीपर है । सुना है, इस समय वहांपुर जैनियोंके थोडेसे घर और जैनमंदिर हैं । परन्तु आशाधरके समय वहांपर जैनियोंकी बहुत बड़ी बस्ती थी । जैनधर्मका जोर शोर भी, वहा बहुत होगा । ऐसा हुए विना आशाधर सरीखे विद्वान् धारा जैसी महानगरीको छोड़कर वहां रहनेको नहीं जाते । अवश्य ही वहांपर जैनधर्मकी उन्नति करनेके लिये धारासे अधिक साधन एकत्र होंगे।
1
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१०२)
जिस समय पंडितवर्य आशाधर नालछा को गये, उस समय मालवामें महाराज अर्जुनवर्मदेवका राज्य था । अर्जुनवर्मदेवके अभीतक तीन दानपत्र प्राप्त हुए हैं, जिनमेंसे एक विक्रमसंवत् १२६७ का है, जो पिप्पलिया नगरमें है और मंडपदुर्गमें दिया गया था । दूसरा वि० सं० १२७० का भोपाल में है और भृगुकच्छ (भरोंच ) में दिया गया था और तीसरा १२७२ का है, जो अमरेश्वर तीर्थमें दिया गया था और भोपालमें है । इसके पश्चात् अर्जुनदेवके पुत्र देवपालदेव के राजत्वकालका एक शिलालेख हरसोदामें मिला है, जो वि० सं० १२७५ का लिखा हुआ है । इससे मालूम पड़ता है कि १२७२ और १२७५ के बीचमें किसी समय अर्जुनदेवके राज्यका अन्त हुआ था और १२६७ के पहले उनके राज्यका प्रारंभ हुआ था । कत्र प्रारंभ हुआ था, इसका निश्चय करनेके लिये विन्ध्यवर्मा और सुभटवर्मा इन दो राजाओंके राज्यकालके लेख मिलना चाहिये, जो अभीतक हमको प्राप्त नहीं हुए हैं । तो भी ऐसा अनुमान होता है कि १२६७ के अधिकसे अधिक २-३ वर्ष पहले अर्जुनवर्माको राज्य मिला होगा । क्योंकि संवत् १२५० में जब आशाधर धारामें आये थे, तब विन्ध्यवर्माका राज्य था और जब वे विद्वान् हो गये थे, तब भी विन्ध्यवर्माका राज्य था । क्योंकि मंत्री बिल्हणने आशांघरकी विद्वत्ताकी प्रशंसा की थी । यदि आशाधरके विद्याभ्यास ं कालके केवल ७-८ वर्ष गिने जावें, तो
1
''१'–अमेरिकन् ओरियंटल सुसाइटीका जनरल भाग ७, पृष्ठ ३२ । २ - अ० ओ० सु० का जनरल भाग ७, पृष्ठ २५ ।
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१०३) विन्ध्यवर्माका राज्य वि० सं० १२५७-५८ तक समझना चाहिये। विन्ध्यवर्माके पश्चात् सुभटवर्माके राज्यके कमसे कम ७ वर्ष माने जावें, तो अर्जुनदेवके राज्यारंभका समय वि० सं० १२६५ गिनना चाहिये । इसी १२६५ के लगभग आशाधर नाल्छेमें आये होंगे। __ पंडितप्रवर आशाधरकी मृत्यु कब हुई इसके जाननेका कोई उपाय नहीं है। उनके बनाये हुए जो २ ग्रन्थ प्राप्य हैं, उनमें से अनगारधर्मामृतकी भन्यकुमुदचन्द्रिका टीका कार्तिक सुदी ५ सोमवार सं०. १३०० को पूर्ण हुई है । इसके पीछेका उनका कोई भी ग्रन्थ नहीं मिलता है । इस ग्रन्थके बनानेके समय हमारे ख़यालसे पंडितराजकी. आयु ६५-७० वर्षके लगभग होगी। क्योंकि उनका जन्म वि० सं० १२३०-३५ के लगभग सिद्ध किया जा चुका है। इस ग्रन्थकी प्रशस्तिसे यह भी मालूम होता है कि वे उस समय नालछेमें ही थे।
और शायद सं० १२६५ के पश्चात् उन्होंने कभी नालछा छोड़ा भी नहीं। क्योंकि उनके १२६५ और १३०० के मध्यके जो दो ग्रन्थ मिलते हैं, वे भी नालछेके बने हुए हैं। एक वि० सं० १२८५ का
और दूसरा १२९६ का । नालछमें कविवर जैनधर्मका उद्योत करनेके लिये आये थे, फिर क्या प्रतिज्ञा पूरी किये बिना ही चले जाते ? अंत समय तक वे नालछेमें ही रहे और वहीं उन्होंने अपने अपूर्व ग्रन्थोंकी रचना करके जैनधर्मका मस्तक ऊंचा किया । . वर्तमानमें पं०आशाधरके मुख्य तीन ग्रन्थ सुलभ हैं और प्रायः प्रत्येक भंडारमें मिल सकते हैं। एक जिनयज्ञकल्प, दूसरा सागारधर्मा
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १०४ )
मृत और तीसरा अनगारधर्मामृत । इन तीनों ही ग्रन्थोंमें वे अपनी विस्तृत प्रशस्ति लिखके रख गये हैं । वि० संवत् १३०० तक उन्होंने जितने ग्रन्थोंकी रचना की है, उन सबके नाम उक्त तीनों प्रशस्तियोंमें लिखे हुए हैं। हम उन्हें यहां क्रम से प्रकाशित करते हैं:
स्याद्वादविद्याविशदप्रसादः प्रमेयरत्नाकरनामधेयः ॥ तर्कप्रवन्ध निरवद्यपद्यपीयूषपूरो वहतिस्म यस्मात् ।। १.० ॥ सिद्ध्यङ्कं भरतेश्वराभ्युदयसत्काव्यं निवन्धोज्ज्वलम् यविद्यकवीन्द्रमोदनसहं स्वश्रेयसेऽरीरचत् । योऽर्हृद्वाक्यरसं निवन्धरुचिरं शास्त्रं च धर्मामृतम् निर्माय व्यदधान्मुमुक्षुविदुपामानन्दसान्द्रं हृदि ॥ ११ ॥ आयुर्वेदविदामिष्टां व्यक्तुं वाग्भटसंहिताम् । . अष्टाङ्गहृदयोद्योतं निवन्धमसृजच्च यः ॥ १२ ॥ यो मूलाराधनेष्टोपदेशादिषु निबन्धनम् । विधत्तामरकोशे च क्रियाकलापमुज्जगौं' ॥ १३ ॥ ( जिनयज्ञकल्प. ) भावार्थ – स्याद्वादविद्याका निर्मल प्रसादस्वरूप प्रमेयरत्नाकर नामका न्यायग्रन्थ जो सुन्दर पद्यरूपी अमृतसे भरा हुआ है, आशाधरके हृदयसरोवरसे प्रवाहित हुआ । भरतेश्वराभ्युदय नामका
१–ये १३ श्लोक तीनों प्रशस्तियोंमें एकसे हैं । अनगारधर्मामृतकी टीकामें . बारहवाँ श्लोक १९ वें नम्बरपर है और तेरहवां चौदहवें नम्बर पर है । उनके स्थानपर जो दूसरे श्लोक हैं, वे आगे लिखे गये हैं । २-३. ये दोनों प्रन्थ सोनागिरके भट्टारकके भण्डार में हैं ।
*
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१०५)
उत्तम काव्य अपने कल्याणके लिये बनाया, जिसके प्रत्येक सर्गके अंतमें 'सिद्ध ' शब्द रक्खा गया है, जो तीनों विद्याओंके जाननेचाले कवीन्द्रोंको आनन्दका देनेवाला है और स्वोपज़टीकासे प्रकाशित है। धर्मामृतशाख जो कि जिनेन्द्र भगवानकी वाणीरूपीरससे युक्त है और टीकासे सुन्दर है, वनाकर मोक्षकी इच्छा करनेवाले विद्वानोंके हृदयमें अतिशय आनन्द उत्पन्न किया। आयुर्वेदके विद्वानोंकी प्यारी वाग्भट्टसंहिताकी अष्टांगहृदयोद्योतिनी नामकी टीका वनाई, मूल आराधना और मूल इंटोपदेश (पूज्यपादकृत ) आदिको टीकाएँ वनाई और अमरकोषपर क्रियाकलाप नामकी टीका बनाई। इसमें जो आदि शब्द दिया है, उससे आराधनासार, भूपालचतुर्विंशतिका आदिकी टीकाएँ समझनी चाहिये । अर्थात् इन -ग्रन्थोंकी टीकाएँ भी पंडितवर्यने वनाई। .
ये सब ग्रन्थ विक्रमसंवत् १२८५ के पहलेके बने हुए हैं। जिनयज्ञकल्पकी प्रशस्तिमें इतने ही ग्रन्थोंका उल्लेख है । इनके पश्चात् सं० १२९६ तक अर्थात् सागारधर्मामृतको टीका बनानेके समय तक निम्नलिखित ग्रन्थोंकी रचना और भी हुई:
रौद्रटस्य व्यधात् काव्यालङ्कारस्य निवन्धनम् सहस्रनामस्तवनं सनिवन्धं च योऽर्हताम् ॥१४॥ सनिवन्धं यश्च जिनयज्ञकल्पमरीरचत् ।
त्रिषष्टिस्मृतिशाखं यो निवन्धालङ्कृतं व्यधात् ॥ १५॥ . १. इससे जान पड़ता है कि आशाधर वैद्यविद्याके भी बड़े भारी पंडित थे ।
२. पूज्यपादका मूल इष्टोपदेश. वम्बईके मन्दिरमें है। इसकी भाषाटीका भी किसी जयपुरी पंडितकी वनाई हुई है।
-
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१०६) योऽहन्महाभिषेका विधि मोहतमोरविम् । चके नित्यमहोद्योतं स्नानशास्त्रं जिनेशिनाम् ॥ १६ ॥
(सागारधामृत टीका) भावार्थ-रुद्रट कविके कार्यालंकार ग्रन्थकी टीका वनाई, अरहंत देवका सहस्रनाम टीकासहित वनाया, जिनयज्ञकल्प सटीक बनाया, त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र ( संक्षिप्त ) टीकायुक्त बनाया और नित्यमहोद्योत नामक अभिषेकका ग्रन्थ बनाया, जो भगवान्की अभिषेकपूजाविधि सम्बन्धी अंधकारको नाश करनेके लिये सूर्यके समान है। . वि० संवत् १२९६ के पीछे बने हुए ग्रन्थोंके नाम अनगारधर्मामृतकी टीकामें इस प्रकार मिलते हैं:
राजीमतीविप्रलम्भं नाम नेमीश्वरानुगम् । व्यधात्त खण्डकाव्यं यः स्वयंकृतनिवन्धनम् ॥ १२॥ आदेशापितुरध्यात्मरहस्यं नाम यो व्यधात् । शास्त्रं प्रसन्नगम्भीरं प्रियमारब्धयोगिनाम् ॥ १३ ॥ रत्नत्रयविधानस्य पूजामाहात्म्यवर्णकम् । रत्नत्रयविधानाख्यं शास्त्र वितनुतेस्म यः॥१८॥
(अनगारधर्मामृत टीका ) १., यह भी सोनागिरके भंडारमें है। २. आशाधरकृत मूल सहस्रनाम प्राय: सब जगह मिलता है। बुन्देलखंडमें प्रायः इसी सहस्रनामका प्रचार है। ३.नित्यमहोद्योत बम्बईके भंडारमें है।
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१०७)
भावार्थ-राजामती विमलंभ नामका खंडकाव्यस्वोपज्ञ टीकासहित बनाया, पिताकी आज्ञासे अध्यात्मरहस्य नामका अन्य बनाया, जो शीघ्र ही समझनेमें आने योग्य, गंभीर और प्रारंमके योगियोंका प्यारा है और रत्नत्रय विधानक पूजा तया माहात्म्यका वर्णन करनेवाला रत्नत्रयविधान नामका अन्य वनाया । ___ संवत् १३०० के पश्चात् यदि पंडितवर्य दश ही वर्ष जीवित रहे होंगे, तो अवश्य ही उनके वनाये हुए और भी बहुतसे अन्य होंगे । ग्रन्यरचना करना ही उन्होंने अपने जीवनका मुख्य कर्तव्य समझा था।
आशाधरके बनाये हुए ग्रंथ बहुत ही अपूर्व हैं।उन सरीखे ग्रन्थकर्ता • बहुत कम हुए हैं । उनका बनाया हुआ सागारधर्मा'मृत ग्रन्य बहुत ही अच्छा है। जिसने एकवार भी इस ग्रन्यका स्वाध्याय किया है, वह इसपर मुग्ध हो गया है । अनगारधर्मामृत और निनयज्ञकल्प ग्रन्थ भी ऐसे ही अपूर्व हैं। हम एक पृथक् लेखमें आशाधरके अन्योंकी आलोचना करनेका प्रयत्न कर रहे हैं। __ अध्यात्मरहम्य कविवरने अपने पिताकी आज्ञासे बनाया । इससे मालूम पड़ता है कि उनके पिता सं० १२९६ के पीछे भी कुछ काल तक जीवित थे। क्योंकि इस ग्रन्थका पहले दो ग्रन्थोंकी प्रशस्तिमें उल्लेख नहीं है; अनगारधर्मामृतकी टीकामें ही उल्लेख
है और उसमें जो अधिक ग्रन्य बतलाये गये हैं, वे १२९६ के ' पीछेके हैं।
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१०८) महाराज अर्जुनदेवके वि० सर्वत् १२७२ के दानपत्रके अन्तमें लिखा हुआ है:-" रचितमिदं महासान्धि० राजा सलखणसंमतेन राजगुरुणा मदनेन " इससे ऐसा मालूम होता है कि पं० आशाधरके पिता सलखण ( सलक्षण ) महाराजा अर्जुनदेवके सन्धिविग्रह सम्बन्धी मंत्री थे । यद्यपि आशाधरके पिता महाजन थे और दानपत्रमें सम्मति देनेवाले सलखणके साथ 'राजा' पद लगा हुआ है, इससे अन्य किसी सलखण नामक राजाकी भी संभावना भी हो सकती है, परन्तु आशाधरके पिताका संधिविग्रहको मंत्रियोंका राजा होना कुछ आश्चर्यकी बात भी नहीं है। क्योंकि उस समय प्रायः महाजन लोग ही राज्यमंत्री होते थे।
अब हम यहांपर तीनों ग्रंथोंकी प्रशस्तियोंके वाकी श्लोक जो ऊपर कहीं नहीं लिखे गये हैं, भावार्थसहित उद्धृत करते हैं:पाच्यानि संवर्ण्य जिनप्रतिष्ठाशास्त्राणि दृष्ट्वा व्यवहारमैन्द्रम् । आम्नायविच्छेदतमश्छिदोऽयं ग्रन्थाकृतस्तेन युगानुरूपम् १४ खण्डिल्यान्वयभूषणाल्हणसुतः सागारधर्मे रतो वास्तव्यो नलकच्छचारुनगरे कर्ता परोपक्रियाम् ।।
सर्वज्ञार्चनपात्रदानसंमयोद्योतप्रतिष्ठाग्रणी .. पापासाधुरकारयत्पुनरिमं कृत्वोपरोधं मुहुः ॥ १५॥
विक्रमवर्षसपश्चाशीतिद्वादशशतेष्वतीतेषु । .. .आश्विनसितान्त्यदिवसे साहसमल्लापराख्यस्य-॥ १६॥ . .: श्रीदेवपालनृपतेः प्रमारकुलशेखरस्य सौराज्ये । :: नलकुच्छपुरे सिद्धो ग्रन्थोऽयं नेमिनाथचैत्यगृहे ॥ १७॥'
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१०९) अनेकाहलतिष्ठान्तप्रतिष्ठैः केल्हणादिभिः । सद्यः सूक्तानुरागेण पठित्वाऽयं प्रचारितः ॥१८॥ अलमातप्रसङ्गेनयावत्रिलोक्यां जिनमन्दिरार्चाः तिष्ठन्ति शक्रादिभिरर्यमानाः । तावज्जिनादिप्रतिमाप्रतिष्ठा शिवार्थिनोऽनेन विधापयन्तु ॥१९॥ नन्याखाण्डिल्यवंशोत्थः केल्हणो न्यासवित्तरः । लिखितं येन पाठार्थमस्य प्रथमपुस्तकम् ॥ २० ॥
इत्याशाधर विरचितो निनयज्ञकल्पः। भावार्थ-प्राचीन प्रतिष्ठापाठोंको वर्जित करके और इंद्रसम्बन्धी व्यवहारको देखकर यह वर्तमान युगके अनुकूल ग्रंथ बनाया, जो कि आम्नायविच्छेदरूपी अंधकारको नाश करनेवाला है। खंडेलवाल वंशके भूषणरूप अल्हणके पुत्र, श्रावकधर्ममें लवलीन रहनेवाले, नलकच्छपुरनिवासी, परोपकारी, देवपूजा, पात्रदान तथा निनशासनका उद्योत करनेवाले और प्रतिष्ठाग्रणी पापासाधुने वारंवार अनुरोध करके यह ग्रंथ बनवाया । आसोज सुदी १५ वि० सं० १२८५ के दिन परमारकुलके मुकुट देवपाल उर्फ साहसमल्ल राजाके राज्यमें नलकच्छपुर नगरके नेमिनाथ चैत्यालयमें यह ग्रंथ समाप्त हुआ। अनेक जिनप्रतिष्ठाओमें प्रतिष्ठा पाये हुए केल्हण आदि विद्वानोंने नवीन सूक्तियोंके अनुरागसे इस ग्रन्थका प्रचार किया। जबतक तीन लोकमें जिनमंदिरोंकी पूजा इंद्रादिकोंके द्वारा होती है, तब तक कल्याणकी इच्छा करनेवाले इस अन्यसे निनप्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा करावें । खंडेलवालवंशमें उत्पन्न
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
(११०) हुए और न्यासग्रंथको अच्छी तरहसे जाननेवाले केल्हणने पाठ करनेके लिये जिनयज्ञकल्पकी पहली पुस्तक लिखी ।
सोऽहं आशाधरो रम्यामेतां टीका व्यरीरचम् । धर्मामृतोक्तसागारधर्माष्टाध्यायगोचराम् ॥ १७ ॥ प्रमारवंशवार्थीन्दु-देवसेननृपात्मजे ।। श्रीमज्जैतुगिदेवसि स्थाम्नावन्तीमवत्यलम् ॥ १८ ॥ नलकच्छपुरे श्रीमन्नेमिचैत्यालयेऽसिधत् । टीकेऽयं भव्यकुमुदचन्द्रिकेत्युदिता बुधैः ।। १९ ॥ घण्णवद्धयेकसंख्यानविक्रमाङ्कसमात्यये । सप्तम्यामसिते पौपि सिद्धेयं नन्दताचिरम् ॥ २० ॥ श्रीमान्श्रेष्ठिसमुद्धरस्य तनयः श्रीपौरपाटान्वयव्योमेन्दुः सुकृतेन नन्दतु महीचन्द्रोदयाभ्यर्थनात् ।
चक्रे श्रावकधर्मदीपकमिमं ग्रंन्थं वुधाशाधरोग्रंथस्यास्य च लेखितो मलभिदे येनादिर्भ पुस्तकम् ॥२१॥ अलमितिप्रसंगेन
यावत्तिष्ठति शासनं जिनपतेश्छेदानमन्तस्तमोयावच्चार्कनिशाकरौ प्रकुरुतः पुंसां दृशामुत्सवम् । तावत्तिष्ठतु धर्मसूरिभिारियं व्याख्यायमानानिशं
भव्यानां पुरुतोत्र देशविरताचारमवोधोद्धरा ॥ २२ ॥ - इत्याशाधरविरचिता स्वोपज्ञधर्मामृतसागारटीका भन्यकुमुदचन्द्रिका.नानी समाप्ता।
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
भावार्थ-मैंने (आशाधरने ) सागारधर्मामृतकी यह सुन्दर टीका वनाई जिसके आठ अध्याय हैं । जव परमारवंशशिरोमाण देवसेन राजाके पुत्र श्रीमान् जैतुगिदेव अपने खड्गके वलसे मालवाका शासन करते थे, तब नलकच्छपुरके नेमिनाथ चैत्यालयमें यह भन्यकुमुदचन्द्रिका टीका पौषवदी ७ सं० १२९६ को पूर्ण हुई। यह श्रावक धर्मदीपक ग्रन्थ पंडित आशाधरने बनाया और पोरवाड़वंशरूपी आकाशके चन्द्रमा श्रीमान् समुद्धरश्रेष्ठीके पुत्रने महीचन्द्रकी प्रार्थनासे . इसकी पहिली पुस्तक लिखी । उस श्रेष्ठीपुत्रके पुण्यकी बढ़वारी हो । अन्तरंगके अंधकारको नष्ट करनेवाला जिनेन्द्रदेवका शासन जब तक रहे और जबतक चन्द्रसूर्य लोगोंके नेत्रोंको आनन्दित करते रहें, तब तक यह श्रावकधर्मका ज्ञान करानेवारी टीका भव्य जनोंके आगे धर्माचार्योके द्वारा निरन्तर पढ़ी जावे ।
