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(१७१) रेत इन सबके मस्तकोंको समन्तभद्रस्वामीका मत मुकुटके समान शोभित
करता है । तात्पर्य यह है कि समन्तभद्रस्वामी काव्य, न्याय, आदि में सव ही विषयोंके अगाध पंडित थे। ही सुप्रसिद्ध गद्यचिन्तामणि नामक गद्यकाव्यके निर्माता महाकवि वादी। मासिंहने लिखा है.. सरस्वतीस्वरविहारभूमयः समन्तभद्रप्रमुखामुनीश्वराः ।
जयन्तु वाग्वजनिपातपाटितप्रतीपराद्धान्तमहीध्रकोटयः॥
अर्थात् सरस्वती देवीके स्वच्छन्द विहार करनेकी भूमिरूप श्रीसमन्तभद्रादि मुनिराज जयवन्त हावें कि जिनके वचनरूपी वज्रपातसे
दीरूप करोड़ों पर्वत भस्म हो गये। ... देवागमवृत्तिके रचनेवाले श्रीवसनन्दिसिद्धान्तचक्रवर्तीने कहा है:__ लक्ष्मीमत्परमं निरुक्तनिरतं निर्वाणसौख्यप्रदम्
कुज्ञानातपवारणाय विधृतं छत्रं यथा भासुरम् ।
सज्ज्ञानैनवयुक्तिमौक्तिकफलैः संशोभमानं परम् । वन्दे तद्धतकालदोपममलं सामन्तभद्रं मतम् ।। __ भावार्थ-शोभायुक्त, उत्कृष्ट, निरुक्तनिरत, मोक्षसुख देनेवाले, || कुज्ञानरूपी आतापको निवारण करनेके लिये विद्वानोंके द्वारा मी पवारण किये हुए, नवीन युक्तिरूपी मुक्ताफलोंसे शोभित होनेवाले, किकिलिकालके पापोंको नाश करनेवाले और निर्मल, इस प्रकार बाद प्रकाशमान छत्रकी उपमाको धारण करनेवाले भगवान समन्तभद्रके जासतको मैं नमस्कार करता हूं।