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सर्वथा नीरोग होगये । उस समय उन्होंने क्षुधातुर होकर अन्नपान ग्रहण करनेकी आज्ञा मांगी, परन्तु दूसरे आचार्योंने उन्हें ऐसा करनेकी आज्ञा नहीं दी-समाधिमरण करनेकी ही विधि बतलाई । लोहाचार्य क्षुधावेदनाको सहन नहीं कर सके, इसलिये वे आचार्योंकी आज्ञा पालन करनेमें समर्थ न हुए । उन्होंने अन्नपान ग्रहण कर लिया। इस अपराधमें वे संघसे बाहर कर दिये गये और उनके पट्टपर अन्य किसी आचार्यकी स्थापना हो गई। लोहाचार्यनी संघसे निकलकर अगरोहा नगर आये जहांपर अगरवालोंकी बहुत बड़ी वस्ती थी। यद्यपि वे सब अन्यमतावलम्वी थे, परन्तु उन दिनों लोहाचार्यका बहुत बड़ा प्रभाव था इसलिये उनका आगमन सुनकर अगरवालोंने भोजनके लिये प्रार्थना की । परन्तु लोहाचार्यने कहा कि हम मिथ्यादृष्टियोंके घर आहार नहीं कर सकते हैं। यदि तुम लोग जैनधर्म ग्रहण करना स्वीकार करो, तो हम भोजन कर सकते हैं। उनकी विद्वत्ता और तपस्याका अगरवालोंपर इतना प्रभाव पड़ा 'कि वे लोग जैनधर्मको ग्रहण करना अस्वीकार न कर सके । कोई ७०० अग्रवालोंने जैनधर्म स्वीकार कर लिया, और लोहाचार्यजीको खब उत्सवके साथ नगरमें ले जा कर भोजन कराया । पीछे वहां नैनमन्दिर वनवाया गया और तत्काल पाषाणकी प्रतिमा न मिल सकनेके कारण उसमें काष्ठकी प्रतिमा स्थापित कराई गई। यह वात जव मूलसंघके आचार्योंने सुनी, तब उन्होंने 'मिथ्यातियोंको जैन बनानेके उपलक्षमें तो लोहाचार्यकी बहुतं प्रशंसा की परन्तु काष्ठकी