सोऽहमाशाधरोऽकार्ष टीकामेतां मुनिप्रियाम् । स्वोपज्ञधर्मामृतोक्तयतिधर्मप्रकाशिनीम् ॥ २०॥ शब्दे चार्थे च यत्किञ्चिदत्रास्ति स्खलितं मम । छमस्थभावात्संशोध्य सूरयस्तत्पठन्त्विमाम् ॥ नलकच्छपुरे पौरपौरस्त्यः परमार्हतः ।। जिनयज्ञगुणौचित्यकृपादानपरायणः ॥२२॥ खंडिल्यान्वयकल्याणमाणिक्यं विनयादिमान् । साधुः पापाभिधः श्रीमानसीत्पापपराङ्मुखः ॥ २३ ॥ तत्पुत्रो बहुदेवोऽ भूदायः पितृभरक्षमः । द्वितीयः पद्मसिंहश्च पदालिंगितविग्रहः ॥ २४ ॥
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ११२ )
बहुदेशभनाथासन्दरदेवः कुरवः । तन्मयः ॥ २५ ॥
मृग्यद्विमार्यमन्द्रेण साधुना । वर्माम॒नस्य सगारवमेव्रीति करिता ॥ २६ ॥ वस्येव यनियमस्य सीयधियामपि । सर्वोचन्य टीकार्य प्रसादः क्रियतामिति ॥ २७ ॥ हरदेवेन विज्ञो वनच
पन्डिताशावर
टीका मामिनाम् ॥ २८
विद्वद्भिर्भाव्यहुवृचन्द्रिकेत्याख्ययोदिता ।
विष्ठाप्यात्मेषान्तां चिन्त्यमानाभिः ॥ २९॥ प्रमारकुंठवार्थीन्दुदेवपालनृपात्मजे ।
श्रीमज्जगदेवेति स्याम्नावतीमवत्यम् ॥ ३०॥ नकच्छपुर श्रीमनेमिचैन्यायेसियन विक्रमाच्या त्रयोदश कार्तिके ॥ ३१ ॥ अनुष्टुवूछन्दसामस्याः नमाः । सहस्रवोऽद्यभिर्वविज्ञेयस्तुभाननः ॥ ३२ ॥
चत्रमतिप्रतीत——
शान्तिः समः संगच्छतां धार्मिकः श्रेयः श्रीः परिवर्धन नपराधुर्योधरित्रीपतिः ॥ सद्द्यार॒समृद्भिरन्तु कत्रयो नामाप्ययस्यास्तु मा प्राय वा क्रियं एत्र विजयवर्द्दनम् ॥ ३३ ॥ રૂાાવ વારસાનાના धनमृतयदिघमंडीका समाता ॥
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
(११३) भावार्थ-मुझ आशाधरने यह अनगारधर्मामृतकी मुनियोंको प्यारी लगनेवाली और यतिधर्मका प्रकाश करनेवाली स्वोपनटीका वनाई । यदि इसमें कहींपर कुछ शब्द अर्थमें भूल हुई हो तो उसे मुनिजन पंडितजन संशोधन करके पढ़ें; क्योंकि मैं छद्मस्य हूं। नलकच्छपुरमें ( नालछेमें ) पापानामके एक सज्जन . जैनी हैं, जो कि खंडेलवालवंशके हैं, नगरके अगुए हैं, जिनपूजा कृपादानादि करनेमें तत्पर हैं, विनयवान् हैं, पापसे पराङ्मुख हैं और श्रीमान् हैं। उनके दो पुत्र हैं एक बहुदेव और दूसरे पद्मसिंह । वहुदेवके तीन पुत्र हैं-हरदेव, उदय और स्तंभदेव (द)। ___ धर्मामृत ग्रन्थके सागारभागकी टीका महीचन्द्र नामके साधुने वालबुद्धि जनोंके समझानेके लिये बनवाई और उसी धर्मामृतके अनगारमागकी टीका वनानेके लिये हरदेवने प्रार्थना की और धनचन्द्रने आग्रह किया । अतएव इन दोनोंकी प्रार्थना और आग्रहसे पण्डित आशाधरने यह टीका जिसका कि नाम भन्यकुमुदचन्द्रिका है कुशाग्रबुद्धिवालोंके लिये वनाई । यह मोक्षाभिलाषी जीवोंके द्वारा पठन-पाठनमें आती हुई कल्पान्त कालतक ठहरे।
परमार वंशीय महाराज देवपालके पुत्र जैतुगिदेव जिस समय अवन्ती (उज्जैनमें ) राज्य करते थे, उस समय यह टीका नल{ कच्छपुरके नेमिनाथ भगवान्के चैत्यालयमें वि० संवत् १३०० के
कार्तिक मासमें पूर्ण हुई। इसमें लगभग बारह हजार श्लोक “( अनुष्टप् ) हैं।
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
(११४)
पं० आशाधरके विषयमें जितना परिचय मिल सका, वह हमने पाटकोंके आगे निवेदन कर दिया । इससे अधिक परिचय पानेके लिये आशाधरके दूसरे ग्रन्योंकी खोज करना चाहिये । मालवामें प्रयत्न किया जावे, तो हमको आशा होती है कि, उनके बहुतसे ग्रन्य मिल जावंगे । इस विषयमें हमने नाल्छाके एक सज्जनको लिखा था, जो कि जैनहितैपीके ग्राहक हैं । परन्तु उन्होंने हमको कुछ उत्तर भी नहीं दिया! .
इस लेखके लिखनेमें हमको सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ पं० गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझासे बहुत कुछ सहायता मिली है, इस लिये हम उनका हृदयसे आभार मानते हैं।
Ca
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
(११५)
श्रीअमितगतिसूरि। कविकुल-कमल-दिवाकर महाराजाधिराज भोजके समयमें संस्कृत 'विद्याकी जैसी उन्नति हुई थी, उसके पीछे आजतक वैसी उन्नति नहीं हुई । संस्कृतसाहित्यके नामी २ कवि और ग्रन्थकार उसी समयमें हुए हैं । भोजदेवके चाचा महाराजाधिराज मुंज भी कवि और विद्वानोंकी कदर करनेवाले थे । यद्यपि भोजके समान इस विषयमें उनकी विशेष ख्याति नहीं है तो भी वे सरस्वतीके आलम्बन समझे जाते थे । संस्कृतकी मुरझाई हुई लताको उन्होंने चैतन्य किया था और फिर महाराज भोजने उसका भलीभांति रक्षण पोषण किया था। महाराज मुंजकी मृत्युके पश्चात् कहा गया था, - - लक्ष्मीर्यास्यति गोविन्दे वीरश्री:रवेश्मानि । • गते मुझे यशःपुञ्जे निरालम्वा सरस्वती ।
अर्थात् " यशपुंज महाराज मुंजकी मृत्युके पश्चात् लक्ष्मी तो गोविन्दके चली जायगी और वीरलक्ष्मी वीरोंके महलोंमें चली जावेगी; परंतु बेचारी सरस्वतीका कोई नहीं है । वह निराश्रिता हो जावेगी !" इस उक्तिके पढ़नेसे मुंजकी गुणग्राहकताके विषयों कोई सन्देह नहीं रहता है। .
१. मुंजके वाक्पतिराज और अमोघवर्ष ये दो नाम भी प्रसिद्ध हैं। प्रश्नोत्तररलमालिकाके कर्ता तथा भगवज्जिनसेनके शिष्य महाराजा अमोचवर्ष इनसे भिन्न हैं । वे रष्ट्रकूट वंशके राजा थे। उनका राज्यकाल शक संवत् .७३७ से ८०० तक माना जाता है।
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ११६ )
जिस प्रकार महाराज विक्रमादित्यको सभामें कालिदास, अमरसिंह आदि नव रत्न थे, सुनते हैं, उसी प्रकार मुंजकी समानें मी अनेक कविरत्न थे । तिलकमंजरीके कर्ता धनपाल, दशरूपकके कर्त्ता घनिक, पिंगलसूत्रवृत्तिके प्रणेता हलायुध, नवसाहसाङ्कचरित कर्ता पद्मगुप्त कवि और हमारे इस लेखके नायक महात्मा अमितगति इन्हीं महाराजके राज्यकालमें हुए हैं । पुण्यात्मा राजाके राज्यमें ही ऐसे विद्वान् अवतार लेते हैं ।
महाराज मुंजका एक दानपत्र विक्रम संवत् १०३६ का प्राप्त हुआ है, जिसपर उनके हाथकी सही है और जिसे उनके प्रधान मंत्री रुद्रादित्यने लिखा था । और विक्रम संवत् १०७८ में तैलंग देशके राजा तैलिपदेवके द्वारा उनकी मृत्यु हुई थी । तथा उनकी मृत्युके पश्चात् भोजमहाराजका राज्याभिषेक हुआ था । यथाः
विक्रमाद्वासरादष्टमुनिव्योमेन्दु ( १०७८ ) संमिते । वर्षे मुखपदे भोजभूपः पट्टे निवेशितः ।
मुंजका राज्याभिषेक का हुआ था, इसका ठीक २ पता नहीं लगता है परन्तु संवत् १०३६ के कुछ वर्ष पहलेसे १०७८ तक वे मालवदेशके राजा रहे हैं, इसमें कुछ सन्देह नहीं हैं । महात्मा
१. श्रीमतुंगाचार्यने प्रवन्धचिन्तामणिमें मुंजको विस्तृत क्या लिखी है । समयानुसार उसे प्रकाश करनेका विचार है । उच व्याा पूर्व भाग विनोदी .. बालकृत भक्तामरचरित्रने भी लिखा है ।
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
(११७) अमितगति भी उक्त समयमें वर्तमान थे। वर्तमानमें उनके जो तीन ग्रन्थ मिलते हैं, उनमेंसे धर्मपरीक्षा विक्रम संवत् १०७० में रची गई थी और दूसरा सुभाषितरत्नसंदोह १०५० में बनाया गया था । यथाः
समारूढे पूतत्रिदशवसतिं विक्रमनृपे सहस्रे वर्षाणां प्रभवति हि पञ्चाशदधिके । . समाप्तं पञ्चम्यामवति धरिणी मुञ्जनृपतौ सिते पक्षे पौषे वुधहितमिदं शास्त्रमनघम् ।।
(सुभापित ) संवत्सराणां विगते सहस्रे ससप्ततो विक्रमपार्थिवस्य । . इदं निपिध्यान्यमतं समाप्तं जिनेन्द्रधामितयुक्तिशास्त्रम् ॥
- (धर्मपरीक्षा) संवत् १०५० और १०७० के पहले और पीछेका हमको यद्यपि कुछ वृत्तान्त मालूम नहीं है और न वर्तमानमें उसके जाननेका कोई साधन है, परन्तु अनुमानसे यह कहनेमें कुछ हानि नहीं है कि, विक्रमसंवत्. १०२५ के कुछ पहले श्रीअमितगतिसूरिका जन्म हुआ होगा । क्योंकि सुभाषितरत्नसंदोह जिस समय उन्होंने बनाया है, उस समय उनकी गणना श्रेष्ठ आचरणके धारण करनेवाले मुनियोंमें हो चुकी थी। उन्होंने स्वयं भी सुभाषितके अन्तमें अपने लिये शमदमयममूर्तिः चन्द्रशुभ्रोरुकीतिः आदि विशेषण
१. पौप सुदी ५ विक्रम संवत् १०५० में मुंजराजकी पृथ्वीपर इस पवित्र शास्त्रंकी रचना समाप्त की । २. विक्रमराजाके १०७० संवत्में यह जिनधर्मकी अमित युक्तियोंवाला और अन्य मतोंका निषेध करनेवाला ग्रन्थ समाप्त हुआ।
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ११८ )
दिये हैं । अर्थात् उस समय उनकी अवस्था खूब प्रौढ़ होगी और दीक्षा लिये हुए बहुत कम हुए होंगे; तो चार छह वर्ष ज़रूर हो चुके होंगे । इसके सिवाय यह भी अनुमान होता है कि उन्होंने बालकपनमें ही दीक्षा नहीं ले ली होगी, किन्तु कुछ काल गृहस्थाश्रमका अनुभव करके और फिर उससे विरक्ति लाभ करके ली होगी । धर्मपरीक्षाकी रचनामें उन्होंने जिस प्रकारकी व्यवहारकुश - लता दिखलाई है, और सांसारिक घटनाओंके जैसे उत्तम चित्र खींचे हैं, उन्हें ध्यानस्थ करनेसे यह अच्छी तरहसे विश्वास हो जाता है कि, उन्होंने पहले संसारका भली भांति अनुभव कर लिया होगा । इस तरहसे सुभाषितकी रचनाके समय उनकी अवस्था बहुत कम होगी, तो २५ - ३० वर्षकी होगी अर्थात् उनका जन्म विक्रमसंवत् १०२५ के लगभग हुआ होगा । महाराज मुंज उस समय या तो राज्यारूढ़ होगे, अथवा युवराज होगे । धर्मपरीक्षा वना चुकनेके पश्चात्, आचार्य महाराजने संसारका और कब तक हितसाधन किया, यह उनके अन्यग्रन्थोंसे अथवा उनकी शिप्यपरं - पराके ग्रन्थोंसे जाना जा सकता है । परन्तु खेद है कि, इस समय हमारे पास उक्त दोनों ही साधन नहीं है । धर्मपरीक्षा और सुभाषितके सिवाय श्रावकाचार नामका एक ग्रन्थ और भी प्राप्त है, परन्तु उसमें समयका उल्लेख बिलकुल नहीं है । नहीं कह सकते हैं कि, वह उक्त दों ग्रन्थोंसे पहलेका बना हुआ है, अथवा पीछेका । . 'शेठ हीराचंदजीने रत्नकरंड श्रावकाचारको भूमिकामें उसके बननेका समय वि० संवत् १०९० लिखा है; परन्तु वह अनमानसे
1
4
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ११९ )
लिखा हुआ जान पड़ता है । उसे ग्रन्थ बननेका समय नहीं, किन्तु आचार्यके विद्यमान होनेकां समय समझना चाहिये । शेठजीका भी शायद उसके लिखने में यही अभिप्राय होगा ।
1
आचार्यवर्य अमितगति बड़े भारी विद्वान् और कवि थे । उनकी 'असाधारण विद्वत्ताका परिचय पानेके लिये उनके ग्रन्थोंका भलीभांति सऩन करना चाहिये । उनकी रचना सरल और सुखसाध्य होनेपर भी बड़ी गंभीर और मधुर है । संस्कृत भाषापर उनका अच्छा अधिकार था । उन्होंने अपने धर्मपरीक्षा नामके ग्रन्थको जिरो वांचकर लोग मुग्ध हो जाते हैं, केवल दो महीने में रचके तयार किया था । यथा:
अमितगतिरिवेदं स्वस्यमासद्वयेन प्रथितविशदकीर्तिः काव्यमुद्धूतदोषम् ।
धर्मपरीक्षामें कुल श्लोक १९४५ हैं । इतने बड़े उत्तम ग्रन्थको दो महीने में रच डालना, सचमुच ही विलक्षण पांडित्यका काम है ।
संस्कृत - साहित्य में धर्मपरीक्षा अपने ढंगका एक विलक्षण ही ग्रन्थ है । दूसरे धर्मोका एक मनोरंजक कथामें हास्य विनोदके साथ खंडन करनेवाला और अपने धर्मका मंडन करनेवाला शायद ही कोई ग्रन्थ इस श्रेणीका हो । इसके पढ़नेसे यह भी मालूम होता है कि अन्यमतके रामायण महाभारतादि ग्रन्थोंका भी उन्हें पूर्ण परिचय था । क्योंकि उक्त ग्रन्थोंके असंबद्ध लेखोंकी ही इसमें परीक्षा की गई है। वर्त मानके उपन्यास ग्रन्थोंके पढ़नेमें जैसा चित्त लगता छोड़नेको जी नहीं चाहता है, ठीक वही दशा इस
·
है, और फिर ग्रन्थको हाथमें
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१२०) लेनेसे होती है । अन्तर केवल इतना है कि, उपन्यासोंसे थोड़े समयके लिये मनोरंजन मात्र होता है, और इसके पढ़नेसे धर्ममें दृढ़ता होनेके सिवाय बहुलता प्राप्त होती है । अर्थान्तर-न्यासोंकी और नीतिके खंडश्लोकोंकी इस ग्रन्थमें इतनी अधिकता है कि, यदि कोई उनको अलग चुनकर प्रकाशित करे, तो एक उत्तम पोथी बन सकती है, जिसे धर्मी विधर्मी सव ही विद्वान आदरपूर्वक ग्रहण कर सकते हैं। ___ धर्मपरीक्षा ग्रन्थ कैसा है, इसके लिये हम अधिक कुछ न लिखकर अपने पाठकोंसे उसके एक वार स्वाध्याय करनेका आग्रह करते हैं । यदि श्रीअमितगति महाराजने केवल धर्मपरीक्षा ही रची होती अन्य ग्रन्थ न रचे होते; तो यही एक उनके असाधारण पांडित्यको प्रगट करनेके लिये बस थी।
धर्मपरीक्षाके अतिरिक्त अमितगतिके वनाये हुए निम्नलिखित अन्योंका और भी उल्लेख मिलता है।
१ सुभाषितरत्नसंदोह। ५ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति । २ श्रावकाचार। ६ चन्द्रप्रज्ञप्ति।
३ भावनाद्वात्रिंशति । ७ सार्द्धद्वयद्वीपप्रज्ञप्ति। '४ पंचसंग्रह।
८ व्याख्याप्रज्ञप्ति।
९ योगसारमाभृत । १. धर्मपरीक्षा मूल और भाषासहित छप चुकी है । इसकी दो तीन भाषाटीकायें और भी हैं, जो अभीतक प्रकाश नहीं हुई हैं।
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१२१) इनमें से धर्मपरीक्षा और सुभाषितरत्नसंदोह ये दो ग्रन्थ तो छपकर प्रकाशित हो चुके हैं और तीसरा श्रावकाचार अनेक स्थानों में मि-लता है। चौथा पंचसंग्रह और पांचवां योगसार प्राभूत ये दोनों ग्रन्थ ईडरके भंडारमें हैं। छठा भावना द्वात्रिंशति' श्रीयुक्त ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीकृत हिन्दी अर्थसहित सामायिकपाठके नामसे छप चुका है । परन्तु शेषके ४ ग्रन्थ अभीतक कहीं प्राप्त नहीं हुए हैं। इन ग्रन्थोंके नाम देखनेसे यह भी विदित होता है कि अमितगति महाराज प्रथमानुयोग चरणानुयोगके समान करणानुयोग और द्रव्यानुयोगके भी असाधारण पंडित थे।
अमितगतिका दूसरा उपलब्ध ग्रन्थ सुभाषितरत्नसंदोह है। "इसमें सांसारिकविषयनिराकरण, मायाहंकारनिराकरण, इन्द्रियनिग्रहोपदेश, स्त्रीगुणदोषविचार, देवनिरूपण आदि बत्तीस प्रकरण हैं और प्रत्येक विषयके वीस २ पच्चीस २ सुभापितश्लोक हैं । सरल संस्कृतमें प्रत्येक विषयका बड़ी सुन्दरतासे निरूपण किया गया है। यह सवका सव ग्रन्थ कंठ करने लायक है।ग्रन्थके अन्तमें ११७ श्लोकोंमें श्रावकधर्मनिरूपण नामका प्रकरण बहुत ही अच्छा है। यदि वह हिन्दी
१. सुभाषितरत्नसंदोह निर्णयसागरकी काव्यमालामें छप चुका है। इसकी संघी पन्नालालजीकी वनाई हुई एक भाषाटीका भी है, जो जयपुरमें हस्तलिखित मिल सकती है, । २, अमितगतिश्रावकाचारकी पंडितवर्य भागचन्द्रकृत भापाटीका अभैतिक छपी नहीं है। .
