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" श्रीवादिराजसूरि। . जैनियोंमें ऐसे बहुत कम लोग होंगे जिन्होंने सुप्रसिद्ध एकीमावस्तोत्रके कर्ता वादिराजसूरिका नाम न सुना हो । परन्तु ऐसे लोग शायद दो चार ही कठिनाईसे मिलेंगे जिन्हें यह मालूम हो कि वादिराज कौन थे, कब हुए हैं और उनकी कौन कौनसी रचनाओसे. जैनसमाज उपकृत हुआ है । हम अपने पाठकोंको इस लेखके द्वारा आज इसी महानुभावका थोडासा परिचय देना चाहते हैं। , वादिराजसूरि नन्दिसंघके अचार्य थे। उनकी शाखा या अन्वयका नाम अरुङ्गल था । परन्तु यह नन्दिसंघ वह नन्दिसंघ नहीं हैं जिसकी गणना चार संघोंमें की जाती है, किन्तु मिल या द्राविड़ संघका एक गच्छ वा भेद है । पाठकोंको मालूम होगा कि इस द्राविडसंघके स्थापक पूज्यपादस्वामीके शिष्य वज्रनन्दी हैं । इसकी गणना पांच जैनाभासोंमें की जाती है। 'द्रविड़ देशमें होनेके कारण इसका नाम द्राविड़ संघ पड़ा है. । वे संभवतः दाक्षिणात्य थे । षटूतर्कषण्मुख, स्याद्वादविद्यापति, जगदेकमल्लवादी आदि उनकी उपाधियां थीं । वे सिंहपुर निवासी विद्यविद्येश्वर श्रीपालदेव--
१-श्रीममिलसंधेऽस्मिन्नन्दिसंघेऽस्त्यरुङ्गालः ।
अन्वयो भाति योऽशेषशास्त्रवाराशिपारगः ॥
( Vide Ins. No 39, nagar Faluly Mr. Rice) २-षट्तर्कषण्मुखरु स्याद्वादविद्यापतिगळं जगदेकमल्लवादीगळु एनिसिद श्रीवादिराजदेवरुम् । .
(Vide No. 36 Idid.)