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सुनकर तो वह उनके शरणमें ही आगया और श्रावककेवत लेकर जैनी हो गया। उसके साथ और भी अनेक लोगोंने जैनधर्म धारण कर लिया।
इसके पश्चात् स्वामीने भस्मव्याधिके कारण धारण किया हुआ कुलिंग वेप. छोड़ दिया और प्रायश्चित्तपूर्वक अपनी असली नग्नमुद्रा धारण कर ली। यह कहनेकी अवश्यकता ही नहीं है कि उपर्युक्त घटनाके समय ही उनकी भस्मन्याधि शान्त हो गई । तदनन्तर शिवकोटि राजा स्वामिसमन्तभद्रका शिष्य बन गया। उसने वहुत दिन स्वामीके पास अध्ययन करके विद्या सम्पादन की और अन्तमें वह भी सारा राजपाट छोड़कर दिगम्बर मुनि हो गया । मुनि अवस्था में उसने भगवतीआराधना नामका प्रसिद्ध ग्रन्थ प्राकृत भाषामें बनाया, जिसमें चार आराधनाओंका विस्तारपूर्वक कथन है ।
१. भगवती आराधनाकी प्रशस्तिमें यद्यपि उसके काने अपना नाम शिवार्य प्रगट किया है-शिवकोटि नहीं; तथापि इसम तन्दह नहीं कि वह शिवकोटिका ही नामान्तर है। क्योंकि जिनसेन खामीने आदिपुराणमें भगवती आराधानाके कताका नाम शिवकोटि ही लिखा है (देखो पर्व १ श्लोक १)! परन्तु शिवार्यने ग्रन्थान्तमें अथवा और कहीं समन्तभद्रस्वामीका उलेख नहीं किया है और आर्य जिनान्दि गणि, सर्वगुप्तगणि, तथा आर्य मित्रनन्दि इन तीन गुरुओंका स्मरण किया है, जिनके कि पात उन्होंने सूत्र और अर्थका अध्ययन किया था। इससे कई विद्वानोंको सन्देह है कि शिवार्य वे शिवकोटि राजा नहीं है जो पहले शव थे। यदि वे ही होते और जैसा कि क्यामें कहा है समन्त-द्रस्वामीक शिष्य हो गये होते तो उक्त आचायोंके साथ समन्तभद्रका भी अवश्य स्मरण करते। इस सन्देही निवृत्ति कमसे कम इतनी तो विक्रान्तकांग्चीयनाटककी प्रशस्तिसे हो जाती है कि समन्तभद्रके एक शिवकोटि नामके शिष्य अवश्य थे। क्योंकि उक्त ग्रन्थमें शिवकोटि और शिवायनको उनके शिष्य बतलाया है। अब केवल यह वात संशोधनीय है कि उक्त शिवकोटि राजा थे या नहीं और उस समय कोई इस नामका राजा हुआ है या नहीं।