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१२२)
टीकासहित पृथक् प्रकाशित किया जावे, तो एक छोटासा श्रावकाचार बन सकता है। और श्रावकधर्मका संक्षेपमें परिचय चाहनेवालोंको उपयोगी हो सकता है । यहापर सुभाषितके दश बीस चुने हुए श्लोक उद्धृत करनेकी इच्छा थी, परन्तु स्थानाभावसे इस विचारको छोड़ना पड़ा ।
तीसरा ग्रन्थ श्रावकाचार इस समय हमारे समक्ष उपस्थित नहीं है, परन्तु उसका विषय बतलानेकी पाठकोंको अवश्यकता नहीं है । १३५२ श्लोकोंमें बहुत उत्तमताके साथ श्रावकाचारका स्वरूप वतलाया गया है | प्रचलित श्रावकाचारोंसे यह बहुत ही बड़ा है ।
चौथा ग्रन्थ योगसारमाभृत है । इसका दूसरा नाम अध्यात्म तरंगिणी भी है । इसमें ५५० के करीव अनुष्टुप् श्लोक हैं। जीव,अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, चारित्र, और उपसंहार इस प्रकार नौ अध्याय हैं और प्रायः प्रत्येक अध्यायमें पचास २ श्लोक हैं । अन्तके दो अध्यायोंमें सौ सौके अनुमान श्लोक हैं । विषय नामहीसे प्रगट है। योगियोंको उपर्युक्त विषयोंका ध्यानावस्थामें किस प्रकार चिन्तवन करना चाहिये, बहुत सरल शब्दोंमें इसी - का उपदेश दिया गया है। जो प्रति हमारे देखने में आई वह संवत् - १५५२ की लिखी हुई है और प्रायः शुद्ध है । उसमें आदिके. १० - १२ श्लोक नहीं हैं । एक पत्रका अभाव है । ग्रन्थके अन्तमें ग्रन्थ लिखानेवालोंकी तो बड़ी लम्बी चौड़ी प्रशास्ति लिखी है, परन्तु विषय बहुत
1
१. धर्मपरीक्षाके पिछले दो परिच्छेदों में भी श्रावकाचार उत्तमताके साथ कहा है । उसके २०० के करीव अनुष्टुप् श्लोक'
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१२३) ग्रन्थकर्ताके विषयमें विशेष कुछ भी नहीं लिखा है। जो कुछ लिखा है, उससे केवल नामका पता लगता है' दृष्ट्वा सर्व गगननगरस्वममायोपमानम्
निःसंङ्गात्मामितगतिरिदं प्राभृतं योगसारम् । ब्रह्मप्राप्त्या परममकृतं स्वेषु चात्मप्रतिष्ठम्
नित्यानन्दं गलितकलिलं सूक्ष्ममत्यक्षलक्ष्यम् ॥१॥
योगसारामदेमकमानसः माभूतं पठति योऽभिमानतः । स्वस्वरूपमुपलक्ष्य सोवितः सम्पयाति भवदोषवञ्चितम् ॥२॥ .. "इति श्रीअमितगतिवीतरागविरचितायामध्यात्मतरंगिण्यां ।
" नवमोऽधिकारः। - इसका सारांश यह है कि सम्पूर्ण संसारको आकाश नगरके समान स्वप्नकी माया समझकर श्रीअमितगति नामक निर्ग्रन्थ मुनिने ब्रह्मकी प्राप्तिके लिये यह नित्यानन्दस्वरूप, पापरहित, सूक्ष्म, अतीन्द्रियगोचर, योगसार नामका ग्रन्थ बनाया। जो लोग इसे एकचित्त होकर सन्मानपूर्वक पढ़ेंगे, वे अपने स्वरूपको पाकर संसारके पापोंसे मुक्त हो जायेंगे। "' यह ग्रन्थ हमको केवल एक घंटे तक देखनेका अवसर मिला, इसलिये हम इसे अच्छी तरहसे नहीं देख. सके तो भी जितने श्लोक पढ़े वे बहुत ही. उत्तम और हृदयग्राही मालूम हुए। अमितगतिके ग्रन्थों में यह बड़ी खूबी है कि वे कठिन नहीं हैं। सरल भाषामें ही उन्होंने अच्छे २ गंभीर विषय कहे हैं। . . . ... ... ...
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२४)
इस ग्रन्थमें अध्यात्मकी ओर विशष झुकाव दिखता है इससे तथा अपने नामके साथ जो वीतराग विशेषण दिया है, इससे अनुमान होता है कि यह ग्रन्थ पहले ग्रन्थोंके बहुत पीछे वना होगा।
पांचवां ग्रन्थ पंचसंग्रह है। इसकी एक प्रति ईडरके ग्रन्थसंग्रहालयमें संवत् १५३४ की लिखी हुई है। हमको उसकी प्रशस्ति मात्र प्राप्त हुई है । वह इस प्रकार है.
श्रीमाथुराणामनघद्युतीनां संघोऽभववृत्तिविभूपितानाम् • हारोमणीनामिव तापहारी सुत्रानुसारीशशिरश्मिशुभ्रः॥१॥ माधवसेन गणी गणनीयः शुद्धतमोऽजनि तत्र जनीयः । भूयसि सत्यवीव शशांकः श्रीमति सिन्धुपतावकलंकः ॥२॥ शिष्यस्तस्य महात्मनोऽमितगतिर्मोक्षार्थिनामग्रणिरेतच्छास्त्रमशेषकर्मसमितिप्रख्यापनायाकृत । वीरस्येव जिनेश्वरस्य गणभृद्भ (व्यात्मनां ) व्यापकोदुर्वारस्मरदन्तिदारुणहरिः श्रीगौतमः सत्तमः ॥३॥ यदत्र सिद्धान्तविरोधि वद्धं ग्राह्यं निराकृत्य तदेतदायैः। गृहन्ति लोका हयुपकारि यत्नात्वचं निराकृत्य फलं विनम्र॥
१. इस श्लोकमें माथुर संघको मणियोंके हारकी उपमा दी है और उसे दोनों पक्षमें घटित की है । पापरहित प्रकाशवाले ( निर्मल कान्तिवाले ) वृतों करके शोभायमान (वृत्तरूप अर्थात् गोलमणियोंसे शोभायमान ) तापको हरन करनेवाला, सूत्र अर्थात् सिद्धान्त वचनाका अनुसरण करनेवाला (सूत्र अर्थात सूतमें पोया हुआ) और चन्द्रमाकी. किरणोंके समान उज्वल माथुरसंघ मणियोंके हारकी समान उत्पन्न हुआ।
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१२५) अनीश्वरी केवलमर्चनीयं (यावच्चिरं ) तिष्ठति मुक्तिशुक्ता तावद्धरायामिदमत्र शास्त्रं स्तुयाच्छुभं कर्मनिराशकारि ॥५॥
___ इत्यमितगतिकृतः पञ्चसंग्रहः समाप्तः । इसका सारांश यह है कि जिस समय महाराजा सिन्धुपति ( मोजके पिता ) पृथ्वीका पालन करते थे, उस समय कीर्तिशाली माथुरसंघमें एक माधवसेन नामके आचार्य हुए जिनके गौतमगणघरके समान विद्वान् शिष्य अमितगतिने यह पंचसंग्रह अन्य सम्पूर्ण कर्मसमितियोंकी प्रख्यापनाके लिये बनाया। इसमें यदि कोई वात शास्त्रविरुद्ध हो, तो उसका निराकरण करके सार ग्रहण
करना चाहिये, जैसे छिलके निकाल करके लोग उपकारी फलको । काममें लाते हैं।
इस प्रशस्तिमें अन्यके वनानेका समय नहीं लिखा है, परन्तु दानवीरशेठ माणिकचन्दनीके यहां जो प्रशस्तिसंग्रह पुस्तक है, उसमें इसके वननेका समय संवत् १०७३ लिखा हुआ है, जिससे मालूम होता है कि प्रशस्तिका एकाध श्लोक जिसमें संवत्का उल्लेख होगा, छूट गया है । यदि यह संवत् ठीक है और ठीक ही होना संभव है तो कहना चाहिये कि पंचसंग्रहकी रचना धर्मपरीक्षासे ३ वर्ष पीछे हुई है।
इस प्रशस्तिसे यह भी मालूम होता है कि, ग्रन्थकर्ताके गुरुवर्य श्रीमाधवसेनहरि महाराजाधिराज मोजके पिता तथा मुंजके
१. इस श्लोकके पूर्वार्द्धका भाव समझमें नहीं आया।
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१२६)
माई सिंधुपतिके समयमें जिन्हें सिन्धुल सिन्धल सिन्धुराज कुमारनारायण और नवसाहसांक भी कहते हैं, हुए थे । सिन्धुल बड़े प्रतापशाली राजा थे। भक्तामरचरित्रमें इनकी वीरताकी बहुत कुछ प्रशंसा लिखी है। ये परमारवंशके मुकुटमाण थे । न्लेच्छ राजाओपर इन्होंने विजयश्री प्राप्त की थी । डॉक्टर बुन्हरने एफिग्राफिया इंडिकाकी पहली जिल्दके २२१-२२८ पृष्ठमें जो प्रशस्तिलेख प्रकाशित किया है, उसमें लिखा हैतस्यानुजो निर्जितहूणराजः श्रीसिन्धुराजो विजयार्जितश्रीः । श्रीभोजराजोऽजान येन रत्नं नरोचमाकम्पकृदद्वितीयम् ॥शा
पंचसंग्रहको प्रशस्तिसे यह भी मालूम पड़ता है कि सिन्धुराजने मुंजके पहले कुछ समय तक उज्जयनीका राज्य किया है क्योंकि इसमें जो " अवति सति" पढ़ दिया है, उससे सिंधुलमहाराजके राज्य करनेमें कोई संदेह नहीं रहता है । तब अनेक ग्रन्थों और शिलालेखोंमें
१. अनेक लोगोंका ऐसा मत है कि मुंज मोजके पितामह ये,परन्तु जैनमन्याले यह बात सिद्ध हो चुकी है कि मुंज भोजके पितृव्य और सिंधुराजके भाई थे। कई कयामन्यानं लिखा है की तिधुलके पिताके सन्तान नहीं होती थी,इसी लिये उन्होंने पहले एक मुंजके खेतमें पड़े हुए नवजात बालकको पालकर उस नाम मुंज रक्ता या । उसके थोड़े ही दिन पीछे उनके सिंधुलका जन्म हुना था । मुंन बुद्धिशाली था, और उत्तपर राजाज्ञा प्यार अधिक था, इसलिये उन्होंने उसीको रानकार्य सौंप दिया । पछि पिताके मर जानेपर सिंधुलके पराक्रमको देख मुंजको ईपां उत्पन्न हुई । इसलिये उन्होंने उसे देशसे निकाल दिया था और दूसरी चार लौटकर आनेपर नेत्र फोड़ दिये थे । अंपादस्थामें उनके भोजदेपने जन्म लिया था। परन्तु इतिहाससे इस कयाकी कई. बातोंमें विरोध पड़ता है।
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१२७), मुंजके पश्चात् सिंधुलका नाम मिलता है, वह इस अभिप्रायसे है कि मुंजने अपने जीतेजी अपने छोटेमाई सिन्धु राजके पुत्र भोजको अपना उतराधिकारी नियतकर दिया था; परन्तु उसके मारे जानेके समय भोनकी वाल्यावस्थाके कारण उसका पिता सिंधुल राज्यकार्य करता था । इसके पीछे भोजको राज्य मिला था । अमितगतिने संवत् १०५०में सुभाषितरत्नसंदोह बनाते समय मुंजका राज्यकाल बतलाया है और अपने गुरुके समयमें सिंधुल महाराजका राज्यं वतलाया है। इससे यह निश्चय होता है कि, मुंजके पहले भी सिंधुल राज्य कर चुके थे और उनके पीछे भी उनका राजा होना सिद्ध होता है ।
इस प्रशस्तिसे कुछ कुछ आभास इस बातका भी होता है कि • सुभाषितरत्नसंदोहके रचनाकालमें अमितगतिको आचार्यपद मिल गया होगा | क्योंकि माधवसेनका स्वर्गवास सिंधुमहाराजके समयमें ही हो गया होगा। यदि ऐसा न होता तो पंचसंग्रहकी प्रशस्तिमें जो किं १०७३ संवत्के लगभग लिखी गई है अमितगतिं महाराज सिंधु-. लके साथ मुंजका नाम भी लिखते ।
श्रीविश्वभूषणकृत भक्तामरचरित्रमें लिखा है कि सिंधुल और मुंज दोनोंको उनके पिता राज्यकार्य सौंप गये थे। अर्थात् उनके मतसे वे दोनों ही एक साथ राज्य करते थे।
अथवा यदि माधवसेन मुंजके राज्यकालतक रहते, तो उनके 'समयके अन्तिम राजा मुंजका ही नाम लिखा जाता । अभिप्राय यह .
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१२८) है कि मुंजके राज्यकलले प्रारंभ ही अमितगाव झावायरल मूबित हो गये थे। __ हे ग्न्य भावना द्वात्रिंशनि केवल ३२ लोक हैं। यह न्य बहुम्ही शान्तिन देनशान है। कविता बहुत ही मधुर और कोमल है।
अनिजगतिक इन छह ही ग्रन्योक विषयने हमें बड़ा बहुत परिचय है। शेष ग्रन्या के भियों हम कुछ भी नहीं जानते हैं।
गरानी साहित्यारिसन्नी पिढिम हमने अनिलनिक एक प्रात प्रन्यक भी उल पड़ा था. जो कि गुजरातने किती मंडामें है। परन्तु अभी तक हमें यह देखनेक प्रत नहीं हुआ। इस काम तेज है लि, कमिनमति के समान प्रस्तके मी बिछान् ये ।
यास्तिलकरन्यू अन्य रचना चिलबत् ११६ (शक संत ८८१)में हुई है और उसके पनि नहानाविधीसोमदवरिने नीनिकात्यात. पावनिप्रकरण, युत्तिदन्तामान आदि बहुनले अन्योंकी रचना के है, निल मान पहरा है कि वे अनि
गानिक समसामयिक अथवा कुछ ही समय पहले विद्वान थे। आज कल यह बात अलंच मी मान होती है कि एक घर विद्धानों एक दूसरेले परिचय न होगा क्या दूसरेने पहले लो न मुनी होगी। परन्तु खेद है कि अपने किसी भी ग्रन्थमें अमिन्गतिने मनदेवेनरिक उल्लेख नहीं किया है। इतना ही क्यों अमितगतिमें कुछ सन्य पोले ज्ञानार्णवं (योगशान) के कल श्रीशुभचन्द्राचार्य
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१२९.) :, और कुछ ही समय पहले भगवन्जिनसेन तथा गुणभद्रमुरि जैसे विद्वान्
हो गये हैं, परन्तु किसीने भी एक दूसरेका उल्लेख नहीं किया है। ___ पाठकोंको मालूम होगा कि, शुभचन्द्राचार्य धाराधीश भोजके समयमें हुए हैं, जो कि वि० सं० १०७८ में राज्यके अधिकारी हुए थे तथा भगवद्गुणभद्रसूरिने उत्तरपुराण वि० संवत् ९९५ में पूर्ण किया था। पूर्वके विद्वानोंके ग्रन्थोंमें परस्परका उल्लेख न रहनेका कारण एक तो यह प्रतीत होता है कि देशभेदके कारण उनका साक्षात् प्रायः बहुत कम होता था, दूसरे उनकी कीर्तिके कारणभूत ग्रन्याका प्रचार दूर देशोंमें तत्काल न हो सकनेसे वे अपनी जीवितावस्थामें प्रसिद्ध भी · नहीं हो पाते थे। इसके सिवाय अन्योंकी प्रशस्तियोंमें वे अपना और अपनी थोड़ीसी गुरुपरम्पराका परिचय मात्र देना वस समझते थे। आजकलके पुस्तक बनानेवालोंके समान आडम्बर वनाना उन्हें नहीं आता था। कीर्तिकी उन्हें आकांक्षा भी नहीं थी. । हमारे यहां एसे सैकड़ों बड़े २ अन्य हैं, जिनके कर्ताओंका कुछ भी पता नहीं है।
श्रीअमितगतिमुनिका गृहस्थावस्थाका क्या नाम था, वे किस कुलमें तथा किस नगरमें उत्पन्न हुए थे, इन वातोंका कुछ भी पता नहीं लगता है, परंतु उनके ग्रन्थोंसे उनके मुनिकुलका भली भांति परिचय मिल जाता है, यह एक संतोषकी बात है । अपने कई
.
