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(१६३) समझते थे कि प्रसादको शिवजी भक्षण कर जाते हैं, परन्तु यह स्वामीजी ही सारा पा जाते थे। इस तरह तीन चार महिने स्वामीजीने अपने उदरदेवकी पूजा की । परन्तु पीछे भस्मकरोग धीरे २ शान्त होने लगा और प्रतिदिन थोड़ा थोड़ा प्रसाद शेष रहने लगा! यह देख शिवभक्तोंको. शंका उत्पन्न हुई। अनेक भक्तोंका शिवजीके प्रसादसे पालन होता था, उसमें अन्तराय आगया; इसलिये यह नवीन शिव. भक्त उन्हें शत्रु सरीखा सूझने लगा । परन्तु राजाकी आज्ञाके मारे वेचारोंका कुछ ज़ोर नहीं चलता था। पर जब उन्होंने देखा कि, प्रसाद थोड़ा थोड़ा वचने लगा है, तब अपना बदला चुकानेका अवसर पाकर वे वहुत प्रसन्न हुए । तत्काल ही उन्होंने यह बात राजासे जाकर कह दी। जव राजाने नवीन शिवभक्तसे पूछा कि यह क्या बात है ? तब उन्होंने उत्तर दिया कि, "सदाशिव इतने दिन प्रसाद पाकर तृप्त हो गये हैं, इसलिये अब वे थोड़ा थोड़ा मिष्टान्न छोड़ देते हैं।" परन्तु इससे राजाको सन्तोप नहीं हुआ। उससे यथार्थ वात क्या है, इसका निर्णय करनेके लिये भक्तमंडलीसे कहा । भक्त तो पहलेहीसे तयार थे, इसलिये उनमेंसे किसीने महादेवको जो विल्वपत्र ( वेलपत्री ) चढ़ाये जाते थे, उनके ढेरमें घुसकर छुपे छपे स्वामीजीकी लीला देख ली । उसने तत्काल ही राजासे जाके कह दिया कि, “ महाराज ! यह पाखंडी शिवजीको एक. कणिका
am uman गाही ला जाता है, ..यह मैंने अपने नेत्रोंसे देखा है " यह सुनकर राजा कुपित हुआ।
उसने मन्दिरमें आकर स्वामीजीसे पूछा कि "तू इतने दिन तक हम