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श्रीनन्दितटसंज्ञश्च माथुरो वागडाभिधः ।
लाडवागड इत्येते विख्याताः क्षितिमण्डले ॥ २ ॥
अर्थात् काष्ठासंघर्मे नन्दितट, मथुर, वागड, लाडवागड ये चार गच्छ हैं। माथुरगच्छको माथुरसंघ लिखनेकी भी परिपाटी है । जैसे मूलसंघको भी संघ कहते हैं और उसके नंदि देव आदि चार भेदों को भी संघ कहते हैं, उसी प्रकारसे यह भी है ।
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अमितगति काष्ठासंघी ही थे, इसका भी एक प्रमाण मिला है । श्रीभूषणसूरिकृत प्रतिवोधचिन्तामणि ग्रन्थके प्रारंभ में जो आचार्य परम्पराका वर्णन है, उसमें लिखा है:भानुभूवलये कम्रो काष्ठासघाम्वरे रविः । अमितादिगतिः शुद्धः शब्दव्याकरणार्णवः ॥ इस श्लोकके अन्तिम चरणसे ऐसा जान पड़ता है कि शायद अमितगतिने कोई व्याकरणका ग्रन्थ भी बनाया होगा अथवा उनकी व्याकरणविद्यामें बहुत ख्याति होगी ।
काष्ठासंघकी उत्पत्ति |
काष्ठासंघको हमारे यहां जैनाभास माना है, इसबातका तथा उसकी
१. दिल्ली में जो भट्टारककी गद्दी थी और पं० शिवचंद्रजी जिस गद्दीके शिष्य थे, सुनते हैं वह माथुर गच्छकी थी । २. लाडवागड गच्छकी गद्दी सुनते हैं कारंजा ( अमरावती ) में है । ३. उक्तं च इन्द्रनन्दिकृत नीतिसारे— 'गोपुच्छकः श्वेतवासा द्राविडो यापनीयकः ।
निःपिच्छिकश्चेति पञ्चैते जैनाभासाः प्रकीर्तिताः ।
अर्थात् गोपुच्छक. ( काष्ठासंघ ) श्वेताम्बर, द्राविडीय, यापनीय और निःपिच्छिक ये पांच जैनाभास कहे गये हैं।
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