१. वहुत लोगोंका खयाल है कि मुंजकी राजधानी धारा नगरी थी, परन्तु यह केवल भ्रम है। मुंजकी राजधानी उनमें थी और भोजकी धागमें।
२. उत्तरपुराण वननेके कुछ ही वर्ष पहले भगवजिनसेन विद्यमान थे ।
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१३०) ग्रन्थों में उन्होंने अपनी गुरुपरम्पराका उल्लेख किया है । जिसमेंसे यहां हम धर्मपरीक्षाकी प्रशस्तिके कुछ श्लोक उद्धृत करते हैं,
सिद्धान्तपाथोनिधिपारगामी .
श्रीवीरसेनोऽजनि सुरिवर्यः । श्रीमाथुराणां यमिना वरिष्ठः
कपायविध्वंसविधौ पटिष्ठः ॥१॥ ध्वस्ताशेपध्वान्तत्तिर्मनस्वी
तस्मात्सरिदेवसेनोऽजनिष्टः। लोकोद्योती पूर्वशैलादिवाकः
शिष्टाभीष्टः स्थेयसोऽपास्तदोपः॥२॥ भासिताखिलपदार्थसमूहो
निमलोऽमतिगतिर्गणनाथः। वासरो-दिनमणेरिव तस्मा
ज्जायतेस्म कमलाकरवोधी ॥३॥ नेमिषेणगणनायकस्ततः
पावनं वृषमधिष्टितो विभुः। पार्वतीपतिरिवास्तमन्मथो
योगगोपनपरो गणार्चितः ॥४॥ कोपनिवारी शमदमधारी माधवसेनः प्रणतरसेनः । सोऽभवदस्मादलितमदोस्मा यो यतिसारः प्रशमितसारः॥ धर्मपरीक्षामकृत वरेण्यां धर्मपरीक्षामखिलशरण्याम शिष्टवरिष्ठोऽमितगतिनामा तस्य पटिष्ठोऽनघगतिधामा ।
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१३१) इसका सारांश यह है कि माथुरसंघके मुनियोंमें श्रीवीरसेन नामके एक श्रेष्ठ आचार्य हुए और उनके शिष्योंमें क्रमसे देवसेन, 'अमितगति (प्रथम ) नेमिषेण, और माधवसेन नामके मुनि हुए। अमितगति इन्हीं माधवसेनके शिष्य थे। । - अमितगतिने अपने जिन पूर्व गुरुओंका उल्लेख किया है, उनमें से जहांतक हम जानते हैं, किसीका भी कोई ग्रन्थ अभीतक प्रसिद्धमें नहीं है और न कहींकी रिपोर्ट में उनका कोई पता लगता है।
जिस माथुरसंघमें अमितगतिका अवतार हुआ था, अभीतक हम उससे बहुत कम परिचित हैं। हमारे मूलसंघके जो नदि, सिंह, सेन और देवं ये चार भेद हैं, उनमें माथुरसंघ नहीं है। तव क्या यह इनसे पृथक् कोई पांचवां संघ है, अथवा इन्हींमेंसे किसी एकका नामान्तर है? यह एक प्रश्न उपस्थित होता है।
माथुरसंघ और काष्ठासंघ । माथुरसंघ काष्ठासंघका ही अन्तर्भेद है। काष्ठासंघकी पट्टावलीमें जो कि, श्रीसुरेन्द्रकीर्ति आचार्यकी बनाई हुई है, लिखा है कि. काष्ठासंघो भुवि ख्यातो जानन्ति नूसुरासुराः ।
तत्र गच्छाश्च चत्वारो राजन्ते विश्रुताः क्षितौ ॥ १ ॥
१. मूल संघमें जो अनेक भेद हैं, उनमें शास्त्रविषयक तथा चार विषयक किसी प्रकारका मतभेद नहीं हैं ! केवल संघव्यवस्थाके लिये इनकी स्थापना हुई थी। २. कहीं २ देवसंघ नहीं कहकर वृपमसंघ कहा है। जान पड़ता है, यह देव, संघका ही नामान्तर होगा।
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १३२ )
श्रीनन्दितटसंज्ञश्च माथुरो वागडाभिधः ।
लाडवागड इत्येते विख्याताः क्षितिमण्डले ॥ २ ॥
अर्थात् काष्ठासंघर्मे नन्दितट, मथुर, वागड, लाडवागड ये चार गच्छ हैं। माथुरगच्छको माथुरसंघ लिखनेकी भी परिपाटी है । जैसे मूलसंघको भी संघ कहते हैं और उसके नंदि देव आदि चार भेदों को भी संघ कहते हैं, उसी प्रकारसे यह भी है ।
-
अमितगति काष्ठासंघी ही थे, इसका भी एक प्रमाण मिला है । श्रीभूषणसूरिकृत प्रतिवोधचिन्तामणि ग्रन्थके प्रारंभ में जो आचार्य परम्पराका वर्णन है, उसमें लिखा है:भानुभूवलये कम्रो काष्ठासघाम्वरे रविः । अमितादिगतिः शुद्धः शब्दव्याकरणार्णवः ॥ इस श्लोकके अन्तिम चरणसे ऐसा जान पड़ता है कि शायद अमितगतिने कोई व्याकरणका ग्रन्थ भी बनाया होगा अथवा उनकी व्याकरणविद्यामें बहुत ख्याति होगी ।
काष्ठासंघकी उत्पत्ति |
काष्ठासंघको हमारे यहां जैनाभास माना है, इसबातका तथा उसकी
१. दिल्ली में जो भट्टारककी गद्दी थी और पं० शिवचंद्रजी जिस गद्दीके शिष्य थे, सुनते हैं वह माथुर गच्छकी थी । २. लाडवागड गच्छकी गद्दी सुनते हैं कारंजा ( अमरावती ) में है । ३. उक्तं च इन्द्रनन्दिकृत नीतिसारे— 'गोपुच्छकः श्वेतवासा द्राविडो यापनीयकः ।
निःपिच्छिकश्चेति पञ्चैते जैनाभासाः प्रकीर्तिताः ।
अर्थात् गोपुच्छक. ( काष्ठासंघ ) श्वेताम्बर, द्राविडीय, यापनीय और निःपिच्छिक ये पांच जैनाभास कहे गये हैं।
1
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१३३)
उत्पत्तिका वृत्तान्त भी हमको श्रीदेवसेनसूरिके दर्शनसारं ग्रन्यसे . मालूम हुआ है । वह इस प्रकार है:
सिरि वीरसेणसिस्सो जिणसेणो सयलसत्यविण्णाणी । सिरि पउमणदि पच्छा चउसंघसमुद्धरणधीरो ॥ ३१ ॥ तस्य य सिस्सो गुणवं गुणभद्दो दिव्वणाणपरिपुण्णो। पक्खोववासमंडी महातवो भावलिंगो य ॥ ३२ ॥
तेण पुणो विय मुच्चं णेऊण मुणिस्स विणयसेणस्स । सिद्धंतं घोसित्ता सयं गयं सग्गलोयस्स ॥ ३३ ॥ आसी कुमारसेणो णदियडे विणयसेण दिक्खयओ। सण्णासभंजणेण य अगहियपुणदिक्खओ जाओ ॥ ३४ ॥ • परिवज्जऊण पिच्छं चमरं गेऊण मोहकलिदेण । उम्मग्गं संकलियं वागडविसएसु सव्वेसु ॥ ३५ ॥ इत्थीणं पुणदिक्खा खुल्लयलोयस्स वीरचरियत्तं । कक्कसकेसम्गहणं छटुं च गुणट्ठदं णाम ।। ३६ ॥ आयमसत्थपुराणं पायच्छित्तं च अण्णहा किंपि । विरइत्ता मिच्छतं पवडियं मूढलोयेसु ॥ ३७॥ सो सवणसंघवज्झो कुमारसेणो हु समयमिच्छत्तो । चत्तोवसमो रुद्दो कईसंघ परूवेदि ॥ ३८ ॥
१.श्रीदेवसेनसूरिने दर्शनसार अन्य विक्रमसंवत् ९०९ में धारा नगरीके गर्वनाथ चैत्यालयमें बनाया था, ऐसा उसकी प्रशस्तिसे विदित होता है । अर्थात् काष्ठासंघकी उत्पत्तिके केवल १५०.वर्ष पीछे इस ग्रन्थकी रचना हुई थी।
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१३४) सत्तसए तेवण्णे विक्कमरायस्स मरणपत्तसस । नंदियडे वरगामे कट्ठोसंघो मुणेयन्वो ॥ ३९ ॥ नदियडे वरगामे कुमारसेणो य सत्यविणाणी ।
कट्ठो दसणभट्टो जादो सल्लेहणाकाले ॥ ४० ॥ .. अर्थात्-श्रीवीरसेनके शिप्य भगवजिनसेन जो कि सम्पूर्ण तत्त्वोंके ज्ञाता थे, श्रीपद्मनंदिके पश्चात् चारों संबके स्वामी आचार्य हुए । फिर इनके गुणभद्र नामके शिष्य हुए, जो दिव्यज्ञानपरिपूर्ण पक्षोपवास करनेवाले थे । इन्होंने श्रीविनयसेन मुनिकी मृत्यु होनेपर सिद्धांत शास्त्रोंका उपदेश किया और पीछे वे भी स्वर्ग लोगको सिधारे अर्थात् श्रीविनयसेनके पश्चात् गुणभद्र आचार्य हुए। विनयसेनका एक कुमारसेन नामका शिप्य हुआ। उसने एक वार सन्यास भंग करके फिर दीक्षा नहीं ली और मयूरपिच्छी छोड़कर गोपुच्छकी पिच्छी ग्रहण कर ली । तथा सम्पूर्ण वागड़ देशमें उन्मार्गकी प्रवृत्ति की। उसने स्त्रियोंको मुनिदीक्षा देनेकी, क्षुल्लक लोगोंको वीरचर्या करनेकी, अर्थात् मुनियोंके समान आतापनयोगादि धारण करनेकी और कठोरकेशोंकी पिच्छी (गोपुच्छ )
१.श्रीवीरसेनके पश्चात् पटके आचार्य श्रीपद्मनन्दि हुए होंगे और उनक पश्चात् वीरसेनके शिष्य जिनसेन हुए होंगे।
२. विनयसेनमुनि जिनसेनके सतीर्थ ( एक गुरुके शिष्य ) थे, ऐसा पावीभ्युदय काव्यकी प्रशस्तिसे जान पड़ता है । यथा,' 'श्रीवीरसेनमुनिपादपयोजभूगः श्रीमानभूद्विनयसनमुनिर्गरीयान् ।
तचोदितेन जिनसेनमुनीश्वरण काव्यं व्यधायि परवेष्टितमेघदूतम् ॥
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१३५) रखनेकी विधिका निरूपण किया। इसके सिवाय उसने छढे गुणस्थानका कुछ और ही स्वरूप निरूपण किया। इसी प्रकार आगम शास्त्र पुराणों और प्रायश्चित्तका कुछ अन्यथा ही निरूपण कर मूढ लोगोमें एक मिथ्यात्वकी प्रवृत्ति कर दी । इस तरह उस श्रमणसंघसे (दिगम्बरसंघसे ) बाहर किये हुए, समयमिथ्यादृष्टी, उपशमको छोड़ देनेवाले रौद्र कुमारसेनने काष्ठासंघकी जड़ जमाई । यह काष्ठासंघ विक्रम राजाकी मृत्युके ७५३ वर्ष पश्चात् नन्दीतट नगरमें उत्पन्न हुआ। __ जयपुरनिवासी पंडित जवाहरलालजी साहित्यशास्त्रीके पत्रसे विदित हुआ कि, वुलाकीचन्द्रकृत वचनकोशमें-जो कि संवत् १७३७ में वना है-काष्ठासंघकी उत्पत्तिके विषयमें एक दूसरे ही प्रकारकी कथा लिखी है। वह इस प्रकार है कि, " उमास्वामीके पट्टपर जो श्रीलोहाचार्यजी विराजमान हुए, उनके शरीरमें एक वार असाध्यरोग हो गया। उससे मुक्त होनेकी आशा न समझकर अन्य आचार्योंने उन्हें अन्त:सन्यास धारण कराके चारों प्रकारके आहारका त्याग करा दिया। परन्तु दैवात्, उनका रोग धीरे २ शमन होने लगा, और अन्तमें वे
१. दर्शनसारकी जो हमारे पास प्रति है, उसकी टिप्पणीमें लिखा है, कि रात्रिभोजनत्यागको छठा गुणव्रत माना; परन्तु यह ठीक नहीं है । धर्मपरीक्षामें पांच अणुव्रत ओर तीन गुणव्रत मूलसंघके समान हीमाने हैं छह गुणवत नहीं माने हैं। किसी २ प्रतिमें गुणद्वदं लिखा है, जिसका अर्थ गुणस्थान होता है। शायद काष्ठासंघमें क्षुल्लको और दीक्षित स्त्रियोंको छठा गुणस्थान माना हो।
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर्वथा नीरोग होगये । उस समय उन्होंने क्षुधातुर होकर अन्नपान ग्रहण करनेकी आज्ञा मांगी, परन्तु दूसरे आचार्योंने उन्हें ऐसा करनेकी आज्ञा नहीं दी-समाधिमरण करनेकी ही विधि बतलाई । लोहाचार्य क्षुधावेदनाको सहन नहीं कर सके, इसलिये वे आचार्योंकी आज्ञा पालन करनेमें समर्थ न हुए । उन्होंने अन्नपान ग्रहण कर लिया। इस अपराधमें वे संघसे बाहर कर दिये गये और उनके पट्टपर अन्य किसी आचार्यकी स्थापना हो गई। लोहाचार्यनी संघसे निकलकर अगरोहा नगर आये जहांपर अगरवालोंकी बहुत बड़ी वस्ती थी। यद्यपि वे सब अन्यमतावलम्वी थे, परन्तु उन दिनों लोहाचार्यका बहुत बड़ा प्रभाव था इसलिये उनका आगमन सुनकर अगरवालोंने भोजनके लिये प्रार्थना की । परन्तु लोहाचार्यने कहा कि हम मिथ्यादृष्टियोंके घर आहार नहीं कर सकते हैं। यदि तुम लोग जैनधर्म ग्रहण करना स्वीकार करो, तो हम भोजन कर सकते हैं। उनकी विद्वत्ता और तपस्याका अगरवालोंपर इतना प्रभाव पड़ा 'कि वे लोग जैनधर्मको ग्रहण करना अस्वीकार न कर सके । कोई ७०० अग्रवालोंने जैनधर्म स्वीकार कर लिया, और लोहाचार्यजीको खब उत्सवके साथ नगरमें ले जा कर भोजन कराया । पीछे वहां नैनमन्दिर वनवाया गया और तत्काल पाषाणकी प्रतिमा न मिल सकनेके कारण उसमें काष्ठकी प्रतिमा स्थापित कराई गई। यह वात जव मूलसंघके आचार्योंने सुनी, तब उन्होंने 'मिथ्यातियोंको जैन बनानेके उपलक्षमें तो लोहाचार्यकी बहुतं प्रशंसा की परन्तु काष्ठकी
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१३७) प्रतिमाके.लिये निषेध किया। किन्तु लोहाचार्यने यह भी नहीं माना। इसके सिवाय गायकी पूंछकी पिच्छी लेनेकी भी उन्होंने पद्धति चला दी और इन सबका प्रायश्चित् लेनेको भी वे स्वीकृत न हुए। उन्होंने एक स्वतंत्ररूपसे अपने संघकी स्थापना की, जो कि पीछेसे काष्ठासंघके नामसे प्रख्यात हुआ । परन्तु इस कथामें नो लोहाचायके द्वारा इस संघकी स्थापना बतलाई गई है, उसपर विश्वास नहीं किया जा सकता है। यह भी खंडेलवालोंको जैन बनानेकी कयाके समान ऐतिहासिक तत्त्वसे शून्य है । क्योंकि उमास्वामी विक्रमकी 'पहली शताब्दीमें हुए हैं, जिस समय कि दिगम्बर सम्प्रदायमें एक मी मतभेद नहीं हुआ था। उस समय काष्ठासंघका नाम भी नहीं था । विक्रमकी सातवीं शताब्दिके पहलेके किसी भी अन्यमें काष्ठा'संघका नाम नहीं मिलता है। इसके सिवाय श्रीदेवसेनसरिने काठासंघके केवल १५० वर्षे पीछे जो काष्ठासंघकी उत्पत्ति. लिखी है, उसपर जितना विश्वास किया जा सकता है, उतना वचनकोशके कथनपर नहीं हो सकता है। देवसेनसरिका वर्णन विशेष विश्वस्त होनेका एक कारण यह भी है कि उन्होंने कुमारसेनका समय और उसकी गुरुपरम्परा बिलकुल ठीक २ वतलाई है । अन्य ग्रन्थोंके द्वारा भी जिनसेनादिका समय उनके कथनसे वरावर मिलता है । वचनकोशके कर्त्ताने काष्ठासंघके उत्पादक बतलाये तो लोहाचार्यको हैं; परन्तु उनका समय वही विक्रम संवत् ७९३ लिखा है जो कि लोहाचार्यके समयसे किसी भी प्रकार नहीं मिल सकता है । इससे भी वचनकोशकी कथा किसी किंवदन्तीके आधारसे लिखी हुई जान पड़ती
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१३८)
है। हा, उसमें जो सन्यासमरण न करनेत्री तथा गोपुच्छ ग्रहण करनेकी बात है वह अवश्य दर्शनमारके कयनो मिती है, और उसका वह अंश है नी सर्वानुमत !
