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ज्ञानार्णवके कर्ता श्रीशुभचन्द्राचार्यने अपनी लघुता प्रगट करते हुए कहा है,. समन्तभद्रादि कवीन्द्रभास्वतां
स्फुरन्ति यत्रामलमुक्तिरश्मयः। व्रजन्ति खद्योतवदेव हास्यता
न तत्र किं ज्ञानलवोद्धता जनाः ।। अर्थात्-जहां समन्तभद्रादि कवीन्द्र सूर्योकी निर्मल सूक्तिरूप किरणें प्रकाशमान हैं, वहां ज्ञानरूपी लवसे उद्धत हुए पुरुष जुगनू ( पटवीजने ) के समान क्या हास्यको प्राप्त नहीं होते हैं अवश्य होते हैं। चन्द्रप्रभचरितमहाकान्यके कर्ता महाकवि श्रीवीरनन्दिने कहा है।
गुणान्विता निर्मलवृत्तमौक्तिका
नरोत्तमैः कण्ठविभूपणीकृता। न हारयष्टि परमेव दुर्लभा
समन्तभद्रादिभवा च भारती॥ भावार्थ-गुण अर्थात् सूतसे गूंथी हुई ( पक्षमें गुणयुक्त उज्वल गोल मोतियोंवाली (निर्मल व्रतरूपी मोतियोंवाली ) औ श्रेष्ठ पुरुषों के कंठको शोभित करनेवाली हारकी लड़ी परम दुर्ल नहीं किन्तु समन्तभद्रादि आचार्योंके मुखसे उत्पन्न हुई भारती-सन स्वती ही दुर्लभ है।
जैसा कि ऊपरके श्लोकोंमें कहा है भगवत्समन्तभद्र कान्या न्यायादि सभी विद्याओंमें पारंगत होंगे। यही कारण है कि काव्य: