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________________ (७२) आगेके भागमें गन्नेके ऊपरके भाग समान जैसे तैसे रसकी प्राप्ति होगी, ऐसा समझकर मैं उसे प्रारंभ करता हूं । अभिप्राय यह कि वह पूर्वार्धके समान सरस नहीं हो सकेगा । कैसी सुन्दर उपमा है। अथवाऽयं भवेदस्य विरसं नेति निश्चयः। धोग्रं ननु केनापि नादर्शि विरसं क्वचित् ॥ १६ ॥ अथवा ऐसा भी निश्चय होता है कि, इसका अग्रभाग विरस नहीं होगा। क्योंकि धर्मके अन्तको किसीने कभी विरस होते नहीं देखा है-सरस ही होता है और यह धर्मस्वरूप है। गुरूणामेव माहात्म्यं यदपि स्वादु मद्वचः। तरूणां हि स्वभावोऽसौ यत्फलं स्वादु जायते ॥ १७ ॥ यदि मेरे वचन सरस वा सुस्वादु हों, तो इसमें मेरे गुरुमहाराजका ही माहात्म्य समझना चाहिये । क्योंकि यह वृक्षोंका ही स्वभाव है-उन्हींकी खूबी है, जो उनके फल मीठे होते हैं। निर्यान्ति हृदयावाचो हदि मे गुरवः स्थिताः। ते तत्र संस्करिष्यन्ते तन मेऽत्र परिश्रमः ॥१८॥ हृदयसे वाणीकी उत्पत्ति होती है और हृदयमें मेरे गुरुमहाराज विराजमान हैं, सो वे वहांपर बैठे हुए संस्कार करेंगे ही ( रचना करेंगे ही) इसलिये मुझे इस शेष भागके रचनेमें परिश्रम नहीं करना पड़ेगा। . मतिमें केवलं सूते कृतिं राजीव तत्सुताम् । ' "धियस्ता वर्तयिष्यन्ति धात्रीकल्पाः कवीशिनाम् ॥ ३३ ॥
SR No.010770
Book TitleVidwat Ratnamala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Mitra Karyalay
Publication Year1912
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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