मायुरसंघकी उत्पत्ति। यद्यपि मायुरसंव काष्टावका एक मेड़ है, तयारि उसमें कुछ विशेषता भी है और शायद इसी कारण वह मायुगच्छ न कहलः कर माथुरसंत्र कहा जाता है। एक प्रकारसे यह एक स्वतंत्र संत्र हैं। निसान इसनी उत्सति विषय निनलिखित गाया मिलती है
तची दुसएतीद महुराए माहुराण गुरुणाहो । '
णामेण रामसेणी णिप्पिच्छियं वणियं वेण ॥४१ ।। मान् काष्ठासंवकी उत्पत्तिके वे सौ वर्ष पछि नथुरा नगरी माथुरसंवका प्रवर्तक रामसेन नामका प्रधान मुनि हुमा । उसने बिना पिच्छीक मुनिशा स्वल्प वर्णन किया । अर्थात् उसके मनके अनुसार मुनि विना पिच्छिक मी रह सकता है। । इससे यह मी मान्म होता है कि पांत्र जैनामामाने जो एक निःपिच्छिक जैनामान बनाया है, वह और मायुसंव एक ही है। मायुरसंवना ही दूसरा नान नि:पिच्छिक है।।
मतविरोध। लियोंकी दीक्षा शुल्क लोगोंको वीरचर्या, प्रायश्चित्त आदि विषयामें कष्टावका जो मतमेन है, उससे हम मन्त्री मांति परिचित नहीं
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१३९)
हैं। इस लिये हमें काष्ठासंघको जैनाभास कहना कुछ अटपटा मालूम पड़ता है और दर्शनसार जैसे प्रामाणिक ग्रन्थका प्रमाण पाकर भी हमारे हृदयमें अभी बहुतसे सन्देह विद्यमान हैं। विद्वानोंसे प्रार्थना है कि वे इस विषयका स्पष्टीकरण करके समाजका उपकार करें।
अभीतक हमारे यहां अनेक पुराण ग्रन्थ काष्ठासंघके ही प्रचलित हो रहे हैं, और समाजका बहुत बड़ा भाग इन्हीं ग्रन्थोंकी कथाओंपर श्रद्धानकरनेवाला है। इसके सिवाय अमितगतिश्रावकाचारादि अन्यान्य ग्रन्थ भी काष्ठासंघ और माथुरसंघके प्रचलित हैं, जिन्हें लोग सब प्रकारसे प्रमाण मानते हैं। कोई नहीं कहता है कि ये सब ग्रन्थ जैनामासोंके बनाये हुए हैं । इससे यह जान पड़ता है कि काष्ठासंघ और • मूलसंघमें पहले पहल लगभग विक्रमकी दशवीं शताब्दीमें जो विरोध था, वह आगे वृद्धिंगत नहीं हुआ-धीरे २ घटता गया और इस समय तो उसका प्रायः नामशेष ही हो चुका है। इस समय तेरह
और वीसपंथमें जितना विरोध दिखलाई देता है, हमारी समझमें काष्ठासंघ और मूलसंघमें उतना भी विरोध नहीं रहा है और यदि दोनों संघके अनुयायियोंने बुद्धिमत्तासे काम लिया तो आगे सदाके लिये इस विरोधका अभाव हो जावेगा।
__ इस समय काष्ठासंघके अनुगामियोंको पृथक् छांटना भी कठिन हो गया है। अग्रवाल नरसिंहपुरा मेवाड़ा आदि थोड़ीसी जातियां इस संघकी अनुगामिनी हैं, और उनके भट्टारकोंकी गद्दी दिल्ली, मलखेड़, कारंजा, आदि स्थानोंमें है। परन्तु श्रावकोंमें अक्षतके पहले
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१४०) पुष्पपूजा तथा भट्टारकोंमें मयूरपिच्छिके स्थानमें गोपुच्छ रखनेके सिवाय और कोई भेद नहीं जान पड़ता है। दोनों संघके श्रावक एक, दूसरेके मन्दिरोंमें आते जाते हैं, और एक ही आचार विचारसे रहते हैं । क्षुल्लकोंकी वीरचर्या, स्त्रियोंकी दीक्षा, प्रायश्चित्तादि विवादविषयक बातोंका आज कल काम ही नहीं पड़ता है । इसलिये शेप वातोंमें काष्ठासंघ और मूलसंघका एकमत हो मिलकर रहना कुछ आश्चर्यका विषय नहीं है। ___ कुछ भी हो, अर्थात् माथुरसंघ जैनाभास भले ही हो परन्तु श्रीम- मितगतिमुनिके अगाध पांडित्य और उत्कृष्ट कवित्वके विषयमें कुछभी सन्देह नहीं है । इस विषयमें उनकी प्रशंसा करनेमें कोई भी कुंठित नहीं होगा और उनके पवित्र ग्रन्थोंके पठन पाठनका कोई.. भी विरोधी नहीं होगा । संसारमें उनकी कीर्ति यावच्चन्द्रदिवाकरौ स्थिर रहेगी । अलमतिविस्तरेण ।
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१४१)
" श्रीवादिराजसूरि। . जैनियोंमें ऐसे बहुत कम लोग होंगे जिन्होंने सुप्रसिद्ध एकीमावस्तोत्रके कर्ता वादिराजसूरिका नाम न सुना हो । परन्तु ऐसे लोग शायद दो चार ही कठिनाईसे मिलेंगे जिन्हें यह मालूम हो कि वादिराज कौन थे, कब हुए हैं और उनकी कौन कौनसी रचनाओसे. जैनसमाज उपकृत हुआ है । हम अपने पाठकोंको इस लेखके द्वारा आज इसी महानुभावका थोडासा परिचय देना चाहते हैं। , वादिराजसूरि नन्दिसंघके अचार्य थे। उनकी शाखा या अन्वयका नाम अरुङ्गल था । परन्तु यह नन्दिसंघ वह नन्दिसंघ नहीं हैं जिसकी गणना चार संघोंमें की जाती है, किन्तु मिल या द्राविड़ संघका एक गच्छ वा भेद है । पाठकोंको मालूम होगा कि इस द्राविडसंघके स्थापक पूज्यपादस्वामीके शिष्य वज्रनन्दी हैं । इसकी गणना पांच जैनाभासोंमें की जाती है। 'द्रविड़ देशमें होनेके कारण इसका नाम द्राविड़ संघ पड़ा है. । वे संभवतः दाक्षिणात्य थे । षटूतर्कषण्मुख, स्याद्वादविद्यापति, जगदेकमल्लवादी आदि उनकी उपाधियां थीं । वे सिंहपुर निवासी विद्यविद्येश्वर श्रीपालदेव--
१-श्रीममिलसंधेऽस्मिन्नन्दिसंघेऽस्त्यरुङ्गालः ।
अन्वयो भाति योऽशेषशास्त्रवाराशिपारगः ॥
( Vide Ins. No 39, nagar Faluly Mr. Rice) २-षट्तर्कषण्मुखरु स्याद्वादविद्यापतिगळं जगदेकमल्लवादीगळु एनिसिद श्रीवादिराजदेवरुम् । .
(Vide No. 36 Idid.)
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१४२) के प्रशिष्य, मतिसागरमुनिके शिष्य और सुप्रसिद्ध रूपसिद्धि अन्यके कर्ता दयांपालमुनिके सब्रह्मचारी या सतीर्थ थे। शक संवत् ९४८ के लगभग उनके अस्तित्वका पता लगता है जब कि उन्होंने पार्श्वनाथचरितकी रचना की थी । पार्श्वनायत्ररितकी निम्नलिखित प्रशन्तिसे इन सब बातोंका पता लगता है:श्रीजनसारस्वतपुण्यतीनित्यावगाहामलबुद्धिसत्वैः । प्रसिद्धभागी मुनिपुङ्गवेन्द्रः श्रीनन्दिसंघोऽस्ति निवाहितांहः॥१॥ तस्मिन्नभूदद्भुतसंयमश्रीवविद्यविद्याधरगीतिकीर्तिः । सूरिः स्वयं सिंहपुरैकमुख्यः श्रीपालदेवो नयवर्तीशाली ॥२॥ तस्याभवद्रव्यमहोत्पलानां तमोपहो नित्यमहोदयश्रीः। निपेघदुमागेनयप्रभावः शिप्योचमः श्रीमतिसागराख्यः ॥३॥ तत्पादपद्मभ्रमरणे भून्ना निःश्रेयसश्रीरतिलोलुपेन । श्रीवादिराजेन कथा निवद्धा जैनी स्वबुद्धेयमनिर्दयापि ॥४॥ शाकादे नगवाधिरन्ध्रगणने संवत्सरे क्रोधने
मासे कार्तिकनान्नि बुद्धिमहिते शुद्ध तृतीया दिने । सिंहे पाति जयादिके वसुमती जैनी कयेयं मया
निप्पत्ति गमिता सती भवतु वः कल्याण निप्पत्तये ।।५ ३-हिनैपित यस गामुदात्तवाचा निबद्धा हितहासिद्धिः ।
बन्यो दयापाल नुनिः न वाचा निद्धः सतां मूर्वनि का प्रभाव ।
यह मिडिव्याकरण मैनरको ओरियंटल लायन्नेरीने नौजूद है। ४-यल श्रीमनिशानरो गुलसौ कञ्चयशवन्तः
श्रीमान्यतन यादिराज गलनमवारी विभोः । एकजीव कृती नत्र हि दयापालनती यन्मनस्वास्तामन्यापरिग्रहहया ले विहे विग्रहः ॥ ४ ॥
(नविदेशमास्तिः)
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
. (१४३). · · लक्ष्मीवासे वसति कटके कगातीरभूमौ
___कामावाप्तिप्रमदसुलभे सिंहचक्रेश्वरस्य । · निष्पन्नोऽयं नवरससुधास्यन्दसिन्धुमवन्धो
जीयादुच्चैर्जिनपतिभवप्रक्रमकान्तपुण्यः ॥६॥ पिछले दो पद्योंसे यह भी मालूम होता है कि पार्श्वनाथचरितकी रचना जयसिंह. महारानके राज्य कालमें उनकी राजधानीमें हुई थी। यह सुन्दर राजधानी कट्टगा नामक नदीके किनारे थी। ___ इतिहासका पर्यवेक्षण करनेसे जाना जाता है कि, ये जयसिंह महाराज चौलुक्यवंशमें हुए हैं। पृथिवीवल्लभ, महाराजाधिराजा . परमेश्वर, चालुक्यचक्रेश्वर, परमभट्टारक और नगदेकमल्ल आदि इन
की उपाधियां थीं । इनके वंशमें जयसिंह नामके एक और राजा 'हो गये हैं, इसलिये इन्हें द्वितीय जयसिंह कहते हैं । इनके राज्य समयके ३० से अधिक शिलालेख और ताम्रपत्र मिलते हैं, परन्तु उनसे इस बातका पता नहीं लगता कि इनका राज्यभिषेक कब हुआ था। उक्त लेखोंमें सबसे पहला लेख शक संवत् ९३८ का
और सबसे पिछला शक संवत् ९६४ का है, जिससे इतना तो निर्विवाद सिद्ध होता है कि उन्होंने कमसे कम शक संवत् ९३८ से ९६४ तक राज्य किया है । इसके बाद उनका पुत्र सोमेश्वर ( आहवमल्ल ) उनके राज्यका स्वामी हुआ था।
१. यह कट्टगानदी कहां है और जयसिंहकी राजधानी कहां थी. यह मालूम . . नहीं । जयसिंहके पुत्र सोमेश्वर प्रथमने तो अपनी राजधानी कल्याणनगर ' (निजामराज्यके अन्तर्गत कल्याणी ) में स्थापित की थी।
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १४४ )
यह राजा बड़ा वीर और प्रतापी था । उसके एक लेखमें नो
कि शक संवत् ९४५ पौष कृष्ण २ का है कि राजाओं के राजा जयसिंहने जो चन्द्र और राजेन्द्रचोल ( परकेसरीवर्मा ) समान था— माल्यावार्लोके सम्मिलित सैन्यका चेर तथा चोल्वालोको सजा दी ।
आगे जो मल्टिपेणप्रशस्तिका कुछ अंश उद्धृत किया गया है, उसके तीसरे पद्यमें जो जयसिंहकी राजधानीको 'वान्वधूजन्मभूमौ ' विशेषण दिया है और दूसरे पद्यनें वादिराजको 'सिंहसमर्चपीठविभवः ' विशेषण दिया है उससे मालूम होता है कि जयसिंह महाराजकी राजधानीमें विद्याकी बहुत चर्चा थी-बड़े बड़े वादी कवि तथा नैयायिक पण्डितोंका वहां निवास था और जयसिंह महाराज वादिराजसूरिक भक्त थे उनकी सेवा करते थे । यद्यपि इस प्रकारका कोई प्रमाण नहीं मिला है कि जयसिंहनरेश जैनी ये या जैनधर्ममें श्रद्धा रखते थे; परन्तु यह बात दृढ़तापूर्वक कही जा सकती है कि जैनधर्मपर और जैनधर्मके अनुयायियोंपर उनकी कृपा होगी । यही कारण है कि वादिराजसूरिपर उनकी भक्ति थी । उसका एकीभावकी
हमारे यहां एक कथा प्रसिद्ध है और संस्कृतटीका तथा और वादिराजसूरिको एक बार
भी कई ग्रन्थोंमें उल्लेख मिलता है कि कुष्टरोग हो गया था । महाराज जय
लिखा हुआ हैं-लिखा भनेरूप कमलके लिये हायीके लिये सिंहके पराजय किया और
१. कई विद्वानोंको इस विषयने सन्देह हैं कि जयसिंहने भोजको हराया था ।
२. देखो, काव्यनाला सुप्तगुच्छक, पृष्ठ १२ को टिप्पणी ।
३. देखो, वृन्दावनविलास पृष्ट ३१ का ३४ व पद्म
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१४५) सिंहके दरवारमें जब इस बातका ज़िकर छिड़ा तब वहां बैठे हुए किसी श्रावकने-जो कि वादिराजका भक्त था-पूछनेपर गुरुनिन्दाके भयसे यह कह दिया कि नहीं मेरे गुरु वादिराज कोढ़ी नहीं हैं । इसपर बड़ी जिद्द हुई । आखिर यह ठहरा कि महाराज कल स्वयं चलकर वादिराजको देखेंगे। श्रावक महाशय उस समय कहते तो कह गये पर पीछे वडी चिन्तामें पड़े । और कोई उपाय न देख गुरुके पास जाकर उन्होंने अपनी भूल निवेदन की और कहा अब लज्जा रखना आपके हाथ है । कहते हैं कि उसी समय वादिराजसरिने एकीभावस्तोत्रकी रचना की और उसके प्रभावसे उनका कुष्ठरोग दूर हो गया । एकीभावका चौथा श्लोक यह है,
प्रागेवेह त्रिदिवभवनादेण्यता भव्यपुण्यात्पृथ्वीचक्रं कनकमयतां देव निन्ये त्वयेदम् । ध्यानद्वारं मम रुचिकर स्वान्तगेहं प्रविष्ट
स्तत्किं चित्रं जिन वपुरिदं यत्सुवर्णीकरोपि ॥४॥ अर्थात् हे भगवन् , स्वर्ग लोकसे माताके गर्भ में आनेके छह महीने पहलेहीसे जब आपने पृथ्वीको सुवर्णमयी कर दी, तब ध्यानके द्वारसे मेरे सुन्दर अन्तर्गृहमें प्रवेश कर चुकनेपर यदि
आप मेरे इस शरीरको सुवर्णमय कर दें तो क्या आश्चर्य है ? - वादिराजमारकी इस प्रार्थनासे अनुमान किया जाता है कि अव
श्य ही उनके शरीरमें कुछ विकार हो गया था और वे उसको दूर ': १ एकीभावके तीसरे पांचवें और सातवें श्लोकका भी इसीसे मिलता जुलता भाव है।
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१४६)
करना चाहते थे और वह विकार जैसा कि उक्त कथामें कहा गया है-कुष्ठरोग था। __दूसरे दिन महाराजने जाकर देखा तो वादिराजसूरिका दिव्य शरीर था-उनके शरीरमें किसी व्याधिका कोई चिन्ह नहीं दिखलाई देता था। यह देखकर उन्होंने उस पुरुषकी ओर कोपभरी दृष्टि से देखा निसने कि दरवारमें इस बातका निकर किया था । मुनिराज राजाकी दृष्टिका अभिप्राय समझकर वोले-राजन्, इस पुरुषपर कोप करनेकी आवश्यकता नहीं है । वास्तवमें उसने सच कहा था मैं सचमुच ही कोढ़ी था और उसका चिन्ह अभी तक मेरी इस कनि. ' ष्टिका ( अंगुली ) में मौजूद है । धर्मके प्रभावसे मेरां कुष्ट आज ही दूर हुआ है। इत्यादि । यह सुनकर महाराजको बड़ा आश्चर्य हुआ। मुनिराजपर उनकी बड़ी भक्ति हो गई । मल्लिपेणप्रशस्तिक .. 'सिंहसमर्थ्यपीठविभवः ' विशेषण इसी वातको पुष्ट करता है । ऐसे प्रभावशाली महात्माकी जयसिंहनरेश अवश्य ही भक्ति करते होंगे।
वादिराजसूरि कैसे दिग्गज विद्वान् थे, इस वातका अनुमान पाठक नीचे लिखे हुए पद्योंसे करेंगे । ये पद्य श्रवणवेलगुलके 'मल्लिषेणप्रशस्ति । नामक शिलालेखमें खुदे हुए हैं:
त्रैलोक्यदीपिका वाणी द्वाभ्यामेवोदगादिह । जिनराजत एकस्मादेकस्माद्वादिराजतः ॥१॥ आरुद्धाम्बरमिन्दुविम्वरचितौत्सुक्यं सदा यद्यश
छत्रं वाक्चमरीज-राजिरुचयोऽभ्यर्ण च यत्कर्णयोः । १. यह प्रशस्ति शक संवत् १०५० की लिखी हुई है।
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१४७) सेव्यः सिंहसमय॑पीठविभवः सर्वप्रवादिप्रजादेत्तौञ्चर्जयकारसारमहिमा श्रीवादिराजो विदाम् ॥२॥ यदीय गुणगोचरोऽयं वचनविलासप्रसरः कवीनाम्:श्रीमचौलुक्यचक्रेश्वरजयकटके वाग्वधूजन्मभूमौ निष्काण्डं डिण्डिमा पर्यटति पटुरटो वादिराजस्य जिष्णोः। जायद्वाददो जहिहि गमकता गर्वभूमा जहारि व्याहारेयो जहारि स्फुटमृदुमधुरश्रव्यकाव्यावलेपः ॥३॥ पाताले व्यालराजो वसति सुविदितं यस्य जिह्वासहस्रं निर्गन्ता स्वर्गतोऽसौ न भवति धिषणोवाभ्रद्यस्य शिष्यः । जीवेतां तावदेतो निलयवलवशावादिनः केवनान्ये गर्व निर्मुच्य सर्व जयिनमिनसभे वादिराजं नमन्ति ॥४॥ वाग्देवीसुचिरप्रयोगसुदृढमेमाणमप्यादरादादत्ते मम पावतोऽयमधुना श्रीवादिराजो मुनिः। भोः भोः पश्यत पश्यतैष यमिनां किं धर्म इत्युच्चकैरब्रह्मण्यपराः पुरातनमुनेवाग्वृत्तयः पान्तु वः ॥५॥
भावार्थ-त्रैलोक्यदीपिका (त्रैलोक्यको प्रकाशित करनेवाली) वाणी या तो जिनराजके मुखसे निर्गत हुई या वादिराजसूरिसे। वादिराजकी महत्त्वसामग्री राजाओंके समान थी। चन्द्रमाके समान उज्ज्वल यशका छत्र था, वाणीरूपी चवर उनके कानोंके समीपदरते थे, सब उनकी सेवा करते थे, उनका सिंहासन जयसिंहनरेशसे वा पुरुषसिंहोंसे अर्चित था और सारी प्रवादी प्रजा उच्चस्वरसे. उनका जयजयकार करती थी । उनके गुणोंकी प्रशंसा कवियों
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १४८ )
ने इस प्रकार की है— चौलुक्यचक्रवर्ती जयसिंहकी जो कि सरस्वतीरूपी स्त्रीकी जन्मभूमि थी — विजेता की इस प्रकार डुगडुगी पिटती थी कि हे वाढियो, वादका घमंड छोड़ दो, हे काव्यमर्मज्ञो, तुम अपनी गमकताका गर्व त्याग दो, हे वाचालो, वाचालता छोड़ दो और हे कवियो कोमल मधुर और स्फुट काव्य रचनाका अभिमान त्याग दो । जिसकी हज़ार जिह्वायें हैं वह नागराज पातालमें रहता है और इन्द्रका गुरु जो बृहस्पति है वह स्वर्गलोकमें चला गया है । ये दोनों वाढ़ी उक्तस्थानोंमें जीते रहें । इन्हें छोड़कर यहां कोई वादी नहीं रहा है । बतलाइये, यहां और कौन है ? जो थे वे तो सत्र वलक्षीण हो जानेसे गर्व छोड़कर राजससभामें इस विजयी वादिराजको नमस्कार करते हैं | इत्यादि ।
राजधानी मेंवादिराजसूरि
यह
एकीभावस्तोत्रके अन्तमें किसी कविका बनाया हुआ जो श्लोक है, उसे तो पाठकोंने सुना ही होगावादिराजमनु शाब्दिकलोको वादिराजमनुतार्किकसिंहः । वादिराजमनु काव्यकृतस्ते वादिराजमनु भव्यसहायः ॥ “ अर्थात् जितने वैयाकरण हैं, जितने नैयायिक हैं, जितने कविहैं और जितने भव्यसहायक हैं वे सब वादिराजसूरिसे पीछे हैं । भाव. यह कि वादिराजके समान कोई वैयाकरण नैयायिक और कवि नहीं है !
