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( ५४ ) इति विरचितमेतत्काव्यमावेष्टय मेधं
बहुगुणमपदोपं कालिदासस्य काव्यम् । मलिनितपरकाव्यं तिष्ठतादाशशाङ्क
भुवनमवतु देवः सर्वदामोघवर्पः ॥ और एक प्रकारसे यह निश्चय है कि, जयधवलाटीकासे जो कि शक ७५९ में पूर्ण हुई है और लगभग ७९० के वनना शुरू हुई होगी पार्श्वभ्युदय पहिले बना है। तब शक संवत् ७३६ से (जो कि अमोघवर्षके राज्यरोहणका निश्चित समय है ) शक ७५० तकके किसी मध्यकालमें पार्खाभ्युदय निर्माण हुआ होगा। ___ पार्वाभ्युदयकी रचनाके सम्बन्धमें योगिराट् पंडिताचार्यने जो कि उक्त काव्यके टीकाकार हैं, एक कौतुकजनक कथाका उल्लेख किया है । उसका सारांश यह हैं, कि:__"कोई कालिदास नामके कवि अपने मेघदूत नामके काव्यको अनेक राजाओंको सुनाते हुए वंकापुरनरेश अमोघवर्पकी सभा आये और उन्होंने वहां घमंडके साथ दूसरे विद्वानोंकी अवहेलना करते हुए अपना काव्य पढ़कर सुनाया । कालिदासकी यह उद्धतता विनयसेन नामके मुनिको सहन नहीं हुई । इसलिये उन्होंने उसका अहंकार नष्ट करनेके लिये तथा सन्मार्गकी प्रभावना करनेके लिये जिनसेन मुनिसे आग्रह किया । महाकवि जिनसेन 'एकसंघि' थे. अर्थात् उन्हें कोई भी श्लोक वा ग्रंथ एक बार सुननेसे कण्ठस्थ हो जाता था । इसलिये उन्होंने मेघदूतके १२० श्लोक तत्काल ही हृदयस्थ कर लिये और फिर हंसकर कहाः