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मिलता है, केवल इसी एक कारणसे ये काष्ठासंघी नहीं हो सकते हैं। __हरिवंशपुराणके सिवाय अलंकारचिन्तामणि नामका एक अलंकार विषयक ग्रन्थ भी भगवजिनसेनके नामसे प्रसिद्ध हो गया है। परंतु सिवाय इसके कि उसके छपानेवालोंने उसके टाइटिलपेजपर " भगवजिनसेनाचार्यकृत ' लिख दिया है, और कोई प्रमाण उसके 'जिनसेनाचार्यकृत होनेमें नहीं है। लगभग २० वर्ष पहले इस ग्रन्थका काव्याम्बुधि नामक संस्कृत मासिकपत्रमें प्रकाशित होना शुरू हुआ था, जो कि सुप्रसिद्ध जैनविद्वान् पद्मराजपण्डितके द्वारा वेंगलोरसे निकलता था । उसमें उन्होंने इसे अजितसेनाचार्यकृत लिखा था। इससे निश्चय होता है कि वह उक्त आचार्यकृत ही होगा । और यदि अनितसेनाचार्यकृत नहीं है, तो भी इसमें तो किसी प्रकारका सन्देह नहीं है कि, वह भगवजिनसेनकृत नहीं है। क्योंकि उसमें:संस्कृतं प्राकृतं तस्यापभ्रंशो भूतभाषितम् । . ... इति भाषा चतस्रोपि यान्ति काव्यस्य कायताम् ॥ (पृष्ठ २८).
आदि तीन श्लोक उद्धृत किये हैं, जो कि वाग्भटालंकारके हैं और वाग्भटालंकारके की वि० सं० ११७९ में: अणहिल्लपुरपाटणमें जिनसेनस्वामीसे तीन सौ वर्ष पीछे हुए हैं। इसके सिवाय
श्रीमत्समन्तभद्राचार्यजिनसेनादिभाषितम् । · लक्ष्यमात्रं लिखामि स्वनामसूचितलक्षणम् ॥ (पृष्ठ ३०)
इस श्लोकमें स्वयं कवि ही कह रहा है कि, जिनसेनाचार्य मुझसे भिन्न हैं । आवश्यकता होनेपर इस. विषयमें और भी अनेक प्रमाण, ििदये जा सकते हैं।