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
★
K
( १४९ )
एक प्रशंसात्मक श्लोक और भी सुनिए :'सदसि यदकलंङ्कः कीर्तने धर्मकीर्तिर्वचसि सुरपुरोधा न्यायवादेऽक्षपादः । इति समयगुरुणामेकतः संगतानी प्रतिनिधिरिव देवो राजते वादिराजः ॥
( Vide Ins. No. 39, Nagar Falug by Mr. Rice ) अर्थात् वादिराजसूरि सभा में बोलनेके लिये अकलङ्क भट्टके समान हैं, कीर्तिमें धर्मकीर्ति (न्यायविन्दु के कर्त्ता प्रसिद्ध बौद्ध नैयायिक ) के समान हैं, वचनोंमें वृहस्पति ( चार्वाक ) के समान हैं और न्यायवादमें अक्षपाद अर्थात् गौतमके समान है । इस तरह वे ( श्रीवादिराजदेव ) इन जुदा जुदा धर्मगुरुओंके एकीभूत प्रतिनीधिके समान शोभित होते हैं ।
श्रीवादिराजसूरिकी प्रशंसामें ऊपरके श्लोकों में जो कुछ कहा गया है उससे अधिक और क्या कहा जा सकता है ? वह समय सचमुच ही धन्य था जब जैनसाहित्य और जैनधर्मका मस्तक उन्नत करनेवाले ऐसे २ महात्मा जन्म लेते थे ।
वादिराज स्वामीके बनाये हुए केवल चार ग्रन्थोंका पता लगता है- १ एकीभावस्तोत्र, २ यशोधरचरित, ३ पार्श्वनाथचरित, और ४ काकुत्स्थचरित । इनमें से एकीभावस्तोत्र केवल २९ श्लोकोंकी छोटीसी स्तुति है उसका सर्वत्र बहुलतासे प्रचार है । इस स्तोत्रकी कविता बड़ी ही कोमल सरस मधुर और हृदयद्रावक है । दूसरा यशोधरचरित छोटासा चतुःसर्गात्मक काव्य है । इसमें केवल २९६
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१५०) प्रय हैं और उनमें यशोधर महारानकी क्षित कया कही गई हैं। इस कन्यले दनौरके श्रीयुत टी. एस. कुम्पूवानी कानीने मी . हाल ही इसरार प्रकाशित किया है । बडिशनरिकी रचनाले यह बड़ी सूनी है कि यह सरल होनेर नी के बुर और मनोहारिणी है । हमारी इच्छा थी कि उनके प्रन्योंके कुछ पच यह उद्धृत कारने पाठको उनकी सूची दिक्षत्र, परन्तु न्यानामावले हन ऐसा न कर सके। बज । तर अन्य पाचन यचरित है। रचन्य के हमने दर्शननान किये हैं। पर उसे पढ़ नहीं सके । हमारे मि. पं० उदयनजी कावल्के पास यह है। उन्होंने हमसे उसके कमेवी बहुत ही प्रभावी है। चैया ग्रन्य काकुल्यत्ररित है। . यशेवरचरितमें इस प्रन्या उल्लेख तो मिला हैपरन्तु तक कारनेरर में न कहीं पता नहीं लगा।
श्रीपाखनाय-काकुल्यचरितं येन कीवितम् ।। तेन श्रीशादिराजन इन्चा याशोधरी क्या पान १ इन चार न्याने सिवा लिगप्रशस्तिका जो त्रैलोक्यनीपिन वानी' कादि लोग है उसले मल्म होता है कि वादिराज रिना कोई त्रैलोक्यनीतिका नानन्य भी है।
नरग्नेि कार्यनयनरत और शुल्यवरि रकत की जा याग्जिने यह कोश्वरित बताया। अन्य नन रामक है, बल - इस ग्रन्या बहु कर उन्होंन चरित हो।
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
‘वादिराजसूरि केवल कवि ही नहीं थे। वे न्यायादि शास्त्रोंके भी असाधरण विद्वान् थे। तब अवश्य ही उनके बनाये हुए न्याय व्याकरणादि विषयक ग्रन्थ भी होंगे । परन्तु कालके कुटिलचक्रमें पड़कर आज उनका दर्शन दुर्लभ हो गया है । एक सूचीपत्रमें वादिराजके रुक्मणियशोविजय, वादमंजरी, धर्मरत्नाकर, और अकलंकाष्टकटीका इन तीन ग्रन्थोंके नाम और भी मिलते हैं, परन्तु वादिराजनामके और भी कई विद्वान् हो गये हैं, इसलिये निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि वे इन्हीं वादिराजके हैं अथवा किसी अन्यके । __ वादिरानसीरका पार्श्वनाथचरित शक संवत् ९४८ में बना है, यह पूर्वमें कहा जाचुका है; परन्तु शेष ग्रन्थ कत्र वने-प्रशस्तियोंके. अभावसे इस बातका पता नहीं लगता । यशोधरचरितके विषयमें इतना कहा जा सकता है कि वह जयसिंह महाराजके ही राज्यकालमें बना है। क्योंकि उसके तीसरे सर्गके अन्त्यश्लोकमें और चौथे सर्गके. उपान्त्य श्लोकमें कविने चतुराईसे जयसिंहका नाम योनित कर दिया है"व्यातन्वञ्जयसिंहतां रणमुखे दीर्घ दधौ धारिणीम् ।। ८५५ " रणमुखजयसिंहो राज्यलक्ष्मी वभार ।। ७३"
श्रीवादिराजसूरिका निवासस्थान कहां था, उन्होंने कब दीक्षा ली थी और कब तक इस धराधामको अपनी पुण्यमूर्तिसे सुशोभित किया था यह जाननेका कोई साधन प्राप्त नहीं होनेसे खेद है कि इस. विषयमें हम कुछ नहीं लिख सके ।
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १५२ )
-
श्रीवादिराजसूरिके समकालीन कई बड़े २ विद्वान हो गये हैं । श्रीविजयभट्टारककी - जिनका कि दूसरा नाम पण्डितपारिजात था, - स्वयं वादिराजसूरिने एक पद्यमें स्तुति की है । वह पद्य यह है . - यद्विद्यातपसोः प्रशस्तमुभयं श्रीहेमसेने मुनौ प्रागासीत्सुचिराभियोगवलतो नीतं परामुन्नतिम् । प्रायः श्रीविजये तदेतदखिलं तत्पीठिकायां स्थिते 'संक्रान्तं कथमन्यथानतिचिराद्विद्येदृगीदृक्तपः ॥
ये विजयभट्टारक हेमसेन मुनिके पढ़पर बैठे थे । इनकी प्रशंसाका एक श्लोक मल्लिपेणप्रशस्ति में भी मिलता है । इस इलोकसे यह भी मालूम होता है कि उस समयके कोई गंगवंशी नरेश उनके भक्त थे:
गङ्गावनीश्वर शिरोमणिवन्धसन्ध्यारागोल्लसच्चरणचारुनखेन्दुलक्ष्मीः । श्रीशब्दपूर्वविजयान्तविनूतनामा धीमानमानुषगुणोऽस्ततमः प्रमांशुः ॥
1
बहुत करके ये गंगवंशीनरेश चामुंडराय महाराज होंगे । क्योंकि चामुंडरायका समय शककी दशवीं शताब्दी ही है । उनका जन्म शक संवत् ९०० में हुआ था । यद्यपि वे महाराज राजमल्लके मंत्री या सेनापति थे तो भी राजा कहलाते थे । वे जैनधर्मके परम भक्त थे, यह तो प्रसिद्ध ही है।
d
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१५३) गद्यचिन्तामाणि और क्षत्रचूडामणि काव्यके कर्ता वादभिसिंहके विद्यागुरु पुष्पसेन भी वादिराजके समकालीन थे। __महाकवि मल्लिपेण ( उभयभाषाकविचक्रवर्ती ) जिन्होंने कि शक संवत् १६९ में महापुराणकी रचना को है लगभग इसीसमयके अन्यकर्ता हैं। ___ दयापाल मुनि जो कि वादिराजके मतीर्थ थे बड़े भारी विद्वान् थे.। मल्लिपेणप्रशस्तिमें उनकी प्रशंसाके कई पच हैं । स्थानाभावसे हम उन्हें उद्धृत नहीं कर सके । नेमिचन्द्रसिद्धान्त चक्रवर्ती
और कनड़ीके रन्न अभिनवपम्प नयसेन आदि प्रसिद्ध कवि भी लगभग इसी समय हुए हैं । शककी इस दशवीं शताब्दीने जैनियोंमें वीसों विद्वद्रत्न उत्पन्न किये थे।
नोट-इस लेखके लिखनेमें हमें यशोधरचरितकी भूमिकासे और सोलंकियोंके इतिहाससे वहुत सहायता मिली है। अतएव हम दोनों ग्रन्थोंके लेखकोंका हृदयसे उपकार मानते हैं।
१. श्रीयुक्त टी. एस. कुप्पूस्वामी शास्त्रीने यशोधरचरितकी भूमिका लिखा है कि वादीमसिंहका वास्तविक नाम अजितसेन मुनि था । वादीभसिंह उनका एक विशेपण या पदवी थी । यथा मलिपेणप्रशस्ती
सकलभुवनपालानम्रमूर्धाववद्धस्फुरितमुकुटचूडालीढपादारविन्दः ।
मतदखिलवादीभेन्द्रकुम्भप्रभेदी गणभृदजितसेनो भाति वादीभसिंहः । . २. पुष्पसेनमुनि वादिराजके समकालीन होनेसे वादाभसिंहका समय भी एक प्रकारसे निश्चित हो जाता है जो कि पहले अनुमानोंसे सिद्ध किया जाता था।
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१५४)
महाकवि मल्लिषेण। मल्लिोग नानके पहले वहतसे आचार्य हो गये हैं, और उन-- मसे बहुमसे ऐसे हैं जिन्होंने अनेक प्रन्योंकी रचना भी की है। हम जिन मल्लिपेणके विषयमें लिखना चाहते हैं, उनसे कुछ ही वर्षों पीछे एक माद्धग नामके दूसरे आचार्य हो गये हैं, जो पहले मल्लिरेणी ही श्रेगोके विद्वान थे। इस योडसे अन्तरके कारण अभीतक बहुत लोग दोनोंच्ने एक ही समझते थे । परन्तु अब यह भ्रम दूर हो गया है । पहिले मल्टिपेण उभयभापाकविचक्रवत्तीकै पहले सुशोमित ये और दूसरे मलयारिन् पदसे युक्त थे ।
उभयमाषाविचक्रवर्ती मल्लिोगने महापुराणको प्रशस्तिमें अपना परिचय इस प्रकार दिया है:
तीये श्रीमुलगुन्दनान्निनगरे श्रीजनघालये । स्थित्वा श्रीकविचक्रवतियतिपः श्रीमल्लिपणालयः । संक्षेपात्नयमानुयोगकयनव्याख्यान्वितं नृण्वतां भन्यानां दुरितापहं रविवानिशेषविद्याम्बुधिः॥ वर्षेत्रिंशताहीने सहन्ने शकभूभुजः ।
सर्वजित्सरे ज्येष्ठे सशुक्त पञ्चमीदिने । १. स्वादमंजरीले नि नान मी नादिर ही है, परन्तु वे वान्बर सन्प्रदायने हुए हैं ।२. इस पदका अर्थ उमसने नही साता और भी दो एक विद्वान् इस पदने मोनित रहे हैं, जैसे कि मलमारि श्रीराजशेखरसूरि।
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १५५)
अनादितत्समाप्तं तु पुराणं दुरितापहम् । जीयादाचन्द्रतारार्क विदग्धजनचेतसि ॥ श्रीजिनसेन रितनुजेन कुदृष्टिमतप्रभेदिना गारुडमंत्रवादसकलागमलक्षणतर्कवेदिना ॥ तेन महापुराणमुदितं भुवनत्रयवर्तिकीर्तिना । प्राकृतसंस्कृतोभयकवित्वधृता कविचक्रवर्तिना ॥ इन श्लोकों से मालूम होता है कि महाकवि मल्लिषेण संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओंके महाकवि थे-कवियोंके चक्रवर्ती थे, व्याकरण, न्याय, आगम, गारुड मंत्रवाद आदि सब विषयोंके ज्ञाता थे; बड़े २ मिथ्यादृष्टियाँको उन्होंने पराजित किया था और सब ओर उनकी कीर्ति फैल रही थी । शक संवत् ९६९ की ज्येष्ठ सुदी १ को उन्होंने मूलगुंद नामक तीर्थके जिनमन्दिरमें अथवा वसतिकामें महापुराणको समाप्त किया था । यह मूलगुंद नामका ग्राम अब भी है और धारवाड़ जिलेके गदग तालूकामें उसकी गणना की जाती है । पहले शायद यह स्थान वहुत प्रसिद्ध रहा होगा, परन्तु अब नहीं है । उन्होंने आपको श्रीजिनसेनस्रिका पुत्र बतलाया है । इससे जान पड़ता है कि गृहस्थजीवनमें जो इनके पिता होंगे, पीछेसे उन्होंने दीक्षा ले ली होगी और मुनिजीवनमें उनका नाम जिनसेन रक्खा गया होगा । जिनसेन नामके - भी कई आचार्य हो गये हैं, इससे यह पता लगाना कठिन है कि, - इनके पिता कौन थे । आदिपुराण के कर्त्ता भगवज्जिनसेनका समय शक संवत् ७६५ तकका निश्चय हो चुका है, और हरि
.
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १५६ )
वंशपुराणके कर्त्ता जिनसेनने हरिवंशपुराण शक संवत् ७०९ में. समाप्त किया है. सो उक्त दो जिनसेन तो महिषेणके पिता हो नहीं सकते हैं; क्योंकि इन दोनोंसे महिषेणका समय दो सौ वर्ष पीछे है, अतः इनके पीछे होनेवाले कोई तीसरे ही जिनसेन इनके पिता होंगे ।
मलिषेणकृत महापुराण बहुत छोटा हैं । केवल दो हजार लोक उसकी संक्षेपतः रचना की गई हैं । परन्तु ग्रन्थ बहुत सुन्दर हैं और उसमें अनेक विषय ऐसे आये हैं जो दूसरे ग्रन्थोंन नहीं हैं । इसकी एक प्रति कोल्हापुरके भट्टारक लक्ष्मीसेनजी के मटमें प्राचीन कानड़ी लिपिनें ताड़स्क्रॅपर दिखी हुई हैं । उसपर इस बातका उल्लेख नहीं है कि वह कर लिखी गई हैं । श्रवगवेगु ब्रह्ममूरिशास्त्रीके भंडार में भी शायद उसकी एक प्रति है ।
:
' उभयभाषाकविचक्रवर्ती ने इसमें सन्देह नहीं कि अनेक ग्रन्थोंकी रचना की होगी, परन्तु अभीतक उनके सिर्फ तीन ही ग्रन्थोंका पता लगा है, एक महापुराण जिसका ऊपर उल्लेख हो चुका है, दूसरा नागकुमारकाव्य और तीसरा सज्जनचित्तवल्लभ । ये तीनों ग्रन्थ संस्कृतमें हैं । प्राकृतमें अभीतक आपका कोई भी ग्रन्थ प्राप्त नहीं हुआ है, परन्तु होगा अवश्य । क्योंकि आपने अपनेको संस्कृतके समान प्राकृतका भी कवि कहा है। प्रवचनसारटीका, पंचास्तिकाय-टीका, ज्वालिनीकल, पद्मावतीकल्प, वज्रपंजरविधान, ब्रह्मविद्या और आदिपुराण ये ग्रन्थ भी मल्लिषेणाचार्य के नामसे प्रसिद्ध हैं; परन्तु यह -नहीं कहा जा सकता है कि उनमें से उभयभाषाकविचक्रवर्ती के रचे - हुए कौनसे हैं, और दूसरोंके कौनसे ?
