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मृत और तीसरा अनगारधर्मामृत । इन तीनों ही ग्रन्थोंमें वे अपनी विस्तृत प्रशस्ति लिखके रख गये हैं । वि० संवत् १३०० तक उन्होंने जितने ग्रन्थोंकी रचना की है, उन सबके नाम उक्त तीनों प्रशस्तियोंमें लिखे हुए हैं। हम उन्हें यहां क्रम से प्रकाशित करते हैं:
स्याद्वादविद्याविशदप्रसादः प्रमेयरत्नाकरनामधेयः ॥ तर्कप्रवन्ध निरवद्यपद्यपीयूषपूरो वहतिस्म यस्मात् ।। १.० ॥ सिद्ध्यङ्कं भरतेश्वराभ्युदयसत्काव्यं निवन्धोज्ज्वलम् यविद्यकवीन्द्रमोदनसहं स्वश्रेयसेऽरीरचत् । योऽर्हृद्वाक्यरसं निवन्धरुचिरं शास्त्रं च धर्मामृतम् निर्माय व्यदधान्मुमुक्षुविदुपामानन्दसान्द्रं हृदि ॥ ११ ॥ आयुर्वेदविदामिष्टां व्यक्तुं वाग्भटसंहिताम् । . अष्टाङ्गहृदयोद्योतं निवन्धमसृजच्च यः ॥ १२ ॥ यो मूलाराधनेष्टोपदेशादिषु निबन्धनम् । विधत्तामरकोशे च क्रियाकलापमुज्जगौं' ॥ १३ ॥ ( जिनयज्ञकल्प. ) भावार्थ – स्याद्वादविद्याका निर्मल प्रसादस्वरूप प्रमेयरत्नाकर नामका न्यायग्रन्थ जो सुन्दर पद्यरूपी अमृतसे भरा हुआ है, आशाधरके हृदयसरोवरसे प्रवाहित हुआ । भरतेश्वराभ्युदय नामका
१–ये १३ श्लोक तीनों प्रशस्तियोंमें एकसे हैं । अनगारधर्मामृतकी टीकामें . बारहवाँ श्लोक १९ वें नम्बरपर है और तेरहवां चौदहवें नम्बर पर है । उनके स्थानपर जो दूसरे श्लोक हैं, वे आगे लिखे गये हैं । २-३. ये दोनों प्रन्थ सोनागिरके भट्टारकके भण्डार में हैं ।
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