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१ नन्दिसंघ, २ देवसंघ, ३ सेनसंघ और ४ सिंहसंघ । और इन संघोंमें भी. बलात्कार, पुन्नाट, 'देशीय, काणूर आदि गण तथा सरस्वती, पारिजात, पुस्तक, आदि गच्छ स्थापित हुए। ये भेद केवल मुनियोंके संघरागके कारण हुए हैं, किसी प्रकारके मतभेदसे नहीं हुए हैं। अर्थात् इन संघोंके तथा गण गच्छोंके मान्य पदाोंमें श्वेताम्बरों और दिगम्बरों जैसा अन्तर नहीं है, सब ही एक . ही मार्गके अविभक्त उपासक हैं । जैसा कि समयभूषणमें श्रीइन्द्रनन्दिसुरिने कहा है:
तदेव यतिराजोऽपि सर्वनैमित्तकाग्रणीः । अर्हदलिगुरुश्चक्रे संघसघट्टनं परम् ॥६॥ सिंहसंघो नन्दिसंघः सेनसंघो महामभः । देवसंघ इति स्पष्टं स्थानस्थितिविशेषतः ॥७॥ गणगच्छादयस्तेभ्यो जाताः स्वपरसौख्यदाः । न तत्र भेदः कोप्यस्ति पत्रज्यादिषु कर्मसु ॥८॥
१. श्रुतावतार कथामें लिखा है कि, जब अर्हद्वलिआचार्यने युगप्रतिक्रमणके समय मुनिजनोंके समूहसे पूछा कि, "सब यति आ गये?" तव उन्होंने कहा कि. "हां भगवन् । हम सब अपने २ संघसहित आ गये।" इस वाक्यसे अपने २ संघके प्रति मुनियोंकी निजत्वबुद्धि वा रागबुद्धि प्रगट होती थी। इससे आचार्य महाराजने निश्चयं कर लिया कि, अब आगे यह जैनधर्म भिन्न २ संघों वा गणोंके पक्षपातसे ठहरेगा, उदासीन भावसे नहीं । इस प्रकार विचार करके उन्होंने जो मुनि गुफामेंसे आये थे, उनकी नन्दि, जो अशोक वाटिकासे आये थे, उनकी देव, जो पंचस्तूपोंसे आये थे उनकी सेन और जो, खंडकेसर वृक्षोंके नीचेसे. आये थे, उनकी सिंह संज्ञा रक्खी।