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१५७)
- नागकुमारकाव्य एक. छोटासा पंचसर्गात्मक काव्य है और ५०७ श्लोकोंमें पूर्ण हो गया है । यद्यपि इस ग्रन्यमें कौने अपनी प्रशस्ति नहीं दी है और प्रारंभमें एक जगह अपने मल्लिपेण नामके सिवाय कुछ भी नहीं लिखा है, तो भी प्रत्येक सर्गके अन्तम इत्युभयभापाकविचक्रवर्तिश्रीमल्लिपेणमरिविरचितायां श्रीनागकुमारपञ्चमीकथायां इत्यादि लिखा हुआ है, जिससे जान पड़ता है कि महापुराणके कर्ता मल्लिपेणने ही इसकी रचना की है । इस काव्यके. प्रारंभमें लिखा है कि.. कविमिर्जयदेवायेगः पद्यैर्विनिर्मितम् । .. यत्तदेवास्ति चेदत्र विषमं मन्दमेधसाम् ।।
प्रसिद्धसंस्कृतैर्वाक्यविद्वजनमनोहरम् ।
तन्मया पद्यवन्धेन मल्लिपणेन रच्यते ।। . इससे मालूम होता है कि, मल्लिपेणके पहिले जयदेव आदि कई कवियोंके वनाये हुए गद्य और पद्यमय नागकुमार थे, परन्तु वे कठिन ये इसलिये मल्लिपेणने इसे सरल और प्रसिद्ध संस्कृतमें बनाना उचित समझा, । वास्तवमें यह काव्य वहुत सरल है और साधारण संस्कृत पढ़े हुए इसे सहज ही समझ सकते हैं। . - सज्जनचित्तवल्लभ केवल २५ शार्दूलविक्रीडित श्लोकोंका छोटासा काव्य है। इसमें मुनियोंको वहुत ही प्रभावशाली शब्दों में, उपदेश दिया है कि तुम अपने चरित्रको निर्मल रक्खा, ग्रामके समीप . १. वाहवलिनामके कविने इस काव्यको अनुवाद कनड़ी भाषामें शक संवत् १५०७ में किया है।
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१५८)
मत रहो, स्त्रियोंसे सम्बन्ध मत रक्खो; परिग्रह धनादिकी आकांक्षा । मत करो, भिक्षामें नो लूखा सूखा भोजन मिले, उससे संतोषपूर्वक पेट भर लो और इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके अपने यति नामको सार्थक करो । इस छोटेसे ग्रन्थके पाठ करनेसे अनुमान होता है कि श्रीमल्लिषणाचार्यको अपने समयके मुनियोंको शिथिलाचारमें प्रवृत्त देखकर बड़ी चोट लगी थी। उनके हृदयकी वह चोट सज्जनचित्तवल्लभके कई श्लोकोंसे स्पस्ट व्यक्त होती है । इसमें सन्देह नहीं कि वे बड़े दृढव्रती और विरक्त मुनि. होंगे; परन्तु उस समयके सब ही. मुनि ऐसे नहीं होंगे। उनमें अवश्य ही शिथिलाचारकी प्रवृत्ति होने लगी होगी। भट्टारकोंकी उत्पत्ति भले ही वहुत पीछे हुई हो परन्तु उनका बीज उनसे कई सौ वर्ष पहिले हमारे मुनिसमानमें पड़ चुका होगा।
दूसरे मल्लिषेण आचार्य जिनकी कि 'मलधारिन्। पदवी थी और जिनका उल्लेख इस लेखके प्रारंभमें किया गया है, शक संवत् १०५० की फाल्गुन कृष्ण तृतीयाको श्वेतसरोवरमें (श्रवणबेलगुलमें) समाधिस्थ हुए थे ऐसा मल्लिपेणप्रशस्तिसे मालूम पड़ता है जो कि 'इन्स्क्रिप्शन्स एट् श्रवणबेलगोला' नामक अंग्रेजी पुस्तकमें प्रकाशित हो चुकी है। वे अजितसेन नामक आचार्यके शिष्य थे और बड़े भारी विद्वान् योगी और जितेन्द्रिय थे।
१ यह बड़ी भारी प्रशस्ति श्रवणबेलगोलाके पार्श्वनाथवस्ती नामके मन्दिरमें .. कई शिलाओंपर उकीरी हुई अव भी मौजूद है।
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१५९) स्वामिसमन्तभद्राचार्य। सरस्वतीस्वैरविहारभूमयः समन्तभद्रप्रमुखा मुनीश्वराः । जयन्तु वाग्वज्रनिपातपातीपतीपराद्धान्तमहीधकोटयः॥
-श्रीवादीमसिंह। __ भगवान् समन्तभद्र विक्रमकी दूसरी शताब्दीके लगभग हो गये हैं । इनके समान स्याद्वाद नयके पारगामी आचार्य बहुत ही थोड़े हुए हैं। ... इनके समयके विषयमें बहुत मतभेद है । अभी तक कोई
प्रमाण ऐसा नहीं मिला है जिस निश्चय पूर्वक कहा जा सके कि वे -- कब हुए हैं । महामहोपाध्याय पं० सतीशचन्द्र विद्याभूपण एम. ए.
ने इनका समय ईस्वी सन् ६०० निश्चय किया है । परन्तु किन प्रमाणोंसे उन्होंने यह स्थिर किया है, जब तक यह मालूम न हो, तब तक हम जैनियोंकी पट्टावली आदिके अनुसार इन्हें विक्रमकी दूसरी शताब्दीका ही मानते हैं।
श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके पट्टपर प्रभाचन्द्र नामके एक आचार्य हो गये हैं। उन्होंने प्राकृत भाषामें समन्तभद्राचार्यका एक चरित्रअन्य लिखा है। वह अन्य वर्तमानमें अप्राप्य हो गया है, परन्तु
उसका सारांश मल्लिषेण भट्टारकके शिष्य श्रीनेमिदत्त ब्रह्मचारीके --बनाये हुए आराधनासार कथाकोपमें मिलता है । पहले हम उसका
चरित्रात्मक अंश ही यहांपर प्रगट करते हैं:
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
(:१६०) स्वामि समन्तभद्र मैमूर प्रान्तस्य कांचीनगरीके रहनेवाले थे। उस समय कांबीदेशमें जैनधर्मका बहुत अच्छा प्रचार था । वहां बड़े २ विद्वान् और तपस्वी ऋषिमुनि विहार किया करते थे। उस समय तक वहां बौद्धधर्मका प्रवेश नहीं हुआ था । क्योंकि ऐसा उल्लेख मिलता है कि ईसाकी तीसरी शताब्दिम बौद्धभिक्षुक उस देशमें आये थे। परन्तु अन्य प्रान्तोंमें बौद्धधर्मका सासा प्रचार हो रहा था। उस प्रान्तमें ईसाकी तीसरी सदी लेकर जबतक भगवान् अकलंकदेवने अवतार लेकर जैनधर्मकी फिरसे विजय दुंदुभी नहीं वाई, तबतक बौद्धधर्म वरावर रहा हैं । अन्तु ।
स्वामीने गृहस्थधर्म धारण करके पीछे दीक्षा ली अयवा बाल्या. वस्याम ही दीक्षा ले ली, चरित्रनें इस बातका कुछ भी उल्लेख नहीं मिलता है। तो भी उनके सन्पूर्ण विषयोंके आश्चर्यकारक पांडित्यपर विचार करनसे यह कहा जा सकता है कि उन्हें शिक्षा बाल्यकालमें ही मिली होगी । दीक्षा लेनेके पश्चात् स्वामीने कांचीदेशने विहार करके जैनधर्मका बड़ा भारी उद्योत किया । परन्तु उसी समय उन्हें 'भस्मक व्याधि' नामका रोग हो गया । जिससे कि चाहे जितना खाया पिया जाय, सब भस्म हो जाता है और सुखकी वेदना वरावर वनी रहती है । इसके कारण मुनिधर्मका पालन करना असंभव हो गया । लाचार स्वानीको उस समय अपने चारित्र मार्गले च्युत हो जाना पड़ा । भूख शांत करनेके लिये उन्होंने यतिवेप त्याग दिया और साधारण साधुका वेष धारण करके मंत्रीशसे बाहर चल दिया।
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१६१)
_उत्तरकी ओर जाते जाते मार्गमें उन्हें पौद्रपुर मिला । उक्त . नगरमें एक बड़ी भारी दानशाला थी और उसमें. वुद्ध भिक्षुकोंका इच्छानुसार भोजन मिलता था । यह देखकर स्वामीने वौद्ध साधुका वेष धारण कर लिया और कुछ दिनों वहीं निवास किया । परन्तु
भरपेट भोजन न मिलनेसे वहांसे चल दिया। . . फिर विहार करते करते वे दर्शपुर नगरमें पहुंचे । परन्तु वहांपर वैदिक धर्मकी प्रबलता थी, इसलिये बौद्धवेप छोड़कर स्वामीजी भागवतधर्मीय साधु बन गये । परन्तु वहां भी जो सदावर्तसे भोजन मिलता था, उससे उनके रोगकी शान्ति नहीं हुई, इसलिये दशपुरसे विदा लेनी पड़ी। वहांसे चलकर स्वामीजी वाराणसीमें पहुंचे । उस समय वहां शिवकोटि नामका राजा राज्य करता था । वह बड़ा भारी शिवभक्त था । उसने शिवजीका एक सुविशाल मन्दिर वनवाया था और उसकी पूजा वह शैव ब्राह्मणोंसे पटूरस पक्वान्नके विपुल नैवेद्यसे करवाता था। उस नैवेद्यका ठाटवाट देखकर स्वामीजीतत्काल ही शैवऋषि वन गये । मस्तकपर जटा बढ़ा लिये, कमंडलु रुद्राक्षकी माला आदि उपकरण ले लिये और एक लम्बा चौड़ा त्रिपुंड
१.प्रो. लॅसन और पं० व्यंकटस्वामीके मतसे विहार देशसे मिला हुआ जो बंगालका कुछ भाग है, वह पुंद्रदेश है ओर महाभारतमें भी ऐसा वर्णन है कि अंगदेशसे वंगदेशमें प्रवेश करनेके पहले भीमने पुंद्रदेशीय लोगोंको जीते । इसलिये अंग और बंगके बीचका देश अर्थात् विहार और वंगालके मध्यका देश ही पुद्र है । २. वर्तमान मन्दसौर (मालवा)।
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१६२) लगाकर शिवजीके मन्दिर में जा पहुंचे ! स्वामीजीको वारवार वेष बदलते देख यह शंका हो सकती है कि उनकी श्रद्धा कैसे ठीक रही होगी? इसका उत्तर कथाकोशमें इस प्रकार दिया गया है:--
अन्तस्फुरितसम्यक्त्वे बहियाप्तकुलिङ्गकः ।
शोभितोऽसौ महाकान्तिः कर्दमाक्तमणियथा ॥ ' अर्थात् अन्तरंगके स्फुरायमान सम्यक्त्वसे और वाह्यके कुलिंग वेषसे स्वामी समन्तभद्र ऐसे शोभित होते थे, जैसे कीचडमें लिपटा हुआ अतिशय चमकदार मणि । सारांश यह है कि प्रवल रोगकें कारण उनका चारित्र शिथिल हो गया था, परन्तु सम्यक्त्वमें या श्रद्धानमें कुछ भी अन्तर नहीं पड़ा था, वे असंयतसम्यग्दृष्टी थे। अस्तु । जिस समय शिवनीको वह विपुल नैवेद्य अर्पण होने लगा, उस समय स्वामीजीने जो कि शैव साधुका वेष धारण किये हुए वहां खड़े थे, कहा-“यदि महाराजकी आज्ञा मुझे मिल जावे, तो मैं यह नैवेद्य स्वयं भोलानाथको भक्षण करा सकता हूँ!" किसी चंचल पुरुपने यह आश्चर्ययुक्त वार्ता तत्काल ही राजासे जाकर कह दी। राजा बड़े ही . प्रसन्न हुए और स्वामीजीके दर्शन करनेके लिये स्वयं चले आये। फिर उन्होंने आज्ञा दे दी कि यह सब प्रसाद इन्हीं. नवागत ऋषि महाराजके हाथसे शिवजीको अर्पण हुआ करेगा। ऐसा ही हुआ। स्वामीजीने मंन्दिरके किवाड़ बन्द किये और नैवेद्य जिससे कि सैकड़ों ब्राह्मणोंका पेट भरता था, आप अकेले गिलंकृत। कर गये। फिर क्या था, हमेशाके लिये यह नियम हो गया । लोक
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१६३) समझते थे कि प्रसादको शिवजी भक्षण कर जाते हैं, परन्तु यह स्वामीजी ही सारा पा जाते थे। इस तरह तीन चार महिने स्वामीजीने अपने उदरदेवकी पूजा की । परन्तु पीछे भस्मकरोग धीरे २ शान्त होने लगा और प्रतिदिन थोड़ा थोड़ा प्रसाद शेष रहने लगा! यह देख शिवभक्तोंको. शंका उत्पन्न हुई। अनेक भक्तोंका शिवजीके प्रसादसे पालन होता था, उसमें अन्तराय आगया; इसलिये यह नवीन शिव. भक्त उन्हें शत्रु सरीखा सूझने लगा । परन्तु राजाकी आज्ञाके मारे वेचारोंका कुछ ज़ोर नहीं चलता था। पर जब उन्होंने देखा कि, प्रसाद थोड़ा थोड़ा वचने लगा है, तब अपना बदला चुकानेका अवसर पाकर वे वहुत प्रसन्न हुए । तत्काल ही उन्होंने यह बात राजासे जाकर कह दी। जव राजाने नवीन शिवभक्तसे पूछा कि यह क्या बात है ? तब उन्होंने उत्तर दिया कि, "सदाशिव इतने दिन प्रसाद पाकर तृप्त हो गये हैं, इसलिये अब वे थोड़ा थोड़ा मिष्टान्न छोड़ देते हैं।" परन्तु इससे राजाको सन्तोप नहीं हुआ। उससे यथार्थ वात क्या है, इसका निर्णय करनेके लिये भक्तमंडलीसे कहा । भक्त तो पहलेहीसे तयार थे, इसलिये उनमेंसे किसीने महादेवको जो विल्वपत्र ( वेलपत्री ) चढ़ाये जाते थे, उनके ढेरमें घुसकर छुपे छपे स्वामीजीकी लीला देख ली । उसने तत्काल ही राजासे जाके कह दिया कि, “ महाराज ! यह पाखंडी शिवजीको एक. कणिका
am uman गाही ला जाता है, ..यह मैंने अपने नेत्रोंसे देखा है " यह सुनकर राजा कुपित हुआ।
उसने मन्दिरमें आकर स्वामीजीसे पूछा कि "तू इतने दिन तक हम
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१६४)
लोगोंको धोखा क्यों देता रहा, और तूने हमारे सदाशिवको आजतक नमस्कार क्यों नहीं किया ? इसपर स्वामीने अपनी भस्मन्याधिकी सारी कथा कह सुनाई और नमस्कार करनेके विषयमें कहा कि ये सदाशिव रागद्वेष युक्त हैं और मैं वीतरागका उपासक हूं ! यदि मैं अपने अष्टकर्मविनिर्मुक्त वीतरागदेवका स्मरण करके नमस्कार करता तो इन्हें सहन नहीं होता ! इसलिये मैंने नमस्कार नहीं किया है। परन्तु राजाने कहा "चाहे जो हो अब तुझे नमस्कार करना ही पड़ेगा।" शिवकोटिका इस विषयमें अतिशय आग्रह देखकर स्वामीने कह दिया, "अच्छा आपका आग्रह ही है, तो मैं कल सवेरे आपके सदाशिवको नमस्कार करूंगा।" यह सुनकर राजा स्वामिसमन्तभद्रको रातभर अंधेरी कोठरीमें कैद रखनेकी आज्ञा देकर अपने महलमें चला गया ।
रातको जव स्वामीजीने शुद्धचित्तसे जिनेश्वरदेवका स्मरण किया, तब जिनशासनी अम्बिकादेवीने उपस्थित होकर स्वामीकी स्तुति की
और कहा “ सवेरे आपकी इच्छानुसार सव कार्य हो जायगा । आप स्वयंभूस्तोत्रकी रचना करके तीर्थंकरोंकी स्तुति कीजिये, इससे आपकी सब चिन्ता दूर हो जायगी" ऐसा कहकर देवी अदृश्य हो गई और स्वामी शुद्धान्तःकरणसे श्रीजिनेन्द्रदेवका ध्यान करने लगे।
सवेरा होते ही राजाने उस अंधेरी कोठरीमेंसे स्वामीको निकलवाया, जिसमें वायुका लेश भी प्रवेश नहीं हो सकता था और उन्हें सब प्रकारसे आरोग्य और प्रसन्न देखकर बड़ा अचरज माना । वाहर
१. प्रभाते च समागस्य राज्ञा कौतूहलाद्भुतम् !
समस्तलोकसंदोहसंयुतेन महाधिया ॥ कारागृहं समुद्घाट्य बहिराकारतो दुवम् । आरोग्यं तं समालोक्य सन्मुखं दृष्टचेतसः ॥
-
-
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१६५) निकलकर स्वामीने राजासे कहा कि, " सदाशिवकी मूर्तिको अच्छी तरहसे चौवीस जंजीरोंसे बांध दो, नहीं तो इसके टुकड़े २ हो जावेंगे!" जब राजा शिवलिंगको जंजीरोंसे अच्छी तरहसे कसवा चुका, तव स्वामीने फिर कहा कि राजन्, नमस्कार करनेके लिये तू व्यर्थ ही आग्रह कर रहा है। परन्तु खैर, जव तू नमस्कार किये विना मुझे छोड़ता ही नहीं है, तो सावधान हो जा; मेरा नमस्कार देख, ऐसा कहकर स्वामिसमन्तभद्र अपनी प्रभावशालिनी वाणीसे भक्तिगद्गद होकर चौवीस तीथकरोंकी स्तुति करने लगे। यह स्तुति वे उसी समय रचते जाते
थे, और पढ़ते जाते थे। जिस समय वे पहले सात तीर्थंकरोंकी स्तुति 'करके आठवें चन्द्रप्रभ तीर्थकरकी स्तुतिका
चन्द्रमभं चन्द्रमरीचिगौरं चन्द्रद्वितीयं जगदेककान्तम् ।
वन्देशभिवन्धं महतामृषीन्द्र जिनं जितस्वान्तकषायवन्धम् ।। यह श्लोक पढ़कर--
यस्याङ्गलक्ष्मीपरिवेषभिन्न आगेके श्लोकका यह चरण पढ़ने लगे; त्यों ही शिवलिंगके सब जंजीर आप ही आप टूट गये; और पिंडी फटकर उसमेंसे जिनेश्वरकी चतुर्मुख प्रतिमा प्रगट हो गई । यह देखते ही स्वामीने उसे साष्टांग नमस्कार किया और इस अव आविष्कारसे राजादिक
१. वाक्यं यावत्पठेदेवं स योगी निर्भरा महान् । तावत्तल्लिंगकं शीघ्र स्फुटितं चेततस्तराम् ॥ निर्गता श्रीजिनेन्द्रस्य प्रतिमा सच्चतुर्मुखा । संजातस्सर्वतस्तत्र जयकोलाहलो महान् ॥
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१६६)
सम्पूर्ण दर्शकोंने जयजयकार किया । इसके पश्चात् जब स्वामी चौवीस तीर्थंकरोंकी स्तुति पूर्ण कर चुके, तब रागाने पूछा कि आप कौन हैं ? आपने यह वेप क्यों धारण किया और यहां आनेका क्या कारण है? तब स्वामीने यह श्लोक कहकर अपना परिचय दिया--
काञ्च्यां नग्नाटकोऽहं
मलमलिनतनुर्लाम्बशे पाण्डुपिण्डः। पुण्ड्रेण्डे शाक्यभिक्षु
देशपुरनगरे मिष्टमोजी परिवाद।। वाराणस्यामभूवं
शशधरधवलः पाण्डुरागस्तपस्वी राजन् यस्यास्ति शक्तिः
स वदतु पुरतो जैननिन्थवादी ।। • भावार्थ- मैं काञ्ची नगरीका नग्न दिगम्बर यति; शरीरमें रोग होनेसे पुंद नगरीमें बुद्धभिक्षुक बनके रहा, फिर दशपुर नगरमें मिष्टान्नभोजी परिव्राजक बनके रहा, फिर इस वाराणसी में आकर शैव तपस्वी बनके रहा । हे राजन्, मैं जैननिर्ग्रन्थवादी-स्याद्वादी हूं।
यहा जिसकी शक्ति वाद करनेकी हो, वह मेरे सम्मुख आकर — वाद करे। ... स्वामीका आत्मचरित्र सुनकर राजाने जान लिया कि ये कोई
महान् विद्वान् आचार्य हैं । अलौकिक स्तवनके प्रभावसे जब शिवमर्ति खंडित हुई थी और चंद्रप्रभकी मूर्ति प्रगट हो गई थी, उसी, समय राजाकी स्वामीपर भक्ति हो गई थी और यह उनका वृत्तान्त
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१९७)
सुनकर तो वह उनके शरणमें ही आगया और श्रावककेवत लेकर जैनी हो गया। उसके साथ और भी अनेक लोगोंने जैनधर्म धारण कर लिया।
इसके पश्चात् स्वामीने भस्मव्याधिके कारण धारण किया हुआ कुलिंग वेप. छोड़ दिया और प्रायश्चित्तपूर्वक अपनी असली नग्नमुद्रा धारण कर ली। यह कहनेकी अवश्यकता ही नहीं है कि उपर्युक्त घटनाके समय ही उनकी भस्मन्याधि शान्त हो गई । तदनन्तर शिवकोटि राजा स्वामिसमन्तभद्रका शिष्य बन गया। उसने वहुत दिन स्वामीके पास अध्ययन करके विद्या सम्पादन की और अन्तमें वह भी सारा राजपाट छोड़कर दिगम्बर मुनि हो गया । मुनि अवस्था में उसने भगवतीआराधना नामका प्रसिद्ध ग्रन्थ प्राकृत भाषामें बनाया, जिसमें चार आराधनाओंका विस्तारपूर्वक कथन है ।
१. भगवती आराधनाकी प्रशस्तिमें यद्यपि उसके काने अपना नाम शिवार्य प्रगट किया है-शिवकोटि नहीं; तथापि इसम तन्दह नहीं कि वह शिवकोटिका ही नामान्तर है। क्योंकि जिनसेन खामीने आदिपुराणमें भगवती आराधानाके कताका नाम शिवकोटि ही लिखा है (देखो पर्व १ श्लोक १)! परन्तु शिवार्यने ग्रन्थान्तमें अथवा और कहीं समन्तभद्रस्वामीका उलेख नहीं किया है और आर्य जिनान्दि गणि, सर्वगुप्तगणि, तथा आर्य मित्रनन्दि इन तीन गुरुओंका स्मरण किया है, जिनके कि पात उन्होंने सूत्र और अर्थका अध्ययन किया था। इससे कई विद्वानोंको सन्देह है कि शिवार्य वे शिवकोटि राजा नहीं है जो पहले शव थे। यदि वे ही होते और जैसा कि क्यामें कहा है समन्त-द्रस्वामीक शिष्य हो गये होते तो उक्त आचायोंके साथ समन्तभद्रका भी अवश्य स्मरण करते। इस सन्देही निवृत्ति कमसे कम इतनी तो विक्रान्तकांग्चीयनाटककी प्रशस्तिसे हो जाती है कि समन्तभद्रके एक शिवकोटि नामके शिष्य अवश्य थे। क्योंकि उक्त ग्रन्थमें शिवकोटि और शिवायनको उनके शिष्य बतलाया है। अब केवल यह वात संशोधनीय है कि उक्त शिवकोटि राजा थे या नहीं और उस समय कोई इस नामका राजा हुआ है या नहीं।
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१६८) स्वामिसमन्तभद्राचार्यने फिर अनेक देशोंमें विहार किया, अनेक एकान्त वादियोंको परास्त करके उन्हें अनेकान्त पक्षकी महिमा दिखलाई, जहां तहां जैनधर्मकी विजयदुन्दुभी वजाई, विद्वत्तापूर्ण अनेक अन्योंकी रचना की और अन्तमें कठिन तपस्या करके एक वनमें समाधि लगाये हुए शरीर त्याग कर दिया।
मैसूर राजमें श्रवणवेलगुल नामका जैनियोंका प्रसिद्ध तीर्थस्थान है, जिसे लोग जैनबद्री भी कहते हैं। वहांपर वाहुबलि या गोमठस्वामीकी एक अद्वितीय और सुविशाल प्रतिमा है । जिस पर्वतपर यह प्रतिमा है, उसे विन्ध्यगिरि कहते हैं । विन्ध्यागिरिक एक जिनमन्दिरमें एक विशाल शिलापर " मल्लिपणप्रशस्ति " नामका वड़ा भारी लेख खुदा हुआ है, जिसकी नकल 'प्रो० राइस' नामके एक अंग्रेजने अपनी इस्क्रिप्शन ऐट् श्रवणबेलगोला नामकी पुस्तकमें प्रकाशित की है। उक्त लेखमें भगवान् समन्तभद्रके विषयमें निम्नलिखित परिचय मिलता है,
वन्यो भस्मकभस्मसात्कृतिपटुः पद्मावतीदेवतादत्तोदात्तपदः स्वमन्त्रवचनव्याहूतचन्द्रप्रभः । आचार्यः स समन्तभद्रगणभूयेनेह काले कलों
जैनं वर्त्म समन्तभद्रमभवद्भद्रं समन्तान्मुहुः॥ चूर्णिका-यस्यैवं विद्यावादारम्भसंरम्भविज़म्भिताभिव्यक्तयः सूक्तयः
पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता पश्चान्मालवसिन्धुढक्कविषये काञ्चीपुरे वैदिशे। प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभट विद्योत्कटं सङ्कटम्
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
. (१६९) चादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम् ।। अवटुतटमटति झटिति स्फुटचटुवाचाटधूर्जटेर्जिह्वा
वादिनि समन्तभद्रे स्थितवति सति का कथाऽन्येषाम् ।। भावार्थ-निसने भस्मक-व्याधिको भस्म कर दी, पद्मावती देवीने से ऊंचा पद दिया, जिसने अपने मंत्रयुक्तस्तोत्रसे चन्द्रप्रम भगनिकी मूर्ति प्रगट की और जिसके द्वारा कलिकालमें सब ओरसे ल्याणका करनेवाला जैनमार्ग वारवार सब देशोमें विजयशाली आ, वह मुनिसंघका स्वामी समन्तभद्र आचार्य वन्दनीय है। चू०-निसके वादके समय प्रगट हुए सुभाषित श्लोक इस प्रकार हैं:"पहले मैंने पाटलीपुत्र नगर (पटना) में वादकी मेरी बनाई, फिर लवा, सिन्धुदेश, ढक्क (ढाका-बंगाल) काञ्चीपुर और वैदिश मिलसके आसपासका देश ? )में मेरी वनाई । और अब बड़े बड़े द्वान् वीरोंसे भरे हुए इस करहटाक ( कराड जिला सतारा) गरको प्राप्त हुआ हूँ । इस प्रकार हे राजन्, मैं वाद करनेके हेये सिंहके समान इतस्ततः क्रीडा करता फिरता हूं।" " हे राजन्, जिसके आगे स्पष्ट व चतुराईसे चटपट उत्तर देनेवामहादेवकी भी जिह्वा शीघ्र ही अटक जाती है, उस समन्तभद्र वाके उपस्थित होते हुए तेरी सभा और विद्वानोंकी तो कथा ही
मल्लिषेण प्रशस्ति एक ऐतिहासिक लेख है, उसमें जो वार्ता लिखी ; वह बहुत कुछ विश्वासके योग्य है। आराधनासार कथाकोशमें लिखे ए चरित्रकी प्रधान २ बातोंका उक्त लेखमें उल्लेख मिलता है,
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१७०)
इसलिये आराधनासारकी कथाको भी कोई निरी कपोलकल्पित कहनेका साहस नहीं कर सकता है। ___ भगवान समन्तभद्रके विषयमें आराधनासार और मल्लिपणप्रशस्तिमें नो कुछ लिखा है, उससे अधिक परिचय अभीतक कहीं भी प्राप्त नहीं हुआ । इसलिये हमारे पाठकोंको भी इसीसे सन्तोष करना पड़ेगा। ___ यद्यपि आचार्य महाराजकी जीवनसम्बन्धी वार्ता अन्य किसी अन्यमें नहीं मिलती है तो भी उनकी प्रसिद्ध इतनी अधिक रही है कि प्राय सभी बड़े २ ग्रन्थकारोंने उनका नाम स्मरण किया है और बड़ी भारी, भक्तिसे उनकी स्तुति की है। उस स्तुतिको पढकर और उसके बना नेवाले आचार्योंकी योग्यताका विचार करके अनुमान होता है कि शा यद भगवत्समन्तभद्रका सिंहासन हमारी आचार्यपरम्परामें सबसे ऊंच है । देखिए, थोड़ेसे प्रशंसासूचक श्लोक हम यहांपर उद्धृत करते हैं:
राजाधिराज अमोघवर्षके परमगुरु और प्रख्यात महापुराणके कर श्रीजिनसेनाचार्यने अपने ग्रन्थके आदिमें लिखा है
नमः समन्तभद्राय महते कविवेधले। यद्वचोवज्रपातेन निर्मिन्ना कुमताद्रयाः॥४३॥ कवीनां गमकानां च वादीनां वाग्मिनामपि। ।
यशः सामन्तभद्रीयं मूर्ध्नि चूडामणीयते ॥४४॥ भावार्थ-जिसके वचनरूपी वज्रके आघातसे मिथ्यारूपी पर्वत चूर चूर हो गये, उस कविश्रेष्ठ समन्तभद्रको नमस्कार हो । कविता करनेवाले कवि, कविकी वृत्तिका मर्म शोधनेवाले गमक, वाद करने विजयी होने वाले वादी और मनोरंजक व्याख्यान देनेवाले वाग्मिी
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१७१) रेत इन सबके मस्तकोंको समन्तभद्रस्वामीका मत मुकुटके समान शोभित
करता है । तात्पर्य यह है कि समन्तभद्रस्वामी काव्य, न्याय, आदि में सव ही विषयोंके अगाध पंडित थे। ही सुप्रसिद्ध गद्यचिन्तामणि नामक गद्यकाव्यके निर्माता महाकवि वादी। मासिंहने लिखा है.. सरस्वतीस्वरविहारभूमयः समन्तभद्रप्रमुखामुनीश्वराः ।
जयन्तु वाग्वजनिपातपाटितप्रतीपराद्धान्तमहीध्रकोटयः॥
अर्थात् सरस्वती देवीके स्वच्छन्द विहार करनेकी भूमिरूप श्रीसमन्तभद्रादि मुनिराज जयवन्त हावें कि जिनके वचनरूपी वज्रपातसे
दीरूप करोड़ों पर्वत भस्म हो गये। ... देवागमवृत्तिके रचनेवाले श्रीवसनन्दिसिद्धान्तचक्रवर्तीने कहा है:__ लक्ष्मीमत्परमं निरुक्तनिरतं निर्वाणसौख्यप्रदम्
कुज्ञानातपवारणाय विधृतं छत्रं यथा भासुरम् ।
सज्ज्ञानैनवयुक्तिमौक्तिकफलैः संशोभमानं परम् । वन्दे तद्धतकालदोपममलं सामन्तभद्रं मतम् ।। __ भावार्थ-शोभायुक्त, उत्कृष्ट, निरुक्तनिरत, मोक्षसुख देनेवाले, || कुज्ञानरूपी आतापको निवारण करनेके लिये विद्वानोंके द्वारा मी पवारण किये हुए, नवीन युक्तिरूपी मुक्ताफलोंसे शोभित होनेवाले, किकिलिकालके पापोंको नाश करनेवाले और निर्मल, इस प्रकार बाद प्रकाशमान छत्रकी उपमाको धारण करनेवाले भगवान समन्तभद्रके जासतको मैं नमस्कार करता हूं।
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१७२)
ज्ञानार्णवके कर्ता श्रीशुभचन्द्राचार्यने अपनी लघुता प्रगट करते हुए कहा है,. समन्तभद्रादि कवीन्द्रभास्वतां
स्फुरन्ति यत्रामलमुक्तिरश्मयः। व्रजन्ति खद्योतवदेव हास्यता
न तत्र किं ज्ञानलवोद्धता जनाः ।। अर्थात्-जहां समन्तभद्रादि कवीन्द्र सूर्योकी निर्मल सूक्तिरूप किरणें प्रकाशमान हैं, वहां ज्ञानरूपी लवसे उद्धत हुए पुरुष जुगनू ( पटवीजने ) के समान क्या हास्यको प्राप्त नहीं होते हैं अवश्य होते हैं। चन्द्रप्रभचरितमहाकान्यके कर्ता महाकवि श्रीवीरनन्दिने कहा है।
गुणान्विता निर्मलवृत्तमौक्तिका
नरोत्तमैः कण्ठविभूपणीकृता। न हारयष्टि परमेव दुर्लभा
समन्तभद्रादिभवा च भारती॥ भावार्थ-गुण अर्थात् सूतसे गूंथी हुई ( पक्षमें गुणयुक्त उज्वल गोल मोतियोंवाली (निर्मल व्रतरूपी मोतियोंवाली ) औ श्रेष्ठ पुरुषों के कंठको शोभित करनेवाली हारकी लड़ी परम दुर्ल नहीं किन्तु समन्तभद्रादि आचार्योंके मुखसे उत्पन्न हुई भारती-सन स्वती ही दुर्लभ है।
जैसा कि ऊपरके श्लोकोंमें कहा है भगवत्समन्तभद्र कान्या न्यायादि सभी विद्याओंमें पारंगत होंगे। यही कारण है कि काव्य:
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१७३). उज्याकरण, न्याय, सिद्धान्त आदि सब ही विषयके विद्वानोंने उनकी
स्तुति की है। ___ स्वामी समन्तभद्रने जितने ग्रन्योंकी रचना की है, उनमें सबसे प्रसिद्धं गन्धहस्तिमहाभाष्य है । परन्तु जैनसमाजका दुर्भाग्य है कि अब उसे उक्त ग्रन्थके दर्शन दुर्लभ हो गये हैं। दानवीर शेठ
माणिकचन्दजीने कई वर्ष पहले प्रसिद्ध किया था कि किसी भंडारमें कितइस ग्रन्थका पता लगे और कोई भाई हमको दर्शन करा दे,
तो हम ५००) पारितोषिक देंगे! परन्तु अफसोस है के आजतक कहीं भी इसका पता न चला । सुनते हैं, सौ वर्ष हले जयपुरके किसी भट्टारकके भंडारमें यह अन्य मौजूद था, परन्तु शव कहां गया, कहा नहीं जा सकता । क्या आश्चर्य है, जो यह भी मारे अन्यान्य सैकड़ों ग्रन्थोंके समान दीमक और चूहोंके उदरमें समा गया हो ! भगवान उमास्वामीके बनाए हुए तत्वार्थसूत्रकी सबसे बड़ी
का यही ग्रन्थ है । इसकी श्लोकसंख्या चौरासी हजार है। यह प्रन्य कितने महत्त्वका और अभूतपूर्व होगा, इसका अनुमान पाठक इसी वातसे कर लेंगे कि इसके प्रारंभमें जो १४० श्लोकोंका मंगला
चरण है जिसे कि देवागमस्तोत्र या आप्तमीमांसा कहते हैं, उसइतर बड़े २ भारी कई टीकाग्रन्थ बन चुके हैं। # इसकी पहली टीका अष्टशती नामकी है, जो ८०० श्लोकोंमें है और जिसके कर्ता वादिगजकेसरी अकलंकमट्ट हैं । दूसरी टीका अष्टसहस्त्री है, जिसे विद्यानंदिस्वामीने अष्टशतीके ऊपर वनाई है। एक टीका श्रीवसुनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्तिकी है, जिसे देवागमत्ति कहते हैं ।
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१७४)
-
-
इनके सिवाय और भी कई छोटी बड़ी टीकाएं सुनी जाती हैं । अब विद्वान् पाठक सोचे कि, जिसका मंगलाचरण ही इतना गौरवयुक्त है, वह सारा ग्रन्थ कैसा होगा ! सच पूछो, तो इस ग्रन्थके नष्ट होनसे जैनधर्मका सर्वस्व खो गया है। __महाभाष्यक सिवाय रत्नकरंडश्रावकाचार, युक्त्यनुशासन, जिनशतकालंकार, विजयधवलटीका, तत्त्वानुशासन, ये पांच अन्थ और भी समन्तभद्रस्वामीके बनाये हुए प्रसिद्ध हैं । यद्यपि इनमेंसे रत्नकरंड और युक्तचनुशासनके सिवाय शेप अन्योंका प्रचार नहीं है और न सर्वत्र पाये जाते हैं, परन्तु कई प्राचीन भडारोंमें इनका अस्तित्व सुना जाता है। न्याय और सिद्धान्तके सिवाय जब आचार्य महारानकी योग्यता काव्यादि विषयों में भी थी, तब कहा जा सकता। कि उन्होंने कान्य व्याकरणादि विषयोंके ग्रन्थ भी बनाये होंगे। कोई व्याकरण ग्रन्थ तो उनका ज़रूर ही होगा। क्योंकि शाकटायन व्याकन रणमें उनका मत कई जगह दिया गया है । काव्योंमें केवल एका जिनशतकालंकार हाल ही छपकर प्रकाशित हुआ है। खेद है कि हम लोगोंके अभाग्यसे उनके और किसी भी काव्य व्याकरणादि ग्रन्थका पता नहीं चलता है। *
* यह लेख श्रीयुत तात्यानेमिनाथ पांगलके मराठी लेखका संशोधित और परिवर्द्धित अनुवाद है।
-
-
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
”
。
,
MA
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
_